प्रशासनिक हिंदी : व्यावहारिक संदर्भ
(Administrative Hindi: Practical Implications)
प्रोफ़ेसर डॉ. राम लखन मीना, राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय, अजमेर
‘दुनिया से
कह दो आज से गांधी अंग्रेजी नहीं जानता’ बी बी सी पत्रकार को गाँधी जी के संदेश की
युक्ति में भारतीय जनमानस के आह्वान की आवाज़ है।
समय ने भी करवट बदली है और हिंदी प्रेमियों के लिए
गर्व का समय है कि विदेश मंत्रालय सहित सभी केंद्रीय मंत्रालयों में वर्तमान में
जितना हिंदी का प्रचलन हो रहा है, शायद आज तक कभी नहीं हुआ। हमारे प्रधानमंत्री हिंदी बोलते हैं, देश-दुनिया से ‘मन की बात’ हिंदी में
करते हैं, विदेश मंत्री हिंदी बोलती हैं। भाषायी – निष्ठा की यह प्रक्रिया जारी रखनी होगी क्योंकि अब
दुनिया में यह सन्देश जाना चाहिए कि ‘भारत अपनी भाषा में बातचीत करेगा ।’ हमारे
प्रधानमंत्री और विदेशमंत्री विदेशी अतिथियों के साथ हिंदी में बात कर रहे हैं और सबसे बड़ी बात हिंदी सात समंदर पार की यात्रा करके भारत लौट आयी है और
विश्व हिंदी सम्मेलन भी भारत में ही हो रहा है। यह सम्मेलन अपने आप में अनूठा होगा
और होना भी चाहिए क्योंकि भारतियों को विदेशों से आयातित चीजों से अजीब-सा प्रेम
एवं लगाव हो जाता है । गाँधी जी को भी हमने तभी अपनाया जब वे विदेश से भारत लौटे, अब बारी हिंदी की है । घटना और साम्य एक
जैसा है, जोहान्सबर्ग से गाँधी जी भी आये थे और
वही से हिंदी भी आ रही है । मुझे लगता है यही कारण है कि पिछली बार जोहानेसबर्ग
में जब विश्व हिंदी सम्मेलन हुआ था तो यह तय कर लिया गया था कि अगला सम्मेलन भारत
में हो रहा है ।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी ने विदेश नीति के क्षेत्र में लगता है सबसे पहले भाषायी
ग़ुलामी से मुक्त होने की पहल की है। विश्व स्तरीय शीर्ष वार्ताओं में राष्ट्रभाषा
का प्रयोग करके राष्ट्रीय अस्मिता और संप्रभुता की मिशाल प्रदर्शित की है, ऊपर से
देखने में यह पहल मामूली लग सकती है किंतु, इसके संकेत गहरे हैं। यदि यही शिलशिला जारी रहा तो जल्द ही हिंदी संयुक्त राष्ट्र में दनदनाने लगेगी
जिसके अनेक ठोस परिणाम सामने आएँगे। पहला, भारतीय नौकरशाही-नेताशाही को मानसिक गुलामी से मुक्ति मिलेगी और भारत के
राजकाज में हिंदी को उचित स्थान मिलेगा। दूसरा, भारतीय भाषाओं की जन्मजात एकता में वृद्धि होगी। तीसरा, ‘दक्षेस’ राष्ट्रों में जनता से जनता का जुड़ाव बढ़ेगा। तीसरा, वैश्वीकरण की
प्रक्रिया में अँग्रेज़ी का सशक्त विकल्प तैयार होगा। चौथा, स्वभाषाओं के ज़रिए होने वाले शिक्षण-प्रशिक्षण
और अनुसंधान की गति तीव्र होगी जिसके कारण भारत ‘दिन-दूनी रात चौगुनी’ उन्नति
करेगा । सचमुच भारत विश्व-शक्ति और विश्व-गुरू बनेगा।
‘प्रशासन में
हिंदी के व्यावहारिक संदर्भों’ की बात करते हैं तो पाते हैं कि 217 वर्षों की प्रशासनिक
हिंदी अपने मानस-पुत्रों की अकर्मण्यता से कराह रही है और प्रशासन में हिंदी
सेवियों की मनोदशा ‘बत्तीस दाँतों के बीच एक जिह्वया’ जैसी है ।
जीभ दाँतों / मुँह की साफ-सफाई का हर संभव प्रयास करती रहती है किंतु जैसे ही दाँतों
का दाव लगता है वे जीभ को चोट पहुँचाने से कभी नहीं चूकते हैं । ठीक वैसे ही हिंदी
के दुश्मन कथा-कथित हिंदी-वाले ही हैं जो हिंदी के नाम पर औने-पौने का खेल खेल रहे
