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BHASHIKI ISSN: 2454-4388 (Print): Quarterly International Refereed Research Journal of Language, Applied Linguistics, Education, Media, Translation and Literary Analysis भाषा, अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान, शिक्षा, मीडिया तथा साहित्य-विश्लेषण की संदर्भ-रिसर्च तिमाही अंतर्राष्ट्रीय संवाहिका

Sunday, 20 January 2019

भाषिकी (BHASHIKI) अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान, शिक्षा, मीडिया, भाषा तथा साहित्य-विश्लेषण की संदर्भ अनुशंसित रिसर्च तिमाही संवाहिका ।। ISSN : 2454-4388 ।। जनवरी-मार्च: 2017, अंक : 67, मूल्य : 100/- Jan-Mar : 2017, Volume : 67, Price : 100/-

भाषिकी (BHASHIKI) अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान, शिक्षा, मीडिया, भाषा तथा साहित्य-विश्लेषण की संदर्भ अनुशंसित रिसर्च तिमाही संवाहिका ।। ISSN : 2454-4388 ।। 
जनवरी-मार्च: 2017, अंक : 67, मूल्य : 100/- Jan-Mar : 2017, Volume : 67, Price : 100/-  
इक्कीसवीं सदी का कहानी लेखन : विमर्शों का दस्तावेज
सुनील कुमावतशोधार्थी, हिंदी विभागराजस्थान केन्द्रीय विश्वविद्यालय, अजमेर skumawat903@gmail.com (M) 9828233867

Hindi literature is primarily dead due to internal politicking by the established authors. Therefore, no new authors get it easy. That is the main reason Hindi literature is still stuck in a mind-frame of 1980s. Their concerns are still the deprived small-town clerical life or even more deprived rural life. The post-liberalization era either simply doesn't feature or is shown as an evil killing everything good. That enforced leftist mindset simply deters last few remaining patrons.
21st century is the century for change. The Planet Earth is ready for ‘The Shift of the Ages’. In this New Age, love and compassion will rule the roost, and the woman with her natural attributes of compassion will sow the seeds of global transformation. These changes have already begun, and soon they will gain an unprecedented momentum. The time is ripe for women of all races, castes, class, and nationalities to come together to be the harbinger of this change.
Events on Earth demand the emergence of the feminine essence of Love all around. In the 21st century women do not need to look at the historical injustices done to her. It’s time to put all that behind her and look forward to her empowered role in this ‘Aquarian age’. Women today need not look anywhere for a perfect role model. They need to look within and listen to their intuition, to take the right action at the right time.
This scenario began to change with one of the revolutionary decisions taken in the independent India. The term "21st-century skills" is generally used to refer to certain core competencies such as collaboration, digital literacy, critical thinking, and problem-solving that advocates believe schools need to teach to help students thrive in today's world. In a broader sense, however, the idea of what learning in the 21st century should look like is open to interpretation—and controversy. To get a sense of how views on the subject align—and differ—we recently asked a range of education experts to define 21st-century learning from their own perspectives.
