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BHASHIKI ISSN: 2454-4388 (Print): Quarterly International Refereed Research Journal of Language, Applied Linguistics, Education, Media, Translation and Literary Analysis भाषा, अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान, शिक्षा, मीडिया तथा साहित्य-विश्लेषण की संदर्भ-रिसर्च तिमाही अंतर्राष्ट्रीय संवाहिका

Monday 28 January 2019

‘200 पॉइंट्स रोस्टर की कहानी, जन-जन को है समझनी’ (The burning story of 200 points roster is to be understood to the Bahujans') : प्रोफ़ेसर राम लखन मीना, राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय, अजमेर


‘200 पॉइंट्स रोस्टर की कहानी, जन-जन को है समझनी’
प्रोफ़ेसर राम लखन मीना, राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय, अजमेर

बाबासाहब डॉ भीम राव अम्बेडकर की जातिवाद पर प्रहार की धार बहूत तीखी और चुभने वाली थी। वे भक्तजनों से कहते है तुम्हारे ये दीन दुबले चेहरे देखकर और करुणाजनक वाणी सुनकर मेरा ह्रदय फटता हैं। अनेक युगों से तुम गुलामी के गर्त में पिस रहे हो, गल रहे हो, सड़ रहे हो और फिर भी तुम ये ही सोचते हो कि तुम्हारी ये दुर्गती देव-निर्मित हैं- ईश्वर के संकेत के अनुसार है ।तुम अपनी माँ के गर्भ में ही क्यों नहीं मरे, कम-से-कम धरा को बोझ तो नहीं सहना पड़ता! प्रतिनिधित्व की दुर्दशा और बहुजनों के मुरझाए चेहरों से बाबासाहब की यह बात आज सच साबित हो रही है आख़िरकार बहुजनों को साँप क्यों सूंघ गया है ?
आखिर उनकी कुंभकर्णी-नींद कब टूटेगी जब मनुवादियों और प्रतिनिधित्व-विरोधी मानसिकताओं द्वारा सब कुछ ख़त्म कर दिया जाएगा शायद आज का युवा-वर्ग नहीं जानता कि जब देश का संविधान बाबासाहब डॉ भीमराव अंबेडकर जी की अध्यक्षता में बन रहा था तब सामाजिक अन्याय को रोकने के लिए कई कानून बने थे। उसी कड़ी में सामाजिक अन्याय रोकने के लिये जातिगत आरक्षण अनुसूचित जाति (SC) और समाज से वंचित व जंगलो में कठिन परिस्थितियों में रहने वाली जातियों को क्षेत्र आधार पर अनुसूचित जनजातियों (ST) में रखा गया और तमाम विरोधी-मंशाओं के बावजूद बाबासाहब अम्बेडकर और जयपाल मुंडा ने अपने बौद्धिक-कौशल से आरक्षण का प्रावधान किया गया था।
संविधान निर्माताओं ने क्रमिक असमानता की लगभग 6,000 जातीयों वाले देश में एक आधुनिक लोकतंत्र की स्थापना अपने आप में एक कठिन काम था। इसलिए संविधान निर्माताओं ने राष्ट्र निर्माण में वंचितों को देश के संसाधनों में हिस्सेदार बनाने के लिए 15 (4), 16 (4), 335, 340, 341, 342 अनुच्छेदों में विशेष प्रावधान किए हैं इन्हीं प्रावधानों के आधार पर आरक्षण के प्रावधान किए गए हैं जिसके तहत बहुजनों (दलित-आदिवासी और पिछड़े वर्ग) का पर्य़ाप्त प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में प्रतिनिधित्व का प्रावधान किया है। लेकिन बहुजनों के प्रतिनिधित्व को कैसे लागू किया जाये, इसको लेकर देशभर के विश्वविद्यालय सत्तापक्ष की मिलीभगत से अड़ंगेबाजी करते रहे हैं।
इसका परिणाम रहा कि दलित-आदिवासियों और पिछड़ों का रिज़र्वेशन विश्वविद्यालयों में महज कागज की शोभा बनकर रह गया। यही हाल मण्डल कमीशन की संस्तुतियों के आधार पर लागू हुए ओबीसी रिज़र्वेशन का रहा। विश्वविद्यालय लंबे समय तक अपनी स्वायत्तता का हवाला देकर प्रतिनिधित्व लागू करने से ही मना करते रहे, लेकिन जब सामाजिक, राजनीतिक और कानूनी दबाव बनने लगा तो उन्होंने प्रतिनिधित्व लागू करने की हामी तो भरी, पर आधे-अधूरे मन से  और इसमें तमाम ऐसे चालबाजी कर दी, जिससे कि यह प्रभावी ढंग से लागू ही न हो पाये। इसलिए वे 200 पॉइंट रोस्टर को लागू होने देने नहीं चाहते हैं क्योंकि बैकलॉग के पदों पर बहुजनों की नियुक्तियाँ होनी है । और यदि अबकी बार सवर्ण कामयाब हो गये तो आने वाले 50 वर्षों तक आरक्षितों को ये नौकरियाँ मिलाने वाली नहीं है ।
200 Vs 13 पॉइंट रोस्टर की कहानी आपके समक्ष प्रतुत कर रहा हूँ कि इस फैसले से पहले सेंट्रल यूनिवर्सिटी में शिक्षक पदों पर भर्तियां पूरी यूनिवर्सिटी या कॉलजों को इकाई मानकर होती थीं। इसके लिए संस्थान 200 प्वाइंट का रोस्टर सिस्टम मानते थे। इसमें एक से 200 तक पदों पर रिज़र्वेशन कैसे और किन पदों पर होगा, इसका क्रमवार ब्यौरा होता है। 2012 में हमने लंबी लड़ाई लड़ी और संप्रग सरकार पर दवाब बनाकर 200 पॉइंट्स रोस्टर को सभी शिक्षण-संस्थानों को सांविधिक इकाई मानकर आरक्षण लागू करवाया जिसे मनुवादी न्याय-व्यवस्था ने इलाहबाद उच्च न्यायालय ने ख़त्म कर दिया। 2 अप्रेल 2018 के देशव्यापी आंदोलन से डरकर केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एसएलपी दायर की । किंतु, बहुजनों का सरकार पर जैसे ही दवाब कम हुआ मोदीसरकार ने सुप्रिन कोर्ट में कमजोर पैरवी करवाकर याचिका ख़ारिज करवा दी ।
इस चालबाजी को दिलीप मंडल ने बहुत ही खूबसूरती से उकेरा है कि मनुवादियों ने 13 पॉइंट रोस्टर का नियम बनाया कि चौथा पद शंबूक को देंगे। फिर उन्होंने सिर्फ़ तीन पदों की वेकेंसी निकाली और इस तरह अपने लिए पुण्य कमाया। सातवें पद पर मातादीन भंगी और 15वें पद पर एकलव्य को आना था। वे इंतज़ार करते रह गए।  मनुस्मृति फिर से लागू होने से ख़ुश होकर देवताओं ने प्रधानमंत्री कार्यालय और सुप्रीम कोर्ट पर पुष्प वर्षा की और अप्सराओं ने डाँस किया। सरल भाषा में इसे ही 13 प्वाइंट का रोस्टर कहा जाता है। संवैधानिक भाषा में इसके तहत चौथा पद ओबीसी को, सातवां पद एससी को, आठवां पद ओबीसी को दिया जाएगा। 14वां पद अगर डिपार्टमेंट आता है, तभी वह एसटी को मिलेगा। इनके अलावा सभी पद अनरिज़र्व घोषित कर दिए गए। अगर
इस सिस्टम में पूरे संस्थान को यूनिट मानकर रिज़र्वेशन लागू किया जाता है, जिसमें 49.5 परसेंट पद रिज़र्व और 59.5% पद अनरिज़र्व होते थे (अब उसमें 10% सवर्ण आरक्षण अलग से लागू होगा) । लेकिन इलाहाबाद हाईकोर्ट ने फैसला दिया है कि रिज़र्वेशन डिपार्टमेंट के आधार पर दिया जाएगा। इसके लिए 13 प्वाइंट का रोस्टर बनाया गया । 13 प्वाइंट के रोस्टर के तहत रिज़र्वेशन को ईमानदारी से लागू कर भी दिया जाए तो भी वास्तविक रिज़र्वेशन 30 परसेंट के आसपास ही रह जाएगा, जबकि अभी केंद्र सरकार की नौकरियों में एससी-एसटी-ओबीसी के लिए 49.5% रिज़र्वेशन का प्रावधान है। साथ ही, मनुवादियों ने कैसे-कैसे षडयंत्र रचे देखिए ;
1)     विभाग को इकाई मानकर प्रतिनिधित्व लागू करने के लिए पहला षडयंत्र
2)     जैसे ही कोई निर्णय आरक्षण के विरुद्ध आता ही बहुत दिनों से चुपचाप बैठे सरकारी विभाग / विश्वविद्यालय हरकत में आत्र हैं और जल्दी-जल्दी विज्ञापन निकालते हैं, जिसमें रिजर्व पोस्ट या तो नहीं होते हैं या बेहद कम होते हैं।
3)     एक एक रिजर्व पद के लिए विशेष योग्यता जोड़ना ताकि उम्मीदवार ही न मिले
4)     नए कोर्सों में पद सृजित करने जहाँ दलित, आदिवासी, पिछड़े उम्मीदवार ही ना मिले
5)     विभागों को छोटा-छोटा करना ताकि आरक्षित वर्ग के लिए कभी सीट ही नहीं आए
6)     साक्षात्कार बोर्डों में अधिकाँश सवर्ण विशेषज्ञों को और चापलूस व लालची आब्जर्वर रखना ताकि आसानी से एनएफएस (NFS) किया जा सके
7)     अन्य अनगिनत ऐसी मनुवादी टेक्टिक्स अपनायी जाती है जिनको साक्षात्कार के समय ही देखा-परखा जा सकता है   
ऐसी अनेकानेक चालबाजियों का परिणाम होता है कि विश्वविद्यालयों में प्रतिनिधित्व रूपी आरक्षण  या तो लागू ही नहीं हुआ या फिर आरक्षित वर्ग को न्यूनतम सीटें मिलें। इस तरह की नीतियों का ही परिणाम है कि आज भी विश्वविद्यलयों में आरक्षित समुदाय के प्रोफेसरों, एसोसिएट प्रोफेसरों और असिस्टेंट प्रोफेसरों का प्रतिनिधित्व बहुत ही कम है। अभी हाल ही में राष्ट्रीय मीडिया में छपी और एनडीटीएफ द्वारा प्रसारित रिपोर्ट में बताया गया है कि देशभर के विश्वविद्यालयों में प्रतिनिधित्व लागू होने के बावजूद भी आरक्षित समुदाय के प्राध्यापकों का प्रतिनिधित्व बहुत ही कम है।
रोस्टर की जरूरत क्यों पड़ी.?
2006 में उच्च शिक्षण संस्थानों में ओबीसी प्रतिनिधित्व लागू करने के दौरान विश्वविद्यालय में नियुक्तयों का मामला केंद्र की तत्कालीन यूपीए सरकार के सामने आया। चूंकि इस बार प्रतिनिधित्व उस सरकार के समय में लागू हो रहा था, जिसमें आरजेडी, डीएमके, पीएमके, जेएमएम जैसे पार्टियां शामिल थीं, जो कि सामाजिक न्याय की पक्षधर रहीं हैं, इसलिए पुराने खेल की गुंजाइश काफी कम हो गयी थी। अतः केंद्र सरकार के डीओपीटी मंत्रालय ने यूजीसी को दिसंबर 2005 में एक पत्र भेजकर विश्वविद्यालयों में प्रतिनिधित्व लागू करेने में आ रही विसंगतियों को दूर करने के लिए कहा। उस पत्र के अनुपालन में यूजीसी के तत्कालीन चेयरमैन प्रोफेसर वीएन राजशेखरन पिल्लई ने प्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रोफेसर रावसाहब काले जो कि आगे चलकर गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय के संस्थापक कुलपति भी बनाए गए थे, की अध्यक्षता में प्रतिनिधित्व लागू करने के लिए एक फॉर्मूला बनाने हेतु एक तीन सदस्यीय समिति  का गठन किया था, जिसमें कानूनविद प्रोफेसर जोश वर्गीज़ और यूजीसी के तत्कालीन सचिव डॉ आरके चौहान सदस्य थे।
प्रोफेसर काले समिति  ने भारत सरकार के डीओपीटी मंत्रालय की 02 जुलाई 1997 की गाइडलाइन जो कि सुप्रीम कोर्ट के सब्बरवाल जजमेंट के आधार पर बनी है, को ही आधार बनाकर 200 पॉइंट का रोस्टर बनाया। इस रोस्टर में किसी विश्वविद्यालय के सभी विभाग में कार्यरत असिस्टेंट प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर का तीन स्तर पर कैडर बनाने की सिफारिश की गयी। इस समिति  ने विभाग के बजाय, विश्वविद्यालय/कालेज को यूनिट मानकर प्रतिनिधित्व लागू करने की सिफारिश की, क्योंकि उक्त पदों पर नियुक्तियां विश्वविद्यालय करता है, न कि उसका विभाग। अलग-अलग विभागों में नियुक्त प्रोफेसरों की सैलरी और सेवा शर्तें भी एक ही होती हैं, इसलिए भी समिति  ने उनको एक कैडर मानने की सिफारिश की थी।
रोस्टर 200 पॉइंट्स का क्यों, 100 पॉइंट का क्यों नहीं?
काले समिति  ने रोस्टर को 100 पॉइंट पर न बनाकर 200 पॉइंट पर बनाया, क्योंकि अनुसूचित जातियों को 7.5 प्रतिशत ही प्रतिनिधित्व है। अगर यह रोस्टर 100 पॉइंट पर बनता है तो अनुसूचित जातियों को किसी विश्वविद्यालय में विज्ञापित होने वाले 100 पदों में से 7.5 पद देने होते, जो कि संभव नहीं है। अतः समिति  ने अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति और ओबीसी को 100 प्रतिशत में दिये गए क्रमशः 7.5, 15, 27 प्रतिशत प्रतिनिधित्व को दो से गुणा कर दिया, जिससे यह निकलकर आया कि 200 प्रतिशत में अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति और ओबीसी को क्रमश: 15, 30, 54 प्रतिशत प्रतिनिधित्व मिलेगा। यानि अगर एक विश्वविद्यालय में 200 सीट हैं, तो उसमें अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति, और ओबीसी को क्रमशः 15, 30, और 54 सीटें मिलेंगी, जो कि उनके 7.5, 15, 27 प्रतिशत प्रतिनिधित्व के अनुसार हैं।
सीटों की संख्या का गणित सुलझाने के बाद समिति  के सामने यह समस्या आई की यह कैसे निर्धारित किया जाये कि कौन सी सीट किस समुदाय को जाएगी? इस पहेली को सुलझाने के लिए समिति ने हर सीट पर चारों वर्गों की हिस्सेदारी देखने का फॉर्मूला सुझाया। मसलन, अगर किसी संस्थान में केवल एक सीट है, तो उसमें अनारक्षित वर्ग की हस्सेदारी 50.5 प्रतिशत होगी, ओबीसी की हिस्सेदारी 27 प्रतिशत होगी, एससी की हिस्सेदारी 15 प्रतिशत होगी, और एसटी की हिस्सेदारी 7.5 प्रतिशत होगी। चूंकि इस विभाजन में सामान्य वर्ग की हिस्सेदारी सबसे ज्यादा है, इसलिए पहली सीट अनारक्षित रखी जाती है।
पहली सीट के अनारक्षित रखने का एक और लॉजिक यह है कि यह सीट सैद्धांतिक रूप से सभी वर्ग के उम्मीदवारों के लिए खुली होगी। यह अलग बात है कि धीरे-धीरे यह माना जाने लगा है कि अनारक्षित सीट का मतलब सामान्य वर्ग के लिए आरक्षण हुआ जो कि संवैधानिक रूप से ग़लत है क्योंकि वस्तुतः एससी, एसटी और ओबीसी को उनकी वास्तविक जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण नहीं दिया है । अत: ऐसी सीटों पर सबका अधिकार होगा जो कि प्रतियोगिता और उसके परिणाम का निर्धारण वर्टिकल रूप में तय हो । प्रो.काले समिति ने 200 सीटों का कैटेगरी के अनुसार 200पॉइंट का रोस्टर तैयार किया उसे ही 200पॉइंट्स रोस्टर कहा जाता है ।  
किंतु, मेरा मानना है कि पहली पांच सीटों का वितरण; पहली दिव्यांग, दूसरी एससी, तीसरी एसटी, चौथी ओबीसी और पाँचवी ऑपन कैटेगरी की होनी चाहिए ताकि सभी वर्गों को समुचित प्रतिनिधित्व मिल सके और उसके बाद 200पॉइंट्स रोस्टर के फॉर्मूले के आधार पर सीटों का निर्धारण करने के लिए 200 नंबर का एक चार्ट बना दिया जाए । प्रोफ़ेसर काले समिति द्वारा तैयार रोस्टर के अनुसार अगर किसी संस्था / विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर कुल 200 पदों का वितरण के अनुसार निम्न प्रकार है।