हैं, आखिरकार यह सिलसिला कब रूकेगा और कब हिंदी उन कुचक्रकारों से स्वतंत्र होगी
यह यक्ष प्रश्न है । प्रशासन में हिंदी के अनुप्रयोगों के संबंध में कह सकते हैं
कि भारतीय संविधान में राजभाषा के रूप में हिंदी को जो स्वीकृति मिली उसकी
पृष्ठभूमि में हिंदी की युग-युगों से आती हुई परंपरा और उसके वैज्ञानिक स्वरूप की महत्वपूर्ण
भूमिका रही है । सबसे पहले मराठों के प्रशासन में हिंदी का प्रयोग राजभाषा के रूप
में व्यापक रूप से स्वीकृत था । हैदरअली और टीपू सुल्तान इसको सुदूर केरल तक ले
गये । यही नहीं टीपू की कोच्चीन के राजा के साथ जो संधि हुई उसके अनुसार
हिंदुस्तानी-हिंदी सिखाने की व्यवस्था के सुदृढ़ प्रबंध करने की बात कारगर तौर पर
लागू की गयी थी । डॉ. केलकर के शोध प्रबंध के अनुसार ताड कलेक्शन में छियासी
प्रकार के सरकारी पत्रों का उल्लेख है । अंग्रेजों के शासन काल में ( 1798.12.21
) द्वारा
संपूर्ण भारत में हिंदी का ज्ञान अनिवार्य कर दिया गया था । हिंदी के विकास में गिलक्रिस्ट
तथा फोर्ट विलियम कालेजों की भी महती
भूमिका रही है ।
इतना ही नहीं, फ्रेडरिक
पिन्काट ने 1868 में हिंदी
की लड़ाई प्रारंम्भ कर दी थी और ग्रिफिथ ने 1878 में यह
घोषणा कर दी थी कि ‘इस देश की भाषा हिंदी है ।’ 26 जनवरी 1882 को सिविल
सर्विस के अधिकारियों के लिए हिंदी को अनिवार्य कर दिया गया था । 1928 में पं.
मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में तैयार ‘नेहरू रिपोर्ट’ द्वारा ‘हिंदी’ को सर्वमान्य
भाषा घोषित कर दिया गया था । पं. जवाहरलाल नेहरू ने 1937 में स्पष्ट
कर दिया था कि हर प्रांत की सरकारी काम काज के लिए उस प्रांत की भाषा होनी चाहिये
और हिंदी,
सभी
प्रांतों की सरकारी भाषा होगी । 217 साल बीत गये तब से अब तक हम सब हिंदी
का दर्द बांटने का स्वांग भरने के लिए यदा-कदा एकत्रित होते हैं ! आखिर कब तक
हिंदी का मातम मनायेंगे आप और हम । राजनीति की भाषा और भाषा की राजनीति ने मानो मिलकर
हिंदी की नियति का अपहरण कर लिया है ।
जवाहरलाल
नेहरू ने करीब पाँच दशक पहले कहा था कि ‘मैं अंग्रेजी का इसलिए विरोधी हूँ क्योंकि
अंग्रेजी जानने वाला व्यक्ति अपने को दूसरों से बड़ा मानने लगता हैं और उसकी दूसरी
क्लास-सी बन जाती है यह दुर्भाग्यपूर्ण है । भारत को कमाल पाशा जैसी भाषा -नीति और
दृढ़ इच्छा-शक्ति की सख्त जरूरत है । किंतु हिंदी भाषा को किसी विशिष्ट
जातीय-संस्कृति,
समूह
या विचारधारा से जोड़ने से बचना होगा तभी यह आपसी बोधगम्यता से व्यापक जन संप्रेषण
की सर्व स्वीकार्य भाषा बन कर भारतीय मानस के उज्ज्वल भविष्य का निर्माण करेगी । विषय
की अनिवार्यता और अनुकुलता की दृष्टि से हिंदी से जुड़े सांवैधानिक प्रावधानों का
संक्षेप में जिक्र करना जरुरी है जिनमें प्रमुख रूप से अनुच्छेद 343 से लेकर 351 के
अंतर्गत हिंदी को संघ की राजभाषा के रूप में अपनाने की प्रतिबद्धताओं का उल्लेख है
। अनुच्छेद 351 में वर्णित
है कि हिंदी का प्रसार संघ का कर्तव्य होगा । किंतु हिंदी का राष्ट्रीय एकीकरण में
सबसे शक्तिशाली योगदान होने के बावजूद अधिनियम
1963,
राजभाषा
संकल्प 1968,
अधिनियम
1976 यथा संशोधित
1987
सभी
अधिनियम हिंदी के साथ न्याय नहीं कर पाये, कितना दुखद है !