नई सदी के केवल शीर्षक से ही ये नहीं समझा जाना चाहिए की सब कुछ अचानक से परिवर्तन हुआ हो । साहित्य की धारा में कोई भी परिवर्त्तन एक साथ नहीं  होता है । अत: ऐसा नहीं है कि ये विमर्श इस सदी के नाम से शुरू हुआ हो। सभी विमर्शों की शुरुआत तो बहुत पहले ही बीज रूप में रही होगी । हाँ इतना कहा जा सकता है कि आन्दोलन का स्वरूप इन विमर्शों को नई सदी में ही प्राप्त हुआ हो । शिक्षा के फलस्वरूप व्यक्ति आगे बढ़ने लगा तो दूसरे वर्ग, समुदाय को देखकर खुद के वर्ग की स्थिति के बारे में चिंतन करने लगा। अपने समुदाय की समस्याओं के बारे में जानने लगाउन समस्याओं की वास्तविकता की तहकीकात करने लगा।  संघर्ष से चेतना के स्तर तक पहुंचने लगा। समाज में जागरूकता लाने के लिए वह मंच स्थापित करता है। ऐसे ही विचारों की कार्य प्रणाली से सामाजिक सुधार के आन्दोलन शुरू हुए।
परम्परा के नाम पर किसी वर्ग को दबाने वाली मानसिकता के वास्तविक धरातल पर पहुंचने से उसे पता चला कि बहुत हद तक वह इसलिए पिछड़ा हुआ रह गया कि वह खुद ही जागरूक नहीं हुआ कभी अपने अधिकारों के प्रति। अत: वह बने बनाये मानदंडों को अस्वीकार कर अपने जीवन के मूल अधिकारों के लिए जागरूक हुआ। अब विदेश गमन की आसानी ने मनुष्य को अधिक दायरा प्रदान किया है । विदेश जानावहां की जीवन शैली को अपनाना और एक दूसरे की संस्कृति से प्रभावित होने लगा तो और नये नये विषय सामने आने लगे ।  बहुराष्ट्रीय कंपनियों में जब आज का युवा नौकरी करने लगा तो वह अपने घर से दूर रहकरअकेले नये जीवन को जीने लगा । इन्हीं सब परिस्थितियों से जन्मा विमर्श । स्त्री,दलित और आदिवासी विमर्श की पृष्ठभूमि तो इसी में स्वीकार की जा सकती है कि ये समाज में बराबरी के जीवन के हक को प्राप्त करना चाहते है । अब तक  साहित्य और समाज दोनों स्तर पर हाशिये पर रखे गये वर्ग विमर्शो के आन्दोलन से मुखर होकर सामने आने लगा है । अब ये निर्धारित रूप से नहीं कहा जा सकता है की इससे साहित्य की कितनी उन्नति या अवनति हुई है ।
 जिस किसान जीवन की दशा का चित्रण प्रेमचंद ने  लगभग एक शताब्दी  पहले दिखाया उसे आज भी कोई अच्छा स्थान नहीं मिल पाया है । अन्नदाता कहलाने वाला जिस तरीके से अन्न पाता हैउसे अभी भी साहित्य में स्थान पाना शेष है । किसान का जीवन प्रकृति पर टिका है तो ये बात सही है की उसका जीवन अधिक संघर्ष से गुजरता है । फिर भी जो वर्ग आगे बढे हैं उन्होंने उसकी स्थिति का लाभ उठाने का प्रयास किया है । हालांकि अब यही कहा जाता है की किसान की जीवन शैली में बहुत अच्छा सुधार हुआ है क्योंकि वह खुद आपनी खेती का मालिक है और पूरी पैदावार पर उसका अपना हक़ होता है । फिर भी वास्तविकता में अभी गुंजाईश है । सरकारी नीतियों को ऐसा बनाना होगा की किसान जीवन भी अपनी कठिनाइयों के बाद तो अच्छा हो सके ।
सर्वाधिक रूप से झकझोरने वाला विषय बना है वृद्ध विमर्श। बुजुर्गों की जो स्थिति समाज में आज दिखाई पड़ती है उससे तो हमारी संस्कृति पर ही प्रश्न चिह्न लग जाता है और यह प्रेमचंद की बूढी काकीउषा प्रियम्वदा की गजाधर बाबू से होते हुए आज हर घर में दिखाई पड़ती है । बुजुर्गों को घर में अतिरिक्त वस्तु समझा जाने लगा है । जिस देश में कभी माता पिता को भगवान और उनकी उपस्थिति को घर में देवालय समझा जाता था वहीं आज वर्द्धाश्रमों की बढती हुई संख्या हमे सोचने को मजबूर कर देती है । आज बढती हुई महंगाई का तर्क रिश्तों पर भारी पड़ने लगा है । माता पिता अपनी पूरी जिन्दगी जिन बच्चों के भविष्य निर्माण में लगा देते हैं वही बच्चे उच्च शिक्षा प्राप्त कर विदेश की एकल जीवन शैली को अपनाकर गर्व अनुभव करते है । और बुजुर्ग माँ-बाप को आश्रमों की शोभा बढ़ाने को छोड़ देते है । एक समय था जब इसी भूमि पर रामऔर श्रवण कुमार जैसे पुत्र ने जन्म लिया था । और आज आधुनिक युग के संताने न जाने किन संस्कारों से मंडित हो रही है जो अपनी जड़ो से दूर रहकर जीने में ही उच्चता समझती है ।