ओबीसी: 04,08,12,16,19,23,26,30,34,38,42,45,49,52,56,60,63,67,71,75,78,82, 86,89,93,97,100,104,109,112,115,119,123,126,130,134,138,141,145,149,152,156,161,163,167,171,176,178,182,186,189,193,197,200वां पद
एससी: 7,15,20,27,35,41,47,54,61,68,74,81,87,94,99,107,114,121,127,135, 140,147,154,162,168,174,180,187,195,199वांपद
एसटी : 14,28,40,55,69,80,95,108,120,136,148,160,175,188,198वां पद

विवाद की वजह
प्रो. काले समिति  द्वारा बनाए गए इस रोस्टर ने विश्वविद्यालों द्वारा निकाली जा रही नियुक्तियों में आरक्षित वर्ग की सीटों की चोरी को लगभग नामुमकिन बना दिया, क्योंकि इसने यह तक तय कर दिया कि आने वाला पद किस समुदाय के कोटे से भरा जाना है। इस वजह से बीएचयू, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, शांति निकेतन विश्वविद्यालय सहित अधिकाँश विश्वविद्यालय इस रोस्टर के खिलाफ हो गए थे। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि यह रोस्टर एससी-एसटी के लिए 1997 और ओबीसी के लिए 2006 से लागू माना जाना था, साथ ही एससीएसटी को बैकलॉग भी देना था । मान लीजिए कि किसी विश्वविद्यालय ने 2005 से अपने यहां आरक्षण लागू किया, लेकिन उसने अपने यहां उसके बाद भी किसी एसटी, एससी, ओबीसी को नियुक्त नहीं किया।
ऐसी सूरत में उस विश्वविद्यालय में 2005 के बाद नियुक्त हुए सभी असिस्टेंट प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसरों की सीनियरिटी के अनुसार तीन अलग-अलग लिस्ट बनेगी। अब मान लीजिए कि अगर उस विश्वविद्यालय ने असिस्टेंट प्रोफेसर पर अब तक 43 लोगों की नियुक्ति हुई जिसमें कोई भी एससी-एसटी और ओबीसी नहीं है, तो रोस्टर के अनुसार उस विश्वविद्यालय में अगले 11 पद ओबीसी, 06 पद एससी, और 03 पद एसटी उम्मीदवारों से भरने ही पड़ेंगे, और जब तक आरक्षित पद नहीं भरे जाएँगे तब तक उक्त विश्वविद्यालय कोई भी असिस्टेंट प्रोफेसर पद पर अनारक्षित वर्ग की नियुक्ति नहीं कर सकता है, यहीं से नियुक्तियों का पैच फँस गया क्योंकि मनुवादियों के सरे चोर दरवाजे बंद हो गये जिसको वे आरक्षण-विरोधी मानसिकताओं के जजों, कुलपतियों और न्यायालयों के माध्यम से भरना चाहते हैं और इलाहबाद हाईकोर्ट तथा सुप्रीमकोर्ट के अभी हाल ही में आये निर्णय इसी की परिणिति है ।
परिणामस्वरूप कई विश्वविद्यालयों ने तो रोस्टर मानने से ही इनकार कर दिया । चूंकि ज़्यादातर विश्वविद्यालयों ने अपने यहां प्रतिनिधित्व सिर्फ कागज पर ही लागू किया था, इसलिए इस रोस्टर के आने के बाद वे बुरी तरह फंस गए और अब फड़फड़ा रहे हैं । सबसे बड़ी बात तो यह भी है कि उच्च शिक्षण संस्थानों / विश्वविद्यालयों में 70 के दशक में लगी नौकरियों में सवर्ण लोगों ने कब्ज़ा किया हुआ है और वे अब सेवानिवृत्त हो रहे हैं तो एक तरफ वे उच्च शिक्षण संस्थानों में उनके वर्चस्व वे बनाये रखना चाहते हैं । दूसरी तरफ ख़ाली हुए अधिकाँश पदों पर एससी-एसटी का बैकलॉग बनेगा, जो सवर्णों को फूटी आँख नहीं सुहा रहा है ।   
साथ ही, चूंकि वो नया पद अनारक्षित वर्ग के लिए तब तक नहीं निकाल सकते थे, जब तक कि पुराना बैकलॉग भर न जाय। ऐसे में इलाहाबाद विश्वविद्यालय, बीएचयू, डीयू, और शांति निकेतन समेंत तमाम विश्वविद्यालयों ने इस रोस्टर को विश्वविद्यालय स्तर पर लागू किए जाने का विरोध करने लगे। उन्होंने विभाग स्तर पर ही रोस्टर लागू करने की मांग की। इन विश्वविद्यालयों ने 200 पॉइंट रोस्टर को जब लागू करने से मना कर दिया, तो यूजीसी के तत्कालीन चेयरमैन प्रोफेसर सुखदेव थोराट ने प्रो. राव साहब काले की ही अध्यक्षता में इनमें से कुछ विश्वविद्यालयों के खिलाफ जांच समिति  बैठा दी तो दिल्ली विश्वविद्यालय का फंड तक रोक दिया था। दिल्ली विश्वविद्यालय का फंड तब प्रधानमंत्री कार्यालय के हस्तक्षेप से ही रिलीज हो पाया था। चूंकि उन दिनों केंद्र की यूपीए सरकार के तमाम घटक दलों में क्षेत्रीय पार्टियां थीं, इसलिए तब इन विश्वविद्यालयों में विरोध परवान नहीं चढ़ पाया था।
मोदी सरकार आने के बाद आरक्षण विरोधियों और आरएसएस के हौसले बुलंद
इसी बीच 2014 के आम चुनाव बाद बनीं केंद्र में सरकार की मेहरबानियों की वजह से विश्वविद्यालयों की नियामक संस्था, यूजीसी में 200 पॉइंट रोस्टर का विरोधी रहा तबका, प्रमुख स्थानों पर विराजमान हो गया। बदले प्रशासनिक माहौल में यह रोस्टर इलाहाबाद हाईकोर्ट में चैलेंज होता है, और वहां से निर्णय आता है कि रोस्टर को विश्वविद्यालय स्तर पर लागू न करके विभाग स्तर पर लागू किया जाये। वस्तुतः किसी भी उच्च न्यायालय का निर्णय उसके ज्यूरीडिक्शन में ही लागू होता है पर दुर्भावनावश यूजीसी ने उसको सारे देश में लागू कर दिया। फिर बहुजनों का सड़क और  संसद में हंगामा होता है, और मामले को शांत करने के लिए उच्चतम न्यायालय में एसएलपी दायर हुई और मोदीसरकार के वकीलों ने आरएसएस के नेतृत्व में केस की बहुत ही कमजोर पैरवी की और दायर याचिका ख़ारिज हुई । परंतु यह देखना है कि क्या केंद्र सरकार इस मामले में अध्यादेश लाती है, या फिर कई और वादों की तरह मुकर जाती है।
आजादी के बाद से 70 वर्षों से सामाजिक अन्याय बहुत हो चुका हैं अब हम इस अन्याय को सहन नहीं कर सकते हैं। अब सामाजिक न्याय के लिए इस बार सरकार से सड़क से संसद तक संघर्ष करेंगें और साथ ही केंद्र और राज्य सरकारों से अपील करेंगे। 200Point रोस्टर वाले मसले का फिलहाल एकमात्र समाधान मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा अध्यादेश लाकर या कानून बनवाकर, देश के समस्त शैक्षणिक संस्थानों में सभी वर्गों का संवैधानिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करवाना ही है। इसीलिए हम सबकी कोशिश यही होनी चाहिए कि जबतक लोकसभा चुनाव की अधिसूचना नहीं जारी हो जाती तब तक मानव संसाधन विकास मंत्रालय पर दबाव बनवाकर अध्यादेश या कानून बनवाया जाय ताकि वंचित वर्गों के साथ 70 सालों से जो सामाजिक अन्याय हो रहा हैं उसे रोका जा सके और वंचित वर्गों को सामाजिक न्याय मिल सकें।

मोदीसरकार के पास अब विकल्प क्या है?

1)  मोदीसरकार के पास अब तीन ही रास्ते हैं और तीनों का वैचारिक आधार अलग है। सरकार सुप्रीमकोर्ट का फैसला लागू करे और रिज़र्वेशन का अंत कर दे! अगर सरकार को लगता है कि सवर्णों को खुश करने से उसका काम चल जाएगा और आरक्षण विरोधी नज़र आना उसके लिए फायदेमंद होगा, तो सरकार को अब कुछ नहीं करना चाहिए।
2)  सुप्रीमकोर्ट का फैसला अपने आप लागू हो जाएगा और विश्वविद्यालयों की नियुक्तियों में बहुजनों का आरक्षण खत्म हो जाएगा, वे वापस पेशवाई-युग में जीने लगेंगे तो आरएसएस की आत्मा को संतुष्टि मिल जाएगी। मनुस्मृति ख़ुद-ब-ख़ुद लागू हो जाएगी पर सरकार ये फैसला तभी लेगी, जब उसे भरोसा होगा कि एससी-एसटी-ओबीसी इसका संगठित रूप से विरोध नहीं करेंगे। वे कमर में झाड़ू और गले में थूक-पात्र लगाने को तैयार नहीं होंगे, पर क्या चुनाव करीब होने के कारण सरकार यह फैसला लेगी?
3)  या मोदीसरकार इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की बड़ी बैंच के पास जाए। सरकार चाहे तो इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका या किसी और याचिका के माध्यम के ज़रिए अपील करे और बड़ी बेंच के सामने सुनवाई की अपील करे। ऐसा करने से सरकार को थोड़ा समय मिल जाएगा और एससी-एसटी-ओबीसी का गुस्सा भी मैनेज हो जाएगा। चूंकि सरकार 10% आरक्षण के ज़रिए सवर्णों के सामने गाजर लटका ही चुकी है, इसलिए उसे सवर्णों की नाराज़गी का डर नहीं होगा।
4)   या फिर मोदीसरकार तत्काल अध्यादेश या सत्र के दौरान कानून लाकर सुप्रीमकोर्ट के फैसले को पलट दे और विश्वविद्यालयों में नियुक्ति-प्रक्रियाओं पर तब तक पाबंदी लगाकर रखे जब तक अध्यादेश या कानून प्रभावी नहीं हो । अगर सरकार संविधान की भावना के मुताबिक काम करना चाहती है और चाहती है कि आरक्षण लागू हो, तो उसके पास मात्र कानून बनाने या अध्यादेश लाने का विकल्प खुला है। सरकार ऐसा तभी करेगी, जब उसे इस बात का भय होगा कि ऐसा न करने से एससी-एसटी-ओबीसी नाराज़ हो सकते हैं।

Sunday 27 January 2019

आदिवासी: आधुनिक संदर्भ (TRIBES : NOW-A- DAYS) : प्रोफ़ेसर राम लखन मीना, राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय, अजमेर

                  प्रोफ़ेसर राम लखन मीना, राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय, अजमेर

