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BHASHIKI ISSN: 2454-4388 (Print): Quarterly International Refereed Research Journal of Language, Applied Linguistics, Education, Media, Translation and Literary Analysis भाषा, अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान, शिक्षा, मीडिया तथा साहित्य-विश्लेषण की संदर्भ-रिसर्च तिमाही अंतर्राष्ट्रीय संवाहिका

Monday 9 January 2017

विश्वविद्यालयों में कुलपति की नियुक्ति में राजनीतिक दखल के दुष्परिणाम (Consequences Of Political Interference In The Appointment Of University Vice Chancellor) प्रोफ़ेसर राम लखन मीना, राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय, अजमेर

विश्वविद्यालयों में कुलपति की नियुक्ति में राजनीतिक दखल के दुष्परिणाम

(Consequences Of Political Interference In The Appointment Of University Vice Chancellor)

प्रोफ़ेसर राम लखन मीना, राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय, अजमेर 

सर्वोच्च न्यायालय ने 2013 में बिहार के राज्यपाल द्वारा 9 कुलपतियों की नियुक्तियों को रद्द किया था । साथ ही , बिहार सरकार के सतर्कता विभाग ने रांची विश्वविद्यालय के एक वीसी को विश्वविद्यालय से जुड़े 40 कॉलेजों में अयोग्य लोगों को नियुक्त करने के आरोप में गिरफ़्तार होना पड़ा । राजस्थान विश्वविद्यालय में वाईस चांसलर जे.पी. सिंघल की नियुक्ति को लेकर राजस्थान उच्च न्यायालय  की कठोर टिप्पणी के बाद यह स्पष्ट हो गया है कि देश भर में  अभी भी उच्च शिक्षा की स्तिथि कैसी है । वस्तुत: कुलपति के पद में वाइस शब्द एक नया ही मायने अख़्तियार कर रहा है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के एक आंतरिक अध्ययन में कहा गया है कि वाइस चांसलरों के वाइस’ (यानी पाप) में एक निश्चित सांचा दिखाई देता है जिसमें जाली डिग्रियों की बिक्री, विश्वविद्यालय के पैसे का ग़बन,  अधिकतर कुलपति बाहरी एजेंसियों से विश्वविद्यालय का ऑडिट कराने से हिचकते हैं । नियुक्तियों और प्रवेश परीक्षा में धाँधली,  कॉलेजों में नियुक्ति के रैकेट की शुरुआत अक्सर वाइस चांसलर के दफ़्तर से होती है। यही कारण है कि उच्च शिक्षण संस्थानों में बड़ी-बड़ी फ़्रेंचाइज़ी की दुकान खुलने लगी है ।  
देश में वर्तमान में चिकित्सा और कृषि विश्वविद्यालयों के आलावा कुल 667 विश्वविद्यालय है जिनमें  45 केंद्रीय, 251 राज्य विश्वविद्यालय हैं । लेकिन इनमें नियुक्त कुलपतियों के स्तर में भारी गिरावट आना किसी से भी कतई छुपा नहीं है । दागी और उम्रदराज लोगों  को कुलपति बनाना आम बात है परंपरा से कुलपति का पद विश्वविद्यालय-व्यवस्था और समाज दोनों में श्रेष्ठतम माना जाता रहा है। व्यवस्था उनके ज्ञान तथा विद्धतापूर्ण योगदान के कारण सदैव नतमस्तक रही है। आजकल सर आशुतोष मुखर्जी, सर्वपल्ली राधाकृष्णन, सीआर रेड्डी और लक्ष्मण स्वामी मुदालियार और डी.