आज का युवा स्वंत्रता के नाम पर सब सम्बन्धों को अस्वीकार करता है । आज का युवा जिस मानसिक्त दबाव,घुठन से जिन्दगी जी रहा है उसका मूलभूत कारण उसका अपनी जड़ों से दूर होना है । पहले संयुक्त परिवारों में बच्चे अपने दादा-दादी के पास से पूरा प्रेम संस्कार प्राप्त करते थे । उनके जीवन की सबसे बड़ी पूंजी के रूप  काम आती थी । पर आज तो संडे’ वाले पापा की अवधारणा बनती जा रही है ।आर्थिकता के इस युग में माँ बाप भागदौड़ भरी जिन्दगी में बच्चों को समय नहीं दे पते हैं ।  बच्चे इन्टरनेटटीवी पर अपने महत्वपूर्ण समय बचपन की शुरुआत करते हैं तो फिर कैसे संस्कारों की उम्मीद हम उनसे कर सकते हैं । अत: वृद्ध विमर्श केवल बुजुर्गों के जीवन की चिंता नहीं ही अपितु इसी में हमारी पीढ़ी के जीवन की नीवं छुपी हुई है ।
कीर्ति शर्मा ने अपने कहानी संग्रह पिघलते लम्हों की ओट  से’ की कई कहानियों में बुजर्गों की मानसिकता,आवश्यकता को बखूबी चित्रित करने का प्रयास किया है । ‘दायित्व’ के माध्यम से इन्होने वृद्ध माता-पिता की खुशहाली का अच्छा उदाहरण प्रस्तुत किया है । कहा भी जाता है बच्चे और बूढ़े का मन एक सा होता है” अत:उसी के अनुसार उनके साथ व्यवहार करना चाहिए । लेकिन कीर्ति शर्मा की कहानियों के पात्र जिस आदर्श रूप में दिखाए गये हैं उसी रूप में वास्तविकता में दिखाई दे तो समाज की  तस्वीर कुछ और ही रंग में दिखाई देगी।
युवा मन की सोच और बुजुर्ग माता पिता की स्थिति का चित्रण नई सदी की कहानियों में हुआ है ।  विपुल ज्वालाप्रसाद की कहानी  हवा के विपरीत” में भीमसेन अपने दोनों बेटों को आई.आई.टी. उतीर्ण करवाकर गर्व का अनुभव करता है । परन्तु जैसे ही वह अपनी सेवानिवृति प्राप्त कर घर लौटता है तब उसे वास्तविकता से रूबरू होना पड़ता है । बड़ा बेटा विदेश जाकर रहने लगता है वहीं शादी कर अपना जीवन यापन करता है। भीमसेन अपने छोटे बेटे के पास रहता है। छोटी पुत्रवधू  कहती है आपकी रोटी पानी की तवालत मुझसे नहीं होती,आप कहीं अन्यत्र प्रबंध कर लीजिये।” 1  जिस पिता ने अपना सब उच्च बेटों के जीवन को सुन्दर बनाने में लगा दिया उसको बुढ़ापे  में दो रोटियों के लिए भी मोहताज होना पड़ता है ये कहाँ की आजादी,और कौनसी आधुनिकता है यह बात भीमसेन जब अपने पुत्र को बताता है । तो छोटा पुत्र जवाब देता है इस मामले में मैं क्या कर सकता हूँ  पापा जी यह तो प्योरली उसकी मर्जी पर....मैं उस पर किसी प्रकार का दबाव डालकर अपनी गृहस्थी में कैक्टस नहीं उगा सकता । बेहतर यही होगा कि आप अपना प्रबंध वृद्धाश्रम में कर ले, वहां आपको सारी सुविधाएँ मिलेंगी समय काटने को संगी साथी भी”। 2   
यह तो अच्छा हुआ जो भीमसेन को पेंशन मिलती थी वरना राम जाने क्या हाल होता उसके जीवन का । अब सभी को पेन्शन तो नहीं मिलती तो बाकी बुजर्गों के हालत की क्या कल्पना की जा सकती है । यह बात सही है की सब अपने जीवन में उन्नति करेअपनी उच्च जीवन शैली को अपनाये,अपने  निर्णय वह खुद करे,पर इतना याद रखे की अपने धरातल को विस्मृत न करे । इसी कहानी में सुरेन्द्र के पुत्र पुनीत के माध्यम से सकारात्मकता बनाये रखने का प्रयास किया गया है । पुनीत अपने पिता द्वारा पार्ट टाइम जॉब के प्रस्ताव पर ही दुखी हो जाता है । और वह अपने पिता जी की सेवा करता है और अपने पिता को समाज कार्य में भाग लेकर अपना समय सही तरीके से बिताने का प्रस्ताव रखता है । पर पुनीत जैसा बेटा हर घर में होना जरूरी है और भीमसेन वृध्दाश्रम में ही  अपना बुढ़ापा गुजारता है । कहानी के अन्तमें सुरेन्द्र विचार करता है की भीमसेन की सन्तान ही क्यों आज पढ़ी-लिखी युवा पीढ़ी हर घर में बुजुर्गों को बोझ ही समझने लगी है ।