सामान्यत: "आदिवासी" (ऐबोरिजिनल) शब्द का प्रयोग किसी भौगोलिक क्षेत्र के उन निवासियों के लिए किया जाता है जिनका उस भौगोलिक क्षेत्र से ज्ञात इतिहास में सबसे पुराना सम्बन्ध रहा हो। परंतु संसार के विभिन्न भूभागों में जहाँ अलग-अलग धाराओं में अलग-अलग क्षेत्रों से आकर लोग बसे हों उस विशिष्ट भाग के प्राचीनतम अथवा प्राचीन निवासियों के लिए भी इस शब्द का उपयोग किया जाता है। उदाहरणार्थ, "इंडियन" अमरीका के आदिवासी कहे जाते हैं और प्राचीन साहित्य में दस्यु, निषाद आदि के रूप में जिन विभिन्न प्रजातियों समूहों का उल्लेख किया गया है उनके वंशज समसामयिक भारत में आदिवासी माने जाते हैं। अधिकांश आदिवासी संस्कृति के प्राथमिक धरातल पर जीवनयापन करते हैं। वे सामन्यत: क्षेत्रीय समूहों में रहते हैं और उनकी संस्कृति अनेक दृष्टियों से स्वयंपूर्ण रहती है। इन संस्कृतियों में ऐतिहासिक जिज्ञासा का अभाव रहता है तथा ऊपर की थोड़ी ही पीढ़ियों का यथार्थ इतिहास क्रमश: किंवदंतियों और पौराणिक कथाओं में घुल मिल जाता है। सीमित परिधि तथा लघु जनसंख्या के कारण इन संस्कृतियों के रूप में स्थिरता रहती है, किसी एक काल में होनेवाले सांस्कृतिक परिवर्तन अपने प्रभाव एवं व्यापकता में अपेक्षाकृत सीमित होते हैं। परंपराकेंद्रित आदिवासी संस्कृतियाँ इसी कारण अपने अनेक पक्षों में रूढ़िवादी सी दीख पड़ती हैं। उत्तर और दक्षिण अमरीका, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, एशिया तथा अनेक द्वीपों और द्वीपसमूहों में आज भी आदिवासी संस्कृतियों के अनेक रूप देखे जा सकते हैं।
भारत में अनुसूचित आदिवासी समूहों की संख्या 292 है। सन् 1951 की जनगणना के अनुसार आदिवासियों की संख्या 1,91,11,498 है। 2011 की जनगणना के अनुसार देश की जनसंख्या का 8.36 प्रतिशत भाग आदिवासी स्तर का है। प्रजातीय दृष्टि से इन समूहों में नीग्रिटो, प्रोटो-आस्ट्रेलायड और मंगोलायड तत्व मुख्यत: पाए जाते हैं, यद्यपि कतिपय नृतत्ववेत्ताओं ने नीग्रिटो तत्व के संबंध में शंकाएँ उपस्थित की हैं। भाषाशास्त्र की दृष्टि से उन्हें आस्ट्रो-एशियाई, द्रविड़ और तिब्बती-चीनी-परिवारों की भाषाएँ बोलनेवाले समूहों में विभाजित किया जा सकता है। भौगोलिक दृष्टि से आदिवासी भारत का विभाजन चार प्रमुख क्षेत्रों में किया जा सकता है : उत्तरपूर्वीय क्षेत्र, मध्य क्षेत्र, पश्चिमी क्षेत्र और दक्षिणी क्षेत्र। उत्तर पूर्वीय क्षेत्र के अंतर्गत हिमालय अंचल के अतिरिक्त तिस्ता उपत्यका और ब्रह्मपुत्र की यमुना-पद्या-शाखा के पूर्वी भाग का पहाड़ी प्रदेश आता है। इस भाग के आदिवासी समूहों में गुरूंग, लिंबू, लेपचा, आका, डाफला, अबोर, मिरी, मिशमी, सिंगपी, मिकिर, राम, कवारी, गारो, खासी, नाग, कुकी, लुशाई, चकमा आदि उल्लेखनीय हैं। मध्यक्षेत्र का विस्तार उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले के दक्षिणी ओर राजमहल पर्वतमाला के पश्चिमी भाग से लेकर दक्षिण की गोदावरी नदी तक है। संथाल, मुंडा, उरांव, हो, भूमिज, खड़िया, बिरहोर, जुआंग, खोंड, सवरा, गोंड, भील, बैगा, कोरकू, कमार आदि इस भाग के प्रमुख आदिवासी हैं। पश्चिमी क्षेत्र में भील, ठाकुर, कटकरी आदि आदिवासी निवास करते हैं। मध्य पश्चिम राजस्थान से होकर दक्षिण में सह्याद्रि तक का पश्चिमी प्रदेश इस क्षेत्र में आता है। गोदावरी के दक्षिण से कन्याकुमारी तक दक्षिणी क्षेत्र का विस्तार है। इस भाग में जो आदिवासी समूह रहते हैं उनमें चेंचू, कोंडा, रेड्डी, राजगोंड, कोया, कोलाम, कोटा, कुरूंबा, बडागा, टोडा, काडर, मलायन, मुशुवन, उराली, कनिक्कर आदि उल्लेखनीय हैं।
नृतत्ववेत्ताओं ने इन समूहों में से अनेक का विशद शारीरिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक अध्ययन किया है। इस अध्ययन के आधार पर भौतिक संस्कृति तथा जीवनयापन के साधन सामाजिक संगठन, धर्म, बाह्य संस्कृति, प्रभाव आदि की दृष्टि से आदिवासी भारत के विभिन्न वर्गीकरण करने के अनेक वैज्ञानिक प्रयत्न किए गए हैं। इस परिचयात्मक रूपरेखा में इन सब प्रयत्नों का उल्लेख तक संभव नहीं है। आदिवासी संस्कृतियों की जटिल विभिन्नताओं का वर्णन करने के लिए भी यहाँ पर्याप्त स्थान नहीं है। यद्यपि प्राचीन काल में आदिवासियों ने भारतीय परंपरा के विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया था और उनके कतिपय रीति रिवाज और विश्वास आज भी थोड़े बहुत परिवर्तित रूप में आधुनिक हिंदू समाज में देखे जा सकते हैं, तथापि यह निश्चित है कि वे बहुत पहले ही भारतीय समाज और संस्कृति के विकास की प्रमुख धारा से पृथक् हो गए थे। आदिवासी समूह हिंदू समाज से न केवल अनेक महत्वपूर्ण पक्षों में भिन्न है, वरन् उनके इन समूहों में भी कई महत्वपूर्ण अंतर हैं। समसामयिक आर्थिक शक्तियों तथा सामाजिक प्रभावों के कारण भारतीय समाज के इन विभिन्न अंगों की दूरी अब क्रमश: कम हो रही है। आदिवासियों की सांस्कृतिक भिन्नता को बनाए रखने में कई कारणों का योग रहा है। 
मनोवैज्ञानिक धरातल पर उनमें से अनेक में प्रबल "जनजाति-भावना" (ट्राइबल फीलिंग) है। सामाजिक-सांस्कृतिक-धरातल पर उनकी संस्कृतियों के गठन में केंद्रीय महत्व है। असम के नागा आदिवासियों की नरमुंडप्राप्ति प्रथा बस्तर के मुरियों की घोटुल संस्था, टोडा समूह में बहुपतित्व, कोया समूह में गोबलि की प्रथा आदि का उन समूहों की संस्कृति में बड़ा ही महत्वपूर्ण स्थान है। परंतु ये संस्थाएँ और प्रथाएँ भारतीय समाज की प्रमुख प्रवृत्तियों के अनुकूल नहीं हैं। आदिवासियों की संकलन-आखेटक-अर्थव्यवस्था तथा उससे कुछ अधिक विकसित अस्थिर और स्थिर कृषि की अर्थव्यवस्थाएँ अभी भी परंपरास्वीकृत प्रणाली द्वारा लाई जाती हैं। परंपरा का प्रभाव उनपर नए आर्थिक मूल्यों के प्रभाव की अपेक्षा अधिक है। धर्म के क्षेत्र में जीववाद, जीविवाद, पितृपूजा आदि हिंदू धर्म के समीप लाकर भी उन्हें भिन्न रखते हैं। आज के आदिवासी भारत में पर-संस्कृति-प्रभावों की दृष्टि से आदिवासियों के चार प्रमुख वर्ग दीख पड़ते हैं। प्रथम वर्ग में पर-संस्कृति-प्रभावहीन समूह हैं, दूसरे में पर-संस्कृतियों द्वारा अल्पप्रभावित समूह, तीसरे में पर-संस्कृतियों द्वारा प्रभावित, किंतु स्वतंत्र सांस्कृतिक अस्तित्ववाले समूह और चौथे वर्ग में ऐसे आदिवासी समूह आते हैं जिन्होंने पर-संस्कृतियों का स्वीकरण इस मात्रा में कर लिया है कि अब वे केवल नाममात्र के लिए आदिवासी रह गए हैं।
आधुनिक राष्ट्र, समाज एवं सरकारों के उद्भव के साथ अपनी स्वतन्त्र ईकाई के सन्दर्भ में ऐसे मूलवासी समुदाय राजनीति के स्तर पर अपने अस्तित्व एवं अधिकारों के लिये एक विषिष्ट पहचान बनाने की प्रक्रिया से गुजरते आये हैं। काल-खण्डानुक्रम की दृष्टि से प्राचीन काल, उपनिवेषवाद काल एवं आधुनिक काल के संदर्भ में इनकी अस्मिता, पराभव एवं पुनरूत्थान की प्रक्रिया को समझना आसान होगा। इस प्रक्रिया में होने वाले नस्ल परिवर्तन, सांस्कृतिक प्रदूषण, भाषागत अर्न्तक्रिया, मूल्यगत हृास की दृष्टि से परम्परा एवं आधुनिकता का अर्न्तसंघर्ष, अर्न्तविरोध, अर्न्तक्रिया, परस्पर प्रभाव जैसी प्रमुख स्थितियां उभर कर सामने आती हैं । इस क्रम में भू-भाग विषेष महत्वपूर्ण तत्व न रहकर मानव समूहों के बिखराव एवं विस्थापन की स्थिति सामने आती है। यहां वनांचल से मुख्य भूमि, गावों से शहर और परम्परागत समाज से आधुनिक समाज की ओर अग्रसर होने की स्वाभाविकता या विवषता भी महत्वपूर्ण बन जाती है। निष्चित रूप से इतिहास एवं संस्कृति जैसे प्रमुख क्षेत्र प्रभावित होते हैं और प्राचीन ऐतिहासिकता एवं मौलिक संस्कृति के संरक्षण के प्रष्न सामने आते हैं। 
मूलवासियों को सर्वाधिक त्रासदी का सामना उपनिवेष-काल के दौर में करना पड़ा था जो पन्द्रहवीं शताब्दी से शुरू होकर बीसवीं सदी के मध्य पार तक चला। नव साम्राज्यवाद एवं वैष्विकीकरण के इस दौर में मूलवासियों की समस्याओं के और अधिक पेचीदा बनने की संभावनाएं सामने हैं, चूंकि वे उच्च तकनीकी, बाजारवाद एवं पूंजी की वर्तमान भूमिका से सर्वथा अपरिचित हैं। मूलवासियों का विष्व-समाज आधुनिक प्रगतिषील जगत से स्वयं को पृथक व पिछड़ा हुआ महसूस करता है और है भी। मूलवासियों को सर्वाधिक त्रासदी का सामना उपनिवेष-काल के दौर में करना पड़ा था जो पन्द्रहवीं शताब्दी से शुरू होकर बीसवीं सदी के मध्य पार तक चला। नव साम्राज्यवाद एवं वैष्विकीकरण के इस दौर में मूलवासियों की समस्याओं के और अधिक पेचीदा बनने की संभावनाएं सामने हैं, चूंकि वे उच्च तकनीकी, बाजारवाद एवं पूंजी की वर्तमान भूमिका से सर्वथा अपरिचित हैं। मूलवासियों का विष्व-समाज आधुनिक प्रगतिषील जगत से स्वयं को पृथक व पिछड़ा हुआ महसूस करता है और है भी।
संविधान की प्रस्तावना: " हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को :सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करनेवाली बंधुता बढाने के लिए दृढ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर, 1949 ई0 (मिति मार्ग शीर्ष शुक्ल सप्तमी, सम्वत् दो हजार ग्यारह विक्रमी) को एतद द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।" भारत सरकार ने इन्हें भारत के संविधान की पांचवी अनुसूची में " अनुसूचित जनजातियों " के रूप में मान्यता दी है। अक्सर इन्हें अनुसूचित जातियों के साथ एक ही श्रेणी " अनुसूचित जातियों और जनजातियों " मे रखा जाता है जो कुछ सकारात्मक कार्रवाई के उपायों के लिए पात्र है। 
आदिवासी के अपने जनजातीय संप्रदाय हैं, जो इस्लाम या वैदिक हिंदू धर्म से अलग हैं पर तांत्रिक शैव के अधिक करीब हैं। 19 वीं सदी के दौरान ईसाई मिशनरियों द्वारा इनकी एक बडी़ संख्या का परिवर्तन कराकर ईसाई बना दिया गया। माना जाता है कि हिंदुओं के देव भगवान शिव भी मूल रूप से एक आदिवासी देवता थे लेकिन आर्यों ने भी उन्हें देवता के रूप मे स्वीकार कर लिया। आदिवासियों का जिक्र रामायण में भी मिलता है, जिसमें राजा गोहु और उनकी प्रजा चित्रकूट में श्रीराम की सहायता करती है। आधुनिक युग में एक आदिवासी बिरसा मुंडा, एक प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी होने के साथ एक धार्मिक नेता भी थे। रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि भी एक भील आदिवासी थे। बहुत से छोटे आदिवासी समूह आधुनिकीकरण के कारण हो रहे पारिस्थितिकी पतन के प्रति काफी संवेदनशील हैं। व्यवसायिक वानिकी और गहन कृषि दोनों ही उन जंगलों के लिए विनाशकारी साबित हुए हैं जो कई शताब्दियों से आदिवासियों के जीवन यापन का स्रोत रहे थे। जनजाति (tribe) वह समाज है जो राज्य के विकास के पूर्व अस्तित्व में था या जो अब भी राज्य के बाहर हैं। 
भारत में राजस्थान पुरातन काल से ही विभिन्न जातियों, समुदायों, कला और संस्कृतियों से समृद्घ रहा है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों से तो सभी भली-भांति परिचित हैं ही परंतु शताब्दियों से जो विभिन्न जनजातियां यहां निवास कर रही हैं, उनके बारे में अधिकांश लोगों को बहुत कम जानकारी है। यह समय का चक्र है कि किसी समय इनका वैभव भी अपनी पराकाष्ठा पर था। इनके शौर्य की अनेक गाथाएं इतिहासकारों ने नहीं लिखीं। शिलालेखों और ताम्रपत्रों के पन्नों में इनका उल्लेख यत्र-तत्र बिखरा पड़ा है। राजस्थान की मीणा और भील जनजातियों को ही ले लीजिए। इतिहास बोलता है कि राजपूतों के उदय से पहले सारे राजस्थान पर इन्हीं लोगों का आधिपत्य था पर विजेता राजूपतों ने इनके इतिहास और संस्कृति का बड़ी निर्ममता के साथ विनाश कर दिया। नतीजतन इनके पुरातन गौरवपूर्ण इतिहास का बहुत कम अंश ही सुरक्षित रह पाया है। मीणा जनजाति राजस्थान की प्राचीनतम जनजाति है। 
प्राचीन काल में यही जाति मत्स्य जाति के नाम से जानी जाती थी। जिसका प्रकीण उल्लेख ऋग्वेद, विभिन्न पुराण ग्रंथों बौद्ध और जैन साहित्य में मिलता है। कालांतर में इसी प्रदेश के विभिन्न भागों में विभिन्न नामों से संबोधित की जाती रही ये जनजाति जैसे-मेद, मेव, मेर, मीणा, रावत आदि। मीणा और भील जनजातियों की उत्पत्ति के बारे में अनेक किवदंतियां प्रचलित है। उनमें से अधिकांश तो सर्वथा अविश्वसनीय हैं। इतिहासकार रावत सारस्वत के अनुसार मीणा लोग सिंधु घाटी सभ्यता के प्रोटां द्रविड़ लोग हैं, जिनका गणचिन्ह मछली था। आर्य लोग इन्हें मीन शब्द के पर्याय मत्स्य से संबोधित करते रहे, जबकि ये लोग स्वयं को मीना ही कहते रहे। पर्याप्त समय बीत जाने पर वैदिक साहित्य में इन्हें आर्य मान लिया गया था। ये लोग सीथियन, शक, क्षत्रप, हूण जाति के वंशज न होकर यहां के आदिवासी ही माने जाते हैं, जो भले ही कभी पुरातन काल में बाहर से आकर बसे हों। इतिहासकारों के अनुसार आर्यों तथा अन्य जातियों के खदेड़े जाने पर ही ये सिंधु घाटी से हटकर अरावली पर्वतमाला में आ बसे, जहां इनके गोत्र आज भी हैं। (मीणा इतिहास, पृष्ठ 21) विभिन्न ग्रंथों में मीना शब्द की व्याख्या इस प्रकार से की गयी है। 
मीनाति मन्युनीति मीन (अभियान चिंतामणिकोष) अर्थात् दुष्टों को मारने वाली जाति को मीना कहते हैं। मी बधे, त्रियाडम शब्दसेट, मीनाति, मीनीते, आसीत आमास्तावतः मीनाः (अभियान चिंतामणि कोष) अर्थात अनार्थ दैत्यों का वध करने वाली क्षत्रिय जाति को मीना कहते हैं। हिन मीना पाणि केन मीनो, इति निपात्यते सिद्धांत कौमुदी अर्थात दुष्टों को मार कर गौ-ब्राह्मण की रक्षा करने वाले वीर क्षत्रिय समाज को मीना कहते हैं। मीणा जनजाति राजस्थान के अलावा मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब में भी पाई जाती है। यह सुनिश्चित है कि अन्य प्रदेशों में बसे मीणा लोगों का मूल निवास पहले राजस्थान ही था। यहीं से ये लोग अन्य प्रदेशों में जाकर बसे हैं। 
मीणा जाति में 12 पाल, 32 तर्ड़ें और 5200 गोत्र होना बताया जाता है, राजपूतों के आगमन से पहले राजस्थान की इस धरती पर इन्हीं लोगों के छोटे-छोटे राज्य थे। खोह पर चांदा गोत्रीय मीणों का राज्य था। इस राज्य के अंतिम राजा आलनसिंह को उसी के धर्म भानजा दूल्हाराय कछावा ने संवत 1023 में उस समय धोखे से मारकर उसका राज्य हस्तगत किया। जब वह अपने सैनिकों और सामंतों सहित निःशस्त्र होकर तालाब के पानी में घूसकर अपने पित्तरों का तर्पण कर रहे थे।माची का सीहरा राज्य। इस राज्य पर सीहरा गोत्रीय मीणा राजा राव नाथ का अधिकार था। इस राज्य को भी दूल्हाराय कछावा ने ही जीता। राव नाथू का पुत्र मेंदा बड़ा पराक्रमी था। अतएव वह चुप नहीं बैठा अन्त में दूल्हाराय कछावा माची के निकट रराव मेदा से युद्ध करते हुए मारा गया। गेटोरघाटी और झोटवाड़ा का नॉडला राज्य। इन दोनों राज्यों पर नॉढला गोत्रीय मीणों का अधिकार था। दूल्हाराय कछावा की म़ृत्यु के पश्चात उसके पुत्र कांकिल ने इन दोनों राज्यें को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया।
आमेर का सूसावत राज्य। आमेर में सूसावत गोत्रीय मीणों का राज्य था। आमेर अंतिम मीणा राजा शूरसिंह सूसावत से मैदलराव कछावा ने यह राज्य छलकपट से जीता। मैदलराव न अम्बिकेश्वर महादेव के दर्शनों के बहाने पालकियों में अपने सिपाही ले जाकर आमेर में प्रवेश किया था। अवसर पाकर राजूपतों ने उनके स्वागत के लिए आये शूरसिंह के पुत्र भानोराव और उसके अंगरक्षकों का सिर धड़ से अलग कर दिए गए। फलस्वरूप चारों ओर भगदड़ मच गई, जिसका लाभ उठाकर मैदन राव और उसके सैनिकों ने आमेर पर अपना अधिकार लिया। आमेर ढूंढाड़ क्षेत्र के सब मीणा राज्यों के संघ का प्रधान स्थान और भानोराव उस संघ का प्रमुख था। रावत सारस्वत (मीणा इतिहास पृष्ठ संख्या 147) के अनुसार दहाराय ने चांदा मीणों का भाजना बनकर और कांकिल ने सूसावत मीणों के गोद बैठकर राज्यसत्ता हस्तगत की थी। इस प्रकार ढूंढाड़ के मीणा राज्य कछावाओं को विजय स्वरूप न मिलकर समझौते के रूप में मिले थे। 
यही कारण है कि कालाखोह के मीणों द्वारा पैर के अंगूठे के रक्त से कछावा शासकों का राजतिलक करने का रिवाज था। जो मेवाड़ के भीलों की तरह था तथा अब नहीं है। (कर्नल डॉट कृत एनाल्स एंड एण्टीविवाटीज आफ राजस्थान जिल्द 2, पृष्ठ संख्या 347) नहान का गोमलाडू राज्य। दौसा के निकट बांसखो के आसपास गोमलाडू गोत्रीय मीणों का राज्य था। जिसे भारमल कछावा ने जीतकर अपने राज्य में मिलाया था। इसी प्रकार देवबंद के काटाराव मीणा का राज्य काकिल के समय, बैनाड के राव धूहड़ मीणा का राज्य पज्जूणा कछावा के समय और ध्यावण का मीणा राज्य मलेसी कछावा के समय जीते गए। रणथम्भौर पर टाटू गोत्रीय मीणों का राज्य था। टाटू राजा जुहारसिंह को सारंगदेव चौहान ने टाटू राजकुमारी से शादी करने के बहाने सैनिकों सहित रणथम्भौर किले में घुसकर धोखे से परास्त किया था।बूंदी का उषारा गोत्रीय मीणों का राज्य था। सूसावत मीणों से पहले आमेर पर इन्हीं उषारा गोत्रीय का राज्य था। ये लोग बूंदी कब और कैसे आये, इसका कुछ पता नहीं चलता। यहां के मीणा राजा जेता को देवा चौहान ने राजपूत कन्या ब्याहने के बहाने बुलाया और उसे तथा उसके बरातियों को खूब शराब पिलाकर बहुसंख्यक मीणों का नरसंहार करके उसका राज्य छीन लिया। 
डा मथुरालाल शर्मा ने इस संदर्भ में लिखा है कि धोखा देना ही शायद रापूतों की युद्ध नीति रही थी, क्योंकि भीलों से कोटा और मीणों से सिरोही के राज्य भी इन्होंने इसी प्रकार लिए थे। (कोटा राज्य का इतिहास जिल्द 1 पृष्ठ संख्या 58) पीला और सिरोही जिलों का क्षेत्र गोडवाड़ कहलाता है। कभी इस इलाके के दूसरी व नाडौल पर गौड गोत्रीय मीणों का अधिपत्य था। मेवाड़ के महाराणा रायमल के पुत्र पृथ्वीराज ने इन पर आक्रमण कर अपना कब्जा जमाया था। बनास नदी के दोनों ओर के प्रदेश को खौराड़ कहते हैं। इस प्रदेश में कभी बरड़ गोत्रीय मीणों का राज्य था। जिसकी राजधानी गोरमगढ़ थी। इस राज्य को महाराणा प्रताप के भाई जगमल ने मीणों से छीना था। भील जनजाति राजस्थान की दूसरी प्रमुख प्राचीन जनजाति है। जिस प्रकार उत्तरी राजस्थान में राजपूतों के उदय से पहले मीणों के राज्य रहे, उसी प्रकार दक्षिणी राजस्थान और हाड़ौती प्रदेश में भीलों के अनेक छोटे-छोटे राज्य रहे है। 
प्राचीन संस्कृत साहित्य में भील शब्द लगभग सभी बनवासी जातियों जैसे निषाद, शबर आदि के लिए समानार्थी रूप से प्रयुक्त हुआ है। इस प्रकार भील संज्ञा प्राचीन संस्कृति साहित्य में उस वर्ग विशेष के लिए प्रयुक्त की जाती थी जो धनुष-बाण से शिकार करके अपना पेट-पालन करते थे यह देखा गया है कि इस स्थिति को परवर्ती साहित्य में भी लगभग ज्यों का त्यों बरकरार रखा गया। मेवाड़ बागड़ और गोवाड़ प्रदेश में चार विभिन्न जनजातियां मीणा, भील, डामोर और गिरीसिया निवास करती है पर पत्रकार और लेखक इन चारों के लिए केवल भील संज्ञा ही प्रयुक्त करते हैं। आज भी सामान्यतः लोगों की यही धारणा है कि उपरोक्त समूचे प्रदेश में केवल भील जनजाति ही निवासी करती है।
विद्वानों के अनुसार भील शब्द की उत्पत्ति द्रविड़ शब्द ‘बील’ से हुई है जिसका अर्थ है धनुष। धनुष-बाण भीलों का मुख्य शस्त्र था अतएव ये लोग भील कहलाने लगे। एक दूसरे मत के अनुसार भील भारत की प्राचीनतम जनजाति है। इसकी गणना पुरातन काल में राजवंशों में की जाती थी। जो विहिल नाम से जाना जाता था। इस वंश का शासन पहाड़ी इलाकों में था। आज भी ये लोग मुख्यतः पहाड़ी इलाकों में रहते हैं। इस संदर्भ में एक कहावत भी प्रचलित है कि संसार में केवल साढ़े तीन राजा ही प्रसिद्ध है इन्द्र राजा, राजा और भील राजा तथा आधे में बींद (दूल्हा राजा)। मेवाड़ की स्थापना के बाद से ही मेवाड़ के महाराणाओं को भील जनजातियों को निरंतर सहयोग मिलता रहा। महाराणा प्रताप इन्हीं लोगों के सहयोग से वर्षों तक मुगल फौजों से लोहा लेते रहे थे। यही कारण है कि उनकी सेवाओं के सम्मान-स्वरूप मेवाड़ के राज्य चिन्ह में एक ओर राजपूत और दूसरी ओर भील दर्शाया जाता था। आमेर के कछावा राजाओं की भांति मेवाड़ के महाराणा भी भीलों के हाथ के अंगूठे के रक्त से अपना राजतिलक करवाते रहे थे। 
भील जनजाति राजस्थान के सब जिलों में न्यूनाधिक रूप से पाई जाती है। पर राजस्थान के दक्षिणांचल में इनका भारी जमाव है। भील जनजाति राजस्थान के अलावा मध्य प्रदेश गुजरात और महाराष्ट्र में भी पाई जाती है। राजपूतों के उदय से पहले राजस्थान की धरती पर निम्न क्षेत्रों में भीलों के राज्य रहे हैं। डूंगरपुर राज्य पर पहले डंगरिया मेर का अधिकार था जिसे चित्तौड़ के महाराजा रतन सिंह के पुत्र माहप ने धोखे से माकर उसका राज्य छीना, ऐसा कवि राजा श्यामलदास ने अपने ग्रंथ वीर विनाद में लिखा है। बांसवाड़ा राज्य पर पहले बांसिया भील का अधिपत्य था। डूंगरपुर के महारावल उदयसिंह के द्वितीय पुत्र जगमल ने इस राज्य को जीता और अपने अधिकार में लिया। कुशलगढ़ पर कटारा गोत्रीय कुशला भील का अधिकार था। अजमेर मेरवाड़ा क्षेत्र में मिणाय ठिकाना भी पहले मांदलियां भीलों के अधिकार में था। जिनका बनाया किला आज भी मौजूद है और गढ़ मांदलिया के नाम से प्रसिद्ध है। ईडर गुजरात में सोढ़ा गोत्र के सावलिया भील का राज्य था, जिसे हराकर राठौड़ों ने वहां अपनाप राज्य स्थापित किया, मेवाड़ में स्थित जवास जगरगढ़ पर भी भीलों का शासन था। जिसे चॉपनेर के खींचा राजाओं ने जीता जगरगढ़ को जोगरराज भील ने बसया था। 
मेवाड़ और मलवे के बीच का भू-भाग आमद कहलाता है। इस क्षेत्र के दो बड़े कस्बो रामपुरा और भानपुरा पर रामा और भाना नामक भीलों का अधिकार था जिन्हें परास्त करके सिसोदिया शाखा के वंशधर चंद्रावतों ने अपना अधिकार जमाया। कांठला प्रदेश देवलिया प्रतापगढ़ पर पहले मीणों का राज्य था। संवतः 1617 में बीका सिसोदिया ने वहां के सरदार भाभरिया मेर को मारकर उसके राज्य पर अपना अधिकार किया था भाभरिया मेर की पत्नी देउमीणी की चोटी आज भी प्रतापगढ़ के पहलों में मौजूद है, जिसकी हर साल नवरात्रिद्घ के अवसर पर धूमधाम से पूजा की जाती है। (वीर विनोद कविराजा श्यामलदास) इस संदर्भ में यहां यह जोड़ देना अप्रासंगिक नहीं होगा कि जयसमंद उदयपुर जिला से लेकर ठेठ प्रतापगढ़ चितौड़गढ़ जिला तक के क्षेत्र में रहने वाले आदिवासी सदियों से स्वयं को मीणा कहते-कहलाते आ रहे हैं। ये लोग अपने सर नेम के लिए भी बहुधा मीणा या रावत शब्द प्रयुक्त करते हैं।
कोटा पर शताब्दियों तक भीलों का शासन रहा। कोटा के पास आसलपुर की ध्वस्त नगरी तथा अकेलगढ़ का पुराना किला भीलों के ही थे। वहां के भील सरदार की उपाधि कोटिया थी। सन 1274 में बूंदी के तत्कालीन शासक समर सिंह के पुत्र जेतसिंह ने कोटिया भील को युद्ध में मार डाला और कोटा में हाड़ा वंश के शासन की जींव डाली। पुरानी परंपरा के अनुसार जेतसिंह ने कोटिया भील के नाम पर अपनी राजधानी का नाम कोटा रखा। झालावाड़ जिले के मनोहर थाना के आसपास के इलाके पर संवत् 1675 तक भील राजा चक्रसेन का राज्य था। कोटा के महाराव भीम सिंह ने राजा चक्रसेन को हराकर उसके राज्य पर अपना अधिकार कर लिया। कोटा राज्य का इतिहास (डा. मथुरालाल शर्मा पृष्ठ संख्या 300) मीणा और भील जनजातियों में अनेक फिर्को या उपजातियां है। 
हर फिर्को अपनी जातिया के नाम के पहले एक खास विशेषण लगाकर अपना अलग अस्तित्व कायम रखे हुए हैं। जैसे पढि़यारमीना, पचवारा मीना, मालवीभील मांदलिया आदि-आदि। भारत में लगभग 18 करोड 78 लाख लोग आदिवासी हैं संस्कृत में आदिवासी का अर्थ होता है किसी जगह के मूल निवासी). भौगोलिकता की नजर से देखे तो ये देश भर में बिखरे हुए हैं और कलचर में परस्पर भिन्न भिन्न है. यह माना जाता है कि ये लोग प्रबल और प्रभावशाली आर्यों के भारत आगमन के पहले से ही यंहा रहते चले आए है. इनकी अपनी एक अलग पहचान है जिसके प्रमुख पहलू है: अपना अलग धर्म, व्यक्ति का अलग समुदाय और प्रकुति से गहरा जुडाव, धन और बाज़ार पर बहुत ही कम निर्भरता, सामाजिक स्तर पर स्वप्रशासन की लंबी परंपरा और एक समतामूलक कलचर जिसमें हिन्दुओं की भेदभावपूर्ण, कठोर जाति प्रथा के लिय- कोई स्थान नहीं है. हिन्दू और मुस्लिम शासन के दौरान आदिवासियों के पारस्परिक संबंधों के बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है. अंग्रेजी उपनिवेश की स्थापना से पहले आदिवासी इलाकों में स्वशासन था और वे किसी भी बाहरी शासन का प्रतिरोध करते थे.
आदिवासियों के जीवन में बडे परिवर्तन भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता के आगमन के बाद ही शुरु हुए. उनके भारत आने का उद्देश्य यंहा के सर्वाधिक लाभदायक व्यापार पर कब्जा जमाना ही था, इसलिये अंग्रेज आदिवासी इलाकों पर कब्जा करना चाहते थे जो प्राकुतिक और खनिज सम्पदा के भंडार थे. तरह तरह कायदें- कानूनों के जरिये आदिवासी इलाकों पर नियंत्रण कायम किया गया और आदिवासियों को मजदूर वर्ग में तब्दील कर दिया गया क्योंकि व्यापार और बाज़ार पर आधारित नई व्यवस्थाएं आकार ले रही थी. अंग्रेजों नें भारत से तैयार वस्तुओं और कच्चे माल का निर्यात आरंभ कर दिया. कहना न होगा कि ब्रिटेन में औद्दौगिक क्रांति के उत्थान में एक कारण यह निर्यात भी था. औपनिवेशिक निंयत्रणों के कारण आदिवाशियों में विद्रोह फ़ैल गया. 1772 में मल पहाडिया की बगावत से लेकर सत्ता के खिलाफ़ 75 से भी ज्यादा प्रमुख विद्रोह हुए. फ़िर भी अंग्रेजों के दमन चक्र को न रोका जा सका. उपनिवेश- विरोधी राष्ट्रीय आंदोलन में उतरते हुए आदिवासियों की मंशा थी कि उन्हें औपनिवेशिक बंधनों और शोषण से मुक्ति मिलेगी. 
सत्ता के हस्तांतरण के बाद, एक ओर आदिवासियों की जीविका के लिये वनों पर निर्भरता ओर दूसरी तरफ़ वनों से अधिकाधिक आय प्राप्त करने की सरकारी नीति के चलते आदिवासी वन मजदूरों में बदल गये. कई राज्यों नें छोटे- छोटे वन उत्पादकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया और वन विभाग निगमों ( एफ़. डी. सी.) की स्थापना कर दी. 1878 में राज्य के स्वामित्य में केवल 36,260 वर्ग कि. मी. में वन था. जो 1890 में 196,840 वर्ग कि. मी. तक और 1970 में 750,000 वर्ग कि. मी. तक बढा दिया गया. वनों से प्राप्त राजकोषीय आय रु. 56 लाख से बढकर 1970 में 13,000 करोड हो गई. छोटे वन उत्पादनों से निर्यात आय 1960-61 में रु. 95 करोड थी जो 1990-91 में बढकर रु. 4198 करोड हो गई . 