कश्मीर से
कन्या कुमारी तक भारतवासियों के संप्रेषण का सर्वाधिक उपयुक्त माध्यम अंग्रेजी के बजाए
हिंदी का ही कोई एक स्वरूप है । हिंदी की थाती हमारे राष्ट्रीय दिशा बोध का प्रश्न
है । जिस देश के नागरिकों में भाषायी-निष्ठा की कमी हो उन्हें कदापि मान-सम्मान
नहीं मिलता वे सदैव गुलाम ही रहते हैं । हिंदी और भारतीय भाषाओं को समान मंच पर
लाना एक भगीरथ प्रयास की तरह है। इसके तीन सूत्र हैं हिंदी को प्रमुख भाषा मानना, भारतीय
भाषाओं के साथ उसके द्विभाषी स्वरूप को प्रमुखता देना और अंग्रेजी को तत्काल
प्रभाव से तिलांजली देना । देश में 1.8 फ़ीसदी लोग 98.2 लोगों पर शासन कर रहे हैं,
उनका आँकड़ा दिन-प्रतिदिन सिकुड़ रहा है, अब केवल अंग्रेजीदां व्यवस्था पर आखरी चोट
करने का समय है । कहते हैं जब बौने
लोगों की लंबी-लंबी परछाईं पड़ने लगें तो
समझना चाहिए कि सूर्यास्त का समय हो रहा है । तय यह करना है कि यह सूर्यास्त
अंग्रेजी का हो ।
शंकर के
विचारों की ऊँचाई, तुलसी के आचरण की गहराई और राम के प्रण की
सच्चाई,
कृष्ण
का निष्काम भाव,
बुद्ध
का उद्धार मंत्र, महावीर के एकाधिकार मंत्र, मोहम्मद के विश्वास-मंत्र, ईसा का प्रेम
धर्म एवं वैदिक साहित्य के रहस्य और बाजारवाद की इस दुनिया में सबसे बड़ी भाषा है
हिंदी । मैंने मनुष्य के अंतःमन में छिपी हुई हिंदी की उस महिमा को नाना रूपों में
अंकित करके रखा है, जिसे सब देख नहीं पाते । हमें अंग्रेजी की
उपेक्षा करनी होगी, अपेक्षा दुःख का कारण है और उपेक्षा से विरोध
मर जाता है । हिंदी भाषा, हिंदी का
मान-सम्मान मनुष्य को मनुष्य से जोडने के लिए है, तोड़ने के लिए
कतई नहीं । भाषा, समाज-व्यवहार का माध्यम है, प्रशासनिक
कार्यो में निपुणता युक्त शब्दावली का निर्माण भाषा के लिए प्राण-वायु है ।
प्रशासन के विविध प्रकायों में भाषा की अर्थ-दीप्तियों का प्रयोग जरूरी है । इसके
माध्यम से शासन-प्रशासन के विविध प्रयोजन अभिव्यक्त होते हैं, पूरित होते हैं ।
प्रत्येक भाषा उस भाषायी समुदाय और राष्ट्र की प्रशासनिक शक्ति का आधार होती है और
हिंदी इन सब में पूर्ण सक्षम है ।
भाषिक-व्यवहार
से ही राजनीति और प्रशासनिक संबंध कायम होते हैं । भाषा मानवीय क्षमता के विस्तार
का मूल-स्त्रोत है, उसमें अपार संभावनाएँ होती है । भाषा में अंतर्निहित अपार
संभावनाओं की तलाश और जांच-पड़ताल करनी पड़ती है । भाषा की इन संभावनाओं की तलाश में
इच्छा-शक्ति का विशेष महत्व है जिसके आधार पर भाषा के विस्तार की गूढतम संभावनाओं
को तलाशने के सार्थक कदम उठाने के लिए जरुरी है मानसिक-तब्दीलियों की प्रबल
इच्छाशक्ति हो । क्या हमने कभी ऐसा किया है ? शायद नहीं । आज
समय यही मांग कर रहा है कि हम सभी भारतीय अपने इस गुरूतर उत्तर दायित्व को
स्वीकारें कि हिंदी आजीविका, रोजी रोटी, प्रशासनिक
निपुणता में किसी तरह से पिछड़ी नहीं है । आवश्यकता इस बात की है कि उसे पिछड़ता हुए