आज तकनीकि युग में स्त्री अपने वजूद के प्रति अधिक जागरूक हुई है ।अब वह भी मनुष्य के रूप में खुद को स्वीकार करना व्चाहती है। अब तक वह घर की गुड़िया बनकर जीती रही है,परन्तु स्त्री शिक्षा के प्रसार से वह अपने जीवन को जानने लगी है । साहित्य में नई सदी के कहानी लेखन में तो महिला रचनाकारों की बाढ़ सी आई है । महिला लेखन कोश में होने वाली वृध्दि स्वयं में ही स्त्री चेतना का उदाहरण है और सुचना युग ने स्त्री स्वतंत्रता को  और अधिक बल प्रदान किया है । संजीव चन्दन की कहानी  इनबॉक्स में रानी सारंगा : धइले मरदवा के भेस हो” में एक पात्र कहती है “ मैं बहुत से ऐसे प्रगतिशील मित्रों को जानती हूँ,जो अपनी पत्नी या महिला मित्र के स्वयं आकार लेने के पूर्व  तक तो स्त्रीवादी बने रहते है,लेकिन जैसे ही वह अपने निर्णय लेने लगती है, हाँ प्रेम के निर्णय भी तो वे उसके हितैषी अभिभावक की तरह प्रकट होते है” यह कथन सामाजिक स्तर पर तो पुरुषों की दोहरी मानसिकता को उजागर करता ही है साहित्य में भी अपना खुद को स्त्री विमर्श के पुरोधा मानने वाले रचनाकारों की हकीकत को बयाँ करता है ।
सूचना युग ने स्त्री की राह को आसान बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है । इसी कहानी में लिखे है “ वह अपने मित्रों से कहा करती थी,नये सोशल माध्यमों ने स्त्री के लिए आकाश खोल दिए हैं,बंद खिडकियों के बावजूद ताज़ी हवा उनके कमरों में प्रवेश कर चुकी है- परिवारों की दीवारों में दरार इसी माध्यम के भूकम्प से पैदा हुए है । 3   यह कथन स्त्री विमर्श के सन्दर्भ में बहुत कुछ बयाँ करता है । स्त्री को हर मोड़ पर सुरक्षा घेरे के नाम पर बंधन में ही जीना पड़ता है । पता नही कोई क्यों उसके निर्णयों को सहजता से नही ले पाता है । इस दुनिया में झूठ,पाखंडऔर सभी प्रकार के गुनाह माफ़ होते हैं पर पता नहीं स्त्री होना ही सबसे बड़ा गुनाह क्यों समझ लिया जाता है । स्त्री विमर्श ने स्त्री की स्थिति में सुधार की मांग को पुरजोर तरीके से उठाया है।
आज माँ की भूमिका से भावी पीढ़ी का निर्माण हो रहा है। ऐसा नहीं की स्त्री की उसकी स्थिति के लिए पूर्णतया पुरुष ही जिम्मेदार है । डॉ. सरस्वती माथुर बसेरा कहानी में आज स्त्री की बदलती हुई मसिकता को उजागर करती है । एक छात्रा के प्रश्न पर मैडम शारदा देवी कहती है “ जहाँ तक परिवेश की बात है आज की नारी सशक्त हुई है,लेकिन पहले की नारी भी काफी आत्मविश्वासी थी। पहले की माँ मेरी विचारधारा और सोच की दृष्ठि से बेहतर थी । मलाई मथती थी बच्चों के इर्द गिर्द घुमती थी । आज की माँ बच्चों के लिए मात्र शरीर रह गयी है। उसकी आत्मा आज की आपाधापी भरी जीवन की चुनोतियों से जूझ रही है । आज की माँ कार चलाकर आइनोक्क्स जाती है,स्पेंसर जाती है शॉपिंग करती है । बच्चों के लिए पिज्जा लती है उनसे मोबाइल पर बात करती है । आज की माँ कह देती है कि पिज्जा रखा है, एक बर्गर भी है माईक्रोवेव में गर्म करके खा लेना, फ्रिज में तुम्ह्रारी पसंद की कसाटा और वाडीलाल भी रख छोड़ी है,पहले की माँ दूध घी और मलाई से बच्चों को तृप्त करती थी । 4 तो स्त्री विमर्श ने एक रूप ऐसा भी तैयार किया है।
स्त्री विमर्श सबसे तेज गति से उभर कर सामने आया है इसने नारी मन की  पड़ताल करने का पूरा प्रयास किया है । स्त्री के संघर्ष को तो इन कहानियों में दिखाया ही है उसे जागृत करने का प्रयास भी किया गया है। स्त्री चेतना का स्वर इन कहानियों में पूर्णतया मुखर हुआ है। कीर्ति शर्मा की कहानी कचरा बीनने वाली में जगनी कहती है यह मेरा अपना जीवन है मैं चाहे जैसे रहूँ ,किसी की अनुचित बात मानने को बाध्य थोड़े हूँ । कोई मेरे साथ जबरदस्ती कैसे कर सकता है । 5  यह स्त्री चेतना का स्वर समझा जा सकता है । हाँ कभी कभी ऐसा भी लगता है केवल विमर्श के नाम पर ही लिखा जा रहा है और स्त्रीमुक्ति  के नाम पर जीवन की स्वाभाविक सामंजस्यता की धरा को कमजोर कर दिया गया है । फिर भी स्त्री को वस्तु से प्राणी समझने की मानसिकता तैयार करने में इन कहानियों ने अपनी भूमिका अवश्य निभाई है ।