यह भारत की कुल निर्यात आय का लगभग 13 प्रतिशत है. इस विपुल संपदा दोहन से आदिवासियों की आर्थिक स्थिति और खराब होती गई. उनकी मजदूरी 4 रु. से 22 रु. से कभी आगे नहीं बढ पाई है. आदिवासियों के आहार का 80% हिस्सा वनों से आता है और वे पुरातन समय से लकडी, घास, ओषधि, वनस्पतियों, राल और टेनिन जैसे उत्पादन इकट्ठा करते थे. आज वे ही वनपाल शोषित मजदूरों में तब्दील हो गए है. 1972 के वन्य जीवन अधिनियम ( वाइल्ड लाइफ़ प्रोटेक्शन एक्ट) में 147 वन्य जीवन अभयारण्यों और 75 राष्ट्रीय अभयारणों की योजना ने तो आदिवासियों को अपनी जीविका के कार्यकलापों को और सीमित करने या पूरी तरह त्याग देने पर मजबूर कर दिया.
भारत में वैश्वीकरण के बढ्ते खतरे ने जंहा शीत युद्ध की समाप्ति के बाद से स्थानीय उत्पादन में कमी आई और शिक्शा व स्वास्थ्य जैसी सामाजिक सेवाओं का निजीकरण बढने लगा . अस्पतालों की जगह निजी नर्सिंग होम ने ले ली और निजी स्कूल पनपने लगे . ऎसे अनेक सामाजिक कामों से राज्य का दूर हटते जाने का असर आम आदमी को प्राप्त लाभों में कमी के रुप में सामने आयेगा. इससे मौजूदा तनाव और बढेगा. उदारीकरण- अर्थव्यवस्था के निजीकरण के लिये देशी पूंजी को अधिकाधिक छूट देना और दूसरी है वैश्वीकरण- विदेशी पूंजी के प्रवाह के रास्ते से सभी रुकावटे दूर करना. ये दोनों कारण देश के सभी हिस्सों में संतुलित निवेश में सहायक नहीं है बल्कि इनके जरिये पूंजी पहले से विकसित उन्हीं प्रदेशों की ओर प्रवाहित होगी जंहा से तुरंत लाभ की संभावना हो. वे इलाकें जंहा अधिकांश आदिवासी रहते है. इस प्रक्रिया से अछूते हैं. कहना न होगा कि उदारीकरण उनकी तखलिफ़ों को ओर बढाएगा. संपन्न और विपन्न के बीच खाई और चौडी होगी और छ्त्तीसगढ, झारखंड, पश्चिम उडीसा और उत्तरपूर्वी भारत में गरीबी बढनें की संभावना और बढेगी.
अब चूंकी आदिवासियों की बस्तियोंवाले देश के 20% हिस्से में 70% खनिज और बहुत ज्यादा वन एंव जल स्त्रोत है इसलिये उन पर राष्ट्रपारीय (ट्रान्सनेंशनल) और नव उपनिवेशवादी हितों की नज़र अवश्य पडेगी. अतः आदिवासियों संबंधी सारे नियमों को हटाने के प्रयास किये जायेंगे जो बाजारु ताकतों को निर्बाध स्वतंत्रता देने की प्रकिया का ही एक हिस्सा है- और उदारीकरण और वैश्वीकरण के विस्तार के लिए आवश्यक है. इससे राज्य की ओर से दमनकारी कार्रवाई की संभावना बढती जा रही है. जिसके ताजा उदाहरण नन्दीग्राम, सिंगुर, पेन-पनवेल तथा लालगढ की लडाई में हजारों आदिवासियों की मौतें. दूसरी ओर आदिवासी भी अपनी स्थिति के प्रति सचेत है और अपने हितों के लिये संघर्ष करने के लिये तैयार हो रहे है.
आजादी के 62 साल बाद भी भारत के आदिवासी उपेक्षित, शोषित और पीड़ित नजर आते हैं। राजनीतिक पार्टियाँ और नेता आदिवासियों के उत्थान की बात करते हैं, लेकिन उस पर अमल नहीं करते। यह 2009 के आम चुनाव में साफ दिख रहा है। किसी भी राजनीतिक दल ने न तो अपने घोषणा-पत्र में आदिवासियों से जुड़े मुद्दे उठाए और न ही चुनाव अभियान में उनके हित की बात उठा रहे हैं। आदिवासी किसी राज्य या क्षेत्र विशेष में नहीं हैं, बल्कि पूरे देश में फैले हैं। ये कहीं नक्सलवाद से जूझ रहे हैं तो कहीं अलगाववाद की आग में जल रहे हैं। जल, जंगल और जमीन को लेकर इनका शोषण निरंतर चला आ रहा है। ऐसे में राष्ट्रीय मुद्दे- आतंकवाद, स्विस बैंक से काला धन वापस लाने, महँगाई, स्थिर और मजबूत सरकार के नाम पर जनता से वोट बटोरने की नीति को महज राजनीतिक स्टंट ही कहा जाएगा। देश के लगभग 18 करोड़ से अधिक आदिवासियों की अनदेखी कर तात्कालिक राजनीतिक लाभ देने वाली बातों को हवा देना एक परंपरा बन गई है। यह तो नींव के बिना महल बनाने वाली बात हो गई। राजनीतिक पार्टियाँ अगर सचमुच में देश का विकास चाहती हैं और 'आखिरी व्यक्ति' तक लाभ पहुँचाने की मंशा रखती हैं तो आदिवासी हित और उनकी समस्याओं को हल करने की बात पहले करना होगी। भारत में मिजोरम, नगालैंड व मेघालय जैसे छोटे राज्यों में 80 से 93 प्रतिशत तक आबादी आदिवासियों की है। बड़े राज्यों में मध्यप्रदेश, उड़ीसा, महाराष्ट्र, बिहार, गुजरात, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में 8 से 23 प्रतिशत तक आबादी आदिवासियों की है। 
देश में अभी भी आदिवासी दोयम दर्जे के नागरिक जैसा जीवन-यापन कर रहे हैं। नक्सलवाद हो या अलगाववाद, पहले शिकार आदिवासी ही होते हैं। उड़ीसा के कंधमाल में धर्मांधता के शिकार आदिवासी हुए। छत्तीसगढ़, उड़ीसा और झारखंड में आदिवासी नक्सलवाद की त्रासदी झेल रहे हैं। मेघालय, नगालैंड, अरुणाचल प्रदेश और कुछ आदिवासी बहुल प्रांतों में यह समुदाय अलगाववाद का शिकार समय-समय पर होता रहता है। नक्सलवाद की समस्या आतंकवाद से कहीं बड़ी है। आतंकवाद आयातित है, जबकि नक्सलवाद देश की आंतरिक समस्या है। यह समस्या देश को अंदर ही अंदर घुन की तरह खोखला करती जा रही है। इनके संबंध श्रीलंका के लिट्टे सहित कई प्रतिबंधित संगठनों से होने के संकेत मिल चुके हैं। नक्सली अत्याधुनिक विदेशी हथियारों और विस्फोटकों से लैस होते जा रहे हैं। नक्सली प्रजातंत्र को मजबूती के साथ आँख भी दिखा रहे हैं। इसका नमूना लोकसभा चुनाव के पहले चरण में हिंसक घटनाओं से दिखाई दिया। बिहार, झारखंड, उड़ीसा और छत्तीसगढ़ में 18 मतदान और सुरक्षाकर्मियों की जान चली गई। 
नक्सली वारदातों के चलते छत्तीसगढ़ में बस्तर इलाका एक 'टापू' बन गया है। वहाँ के आदिवासी न चाहते हुए भी नक्सलियों को सहयोग करने को विवश हैं। बस्तर का कुछ इलाका ऐसा है, जहाँ फोर्स भी नहीं घुस सकती। पिछले साल हैदराबाद से रायपुर आ रहे एक हेलिकॉप्टर के दुर्घटनाग्रस्त होने पर उसकी तलाश महीनों तक नहीं की जा सकी। बाद में ग्रामीणों के सहयोग से पायलट और इंजीनियरों का कंकाल मिला। राजनीतिक पार्टियों को बाहरी ताकतों से लड़ने की बातें छोड़कर पहले देश की समस्याओं को सुलझाने का प्रयास और रणनीति बनाना चाहिए। उनके वादे देश को आंतरिक रूप से मजबूत करने के होने चाहिए। अन्यथा चीन और पाकिस्तान जैसे पड़ोसी देशों को देश को अस्थिर करने का मौका मिलता रहेगा। केंद्र सरकार आदिवासियों के नाम पर हर साल हजारों करोड़ रुपए का प्रावधान बजट में करती है। इसके बाद भी 6 दशक में उनकी आर्थिक स्थिति, जीवन स्तर में कोई बदलाव नहीं आया है। स्वास्थ्य सुविधाएँ, पीने का साफ पानी आदि मूलभूत सुविधाओं के लिए वे आज भी तरस रहे हैं।
भारत को हम भले ही समृद्ध विकासशील देश की श्रेणी में शामिल कर लें, लेकिन आदिवासी अब भी समाज की मुख्य धारा से कटे नजर आते हैं। इसका फायदा उठाकर नक्सली उन्हें अपने से जोड़ लेते हैं। कुछ राज्य सरकारें आदिवासियों को लाभ पहुँचाने के लिए उनकी संस्कृति और जीवन शैली को समझे बिना ही योजना बना लेती हैं। ऐसी योजनाओं का आदिवासियों को लाभ नहीं होता, अलबत्ता योजना बनाने वाले जरूर फायदे में रहते हैं। महँगाई के चलते आज आदिवासी दैनिक उपयोग की वस्तुएँ भी नहीं खरीद पा रहे हैं। वे कुपोषण के शिकार हो रहे हैं। अतः देश की करीब आठ फीसद आबादी (आदिवासियों की) पर विशेष ध्यान देना होगा। आम चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दे गौण होते जा रहे हैं। स्थानीय मुद्दे और प्रत्याशियों की छवि ज्यादा असरकारक हो रही है। यही वजह है कि कई राज्यों में क्षेत्रीय दल मजबूती के साथ उभर कर सामने आ रहे हैं। सरकार बनाने के लिए कांग्रेस और भाजपा जैसी बड़ी पार्टियों को उनके साथ गठबंधन के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। इस चुनाव में भी कोई लहर या ऐसा कोई बड़ा मुद्दा नहीं है, जो देश के नागरिकों को उद्वेलित करे। गरीबी उन्मूलन की बात वर्षों से की जा रही है। इसके बावजूद समाज में आर्थिक विषमता ज्यों-की-त्यों बनी हुई है। बेरोजगारी की समस्या यथावत है। मुद्रास्फीति घटना के बाद भी महँगाई लगातार बढ़ती जा रही है। हर नागरिक इससे त्रस्त है। आदिवासी भी इस महँगाई से अछूते नहीं हैं। जनता के दिल को छूने वाले मुद्दे राष्ट्रीय परिदृश्य में नहीं आने का प्रभाव मतदान पर भी साफ दिखाई देने लगा है। अब समय आ गया है कि शिक्षा, स्वास्थ्य और जनता की मूलभूत सुविधाओं को राष्ट्रीय स्तर पर उठाना होगा।
देश की आंतरिक समस्या से राजनीतिक पार्टियों को सीधा वास्ता रखना होगा। जाति समीकरण और व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप की बदौलत न तो कोई लहर पैदा की जा सकती है और न ही मतदाताओं में जोश जगाया जा सकता है। आदिवासियों, आम नागरिकों से जुड़े मुद्दे राजनीतिक पार्टियों को घोषणा-पत्र और भाषणों में शामिल करना होगा। तभी जनता की आस्था लोकतंत्र पर बढ़ेगी और घरेलू समस्याओं का खात्मा किया जा सकेगा।‘आदिवासी’ पदबंध के बारे में पहली बात यह कि यह हिन्दी का नाम है और हिन्दी क्षेत्र में इसकी एक सीमा तक प्रासंगिकता है। लेकिन अन्यत्र कोई प्रासंगिकता नहीं है। ‘आदिवासी’ पदबंध विभ्रम पैदा करता है। यह मूल जनजातियों के साथ अनेय जनजातियों के बीच तनाव पैदा करता है। ‘आदिवासी’ पदबंध के पीछे स्वयंसेवी संगठनों की जनजातियों के बीच में विभाजनकारी की भूमिका रही है। इसने अंग्रेजी के ‘ट्राइवल’पदबंध को समूचे विमर्श से अपदस्थ किया है। 
अंग्रेजों  ने आदिवासियों को नकारात्मक अर्थ दिया जबकि हिन्दी का आदिवासी नाम उन्हें मूल बाशिंदे के रूप में देखता है। जब ‘ट्राइवल’ कहते थे तो यह अर्थ संप्रेषित होता था कि समाज से बाहर सामाजिक समूह। मातहत लोग। इसके विपरीत ‘आदिवासी’ पदबंध की अर्थध्वनि एकदम अलग है। आदिवासी कहते ही उनके अधिकारों का बात ज़ेहन में आती है। उनके प्रतिरोध, उभार, संघर्ष,आंदोलन,सशक्तिकरण की बातें मन में आती हैं। प्रशासनिक भाषा में  शिड्यूल ट्राइव जातियां आदिवासी की केटेगरी में आती हैं। इन्हें ‘ इंडिजिनस पीपुल’ माना जाता है। इन्हें एसटी कहते हैं। भारत में 5653 विशिष्ट किस्म की जातियां रहती हैं इनमें से 635 जातियां हैं जिन्हें ‘आदिवासी’ की कोटि में रखा गया है। इसके कारण भारत में जनजातियों के समूहों की संख्या 250 से 593 के बीच में है। भारत के संविधान में ‘आदिवासी’ पदबंध का प्रयोग नहीं मिलता,बल्कि ‘अनुसूचित जनजाति’ पदबंध का प्रयोग मिलता है। यह ज्यादा सटीक अर्थ को व्यक्त करने वाला पदबंध है। हिन्दीजगत में ‘जन’ पदबंध सैंकड़ों सालों से बेहद जनप्रिय रहा है। आदिवासियों को आदि बाशिंदा मानने के पीछे प्रधान कारण था उनके जमीन,क्षेत्र और कच्चे संसाधनों पर अधिकारों को स्वीकार करना।
पहली बार ‘यूपीए-सरकार के शासन में आदिवासियों के अपने क्षेत्र और संसाधनों पर अधिकार की बात को कानूनी तौर पर मान्यता मिली। आदिवासी संरक्षण के लिए नया कानून बना जिसके द्वारा ब्रिटिश जमाने के समस्त नकारात्मक प्रावधानों की विदाई हुई। आदिवासियों के विशेषज्ञ जे.जे. राय बर्मन के अनुसार आदिवासियों में सभी जातियां मूल आदिवासी जाति की केटेगरी में नहीं आतीं, इसी तरह मूल आदिवासियों में अनेक जनजातियां बाहर से आयी हैं। आज इन जनजातियों के लोग जहां रहते हैं वहां वे मूल रूप से नहीं रहते थे। मसलन मणिपुर के कूकी आदिवासी,मिजोरम के लूसिस जनजाति के लोग मूलतः दक्षिण चीन और चिन पर्वत के निवासी हैं। ये लोग कुछ सौ साल पहले ही स्थानान्तरित होकर भारत में आए हैं। कूकी को ब्रिटिश शासकों ने नागा बहुल इलाकों में बसाया था। जिससे नागा और वैष्णवपंथी मैइती जनजाति के बीच में बफर जॉन पैदा किया जाए। लूसी जनजाति से सैलो का संबंध है इसके मुखिया को ब्रिटिश शासकों ने ठेकेदार के रूप में बढ़ावा दिया जिससे वह मिजोरम में सड़कें बनाए। इस तरह अन्य जगह से लाकर बसाए गए आदिवासियों की बस्तियों का दायरा धीरे-धीरे त्रिपुरा तक फैल गया। जिसे इन दिनों तुइकुक के नाम से जानते हैं। यहा त्रिपुरा के राजा की नीति थी ,उसने अपने राज्य में रियांग और चकमा जनजाति के लोगों को बाहर से लाकर बसाया। जिससे कॉटन मिलों के लिए झूम की खेती के जरिए कॉटन का अबाधित प्रवाह बनाए रखा जा सके।
बोडो जनजाति के लोग मूलतः भूटान के हैं और बाद में वे असम में आकर बस गए। टोटोपारा इलाके के टोटो जनजाति के लोग भूटान से आकर उत्तर बंगाल की सीमा पर आकर बस गए। इनमें अनेक ऐसी जनजातियां भी हैं जो एक जमाने में अपराधी जाति के रूप में ही जानी जाती थीं उन्हें भूटान के राजा ने अपने राज्य से निष्कासित कर दिया था। मेघालय में रहने वाली खासी जनजाति के लोग मूलतः कम्पूचिया के हैं और माइग्रेट होकर कुछ सौ वर्ष पहले ही मेघालय में आकर बसे हैं। ये खमेर जनजाति का अंग हैं। देंजोंग भूटिया जनजाति जो सिक्किम की वफादार जनजाति है ,वह तिब्बत से आकर बसे हैं। इसी तरह पश्चिम बंगाल के वीरभूम और मिदनापुर जिले से माइग्रेट करके संथाल जनजाति के लोग झाररखण्ड के संथाल परगना में जाकर बस गए हैं। ये ऐतिहासिक तथ्य हैं। मजेदार बात यह है कि जिस तरह आदिवासी अपने को भारत का मूल या आदि बाशिंदा मानते हैं, वैसे ही कुछ दलित विचारक भी दलितों को भारत का आदि बाशिंदा मानते हैं। लेकिन भारत सरकार उन्हें आदि बाशिंदा मानने को तैयार नहीं है। कुछ ब्राह्मण,राजपूत का नाम जनजाति सूची में वैसे ही है जैसे उत्तराखंड में जौनसारी जाति के लोगों का नाम जनजाति सूची में है यही स्थिति हिमाचल प्रदेश के कनौर जनजाति की भी है।
आदिवासी पदबंध का उत्तर बंगाल,सिक्किम,अरूणाचल प्रदेश,असम,मेघालय, नागालैण्ड, त्रिपुरा में चायबागानों में काम करने वाले मजदूरों के लिए इस्तेमाल किया जाता है। इन इलाकों में संथाल,मुण्डा,ओरांव आदि ब्रिटिश जमाने में माइग्रेट करके आए थे। इन इलाकों के मूल आदिवासी अपने को इससे अपमानित महसूस करते हैं। क्योंकि उन्हें भी आदिवासी के रूप में जाना जाता है। इसके कारण उत्तर बंगाल के मूल आदिवासी अपने को आदिवासी के नाम से नहीं बल्कि अपनी मूल जाति के नाम से पुकारते हैं ,वे अपने को राभा,मिच,राजवंशी जनजाति या एथनिक ग्रुप के नाम से पुकारते हैं। वे इस बात का विरोध करते हैं कि उन्हें आदिवासी कहा जाए। सिक्किम के आदिवासी अपने यहां छोटा नागपुर से माइग्रेट करके आए पर्वतीय मजदूरों को आदिवासी मानते हैं वे उन्हें उनकी जनजाति के नाम से नहीं पुकारते। उत्तर बंगाल के सुंदरवन में माइग्रेट करके आए संथाल,उरांव,मुण्डा, हो जनजाति के कृषि मजदूरों और छोटी जोत के किसानों को आदिवासी के नाम से पुकारते हैं ,उनकी जनजाति के नाम से नहीं। इनमें से ज्यादातर अनुसूचित जनजाति में आते हैं। 
कहने का अर्थ यह है कि आदिवासी पदबंध उत्तर-पूर्वी भारत में उत्पत्तिमूलक है और उससे मध्य भारत के माइग्रेटेड आदिवासी मजदूर,छोटे किसानों की पहचान बनती है। इस बात को रखने का प्रधान मकसद है कि ‘ट्राइवल’, ‘जनजाति’ और ‘आदिवासी’ इन तीनों पदबंधों के अर्थ में अंतर है। ‘आदिवासी’ पदबंध के भारत में स्वयंसेवी संगठनों ने जनप्रिय बनाया है। इससे मूल जनजातियों और माइग्रेटेड जनजातियों में टकराव बढ़ा है। जे.जे, राय बर्मन ने सही रेखांकित किया है कि हमें ‘आदिवासी’ पदबंध को ‘ट्राइवल’ के वजन का नहीं समझना चाहिए। ‘आदिवासी’ के नाम से परिचित जातियों को आदि जातियां नहीं कहा जा सकता। ‘आदिवासी’ पदबंध का प्रयोग जनजातियों में भारत विरोधी भावनाएं भड़काने का काम करता है। खासकर उत्तर बंगाल,सिक्किम और अन्य उत्तर-पूर्वी राज्यों में इस पदबंध के प्रयोग से अधिकांश मूल जनजातियां अपने को अपमानित महसूस करती हैं। यहां उल्लेखनीय है कि ‘ट्राइवल’ पदबंध स्वयं में समस्यामूलक है और इसे ब्रिटिश संस्कृति के जनजातियों पर हमले के रूप में देखा जाता है। भारत में कुछ नए विचारक आए हैं जो ‘फ्रेण्डस ऑफ ट्राइव’ (आदिवासी बंधु) के नाम से काम कर रहे हैं। वे आदिवासियों को रोमांटिसाइज करते हैं। वे आदिवासियों के क्रांतिकारी सशक्तिकरण का हल्ला करते हैं।
जगदीश्वर चतुर्वेदी का मानना है, आदिवासी समस्या राष्ट्रीय समस्या है। भारत की राजनीति में आदिवासियों को दरकिनार करके कोई राजनीतिक दल नहीं रह सकता। एक जमाना था आदिवासी हाशिए पर थे लेकिन आज केन्द्र में हैं। आदिवासियों की राजनीति के केन्द्र में आने के पीछे प्रधान कारण है आदिवासी क्षेत्रों में कारपोरेट घरानों का प्रवेश और आदिवासियों में बढ़ती जागरूकता। आदिवासियों के प्रति वामपंथी दलों का रूख कांग्रेस और भाजपा के रुख से बुनियादी तौर पर भिन्न है। वामपंथी दलों ने आदिवासियों को कभी भी आदिवासी बनाए रखने, वे जैसे हैं वैसा बनाए रखने की कोशिश नहीं की है। वामपंथी दलों ने आदिवासियों को साम्राज्यवादी विचारकों द्वारा दी गयी घृणित पहचान से मुक्त किया है। उन्हें मनुष्य के रूप में प्रतिष्ठा दी है। यह कार्य उनके मानवाधिकारों की रक्षा करते हुए किया है। आदिवासियों को वे सभी सुविधा और सुरक्षा मिले जो देश के बाकी नागरिकों को मिलती हैं। आदिवासियों का समूचा सांस्कृतिक तानाबाना और जीवनशैली वे जैसा चाहें रखें,राज्य की उसमें किसी भी किस्म के हस्तक्षेप की भूमिका नहीं होगी,इस प्रक्रिया में भारत के संविधान में संभावित रूप में जितना भी संभव है उसे आदवासियों तक पहुँचाने में वामपंथियों की बड़ी भूमिका रही है। 
आदिवासियों को आतंकी या हथियारबंद करके उनके लिए लोकतांत्रिक स्पेस तैयार नहीं किया जा सकता। लोकतांत्रिक स्पेस तैयार करने के लिए आदिवासियों के बीच लोकतांत्रिक संस्थाओं और लोकतांत्रिक कानूनों क पालन और प्रचार-प्रसार पर जोर देना होगा। आदिवासियों के लिए लोकतंत्र में जगह तब ही मिलेगी जब उन्होंने लोकतांत्रिक ढ़ंग से लोकतान्त्रिक समस्याओं पर गोलबंद किया है। लोकतंत्र की बृहत्तर प्रक्रिया का उन्हें हिस्सा बनाया जाए। आदिवासियों के लिए बंदूक की नोंक पर लाई गई राजनीति आपराधिक कर्म को बढ़ावा देगी। उन्हें अपराधी बनायेगी। साम्राज्यवादी विचारकों के आदिवासियों को अपराधी की कोटि में रखा। इन दिनों आदिवासियों को तरह-तरह के बहानों से मिलिटेंट बनाने,जुझारू बनाने,हथियारबंद करने,पृथकतावादी बनाने,सर्वतंत्र-स्वतंत्र बनाने के जितने भी प्रयास उत्तर-पूर्व के राज्यों से लेकर छत्तीसगढ़-लालगढ़ तक चल रहे हैं ,वे सभी आदिवासियों को अपराधकर्म में ठेल रहे हैं। अंतर यह है कि उसके ऊपर राजनीति का मुखौटा लगा हुआ है। आदिवासी को मनुष्य बनाने की बजाय मिलिटेंट बनाना सामाजिक-राजनीतिक अपराध है।
हमें इस सवाल पर विचार करना चाहिए कि आदिवासी इलाकों में ही उग्रवाद क्यों पनपा है ? कांग्रेस के नेताओं और भारत सरकार के गृहमंत्री पी.चिदम्बरम् के पास उग्रवाद की समस्या का एक ही समाधान है वह है आदिवासी इलाकों में विकास और पुलिस कार्रवाई। इसी एक्शन प्लान पर ही सारा मीडिया और कारपोरेट जोर दे रहा है। इस एक्शन प्लान को आदिवासी समस्या के लिए रामबाण दवा कहा जा रहा है। केन्द्र सरकार ने इस दिशा में कदम उठाते हुए कुछ घोषणाएं भी की हैं। लेकिन यह प्लान बुनियादी तौर पर अयथार्थपरक है। इस प्लान में आदिवासियों का उनकी जमीन से उच्छेद रोकना, उनके क्षेत्र के संसाधनों कास्वामित्व,विस्थापन और उनके पीढ़ियों के जमीन के स्वामित्व की बहाली की योजना या कार्यक्रम गायब है। मनमोहन-चिदम्बरम् बाबू जिस तरह का लिकास करना चाहते हैं उसमें आदिवासियों का विस्थापन अनिवार्य है। 
समस्या यहां पर है कि क्या केन्द्र सरकार विकास का मॉडल बदलना चाहती है ? जी नहीं, केन्द्र सरकार विकास का नव्य-उदार मॉडल जारी रखना चाहती है। आदिवासियों की उनकी जमीन से बेदखली जारी रखना चाहती है, ऐसे में आदिवासियों के सड़कें,स्कूल-कॉलेज,रोजगार के सपने देकर शांत नहीं किया जा सकता। विकास के मनमोहन मॉडल में विस्थापन अनिवार्य और अपरिहार्य है। ऐसी अवस्था में आदिवासियों के बीच में विकास और पुलिस एक्शन का प्लॉन पिटेगा। आदिवासियों का प्रतिवाद बढ़ेगा। दूसरी बात यह कि विस्थापन का विकल्प मुआवजा नहीं है। मुआवजा ज्यादा हो या कम इससे भी आदिवासियों का गुस्सा शांत होने वाला नहीं है। इस प्रसंग में सबसे बुनियादी परिवर्तन यह करना होगा कि आदिवासियों के इलाकों पर उनका ही स्वामित्व रहे। क्रेन्द्र या राज्य सरकार का आदिवासियों की जमीनऔर जंगल पर स्वामित्व संवैधानिक तौर पर खत्म करना होगा।
आदिवासियों के सामने इस समय दो तरह की चुनौतियां हैं, पहली चुनौती है आदिवासियों के प्रति उपेक्षा और विस्थापन से रक्षा करने की और उसके विकल्प के रूप में परंपरागत संस्थाओं और आदिवासी एकजुटता को बनाए रखने की। दूसरी चुनौती है नयी परिवर्तित परिस्थितियों के अनुकूल बदलने और लदनुरूप अपने संस्कारों,आदतों और कानूनों में बदलाव लाने की। आदिवासियों पर कोई भी परिवर्तन यदि बाहर से थोपा जाएगा तो वे प्ररोध करेंगे। आदिवासियों का प्रतिरोध स्वाभाविक है। वे किसी भी चीज को स्वयं लागू करना चाहते हैं। यदि केन्द्र सरकार उनके ऊपर विकास को थोपने की कोशिश करेगी तो उसमें अंततः असफलता ही हाथ लगेगी। आदिवासी अस्मिता की धुरी है स्व-संस्कृति प्रेम, आत्मनिर्णय और आत्म-सम्मान में विश्वास।
आदिवासी-चार अक्षरों का एक छोटा सा नाम, लेकिन सामाजिक व्यवहार के रूप में अनेक समुदाय, जातियां और किस्मों में बंटा संसार और इस संसार की अपनी समस्याएं, अपना राजवेश, अपने रीति-रिवाज। सामान्यतः शांत और सरल, लेकिन विद्रोह का नगाड़ा बजते ही पूरा समूह सम्पूर्ण प्रगतिशील शहरियों के लिए एक ऐसी चुनौती, जिसे सह पाना लगभग असंभव। एक चिंगारी जो कभी भी आग बनकर सबको लपेटने की क्षमता रखती है। आदिवासियों के उपयुक्त संबंधों, रंगबिरंगी पोशाकों, संगीत, नृत्य और संस्कृति के बारे में हमारी अपनी कल्पनाएं हैं। हम उन्हें पिछड़ा, असभ्य, गंदा, गैर-आधुनिक और न जाने क्या-क्या कहते हैं। अंग्रेजी राज ने भारतीय आदिवासियों को दूसरे दर्जें का नागरिक समझा। जिसके अंतर्गत उनके जीवन, संस्कृति और सामाजिक संसार को बाकी दुनिया से अलग-थलग रख कर उसे अध्ययन और कौतूहल का विषय बना दिया हैं। लेकिन भारतीय समाज में अंग्रेजों को पहली चुनौती सन् 1824-30 भीलों ने दी और बाद में 1846-46 में संथालों ने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए।
आजादी के बाद हमारे इस नजरिए में परिवर्तन आए। पं. नेहरू ने आदिवासियों से पूर्णतया अलगाव के बजाय उनसे सम्पर्क रखने का सिलसिला बनाया। संविधान में उनके लिए विशेष सुविधाएं रखी गई। लेकिन इन प्रशासनिक प्रयासों के बावजूद आदिवासी अलग-थलग रहा और चतुर महाजन इनका शोषण और उत्पीड़न करते रहे। लगभग 18 करोड़ आदिवासी इस देश के विभिन्न राज्यों में बिखरे पड़े हैं। मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान, उड़ीसा, पं. बंगाल, केरल आदि इलाकों में आदिवासियों की बहुत बड़ी संख्या है। पिछले कुछ वर्षों में आदिवासियों के प्रति एक नई चेतना का विकास हुआ है। वास्तव में आदिवासियों की इस दुःखद स्थिति का प्रमुख कारण उनका गरीब होना है, इस आर्थिक पिछड़ेपन के साथ-साथ वे सामाजिक सांस्कृतिक रूप से भी अलग है। पूरे देश का आदिवासी समुदाय एक सामाजिक परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है। इसके कारण आदिवासियों में अलगाव और मुख्य धारा से अलग रहने की प्रवृत्ति का विकास हो रहा है। शोषण, असंतोष, गरीबी और सामाजिक बदलाव के कारण आज आदिवासी स्वयं की उद्धेलित और असंतुष्ट महसूस करता है। आदिवासी असंतोष के प्रमुख कारण आर्थिक और सामाजिक है। ईसाई मिशनरियों तथा धर्म परिवर्तन की घटनाएं भी एक कारण हैं। जब तक बाहरी लोगों ने इनके जीवन और जीवन-पद्धति तथा इनकी परम्पराओं में घुसपैठ की, इन आदिवासियों ने हथियार उठा लिए। 
जब-जब इनका दमन और शोषण हुआ, ये चुप नहीं रहे, इनकी मजबूरियों का फायदा उठाने की हर कोशिष का उन्होंने विरोध किया है। आदिवासी आंदोलनों की पृष्ठभूमि को देखना, समझना एक उचित आधार होगा। वास्तव में आदिवासी आंदोलन अंग्रेजों के जमाने से काफी पहले से चल रहे हैं। मुगल शासनकाल में औरंगजेब ने जब धर्म-परिर्वतन और जाजिया कर चलाया तो इन आदिवासियों ने इसका विरोध किया। सन् 1817 में भीलों ने खान देश पर आक्रमण किया। यह आंदोलन 1824 में सतारा और 1831 में मालवा तक चला गया। 1846 में जाकर अंग्रेज इस विद्रोह पर काबू पा सके। इस पराजय से भीलों में चेतना जागी और वे हिन्दुओं की तरह रहने लगे और इसी दौरान भीलों में धार्मिक आंदोलन शुरू हुए। डूंगरपूर में ललोठिया तथा बांसवाड़ा, पचमहाल (गुजरात) में गोबिंद गिरी ने धार्मिक आंदोलन चलाए। 1812 में गोबिंद गिरी को अंगेजों ने गिरफ़्तार कर लिया। वास्तव में भीलों की आजीविका का मुख्य साधन कृषि था और भूमि पर साहूकारों, व्यापारियों ने कब्जा कर लिया। 
वनों की लगातार और अंधाधंध कटाई के कारण बनों पर आश्रित वनवासी, गिरिजन और अन्य समुदायों के आदिवासियों को खाने के भी लाले पड़ गए। इन्हीं कारणों से लगातार आदिवासी आंदोलन होने लगे। उड़ीसा में ‘मल का गिरी’ का कोया विद्रोह 1871-80 में हुआ। फूलबाने का खांडे विद्रोह (1850) में तथा साओरा का विद्रोह (1810-1940) में हुआ। ये विद्रोह आर्थिक शोषण के कारण हुए। सन् 1853 में संथाल-विद्रोह हुआ। 1895 में मुंडा विद्रोह हुआ। 1914 में उंरावों का ताना-मगत विद्रोह हुआ। मिजो आंदोलन लंबे समय तक चला और लालडेंगा मुख्यमंत्री बने। पिछले डेढ़ वर्षों के आदिवासी असंतोष और व्यग्रता से पता चलता है कि अभी भी आदिवासी अपने हकों के लिए लड़ रहे हैं। वास्तव में शासन के विरुद्ध आदिवासियों की लड़ाई शासक और शासित की लड़ाई है, जिसमें बेचारा शासित और दब जाता है। उसके ऊपर और दुःखों का पहाड़ आ जाता है। शासन को आदिवासियों के बारे में विवेकशील जानकारी हो और वे आदिवासियों के प्रति संवेदनशीलता रखें तो आदिवासियों को समझने में आसानी होगी।