एस. कोठारी के स्तर का एक भी वाइस चांसलर ढूंढने से भी नहीं मिलता, आख़िर क्यों ?  सच्चाई यह है कि तथाकथित सर्च कमेटियाँ अस्तित्व में रहने के वाबजूद भी अधिकतर कुलपतियों के चयन का आधार मेरिट न हो कर राजनीतिक पहुंच, जाति या समुदाय हो गया है। यह कहना ग़लत न होगा कि कुलपतियों की नियुक्ति सत्ताधारी दलों के राजनीतिक हितों को साधने के लिए की जाती है। कम दर्जे के वीसी की नियुक्ति का सबसे बड़ा नुकसान ये होता है कि उसका आत्मविश्वास नहीं के बराबर होता है। वो अपने से भी कम काबिल प्रोफ़ेसरों की नियुक्ति करता है क्योंकि काबिल प्रोफ़ेसर उसकी चलने नहीं देता। नतीजा यह होता है कि हज़ारों छात्रों का भविष्य दाँव पर लग जाता है।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने सभी विश्वविद्यालयों में कुलपति की नियुक्तियों के लिए सुस्पष्ट और सटीक नियम-परिनियम पहले से ही बनाये हुए हैं। इस प्रारूप में नियुक्ति के लिए  शैक्षणिक योग्यताएं, विशेषज्ञता क्षेत्र, सेवा सम्बन्धी जानकारी, प्रशासनिक पदों पर कार्य करने के अनुभवादि का विवरण और प्रकाशनों की विस्तृत जानकारी के साथ-साथ पीएचडी और एमफिल के लिए निर्देशित किये गये विद्यार्थियों की संख्या का भी उल्लेख करना पड़ता है । यहाँ तक कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का नामित सदस्य भी कुलपति की नियुक्ति की स्क्रीनिंग समितियों में मौजूद होते हैं। ताकि चयन प्रक्रिया में पूर्ण पारदर्शिता और जबावदेही उच्चतम स्तर पर सुनिश्चित हो सके ।
इसी को ध्यान में रख कोठारी आयोग (1964-66) ने स्पष्ट संस्तुति की थी कि शिक्षा के इतर क्षेत्रों से सेवानिवृत्त होकर आए और अयोग्य व्यक्तियों की कुलपति पद पर नियुक्ति उचित नहीं होती क्योंकि कुलपति को अपनी विद्धता तथा योगदान के आधार पर विश्वविद्यालय के विद्वत समाज को नेतृत्व देना होता है। इसका आधार उसकी मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता तथा नैतिकता होती है। ज्ञान की खोज और सृजन गहन प्रतिबद्धता के आधार पर ही हो पाता है। इसके लिए उचित वातावरण का निर्माण कुलपति का विशेष उत्तरदायित्व होता है। उस वातावरण में सम्मान तथा श्रद्धा उसे तभी मिलती है जब वह शोध, नवाचार तथा अध्यापन में सक्रिय भागीदारी निभाता है। अधिकांशत: वह केवल अपने पद के अधिकारों के आधार पर सम्मान तथा श्रद्धा अर्जित नहीं करता है।
प्रश्न उठता है कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में बेहतर सूचकांक वाले देशों में कुलपतियों की नियुक्तियों की क्या व्यवस्था है ? अमरीका, ब्रिटेन, जर्मनी, आस्ट्रेलिया, मलेशिया और हांगकांग जैसे देशों में कुलपति की नियुक्ति विश्वविद्यालय काउंसिल करती है। ऑक्सफ़र्ड और केंब्रिज विश्वविद्यालयों में भी कुलपति को विश्वविद्यालय काउंसिल ही चुनती है जहाँ सरकार के नुमाइंदे अगर होते भी हैं तो बहुत कम संख्या में। अब यक्ष प्रश्न है कि हमसे चूक कहाँ पर हो रही है? वस्तुतः भारत में नेता और नौकरशाह जब मिल