परम्परा की दुहाई देना वाल असमाज भले ही स्त्री की इस जागरूकता को समर्थन न दे । सवाल यह भी है कि परम्परा केवल स्त्री पर ही क्यों आर्थिकता का युग स्त्री पुरुष की समानता की मांग करता है । जो स्त्रीकभी घर की गुड़िया बनकर रहती थी,आज वह देश किसिमाओं  को लांघकर नौकरी करने जा रही है। हाँ पुरुषों की तुलना में भले ही इनकी संख्या कम हो । और इससे देश की उन्नति हिहुई है । हालांकि स्त्री ने आसमान तक अपना कदम रख दिया है फिर भी उनके धरातल के जीवन में काफी सुधार की गुंजाईश है । समाज के उस ढांचे में परिवर्तन करना होगा जो स्त्री पुरुष में मालिकाना सम्बन्ध तैयार करता है ।नई सदी की कहानियों में अब स्त्री संघर्ष बाद,स्त्री अपने निर्णय भी स्वयं लेने लगी है जिसे समाज के वास्तविक धरातल पर चरितार्थ करना शेष है ।
दलित विमर्श- जातिगत भेदभाव भारतीय समाज की रुग्णता का नासूर बना हुआ है। केवल जन्म के आधार पर किसी को इतना पतित समझना बेमानी सा लगता है। जन्म पर किसी का कोई वश नहीं की वह किस जाति में जन्म ले उसी आधार पर उसको गुनहगार समझ लिया जाता है । यद्यपि दलित की परिभाषा वाला अर्थ साहित्य के दलित आन्दोलन में पूर्णतया नहीं आ पाया है । हाशिए पर रहे समाज को मुख्य धारा में लाना जिसका उदेश्य था वही वोट बैंक की राजनीति के कारण अब केवल जाति या समुदाय विशेष के साथ जुड़कर रह गया है । इसी जातिगत समीकरण ने नई सदी की कहानी में दलित विमर्ष का स्थान लिया है । उत्तर आधुनिक समाज का दावा करने और चाँद आसमान पर घर बनाने वाले समाज की हकीकत यह है  कि वह अभी तक जमीन पर अपनी रूढ़ियों की जड़ो को नहीं काट पाया  ।
सूचना के युग में पूरी दुनिया में स्वतंत्र विचरने वाले समाज में ही ऐसा भी वर्ग है जो स्वयं के आंतरिक जीवन के निर्णय भी खुद नहीं ले सकता । इसी वर्ग को समानता के धरातल पर लाने के जो प्रयास सामाजिक संस्थानों ने किये  हैं वही प्रयास साहित्य में दलित साहित्यकि अवधारणा के रूप में स्वीकार हुआ है । 21 सदी में दलित कहानीकारों ने अपना अच्छा स्थान  बनाया है। यह विमर्श कहाँ तक संतुलित रह पाता है कहा नहीं  जा सकता । यह भी माना जाता है कि इस विमर्श के साहित्य ने एक दुसरे में घृणा जगाने का काम भी किया है । लेकिन इन कहानियों में संघर्ष के बाद की सफलता वर्ग के सदस्यों में प्रेरणा भी जगाती है।  कहानियों में दलितों को अधिकारों के लिए जागरूक दिखाया गया है ।
संविधान की नीतियों ने इनको संरक्षण प्रदान किया है जिससे यह वर्ग भी मुख्यधारा के प्रयासरत है । दलित विमर्श ने जातिगत भेदभाव को कम करने में सफलता प्राप्त की हो पर रग रग में बसे जातिवादी जहर को मिटाने और सबसे पहले और सबसे आखिरी रूप में मनुष्य” स्वीकार करने में अभी समय लगेगा। अत: सामाजिक परिदृश्य को अपने में समेटकर चल रहे कहानी लेखन में नये नये विमर्श जुड़ते जा है। किन्नर विमर्श,आदिवासी विमर्श,दलित,विमर्श,स्त्री विमर्शसे जुडी हुई कहानियाँ ही नई सदी की हिंदी कहानियों में दिखाई पड़ती है। अब किसान और वृद्ध विमर्श थोडा कम गति से चल रहा है जो अगले दशक तक पुरजोर रूप में आ सकता है। अत: कहा जा सकता है कि 21 वी सदी का कहानी लेखन विभिन्न विमर्शों का दस्तावेज है ।
 संदर्भ :-
1.हवा के विपरीत कहानी,पृ.46,मधुमती पत्रिका,जून 2012 अंक
2.वही .
3.पृ.19,हंस पत्रिका,दिसम्बर 2015 अंक
4.बसेरा कहानी,पृ.45,मधुमती जुलाई 2013 अंक
5. पिघलते लम्हों की ओट से,पृष66,कीर्ति शर्मा,बोधि प्रकाशन जयपुर,2013
  गोदान उपन्यास में नारी संघर्ष
दिनेश चन्द्र सरस्वाशोधार्थीराजस्थान विश्वविद्यालयजयपुर  (राज.)
सम्पर्क :  09649288201 Email :  sarswad@gmail.com

The author of this paper investigated the state of women in context of a novel 'Godan' by Munshi Prem Chand. In 'Godan' there are many lively female characters which portrays the real picture of women. Since literature is the mirror of society, it reflects the face of society. In female characters of Godan Dhania, wife of Hori represents marginal peasant lady who opt for shiofting to labour work from agriculture. Though she is beaten by her husband in front of village people, still she accepts this as part of her duty.