प्रारम्भ से ही आदिवासियों के साथ शोषण की प्रवृत्ति तथा सौतेला व्यवहार हुआ है इसी बात को मुद्दा बनाकर अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग आंदोलन पृथक राज्यों की मांग को लेकर लंबे समय तक चलते रहे। छोटा नागपुर (बिहारी), संथाल, आदिलाबाद (आंध्र प्रदेश) आदि ऐसे ही स्थल थे। महाजनी चक्र के कारण आदिवासियों, बंधुओ मजदूरों खेतिहरों का शोषण लंबे समय से होता आया है। गरीबी और मजबूरी का मारा आदिवासी बनिये के पास जाता है और अपना शोषण कराता है। आजकल आदिवासियों में खुद एक तबका बन रहा है जो महाजनों की तरह ही अपने समाज का शोषण कर रहा है और स्वयं महाजन बन बैठा है। अकाल, बाढ़, बीमारी, चिकित्सा आदि ऐसे तात्कालिक कारण होते हैं, जब आदिवासी को महाजनों की शरण में जाना पड़ता है या ईसाई मिशनरियों के पास धर्म परिवर्तन कराना होता है। आदिवासियों में व्याप्त असंतोष, विद्रोह या आंदोलनों के तथा उनकी समस्याओं को समझने और सुलझने के लिए हमें हमारे नजरिए में परिवर्तन करना होगा। उन्हें उपेक्षित, बेसहारा और मजबूर समझने के बजाय उन्हें हम में से एक समझना होगा। उन्हें राष्ट्रीय धारा से जोड़ने के लिए उनकी भाषा, उनके रीति-रिवाज, उनके रहन-सहन, उनकी संस्कृति, उनकी जीवन पद्धति को समझना होगा। उनकी सामाजिक बनावट का व्यापक और समग्र अध्ययन किया जाना उचित होगा। 
आदिवासियों को केवल केलेंडर या उन्मुक्त सेक्स के रंगीन चश्मे से देखना बंद करना होगा। उन्हें देखने,समझने और परखने के लिए हमें अपनी आंखों पर लगे चश्मे के नम्बर बदलने होंगे। अंधविश्वास या पूर्व ग्रहों की दीवारों को तोड़कर जो प्रकाश आएगा, उसमें ये आदिवासी हमें हमारी जमीन से जोड़ेगे। आर्थिक शोषण, सामाजिक शोषण, वनों की कटाई और खेती को महाजनी सभ्यताओं से मुक्त कराने से आदिवासियों की काफी समस्याओं का हल हो सकता है और वे हमारी मुख्य धारा में जुड़कर राष्ट्रीय विकास में योगदान दे सकते हैं, क्योंकि उनके पास लोक-साहित्य, लोक-चिकित्सा और लोक-कलाओं का एक समग्र संसार है। यशवन्त कोठारी का मानना है,दुनिया में लोकतंत्र का पहला फूल सैन्य आविष्कारों के साये में ग्रीस में खिला। हथियारों का विनिर्माण काफी आधुनिक हो चला था। अब राज्यों के पास छोटी फौजी टुकडिय़ों की जगह बड़ी सेनाओं को हथियारों से लैस करने की तकनीक आ चुकी थी। एक बार में हमला करने वाले पुराने जमाने के लड़ाकुओं की जगह राज्यों ने अब भारी-भरकम हथियारों से संपन्न सैन्य बलों को तैनात करना शुरू कर दिया था। 
कोई भी व्यक्ति, चाहे वह भूस्वामी हो या किसान, जो खुद को इन हथियारों (होपला) से लैस करने की क्षमता रखता था, वह इस सैन्य टुकड़ी में शामिल हो सकता था। इस नई सेना ने एक नए किस्म की समानता को जन्म दिया। होपला से लड़े जाने वाले युद्ध की खासियत कंधे से कंधा मिला कर सट कर खड़े होने वाले आठ फौजियों की एक कतार थी, जिसे फैलेंक्स कहते थे। हर सिपाही अपनी वृत्ताकार ढाल को अपनी बाईं ओर रक्षा के लिए रखता था और अपने बगल वाले सिपाही के दाएं कंधे को कस कर पकड़े रहता था। यह जन सेना थी, जिसमें नागरिक ही सैनिक बन चुके थे। होपला ने ग्रीस का रूपांतरण कर डाला और एक सुनियोजित तरीके से गढ़े गए लोकतंत्र की बुनियाद रखी। एक किसान जो अब फैलेंक्स की कतार में राजपरिवार के सदस्य के साथ कंधे से कंधा मिला कर खड़ा होता था, राजशाही को देखने का उसका नजरिया अब बदल चुका था।
ईसा पूर्व 510 में एथेंस पर स्पार्टा का हमला हुआ। एक निरंकुश तानाशाह के पुत्र क्लीस्थेनीज के नेतृत्व में एथेंस की सेना ने आक्रमणकारियों को खदेड़ दिया और उसे सिटी मजिस्ट्रेट बना दिया। तीन साल के भीतर ही चौंकाने वाले सुधार लागू किए गए। क्लीस्थेनीज ने अनगिनत पारंपरिक जनजातियों को समाप्त कर के सभी को दस इकाइयों का सदस्य बना दिया और इस तरह एक जनजातीय शहर राज्य का रूप ले सका, जो धीरे-धीरे भूमध्य सागर के पूर्वी तट की सबसे समृद्ध सैन्य, वाणिज्यिक, कलात्मक और बौद्धिक ताकत बन कर उभरा। तकरीबन ऐसे ही सुधारों ने 2000 साल बाद भीतरी एशिया में मंगोलों के लिए कहीं ज्यादा चौंकाने वाले नतीजे दिए।लोगों की विधायी परिषद के सदस्यों का चयन हर साल मध्य वर्ग के बीच में से होता था और एक व्यक्ति अपने जीवनकाल में सिर्फ दो बार ही इस पद पर रह सकता था। इस तरह एक ही समय में अधिकतर किसान, शिल्पकार और व्यापारी परिषद के सदस्य होते और इस तरह उनके नागरिक होने की परिभाषा में बिल्कुल नया और सार्थक आयाम जुड़ गया था। अब तक आविष्कृत राजनीतिक प्रणालियों में यह सर्वाधिक समतापूर्ण प्रणाली थी जिसका असर ग्रीक जगत पर रूपांतरकारी था। दुनिया में लोकतंत्र का यह पहला संगठित स्वरूप था। और इसे किसने किया? एथेंस के उन आदिवासियों ने, वह भी आज से 2500 सदी से भी पहले।
आदिवासियों का इतिहास और उनका नृतत्वशास्त्र अधिकांशत: उन लेखकों द्वारा लिखा गया जो औपनिवेशिक शासकों की सेवा में नियुक्त थे। उन्होंने जनजातियों द्वारा किए गए कार्यों के विनाशक पहलुओं पर जोर दिया तथा व्यापार, खोज और राजनीतिक व सांस्कृतिक संस्थाओं में उनके योगदान की उपेक्षा करते हुए एक ऐसी तस्वीर खींची जो अधूरी और विकृत थी। परिणाम यह हुआ कि आदिवासी जीवन को लेकर आम धारणा आज भी काफी धुंधली और एकपक्षीय है। एक ओर आदर्श तो दूसरे सिरे पर भ्रष्ट। आज भारत क्रांतिकारी बगावत की चुनौती को झेल रहा है जिसे माओवादी (भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) या नक्सल (पश्चिम बंगाल में 1967 में नक्सलबाड़ी में शुरू हुए सशस्त्र संघर्ष से यह नाम आया है) सघर्ष कहा जाता है, जिसका केंद्र वे जंगल हैं जहां अधिकतर आदिवासी रहते हैं। यानी इस संघर्ष को मोटे तौर पर एक आदिवासी उभार मान लिया जाता है, जिससे दुनिया भर में आदिवासियों की दास्तानों का एक नया अध्याय खुलता है। यह अध्याय जमीन जीत लेने के किसी अभियान या उपनिवेश बनाने से नहीं जुड़ा है, बल्कि यह राजनीतिक सत्ता हथियाने और सामाजिक-आर्थिक न्याय सभी को दिलाने का एक महत्वाकांक्षी संघर्ष है।
यह आलेख उन आदिवासी समुदायों के वैश्विक परिदृश्य से, जो इस आधुनिक सभ्यता का मार्ग प्रशस्त करने में शामिल रहे हों। अगला परिदृश्य भारत के कुछ आदिवासी समुदायों द्वारा दिए गए योगदानों को दिखाता है, जिनमें कुछ ऐसे समुदाय हैं जो अब अलग-थलग पड़ गए हैं और जिन पर ‘आदिवासी’ होने का ठप्पा लगा दिया गया है। इस समग्र परिप्रेक्ष्य में ही हमें भारत के आदिवासी असंतोष से पैदा हो रही मौजूदा घटनाओं को देखना होगा। आगे क्या करना है, यह सवाल सरकार, जनता और नक्सल तीनों के लिए खुला है। आदिवासी समुदाय सभ्यता के निर्माता है। अंग्रेजी में आने वाले शब्द ‘ट्राइब’ का मूल लैटिन का ‘ट्राइबस’ है जो रोमन राज्य में मूल त्रिपक्षीय जातीय विभाजन के लिए इस्तेमाल होता है। कई नृविज्ञानी इसका प्रयोग उन समाजों के लिए करते हैं जो मोटे तौर पर कुटुंब के आधार पर संगठित हुए। यहां भारत में सरकारी भाषा में एक आदिवासी समुदाय मूलत: प्रशासनिक और राजनीतिक अवधारणा है। इस अवधारणा में आदिवासी होने का सामाजिक और आर्थिक पक्ष गायब है। आदिवासी समुदायों की प्रकृति को समझने के लिए हमने छह समुदायों के उदाहरण लिए हैं- योरोप से तीन-वाइकिंग, गोथ और वैंडल, एशिया से दो-स्काइथियन और मंगोल तथा अमेरिका से एक-संयुक्त राज्य अमेरिका के मूलवासी (नेटिव)। शुरुआती पांच कोटियां बेहद चतुर, विनाशक और वर्चस्व का प्रतीक रहीं जबकि आखिरी समुदाय बर्बर सत्ता और उत्पीडऩ का शिकार रहा। इनमें इतना अंतर आता कहां से है?
वाइकिंग: इंग्लैंड की स्थापना पांचवी ईसवीं में जर्मैनिक और स्कैंडिनेवियन आदिवासियों ने की। इसका नाम भी जर्मैनिक आदिवासी समुदाय एंगल्स पर पड़ा है। स्कैंडिनेविया के वाइकिंग खोजी, लड़ाकू, व्यापारी और समुद्री लुटेरे थे जिन्होंने आठवीं और ग्यारहवीं सदी के बीच योरोप के विशाल क्षेत्र का औपनिवेशीकरण कर डाला। उन्होंने उत्तरी अटलांटिक की यात्राएं कीं, उत्तरी अफ्रीका, पूर्वी रूस, कस्तुनतूनिया और मध्यपूर्व तक गए। वाइकिंग उत्तरी अमेरिका भी गए और वहां कनाडा में उन्होंने एक अल्पजीवी रिहाइश बनाई। वाइकिंग के वर्चस्व की तीन सदियों को इतिहास में वाइकिंग युग के नाम से याद किया जाता है। भौगोलिक स्तर पर वाइकिंग युग का संबंध सिर्फ स्कैंडिनेवियाई भूमि (यानी आधुनिक डेनमार्क, नॉर्वे और स्वीडन) से नहीं रहा, बल्कि उत्तरी जर्मनी के तहत आने वाले इलाकों से भी रहा। वह इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र, धर्म और समुद्री कलाओं का असर था जिसने वाइकिंग को उस दौर में विशिष्टता प्रदान की। स्कैंडिनेवियाई भूमि की कृषि उत्पादक क्षमता से कहीं ज्यादा वहां की आबादी हो गई थी। घर में युवाओं की बढ़ती तादाद के मद्देनजर समुद्र पार पैर फैलाना इन तटवर्ती लोगों के लिए अर्थ रखता था, चूंकि इनके पास बेहतर समुद्री तकनीकें मौजूद थीं। पांचवीं सदी में रोमन साम्राज्य के पतन के बाद योरोप और शेष यूरेशिया के बीच व्यापार प्रभावित हुआ। सातवीं सदी में इस्लाम के उभार ने पश्चिमी योरोप के साथ व्यापार को प्रभावित किया। नए व्यापार मार्गों को खोलकर वाइकिंग समुदाय ने व्यावसायिक समेत कई तरीकों से खुद को लाभ पहुंचाया।
गोथ और वैंडल वाइकिंग समुदाय के अग्रज कहे जा सकते हैं। इन्हें जर्मनी के जंगलों का बर्बर समुदाय माना जाता है। इन तीनों की जड़ें स्कैंडिनेविया में ही हैं। ये तीनों स्वीडन के उप्सल शहर में तीन देवताओं वाले एक ही मंदिर में अराधना करते थे। ये तीन देवता थे- युद्ध का देवता थोर, उर्वरता की देवी और गर्जन का देवता। यह एक ऐसा धर्म था जो लोगों और जलवायु के हिसाब से बना था। गोथ और वैंडल को अक्सर इतिहासकार लड़ाइयों में उनकी बर्बरता के लिए ही याद करते हैं बजाय बाद में रोमन साम्राज्य को बनाए रखने में उनकी भूमिका या फिर उत्तरी अफ्रीका के उनके दीर्घजीवी साम्राज्यों के चलते। एशियाई लोग उन्हें शक के नाम से जानते थे। भारत में आज दो किस्म के कैलेंडर चलते हैं। एक बीसी/एडी वाला परिचित ग्रेगोरियन कैलेंडर और दूसरा शक सम्वत् वाला कैलेंडर जो शक साम्राज्य पर आधारित है जिसकी शुरुआत भारत में 78 ईसवी से मानी जाती है। भारतीय ग्रंथों रामायण, महाभारत आदि में शकों के कई संदर्भ हैं। शक समुदाय के लोग छोटे-छोटे रजवाड़ों में बंट गए थे जैसे छत्रप इत्यादि, और धीरे-धीरे वे भारतीय समाज का हिस्सा हो गए और इस पर अपनी छाप छोड़ी। उत्तर पश्चिम भारत में शक राजा रूद्रदमन ने संभवत: अशोक का अनुकरण कर धर्म को अपना लिया और अपने शिलालेखों पर उनके धर्मोपदेशों को भी सहर्ष जगह दी। 
इस क्षत्रप राजा ने शास्त्रोक्त संस्कृत की वापसी में बड़ी भूमिका निभाई और इस काम को उनकी स्मृति में लगे उस शिलालेख से प्रेरणा मिली जो प्राकृत, मगधी या पाली में नहीं थे, बल्कि जिन पर संस्कृत में लिखा था। जाहिर तौर पर क्षत्रप द्वारा संस्कृत का प्रयोग दरअसल स्थानीय शासक वर्ग में विदेशी मूल के शासक के प्रति सद्भाव पैदा करना था ताकि ‘क्षत्रप यानी शक शासक के संदर्भ में राजा के चुनाव के विकल्प का खतरा खत्म किया जा सके।’ इसके बाद संस्कृत के शिलालेख सुमात्रा, जावा, इंडो-चीन और दक्षिण-पूर्वी एशिया के अन्य हिस्सों में जल्द ही स्वीकार्य हो गए। अभारतीय साम्राज्यों को भी इस प्रतिष्ठित भाषा को अपनाने से ख्याति और विशिष्टता प्राप्त हुई। बंजर स्तेपी की सर्द हवाओं में पले-बढ़े चंगेज खान ने आरंभिक तेरहवीं सदी में मंगोल साम्राज्य की स्थापना की। प्राचीन ग्रीक इतिहास से अनभिज्ञ उसने मंगोलिया के बीहड़ों में उसी आदिवासी सुधार के मॉडल की एक अनुकृति रची, जो क्लीस्थेनीज के नेतृत्व में एथेंस में थी, जिसके बारे में बताया जा चुका है। उसकी सेना ने सिर्फ 25 वर्षों में उतनी जमीन और लोगों पर फतह हासिल की जो काम चार सौ साल में रोमन कर पाए थे। 
जिन देशों में मंगोल फतह हुई, तकरीबन हर जगह उन्होंने सांस्कृतिक संचार में उन्नति की, व्यापार को विस्तार दिया और सभ्यता इन स्थानों में फली-फूली। अपने योरोपीय व एशियाई समकक्षों से कहीं ज्यादा प्रगतिशील चंगेज खान ने उत्पीडऩ को समाप्त किया, सार्वभौमिक धार्मिक स्वतंत्रता का आगाज किया तथा राजसी वैशिष्ट्य के सामंती ढांचे को तोड़ डाला। मंगोलिया में आत्यंतिक जनजातीय हिंसा के बीच पोषित चंगेज खान अपने पीछे आधुनिक सभ्यता के निर्माण की एक महागाथा को छोड़ गया। समाज में आदिवासियों के समावेश की रफ्तार धीमी रही है। अठारहवीं सदी में जॉर्ज वॉशिंगटन ने माना था कि नेटिव अन्य नागरिकों के समान हैं लेकिन वे निचले दर्जे के हैं और इसीलिए उन्हें आम समाज का हिस्सा बनाने के लिए उन्होंने आदिवासियों को ‘‘सभ्य’’ बनाने की वकालत की। अगली सदी में इनके बच्चों के लिए बोर्डिंग स्कूल खोले गए। लेकिन इन छात्रों के लिए यह अनुभव किसी सदमे से कम नहीं था, जहां उन्हें अपनी मूल भाषा बोलने की मनाही थी, ईसाइयत सिखाई जाती थी और अपने मूल धर्म का पालन करने पर रोक थी। इसके अलावा कई अन्य तरीकों से उन्हें उनकी मूलवासी अस्मिता को त्याग कर योरोपीय-अमेरिकी संस्कृति अपनाने को बाध्य किया जाता था।