महसूस करने वाले हिंदी-कर्मियों, शिक्षार्थियों-सेवियों, बुद्धिजीवियों, नौकरशाहों, टेक्नोक्रेट्स
के मन-मस्तिष्क में यह धारणा बैठ सके, उत्पन्न कर सके, सृजित कर सके
कि हिंदी केवल राष्ट्रीय स्तर की भाषा नहीं है, वह अंतर्राष्ट्रीय
स्तर पर बोली -समझी, पढी-लिखी, अध्ययन-अध्यापन और शासन-प्रशासन
किये जाने वाली गरिमामयी भाषा है ।
शब्दार्थ
ग्रहण की सहिष्णुता, उदारता आत्मीयता के स्तर पर हिंदी भाषा काफी
समृद्ध है और अन्य भाषाओं के शब्दों को आत्मसात करने की संभावनाओं की शक्ति इसमें
सर्वाधिक है। इसके लिए हमें हिंदी के बहुमुखी आयामों को पहचानकर उन्हें स्वीकार
करना होगा और नयी व्यवहार मूलक, प्रशासन मूलक, उद्योग-व्यापार-व्यवसाय
मूलक,
प्रयोग
मूलक तथा रोजगार मूलक दृष्टि को विकसित करना होगा । साथ ही, हमें
विज्ञान-प्रौद्योगिकी, गणितीय-संगणतीय, अनेकानेक
प्रयोजनमूलक और व्यावहारमूलक क्षेत्रों में हिंदी की पैठ कराने की संकल्प शक्ति की
महती जरूरत है । इसमें अनुवाद की महत्वपूर्ण
भूमिका है, हमें हिंदी और भारतीय भाषाओं में अनुवाद की प्रक्रिया कारगर तरीके से
लागू करनी होगी और यह प्रक्रिया निरंतर जारी रहनी चाहिए, क्योंकि
हिंदी जितनी बड़ी भाषा के लिए यह बहुत जरूरी है कि उसमें विश्व भर से श्रेष्ठ से
श्रेष्ठतम और ज्ञानवर्धक साहित्य अनुवाद के माध्यम से आता रहे ।
हिंदी अपनी वैश्विक
पहचान बनाने की दिशा में तेज़ी से आगे बढ़ रही है लेकिन तकनीकी और वैज्ञानिक
शिक्षण की दिशा में अनेक स्तुत्य प्रयासों के बावजूद अभी भी बहुत कुछ करना शेष है।
हिंदी में तकनीकी या वैज्ञानिक शिक्षण का न होना, हिंदी माध्यम में वैज्ञानिक
शिक्षा के मार्ग में चुनौतियाँ हैं । हिंदी में अनुवाद के रूप में या अनुसंधान के
रूप में अनेक नए शब्दों की सर्जना हुई है, हो रही है, लेकिन अधिकांश मामले में उसकी बुनावट जटिल है, इसे स्वीकारना होगा
। हिंदी की तकनीकी शब्दावली को समृद्ध करने के लिए यह अति आवश्यक है कि हम सरल
अनुवाद की संस्कृति को प्रोत्साहित करते रहें। अनुवाद ही वह सर्वोत्तम प्रविधि है, जो हिंदी के तकनीकी शिक्षण का आधार बनेगी। अनुवाद एक पुल है, जो दो भाषिक संस्कृतियों को जोड़ देता है। हिंदी की तकनीकी या
वैज्ञानिक-चिकित्सकीय शिक्षण में अनुवाद का अप्रतिम योगदान रहेगा। अनुवाद के सहारे
ही विदेशी या स्वदेशी भाषाओं के अनेक शब्द हिंदी में आते हैं और नया संस्कार ग्रहण
करते हैं। कोई भाषा तभी समृद्ध होती है, जब वह अन्य भाषाओं
के शब्द भी ग्रहण करती चले। हिंदी में शब्द आते हैं और नया संस्कार ग्रहण करते
हैं। हिंदी भाषा में आकर अँगरेज़ी के कुछ शब्द समरस होते हैं, तो यह खुशी की बात है। लेकिन इस चक्कर में हमारे मूल शब्द ही हाशिये पर चले
जाएँ, तकनीकी शब्दावली सरल होगी, तभी स्वीकार्य होगी।
विज्ञान एवं तकनीकी शिक्षण के लिए गढ़े जाने वाले शब्दों के साथ भाषाविद् इस बात
का भी ध्यान रखें कि उसे लोक-स्वीकृति मिले। नए तकनीकी शब्द अगर किताबी बन कर रह
गए, तो उनकी उपादेयता क्या रहेगी ?