But she always stand by her husband and boost his moral in time of crises.Silia, a dalit woman, loves matadin- a brahmin passes through state of humiliation , sexual exploitation, abused and but still loyal to her beloved. She question about her right to earn as she deserves. Matadin have frequent sex with silia but refuse to accept food prepared by silia. Malti, an educated lady represents modren women. This paper conclude with the findings that present social set up is more or less exist at the same level as depicted by PremChand in his novel Godan. The state of women can't be changed till the patriarchal attitude is changed.
Godan, generally considered Premchand's masterpiece, is a story of peasant India. It highlights the struggle between the peasant and the money-lender backed by various forces. It depicts an agricultural community with its hard work and simple pleasures, its exploitations and misery, its frustrations and hopes. Premchand's artistry and realism are at their best in the creation of some of the central characters, particularly that of Hori, who emerges as an immortal symbol of the Indian peasantry. Hori as well can be taken as a symbol of Premchand's own life. Though Premchand had a tendency toward idealization, this novel is realistic, controlled in form and disillusioned in spirit.
Apart from his description of the misery that underlies the existence of peasants, Premchand also focusses on women as being victims of multifaceted violence. The female protagonists of the novel, namely Dhania, Jhunia, Selia, Govindi, and Malti hail from both ends of the social spectrum. Yet their victimization somehow exceeds the level of oppression measured according to the denominator of caste and class. For instance, Govindi is an educated, upper caste/class woman married to a wealthy banker named Mr. Khanna. She tries hard to maintain the persona of a poised, serene, and loving mother, living a content married life in front of her friends and acquaintances. The reality of her situation is far different. Mr. Khanna is a debauch who cheats continually and publicly on his wife. His duplicity is highlighted when he philosophizes about concepts like virtue and ethics in order to impress women other than his wife. He proclaims to be a staunch supporter of women’s fight for equality. He continually declares that he is a firm believer in non-violence. But Mr. Khanna’s “rude and inflammable” behaviour towards Govindi behind closed door shows that he is, in fact, a pathological liar who feels no sense of guilt over subjecting his wife to violence, both physical and psychological.
हिन्दी साहित्य की श्रेष्ठतम कृति गोदान’ उपन्यास 1935-36 ई.  में प्रकाशित हुआ था । वो काल भारतीय समाज में  सामंती प्रभाव का काल था । ऐसा माना गया कि  सामंती व्यवस्था का सबसे अधिक प्रभाव  किसान जीवन पर पड़ा । इसी आधार पर  गोदान’ को भारतीय किसान की जीवन गाथा1 कहा गया। वहीँ गोदान’ की मूल समस्या को भी ऋण की समस्या2  बताया गयापर गोदान में चित्रित   समाज को देखकर इतना कहना पर्याप्त है कि गोदान ’ किसान जीवन की महागाथा ही है? ‘गोदान’ को हम मात्र किसान के जीवन तक सीमित कर देते है तो इस महान कृति का क्षेत्र सीमित हो जायेगा क्योंकि किसान मात्र होरी है जो उपन्यास का नायक है और उसी आधार पर उपन्यास का परिणाम होरी की मौत को माना जाता है । ये ही एक ट्रेजेडी3 बन जाती  है। पर जो  सारा ताना-बाना प्रेमचंद ने गोदान’ में बुना है क्या वो मात्र होरी को ही लेकर बुना गया हैतो फिर प्रत्यक्ष रूप से खन्ना-गोविन्दी मेहता-मालती और अन्य शहरी व कुछ ग्रामीण पात्र तथा इनसे जुड़ी बहुत सारी घटनाएँ गोदान’ में अनावाशक बनती नज़र आती है।  