हारवर्ड प्रोजेक्ट की एक रिपोर्ट में आदिवासियों की आर्थिक प्रगति में बाधाओं का जिक्र है। इस सूची में कुछ मुख्य कारण निम्न हैं: पूंजी तक पहुंच का अभाव, आदिवासी क्षेत्रों के विपन्न प्राकृतिक संसाधन, बाजारों से दूरी के कारण होने वाले नुकसान, परिवहन की उच्च लागत। इसमें आदिवासी संस्कृति भी शामिल है। शिक्षा और कारोबारी तजुर्बे की कमी आम तौर पर संभावित उद्यमियों की राह में बड़ी चुनौती बन कर उभरती है। इस खंड में आदिवासियों की बात की गई है, वे अपने-अपने प्रयासों में कामयाबी के लिहाज से बिल्कुल जुदा हैं। हालांकि एक चीज इनमें समान है: आदिवासियों का निष्पक्ष और सच्चा इतिहास अब तक नहीं लिखा गया है। इन सभी उदाहरणों में अंतिम उदाहरण आगे के विश्लेषण से मेल खाता है। अमेरिकी इंडियन आदिवासी समुदाय और दक्षिण एशियाई इंडियन आदिवासी इतिहास के पन्नों में एक-दूसरे के रिश्तेदार जान पड़ते हैं। दोनों को ही दास बनने पर मजबूर किया गया, और दोनों ही मुख्यधारा के समाजों का हिस्सा अब तक नहीं बन सके हैं। 
वैदिक युग ने कृषि युग का मार्ग प्रशस्त किया। पहली प्रमुख ग्रामीण रिहाइश राजकीय नियंत्रण में बसाई गई। चौथी सदी के उत्तराद्र्ध में चंद्रगुप्त मौर्य के साम्राज्य में चाणक्य (कौटिल्य) ने अपनी पुस्तक अर्थशास्त्र में आदिवासियों को संगठित करने की प्रक्रिया का जिक्र किया है कि कैसे उन्हें दास बनाकर खेती की जमीनों पर खटाया जाए। ‘‘राजकीय एजेंटों की सभी आदिवासी समुदायों तक पहुंच बनानी चाहिए; उनके बीच ईष्र्या, विद्वेष, विवाद आदि के संभावित स्रोतों की तलाश करनी चाहिए; और असहमति के बीजों को उनके बीच डालना चाहिए। समुदाय के भीतर उच्च पद पर बैठे लोगों को निचले पदों के लोगों के साथ एक साथ बैठकर खाना खाने या विवाह करने से हतोत्साहित किया जाना चाहिए। दूसरी ओर, निचले दर्जे के आदिवासियों को बराबरी का दर्जा प्राप्त करने और विवाह करने की मांग करने के लिए उकसाया जाना चाहिए। परिवार और समुदाय के भीतर निचले दर्जे के लोगों को समानता की मांग करने के लिए उकसाया जाना चाहिए। सार्वजनिक फैसलों और आदिवासी परंपराओं को भंग करने की स्थिति में लाया जाना चाहिए।’’
प्राचीन भारत में आदिवासियों के इस अमानवीय दोहन का यह अध्याय उनके अमेरिकी समकक्षों के साथ दो सदी बाद हुए व्यवहार से मेल खाता है। उन्नीसवीं सदी में अमेरिका का पश्चिमी विस्तार इतने बड़े पैमाने पर हुआ कि नेटिव अमेरिकीयों को पश्चिम में जाकर बसना पड़ा। ऐसा अक्सर बल प्रयोग से किया जाता, हालांकि वे इसके विरोधी थे। 1830 में आए इंडियन रिमूवल एक्ट के तहत कम से कम एक लाख नेटिव अमेरिकियों को पश्चिम में बसाया गया जिसके कारण दसियों हजार की मौत हो गई। भारत में अगला कदम जाति प्रथा को लागू कर आदिवासियों को हमेशा के लिए परित्यक्त कर देना था। समाज के निचले तबके यानी अनुसूचित जाति और समाज के बाहर की जाति यानी आदिवासियों का एक संक्षिप्त इतिहास निम्न है:

  • गुप्तकाल के दौरान (300-500 ईसवी) शांति और व्यापार में तेजी के चलते ग्रामीण रिहाइशों में निजी उद्यम पनपने लगे थे और ग्रामीण अर्थव्यवस्था उछाल पर थी।
  •  इस दौरान शहरी नवधनाढ्य वर्ग, जो कि भूमध्यसागरीय कोरल, महंगी शराबों, घरेलू दासों, मनोरंजन के साधनों तथा रोमन ग्रीक जगत की कला और शिल्प का शौकीन था उसने देश के विदेशी मुद्रा भंडारों को खत्म कर डाला।
  •  घरेलू व्यापार विनिमय के लिए मुद्रा यानी सिक्कों की कमी पड़ गई। इस समस्या को सुलझाने के लिए सत्ता ने हर गांव में जाति संतुलित शिल्पकारों की अवधारणा लागू की जिससे वस्तु विनिमय संभव हो सके। 
  • हर गांव में उसकी जरूरत के मुताबिक लोहार, बढ़ई, कुम्हार और अन्य शिल्पकार एक निश्चित संख्या में दिए जाते जिनकी कुल अधिकतम संख्या 12 थी। प्रत्येक शिल्पकार को किसानों से फसल का एक निश्चित हिस्सा मिलता। इस तरह हर गांव आत्मनिर्भर हो गया, नगद मुक्त हो गया तथा दूसरे गांवों और बाहरी दुनिया से कट गया। इसका नतीजा यह हुआ कि गांवों में जाति व्यवस्था बहुत सुदृढ़ हो गई।
  •  जाति के कट्टर नियमों के तहत अर्थव्यवस्था गतिरोध का शिकार हो गई और अतिरिक्त लोगों को काम दिलाने में अक्षम हो गई। नतीजतन, बेरोजगारी बहुत तेजी से बढ़ी। जातिगत समूहों ने शिल्पकलाओं में महारत हासिल करने से दूसरों को रोका। जाति के कारण कुछ ही लोग ये महीन काम कर पाते थे जैसे भेड़ से ऊन उतारना, चमड़े का काम करना इत्यादि जो कि सारे निचले दर्जे के पेशे थे।
  •  कुछ आदिवासी टोकरी बनाने लगे, हालांकि वे कपड़ा बुनना या कातना नहीं जानते थे। दूसरी ओर, सामाजिक ढांचे के चलते ऐसा कोई गांव नहीं था जो पूरी तरह लोहारों के गिल्ड या सिर्फ चर्मकारों को समर्थन देता हो। 