हिंदी के
प्रति मन की संवेदनशीलता स्वाभाविक एवं सबल है, भाषायी चेतना
मौलिक है,
इसमें
संदेह नहीं । हिंदी में चेतना-शक्ति के विकास की कहानी रोचक है, इसमें गांधी, लाल पाल बाल, भगत सिंह इत्यादि शिरोमणि शहीदों
के अंतर्ध्यान रूप और रूचि के साथ पलते-चलते है । भाषायी चेतना के विकास की चार दिशाएँ
हैं एक,
उपयोग
की अनंत संभावनाएँ, दूसरी आत्मीय-आनंद की प्रकृति, तीसरी
अभिव्यक्ति और चौथी, सृजनात्मकता युक्त अर्थ-दीप्तियाँ । प्रशासन के मूल्यांकन
की एक विधा है,
वह
लोकहित से कितनी दूर है और लोक भाषा के कितना समीप । प्रशासन सब स्थितियों में
रहता है,
कहीं
प्रवृत जैसे हिंदी की प्रशासनिक युक्तियाँ, कहीं संस्कृत
जैसे तमिल,
तेलगू-मलयालम, हिंदी
इत्यादि की गंगा यमुना की पवित्रता और कावेरी की निर्मलता की प्रशासनिक संस्कृतियाँ,
कहीं विकृत जैसे अंग्रेजियत का दामन थामे मुट्ठी भर हुक्मरान, कहीं सुकृत
जैसे प्रशासनिक चेतना में मन के संस्कार से विज्ञान, दर्शन, धार्मिक
सिद्धान्त, नीति के विधान एवं सुरूचि के पोषक अलंकरण व सज्याओं का विकास, कहीं
कुकृत जैसे भारतीय जनमानस पर थोपा अंग्रेजीराज।
परिणामस्वरूप
समाज का यह अल्प वर्ग अजीब सी ऐंठ में जन-मन से अलग ऊपर दूर हो जाता है और जयशंकर प्रसाद
के स्कंदगुप्त के स्वकथन ‘अधिकार सुख कितना मादक और सारहीन’ अपनी ही बनायी हुई
विधियों में उलझा हुआ एवं क्लिष्ट और सब कुछ शास्त्र सम्मत न होने के कारण थोडे ही
लोगों तक सीमित । प्रशासनिक-सौंदर्य प्राकृतिक अवस्था में ही पनप सकता है और बन
रही संस्कृति के दम घोंटु जलावरण में भर जाता है । जन भाषा जन-मन की संपदा है और
जन-मन जीवन के विधान को शास्त्र, धर्म के रूप
में स्वीकृति देता है, दे सकता है, क्योंकि जन भाषा में ही मन का मोचन होता है और
आनंदातिरेक का अनुभव । भाषा
में पराया कुछ नहीं होता और प्रशासन में अपना । प्रशासन में अपनापन दोष हो सकता है
। प्रशासक निजी दृष्टिकोण, आग्रह-पूर्वाग्रह , जातपात, स्वार्थ आत्मरति
से जितना ऊपर उठता है उतना ही वह सर्व स्वीकृत सत्य के उदघाटन का सामर्थ्य रखता है
। बुदधि निजता के संकोच को स्वीकार नहीं करती ; उसके लिए जो
सच है,
वह
चाहे प्रिय हो या अप्रिय, हमारी कोमल भावनाओं से टकराता है या
नहीं,
हमारी
नैतिक -धार्मिक सामाजिक-जातीय-मूल्य चेतना को मान्य हो या न हो हम उसे पूर्वाग्रह
वश स्वीकार करें या अस्वीकार, वह सच है, सच ही रहेगा । इस शाश्वत सत्य में हिंदी जैसी निज भाषा
‘चार चाँद लगा’ देती है ।
भाषा और प्रशासन
मूलतः अभिव्यक्ति का माध्यम है किंतु दोनों में समन्वय और संतुलन के कदम की स्थिति
होना जरूरी है क्योंकि जो कुछ भी आत्मा के चेतन-अचेतन अंतराल में, मन के
गाम्भीर्य में, बुद्धि के स्फुरणों में, शरीर के लय-रोमांच
में,
हृदय
के उबाल एवं सम्पूर्ण जीवन के स्पदंनों में भाषिक अभिव्यक्ति है वह है जन भाषा ।
जो अपने सशक्त संकेतों से मन की अपनी चाह को, रूप के लिए
अमिट पिपासा को,
आँखों
के सामने प्रस्तुत करने का सामर्थ्य रखती है । ‘अपनी’ होने से वह