जाते हैं तब वे शिक्षाविदों तथा प्राध्यापकों, विद्वानों को चयन समितियों में अधिकतर अवसरों पर खानापूर्ति के लिए आमंत्रित करते हैं। कुलपति की नियुक्तियों में जाति, पंथ, क्षेत्रीयता के आधार पर खुलेआम हावी हो रही है। उनके द्वारा अपने पिछलग्गुओं के नाम अधिकांश चयन समितियों को बड़ी शालीनता से एक-दो नाम बता दिए जाते हैं जिन्हें प्रस्तावित नामों की सूची में शामिल किया जाता है और उसी में से नियुक्ति हो जाती है। इसके अपवाद विरले ही होते हैं। कुलपतियों की नियुक्ति भी अनेक बार चर्चा के उसी दायरे में आती है कि कौन किस का नामित है, वह कैसे सबसे आगे निकल गया, पद पर आकर उसका सबसे बड़ा लक्ष्य क्या होगा, इत्यादि।
भारतीय उच्च शिक्षा-व्यवस्था की सबसे बड़ी समस्या है शिक्षा में गुणवत्ता की गिरावट और जिम्मेदारियों का निर्वहन समर्पण की पराकाष्ठा, उच्चतम पारदर्शिता, सटीक जवाबदेही और तटस्थता, नैतिकता तथा बौद्धिक नेतृत्व जैसे मानवीय गुणों का पतन । यहाँ विश्वविद्यालय ज्ञान तथा नवाचार के केंद्र के रूप में स्थापित नहीं किए जा रहे हैं। नई पीढ़ी को तैयार करने में जाति और वर्ग का भेदभाव किया जाता है। किसी भी संस्था या विश्वविद्यालय को ऊंचाई तक ले जाने का विजनरी-दृष्टिकोण कुलपतियों में नगण्य है। युवा-प्रतिभा का विकास अब किसी का सात्विक-लक्ष्य नहीं है सरकार के पास बहानों की कमी नहीं है। असल में मोटी कमाई के फेर में शिक्षा विभाग और सरकारी मशीनरी सब कुछ जानते हुए भी आंखें बंद किये रहती है।
यदि हालात यही रहे तो उच्च शिक्षा की परिस्तिथियाँ ओर भी बदहाली के कगार पर पहुँचने वाली है हाल ही में विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में आने की अनुमति देने वाला जो बिल आया है उससे गुणवत्तायुक्त उच्च शिक्षा प्राप्त करने में निश्चित रूप से चुनौती होगी क्योंकि आजकल वैश्विक अर्थव्यवस्था, विकास, धन उत्पत्ति और संपन्नता की संचालक शक्ति सिर्फ़ शिक्षा को ही कहा जा रहा है  स्वतंत्र भारत में उच्च शिक्षा का विस्तार हुआ है लेकिन क्या यह हमारे देश की उच्च शिक्षा, छात्रों को जीवन दृष्टि देने में या उनकी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सफल हुई है यह बड़ा प्रश्न मुँह बांये खड़ा है, डर यही है कि यह भी कहीं जाति-वर्ग-भेद और आरक्षण-संस्कृति में फँसकर न रह जाए जो कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अब तक आड़े आती रही है क्योंकि यहाँ के उच्च शिक्षा के कैम्पसों में रोहित वेमुला आत्महत्या करने और कन्हैया कुमार देश-द्रोह के दंश झेलने को मजबूर हैं। लगभग पाँच हजार सालों पुराणी संस्कृति और सत्तर वर्षों की आजादी के वाबजूद हम जाति-धर्म और वर्ग-भेद विहीन समाज नहीं दे पाएँ है। अभिव्यक्ति की आज़ादी और विचार एवं विचारधाराओं के खुलेपन में जीने के आदी हम नहीं हो पाएँ हैं । विश्वविद्यालयों में सभी प्रकार की निर्णय-प्रक्रिया में छात्रों की सहभागिता सुनिश्चित करने की आदत और शक्ति एवं वैयक्तिक-स्वायत्ता अभी हम पैदा नहीं कर पाये हैं । ऐसे में विदेशी विश्वविद्यालयों का भारत में आना क्या गुल खिलायेगा, समय ही बताएगा ।      