वहीँ गोदान’ की शुरुआत की प्रथम पंक्ति में धनिया( होरी की पत्नी) का जिक्र आता है वही धनिया ही गोदान’ के अन्त में पछाड़ खाकर गिर जाती है।4 यहाँ पर होरी के साथ संवेदनाएं बटोरने का काम धनिया भी करती है। धनिया के अलावा झुनियासिलिया,मालती ,नोहरी सोनारूपागोविन्दीदुलारी सहुआइन , पुनिया आदि नारी पात्र कहीं अधिक आकर्षण पैदा करते है। गोदान में प्रेमचंद ने संपूर्णनारी जीवन की सूक्ष्मताओं को बड़ी सफलता के साथ समेटा है।          
गोदान में दिखाया गया सामंती समाज भारत में दीर्घकाल तक अस्तित्व में रहा । इससे समाज में वर्णव्यवस्था और नारी उत्पीड़न के परिणाम भोगने पड़े।5 परन्तु परवर्ती समीक्षकों में इसे कृषक जीवन की करुण कहानी6  बताकर इसमें व्यक्त नारी की पीड़ा को फिर से छिपा दिया गया। जबकि प्रेमचंद की रचनाओं को पढ़कर कहा जा सकता है कि प्रेमचंद पद-पद पर लांछित और असहाय नारी जाति की महिमा के जबरदस्त वकील थे।’’7 अगर गोदान में होरी के चरित्र को थोड़ा कम प्रकाशित किया जाये तो बाकि बचे उपन्यास से हम ये अंदाजा भी नहीं लगा सकते कि ये किसान जीवन से सम्बंधित कथा है। गोदान में सामानांतर दो कथाएं चलती हैएक शहरी जीवन और दूसरा ग्रामीण जीवन । इन्ही दो जीवन धाराओं में कितनी स्त्रियाँ पछाड़ खा रही है । इस   समाज के आगे नतमस्तक हो रही है,  इस ओर हमारा ध्यान नहीं जाता है। जबकि बहुत सारे पुरुष पात्र ऐशोआराम की जिन्दगी जी रहें हैं। गोदान उस  समाज में जी रही नारी की भी करुण गाथा है ।
इस तथ्य को प्रमाणित भी ये नारीयाँ स्वयं करती है ,  जैसे गोदान की प्रमुख नारी पात्र ‘ धनिया’ है जो निस्संदेह  जीवट वाली महिला है और नायिका होने का हुक पा जाती है।8 प्रेमचंद ने धनिया के रूप में एक आकर्षक व्यक्तित्व की सृजना की है जो ‘ होरी से ज्यादा समझदार हैवह उसके भ्रात प्रेम और मर्यादा के लिए सब कुछ खो देने का विरोध करती है। 9 अपने अधिकारों की रक्षा के लिए समाज का खुलकर विरोध करती है जबकि होरी अपनी रूढ़िवादी सोच के चलते अपनी मरजाद ( इज्जत) की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व गंवा देता है और अपनी इज्जत भी नहीं रख पाता अंतिम समय में एक जर्जर ईमारत की भांति ढह जाता है। जबकि धनिया उस समय तक उसके साथ काम कर रही थी ।
‘ धनिया मर्दों के बराबर काम करती है इसके सिवा घर का काम भी देखती है।10 होरी ढुल – मूल हैधनिया दृढ है।11 जो महिला होकर भी होरी के बराबर काम करती है और नारी शक्ति का परिचय देती है। इसके साथ धनिया का एक रूप रणचंडी का भी हमारे सामने आता है । जब वो झुनियासिलिया के लिए पूरी पंचायत से लोहा लेती है। अंतर्जातीय विवाह और प्रेम संबंधों के परिणामत: एक तरफा मार झेल रही स्त्रियों की सहायता करती है। झुनिया को बिनब्याही बहु रूप में भी अपनाकर और उसके बच्चे कोसाथ में सिलिया के बच्चे का पालन करके अपना करुणामयीममतामयी रूप भी दिखाती है । अपने समाज अपने पतिपुत्र की बहुत बार उपेक्षाएं पाकर भी अपनी जिजीविषा को कम नहीं होने देती है। उसका बेटा गोबर तो यहाँ तक कहा देता है कि   मैं उसे अपनी माता नहीं समझता12 फिर भी उसके करुणामयी हृदय में उसके लिए स्नेह की मात्रा  कम नहीं हो पाती। प्रकार प्रेमचंद ने ये स्पष्ट कर दिया है कि ‘ नारी हृदय धरती के समान हैजिसमे मिठास भी मिल सकती है और कड़वापन भी।’ कड़वापन धनिया में स्वभावतः नहीं आया है ये तो परिस्थितियों का परिणाम है।