भाषा प्रिय होती है ; वह लय संतुलन-संवाद आदि रूप-गुणों से समृद्ध
होती है,
सांकेतिक
ध्वनियों से संबधित होने के कारण वह जीवन के समूचे भीतरी व गहरे अनुनाद में लय का
संचार करती है और यह भाषा ‘शासक’ की जितनी अपनी होती है उतनी ही अपनी ‘शासित’ की भी । फिर
दोनों एक दूसरे के पूरक क्यों नहीं हो सकते हैं! यह हिंदी के शासकीय भाषा होने का
सच है जो उसकी छवि को सत्यम, शिवम् और सुंदरम की शाश्वतता प्रदान
करता है । शासकीय गुणों से सर्वगुण सम्पन्न होने के कारण हिंदी का वर्तमान तो
सुदृढ है ही भविष्य भी उज्ज्वल नज़र आता है । सिर्फ हिंदी को शासकीय कार्यो में
अपनाने में जो कमी है, उसे दूर करना है, आओ हिंदी को
आत्मीयता से अपनाये और भाषायी निष्ठा का दायित्व निभायें । इसकी कार्य-योजना
के तीन सोपान हैं -
1.सांवैधानिक
स्थिति 2.प्रशासनिक
दायित्व 3.पारिभाषिक
शब्दावली निर्माण का प्रयोजन
हिंदी और
राष्ट्रीयता का आपस में अनूठा संबंध है । यदि आप हिंदी का सम्मान नहीं करते तो
समझों आप देश की राष्ट्रीयता का भी सम्मान नहीं करते । संविधान की आठवीं अनुसूची में उल्लेखित हिंदी
और सभी राष्ट्रीय भाषाओं का एक समान सम्मान करेंगे तो देश का सम्मान भी होगा । जिस
देश के नागरिक अपनी, अपने देश की भाषा को नहीं बोलते उन्हें कदापि सम्मान नहीं
मिलता,
वे
हमेशा गुलाम ही रहते हैं । राजभाषा अधिनियमों में वर्णित प्रावधान के तहत हिंदी के
अनुप्रयोग की जिम्मेदारी संस्था प्रधानों की है जिसमें हिंदी सेवियों की भूमिका
अग्रणी एवं सक्रियता युक्त होने चाहिए । देखा यह गया है कि हिंदी सेवी ही अपनी
जिम्मेदारियों को ठीक से नहीं निभा रहे हैं । उन्हें चाहिए कि वे प्रशासन में
पत्रावलियों के एक स्थान से दूसरे स्थान तक पंहुचाने की प्रभावी निगरानी-व्यवस्था का
निरीक्षण-पुनरीक्षण करें । जरूरत के
मुताबिक नियंत्रण बिंदू बनाये जाये ताकि चूक
और त्रुटियों को पकड़ा जा सके और दोषी अधिकारियों / कर्मचारियों की पहचान कर उनकी
सेवा-पुस्तिका / पंजिकाओं में इनकी प्रविष्टियाँ की जाय और प्रतिकूल प्रविष्टियों को
मूल्यांकन और पदोन्नति में अवश्य आँका जाय।
राजभाषा
कार्यो के नियंत्रण एवं पर्यवेक्षण के तरीकों और तकनीकों में यथोचित बदलाव किये जायें
और कार्य-विभाजन की पद्धति एवं प्रशासनिक कार्यो में हिंदी के अनुप्रयोग के उन्नयन, अध्ययन, अनुसंधान को
प्रोत्साहित करना होगा ताकि हिंदी के अनुप्रयोग की क्रियान्विति एवं प्रगति का मूल्यांकन
हो सके किंतु इसके लिए प्रयास रचनात्मक होने चाहिए न कि विध्वंसात्मक । प्रशासनिक योजनाओं को क्रियान्वित करने के
उत्तरदायित्व में नियोजन, समन्वय, पर्यवेक्षण, संप्रेषण,
निर्देशन,
नेतृत्व
और निर्णय प्रक्रिया में हिंदी सेवियों को प्रमुखता दिये जाने के प्रावधान हों । हिंदी कर्मियों की
कार्य-प्रक्रिया, पद्धतियों और कार्य-विधि संबंधी दोषों और
त्रुटियों के लिए संगठनात्मक तौर-तरीकों
के अध्ययन विश्लेषण के लिए उच्च स्तरीय समिति गठित करके ऐसे प्रावधान किये जाये कि
वह समिति अपनी सिफारिशों और अनुशंसाओं के केन्द्रीय मंत्रिमंडल के माध्यम से सीधे