नतीजा यह हुआ कि जो लोग दुर्भाग्यवश बेरोजगार रह गए, वे जंगलों और पहाड़ों की ओर चले गए और तब से वे आदिवासी कहलाते हैं। इतिहास तीन स्तरों पर चलता है: पहला, जो सनातन है यानी अपने प्राकृतिक वातावरण के सम्बन्ध में मनुष्य का इतिहास। दूसरा, वह पारंपरिक सामाजिक इतिहास है जो समूह या छोटे समूहों से बनता है। तीसरा इतिहास मनुष्य का न होकर विशिष्ट तौर पर किसी एक मनुष्य का होता है। दूसरे शब्दों में, इतिहास प्रकृति की ताकतों, समाज के ढांचे और व्यक्तियों की भूमिकाओं से गढ़ा जाता है। यह सूत्रीकरण फ्रेंच चिंतकों द्वारा दिया गया है जो मानते हैं कि यह मॉडल ही सम्पूर्ण इतिहास का मॉडल है। सम्पूर्ण इतिहास की संरचना में आदिवासियों के तुलनात्मक संदर्भों को बेहतर ढंग से व्यवस्थित किया जा सकता है। मसलन, भारत और अमेरिका के आदिवासियों में आंशिक समानता इसलिए है क्योंकि दोनों देशों में शासक वर्ग द्वारा जतलाए गए अधिकारों के संदर्भ में इनकी सामाजिक व्यवस्था और अनुक्रम तुलनात्मक रहे हैं। 
यदि योरोपीय औपनिवेशिक ताकतों ने अमेरिकी नेटिवों पर अपना धर्म थोपा, तो भारत में मौर्य साम्राज्य की राजसत्ता ने शाही गांवों के श्रमिकों शिविरों में रहने वाले आदिवासियों के साथ भी तकरीबन यही किया। नक्सलियों और माओवादियों द्वारा प्रेरित आदिवासी विद्रोह आधिकारिक तौर पर भारतीय राज्य की सुरक्षा के लिए बड़ा और गंभीर आंतरिक खतरा बताया जा रहा है। बागियों ने राजसत्ता के खिलाफ अपना युद्ध घोषित कर दिया है। आखिर, वे मौजूदा राजसत्ता की जगह क्या लेकर आएंगे; उनकी सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक अवस्थिति कैसी होगी? यह सब कुछ गोपनीय है और मोटे तौर पर लोगों को नहीं पता। एक सशस्त्र अभियान जो सिर्फ नकारात्मकता की जमीन पर खड़ा हो और अपने सकारात्मक पहलुओं के प्रति चुप हो, उसकी सार्वजनिक विश्वसनीयता नहीं होती। हो सकता है कि सत्ता बंदूक की नली से निकलती हो, लेकिन एक बार गोलियों की कमी पड़ जाए, तो वह हाथ से चली भी जा सकती है। मनुष्य का अस्तित्व सिर्फ राजनीतिक नहीं है।
नक्सलियों को काबू में करने के लिए सरकार और विशेषज्ञ दोनों ही दोतरफा रणनीति की बात कर रहे हैं- जंगलमहाल में पंचायत राज और विकास। पंचायत कानून (पेसा) जैसे ‘ऐतिहासिक क्रांतिकारी आदिवासी समर्थक कानून का उद्देश्य लोकतंत्र की ताजा बयार को लाना था ताकि आदिवासियों की भागीदारी सक्रिय और उत्साहजनक हो। इसके उलट सत्ता व सभ्यता के केन्द्रों से दूर जंगलों में मूलवासियों के झोपड़े अब भी बस टिमटिमा रहे हैं। लेकिन, नेटिव अमेरिकियों का रिकॉर्ड ऐसा नहीं है। उन्हें तो आत्मनिर्णय का अधिकार भी दे दिया गया था तथा वे सारे अधिकार भी जो न्यूयॉर्क और कैलिफोर्निया जैसे संघीय राज्यों के पास हैं। भारी राजनीतिक जनादेश के बावजूद आदिवासी समुदाय सुदूर अलग-थलग और बंद रिहाइशों में रह रहे हैं और उनके पास बाजार, स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय और सबसे बढक़र सार्वभौमिक सभ्यता का हिस्सा होने की गुंजाइश की कमी है। इस संदर्भ में विकास का क्या अर्थ बनता है? सरकारी परियोजनाओं की फेहरिस्त में विकास को सडक़ों के निर्माण, ट्यूबवेल, स्कूल, अस्पताल आदि बनवाने से मापा जाता है- और ये सारी चीजें दरअसल, ‘इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या’ से निकलकर आती हैं, ऐसी व्याख्या जो मनुष्य को एक व्यक्ति नहीं मानती, चूंकि वह सम्पूर्ण इतिहास की संरचना में तीसरा तत्व होता है।
योरोप में 15वीं शताब्दी का पुनर्जागरण दरअसल, व्यक्ति की अवधारणा का चरमोत्कर्ष था: ‘अपने बारे में एक व्यक्ति के रूप में बुनियादी तौर पर विचार करने की सार्वभौमिक क्षमता का विकास’, जो कि किसी परिवार, समूह, कुटुंब या समुदाय का महज सदस्य होने से विशिष्ट है। अब एक व्यक्ति को इंसानियत द्वारा तय की गई तमाम मंजिलों के एक प्रतिनिधि केंद्र के रूप में देखा गया, ‘मनुष्य द्वारा अपनी संप्रभु क्षमता से सचेतन होने के बाद से मस्तिष्क के भीतर सोचे गए हर कुछ और किए गए हर कुछ की एकता का एक बिंदु।’ यह मनुष्य की प्रकृति की एक स्थिर अवधारणा थी जो अतीतोन्मुख थी। उन्नीसवीं सदी आते-आते मनुष्य की एक गतिशील अवधारणा उभरी: ‘मनुष्य एक अनिवार्य प्रस्थान बिंदु नहीं, बल्कि गंतव्य बिंदु है और वह अंतर्भूत गुणों का समुच्चय कम है, बल्कि एक कभी न पूरी होने वाली प्रक्रिया का लक्ष्य है।’ ‘यदि मानवीय स्थिति’ नाम की कोई चीज होती है, तो वह कभी न चुकने वाली स्थिति है। मनुष्य एक सनातन और अपरिवर्तनीय इकाई नहीं है, बल्कि वह परिवर्तन का संकेत है, निरंतर रूपांतरण का एक स्थल है। 
मनुष्य की प्रगति की प्रक्रिया अंतहीन है। एक ‘व्यक्ति’ इस सनातन गति का वाहक होता है, उस महान नैरंतर्य के मनुष्य में रूपांतरित होने का स्थल, जो सम्मान और प्रतिष्ठा के योग्य हो। आदिवासी समेत प्रत्येक व्यक्ति को अपनी इच्छा के मुताबिक अपनी क्षमताओं को साकार करने, देश में आम समाज का हिस्सा बनने तथा सार्वभौमिक सभ्यता तक पहुंच बनाने के लिए सम्पूर्ण अवसरों की दरकार होती है। एक व्यक्ति की ऐसी प्रगति तभी संभव होगी, यदि आदिवासियों को महज तथाकथित ‘अधिसूचित क्षेत्रों’ में न रखा जाए और अरण्येर अधिकार के नाम पर बहलाया न जाए। हर आदिवासी बच्चे को उसके चुनाव के मुताबिक कवि, डॉक्टर, इंजीनियर, संगीतकार, डाकिया, फुटबॉल खिलाड़ी या अकाउंटेंट अथवा कोई भी अन्य पेशा चुनने में मदद की जानी चाहिए। इस लिहाज से संविधान की पांचवीं अनुसूची आदिवासियों के लिए संभावनाओं को बाधित करती है। भारत के आदिवासी विभाजित, बिखरे हुए और अनगिनत बोलियों के बोझ तले दबे हुए हैं। वे खुद में संवाद नहीं कर पा रहे और बाहरी दुनिया से भी परिचित नहीं हैं। उन्हें अंधा न बनाए रखें, प्लेटो के प्राचीन गुहांधकार में जकड़े न रखें।