दुर्भाग्य से देश में जो उच्च शिक्षा का स्तर है वह संतोषजनक नहीं है अगर इसे समय रहते नहीं बदला गया तो इसके देश को गंभीर परिणाम भुगतने पड़ेंगे। यह हमारी असफलता ही है कि हम उच्च गुणवत्ता वाले शिक्षा केंद्रों को आगे नहीं बढ़ा पा रहे हैं और न ही हम गुणवत्ता वाली शिक्षा दे पा रहे हैं, इससे देश का कितना नुकसान हो रहा है, इसका आँकलन होना बाक़ी है।  छात्रों में समाज व देश के प्रति संवेदनशीलता जागृत करनी होगी, उन्हें सामाजिक तथा नागरिक दायित्व का बोध कराना होगा। सामाजिक कार्य को अनिवार्य करना, इस हेतु राष्ट्रीय स्तर पर एक आयोग का गठन तथा उच्च शिक्षा के प्रत्येक संस्थान को गांवों से या शहरी झुग्गी झोपड़ी से जोड़ना होगा। प्रत्येक तीन वर्षों में पाठयचर्या की समीक्षा अनिवार्य रूप से करनी होगी। जीवन-मूल्यों का पाठयक्रम में समावेश करना होगा । छात्रों की सुपर एनर्जी को चेनेलाईज करना, परीक्षा एवं मूल्यांकन पध्दति में आमूलचूल परिवर्तन, भारतीय शिक्षा सेवा की स्थापना, शिक्षा में अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक के आधार पर भेदभाव समाप्त कर  व्यवसायपरक शिक्षा पध्दतियों के संरक्षण, संवर्धन एवं सशक्तिकरण हेतु प्रभावी कदम और  प्रमाणित पाठयक्रमों की व्यवस्था करनी होगी तब जाकर वैश्विक स्तर पर हम उच्च शिक्षा के क्षेत्र में आँख-से-आँख मिला पायेंगे।
हमारी उच्च शिक्षा प्रणाली की खोई हुई गरिमा को पुनर्स्थापित करना संभव है, लेकिन इसके लिए हमें उस तरीके में बदलाव करना होगा, जिसके जरिए उच्च शिक्षण संस्थानों को कुशल नेतृत्व देकर उनके प्रशासन को चलाया जाता है। हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली और चापलूसी के माहौल में हर कोई शिक्षक / छात्र अपनी रचनात्मकता को मारता है और भाग्य को साथी मानकर परिस्थितियों को सहन करना सीखता है। इससे मानव संसाधन, ऊर्जा व समय तीनों का अपव्यय होता है। यहां सिफारिश के आधार पर नियुक्तियां होती हैं। फ़िर, घटिया किताबों को पाठ्यक्रमों में लगाने की सिफारिश की जाती है। राजनीतिक दबावों के चलते उपस्थिति और काम के बारे में सख्त नियम नहीं लागू किए जाते, न ही उनकी मॉनिटरिंग की जाती है। यहां मौलिक रिसर्च बहुत कम होता है जबकि भारत, वैश्विक प्रतिभा का सबसे बड़ा प्रदाता है, दुनिया में चार स्नातकों में से एक भारतीय शिक्षण व्यवस्था से आता है । हमारे विश्वविद्यालय आज राजनीति का अखाड़ा बन गए हैं, उन्हें ऐसा होने से रोकना होगा । कुलपतियों की नियुक्ति जब तक राजनीतिक आधार पर होती रहेगी तब तक याद रखें कि प्रत्येक  प्रबुद्ध शिक्षक और कुशल छात्र को  हमारी मानव पूंजी विकास की मुख्यधारा में लाना संभव नहीं होगा, अन्यथा वह व्यवस्थाओं पर बोझ ही बना  रहेगा । 



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