राष्ट्रपति द्वारा अध्यादेश जारी करवायें और उनकी अनुपालना सुनिश्चित हो ।
हिंदी तंत्र
की कार्य कुशलता में अभिवृद्धि के दृष्टिकोण को अपनाने, उच्च अधिकारी
द्वारा नीचे के अधिकारी के कार्यों में हस्तक्षेप कर बाधा उपस्थित नहीं करनी चाहिए
। बल्कि,
प्रशासनिक
व्यवस्था तथा प्रक्रिया को हिंदी के विकास कार्यों की आवश्यकताओं या मांगों के
अनुसार ढाला जाय । प्रस्तावित सुधारों को प्रशासनिक एवं राजनीतिक चुनौतियों के
अनुरूप बनाया जाये और कार्य-कुशलता सुधारने, प्रशासनिक
कार्यो में हिंदी के अनुप्रयोगों में संतुलन बनाने के कारगर उपाय हों । हिंदी के
प्रति भाषायी निष्ठा की गंभीरता को प्रशासकों को समझाया जाय। कार्यपालिका, व्यवस्थापिका
तथा न्यायपालिका के परिक्षेत्रों में यथोचित कठोर प्रावधान बनाकर हिंदी के बहुआयामी
अनुप्रयोगों को सुनिश्चित, पारदर्शी और जवाबदेह बनाया जाये ।
हिंदी के अनुप्रयोग में बाधा डालने वाले अधिकारियों एवं संस्थाओं के विरूद्ध कठोर-से
कठोरतम कार्यवाही के प्रावधान हो और सभी विभागों तथा मंत्रालयों के कर्मचारियों /
अधिकारियों की वार्षिक गोपनीय प्रतिवेदनों में प्रविष्टि हो एवं उनकी पदौन्नोतियों
के समय हिंदी के प्रभावी अनुप्रयोग को अवश्य ध्यान में रखा जाये । राजभाषा हिंदी की
स्थिति में सुधार लाने की दृष्टि से शासनिक और प्रशासनिक अनुभव के आधार पर चार
स्तरीय सुधार के लिए निम्नांकित सुझाव है, जिन्हें पाँच उपवर्गों में रखा जा सकता
है ;
1)
कानूनी दायित्व का परिक्षेत्र; इसमें आने वाले
सभी विषयों के लिए विभाग के मंत्री और सचिव दोनों कानूनी रूप से उत्तरदायी हो,
2)
राजनीतिक दायित्व का परिक्षेत्र; इसमें मंत्री
को मत्रिमंडलीय नीतियों के साथ संयुक्त किया जाये अर्थात वह सबके साथ संयुक्त रूप
से उत्तरदायी माना जाय,
3)
विभागीय दायित्व का परिक्षेत्र; इसमें मंत्री
अपने विभाग के लिए बनायी गयी नीतियों में हिंदी के प्रगामी अनुप्रयोग के नीति-निर्धारण
और परिनिर्माण में विभागीय सचिवों को पाबन्द करें और स्वयं उत्तरदायी रहें,
4)
प्रशासनिक दायित्व का परिक्षेत्र; इसमें सचिवों
को नीतियों तथा स्पष्ट निर्णयों के अतिरिक्त किये जाने वाले सभी कार्यों के लिए
कानूनी एवं प्रशासनिक रूप से उत्तरदायी समझा जाय,
5)
सबसे पहले केंद्रीय राजभाषा संवर्ग सेवा की
स्थापना तत्काल हो एवं राजभाषा से जुड़े सभी पदों को इसकी कार्यविधि के अंतर्गत लाया
जाये और इस वर्ग की वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट और प्रतिपुष्टि इसी संवर्ग के
अधिकारियों द्वारा अनिवार्य रूप से भरी जावे ।
साथ ही, भारतीय
भाषाओं की शब्दावली और अर्थ-दीप्तियों को आत्मसात करने के प्रति हिंदी का खुला
आमंत्रण, पुनर्रचना और सोच के नये तरीकों सहित प्रशासनिक क्रियाओं का पर्यवेक्षण, समन्वय, संगठन तथा
नियंत्रण हिंदी के प्रगामी अनुप्रयोग में महत्वपूर्ण कारक है ।
पूर्व
प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी ने ठीक ही कहा है कि ‘हिंदी को संयुक्त
राष्ट्र की भाषा और प्रशासनिक कार्यदायित्वों के निवर्हन के रूप् में निपुण बनाने
का कार्य उतना कठिन नहीं है, जितना ऊपर से
दिखलायी पड़ता है । हिंदी प्रेमियों का कार्य-उचित है कि वे हिंदी को सभी जगह
प्रतिष्ठित करने के लिए अपने प्रयत्नों में तेजी लाएं ।’ परिस्थिति अनुकूल है इसका
लाभ उठाकर आगे बढ़ना चाहिये । प्रशासन के स्तर का मापन उसकी क्रियान्वय- शक्ति
द्वारा होता है । किसी भी राष्ट्र की शासन व्यवस्था, लोकहित की
दशा,
विकेन्द्रीकरण
की भावना और जन भाषा के अनुप्रयोग इत्यादि से पता चल जाता है कि उस राष्ट्र की
उन्नति किस स्तर और किस दिशा में प्रभावित
हो रही है । वास्तविक प्रशासन की उच्च क्षमता वही है जो किसी क्षुद्रवासना को
उद्दीप्त किये बिना माधुर्य की, सामंजस्य की और सौहार्द की अनुभूति करा
सके और यह स्व-भाषा में ही संभव है।
गाँधीजी ने
कहा है कि ‘सत्ता का उपयोग इस ढ़ंग से हो जो फूल की तरह महसूस हो, उसकी सुगंध
दूर तक फैले,
किसी
पर बोझ न लगे और यह कार्य तभी संभंव है जब सत्ता का माध्यम लोकभाषा हो और प्रशासन
और लोक भाषा में उसकी अभिव्यक्ति का ऋतु संबंध सामान्य हों, जो प्रशासन
सभी के भीतर असीम, नानात्व के भीतर एकत्व का संकेत कर सके वही
अधिक और लोक कल्याणकारी प्रशासन की अनुभूति करा सकता है।’ प्रशासन में लोकभाषा के
अनुप्रयोग की कला में सामान्य और विशेष, प्रत्यय और प्रस्तुति, उद्देष्य और
साधन के भेद के समाधान की कोई आवश्यकता ही नहीं रह जाती क्योंकि भेद अतार्किक
बृद्धि द्वारा किया जाता है, किंतु यह सब भाषायी निष्ठा द्वारा संभंव है ।
भाषायी
निष्ठा के आलंबन और अनुभव से ऐसी आलौकिक मानसिक स्थिति हो जाती है कि शरीर का श्वसन
और रक्त-संचार भी अवरूद्ध हो जाता है और हम एक निश्चित जागृत चेतना में प्रतिष्ठित
जो जाते है और यह केवल हिंदी के अपनाने से संभव है । भाषा प्रियमण्डना होती है, भारतीय-चेतना
की श्रेष्ठतम अभिव्यक्ति का माध्यम हिंदी ही है, इसकी सर्वोपरि
नैसर्गिकता और वैज्ञानिकता, सुस्पष्टता, अर्थ-दीप्तियों
की समग्रता,
राष्ट्रीय
एकता युक्त संवेदना से समूची आत्मा मुखर हो उठती है । इसमें प्रशासन का मर्म
प्रकृति और कार्य-संस्कृति के बीच का विलक्षण आकर्षण है। कार्य-संस्कृति ‘मां’ की भांति है
जो प्रत्येक प्रशासनिक-संस्कार को जन्म देती है, किंतु ‘मां’ की गोद में
लौट आने की प्रवृति कभी नहीं भरती और अंत में हिंदी ‘मां’ की भांति
सबको अपने में समेट लेती है । हिंदी में जहां एक ओर उपेक्षा की व्यथा है, वहीं दूसरी ओर
उसमें प्रशासनिक भाषा बनने की उत्कण्ठा है क्योंकि हिंदी लोक-मानस की प्रकृति में
है,
इसमें
मुक्त, सरल,
सरस
भावनाओं की लय से आंदोलित, संस्कृति शालीन, अनुशासन एवं
प्रशासनिक निपुणता है जिसमें संतुलन, भाषायी-सामंजस्य
समविभक्तता जैसे गुणों का उत्कर्ष है । हिंदी सबको भाती है, आओ! हिंदी का दामन
थामे क्योंकि इसमें मन एवं बुद्धि के अद्भुत आराम-विराम एवं विश्राम का अनुभव होता
है ।
जय हिंद.. जय
हिंदी...
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