पिछड़े किसानों में औरत को पीटना आम बात माना जाता है ये होरी भी करता है परन्तु धनिया अपनी यथासम्भव मर्यादा को बनाये रखती है। होरी दुलारी सहुआइन के साथ लम्पट व्यवहार करता है। ये मात्र होरी की बात नहीं हैइस समाज का प्राय: सारा पुरुष वर्ग औरत को उपभोग्या और दासी मात्र मानता है। सम्माननीया नारी को तिरष्कार का दंश ज्यादा गहरा लगता है। मिर्जा खुर्शीद जैसे लोग तो कहते है- (मालती के सम्बन्ध में ) ऐसी औरतों से मैं केवल मनोरंजन कर सकता हूँ’’13  यहाँ पे पुरुष प्रो. मेहता के शब्दों में  लेवता’ बन जाता है। मालती स्वछंद रहती है तो वैश्या जैसी14 और मनोरंजन की पात्र बन जाती है जबकि पुरुष हमेशा से पुर्णतः स्वतंत्र रहता आया है। स्त्री- पुरुष तो जीवनरथ के दो पहिये माने जाते हैं। जब दोनों एक साथ नहीं घूम पाएंगे तो जीवनरथ कैसे चलेगा गोदान में भी जीवनरथ अपनी अनवरत गति से नहीं चल पाता है । प्रो. मेहता के माध्यम से प्रेमचंद ने अपने आदर्शवादी विचार रखे हैमेहता औरत के बारें में कहते है कि औरत वफ़ा और त्याग की मूर्ति है जो अपनी बेजुबानी सेकुर्बानी से अपने को बिलकुल मिटाकर पुरुष की आत्मा का अंश बन जाती है।
उपन्यास का अंत होरी की मौत से होता है परन्तु समाज की मार झेलने को धनिया अब भी जिन्दा है। गोबर शहर जा चूका हैसोना ,रूपा की शादी हो गयी। अब सारा ऋण का भार अकेली धनिया पर ही तो आएगाफिर ये सामंती अज़गर जैसा समाज उसे कैसे मुक्त कर देगावो तो निगल ली जाएगी ! दूसरी ओर शहरी जीवन की नारी भी सम्मान  पाने को संघर्ष करती नज़र आती है। जहाँ एक तरफ विदेश से पढ़कर आईआधुनिकता के चमत्कार में अंधी मालती है जो पुरुष को खिलौना समझती है परन्तु स्वयं मनोरंजन का पात्र बन जाती है तो दूसरी तरफ मिल मालिक खन्ना की पढ़ी- लिखी पत्नी गोविन्दी धन की दौड़ में अंधे पति के शोषण व उपेक्षाओं का शिकार बनती है। गोविन्दी के विचार इतने ऊँचे,उसका हृदय इतना विशाल और उसका जीवन इतना उज्जवल है15 फिर भी वो उपेक्षायें झेलती है। डॉक्टर का पैशा रखने वाली मालती प्रो. मेहता के विचारों से प्रभावित होकर बदल गयी और गरीब मरीजों के साथ  उसके  व्यव्हार  में भी मृदुलता आ गयी थी।16 जितना सरल परिवर्तन मालती में आता है उस गति से ग्रामीण स्त्रियों का जीवन नहीं बदल पाता । कारण स्पष्ट था कि मालती शिक्षित थी जबकि ग्रामीण स्त्रियाँ अशिक्षित। कहीं न कहीं स्त्रियों की दुर्दशा का कारण अशिक्षा भी है और ये पुरुष प्रधान समाज नहीं चाहता था कि महिलाएं भी शिक्षित हो।
गोदान की नायिका धनिया के जीवन की तरह बाकि स्त्रियों  की स्थिति भी ऐसी ही है। अपने हिस्से की फ़सल बचाने के लिए पुनिया (होरी के भाई हीरा की पत्नी) बंसोर से संघर्ष करती है जबकि उसका पति हीरा बंसोर से हिस्सा न मांगकर पुनिया को ही पीटना शुरू कर देता है। जैसे कि अपनी कायरता को उस पर विजय करके छिपाता है। झुनिया से प्रेम प्रसंग करके गोबर उसे गर्भवती छोड़कर भाग जाता हैजैसे प्रेम करने की दोषी झुनिया थी जो उसे सजा दी गयी। दूसरी ओर मातादीन (ज़मीदार दातादीन का बेटा) से प्रेम करने वाली सिलिया भी उसकी गर्भवती होने पर परित्यक्त कर दी जाती है।
मातादीन सिलिया  का तन और मन लेकर भी कुछ नहीं देना चाहता।17 सिलिया चमारिन के पिता हरखू व अन्य परिवार वालों द्वारा उसके साथ उस समय दुर्व्यवहार किया जाता है जब वो अकेली , निस्सहाय व गर्भवती थी। जबकि मातादीन से उसका सम्बन्ध तो पुराना था। उस समय ये समाज क्यों नहीं जागा? होरी की बेटियां सोना, रूपा भी अपने वैवाहिक जीवन से खुश नहीं रह पाती । रूपा  को तो कर्ज की भेंट चढा दिया जाता है, उसका विवाह एक बुढ्ढे के साथ करके। इस प्रकार गोदान में होरी और कहीं कहीं गोबर को पुरुषों में पीड़ित दिखाया गया है जबकि पूरा नारी वर्ग इस समाज की निकृष्ट मान्यताओं व रूढ़ियों से पीड़ित है। नारी जीवन की करुण गाथा गोदान में सुनाई देती है जो सामंती समाज की मार से त्रस्त है।
धनिया द्वारा झुनिया , सिलिया को घर में शरण देकर , गोविन्दी का सशक्तिकरण आदि कई प्रसंगों में ‘गोदान भारतीय रुढ़िवादी परम्परा पर कड़ा प्रहार है।’?18 गोदान में परम्परागत वैवाहिक पद्धति का भी विरोध किया गया है। जिसकी मार हमेशा नारी को झेलनी पड़ती है।19 क्योंकि होरी की ‘बहनों के विवाह में तीन-तीन सौ बाराती द्वार पर आये थे, दहेज़ भी अच्छा दिया गया ।’20 उसकी कमर तो तब ही टूट गयी थी। अब होरी रूपा का विवाह अपनी मरजाद (इज्जत) के लिए अच्छा करना चाहता था परन्तु परम्परागत विवाह पद्धति को नहीं निभा पाने के कारण अपनी सबसे ‘लाडली’ को ही बेचने जैसा अतिहृदयविदारक कार्य करना पड़ता है। ये वाक्य भी सुनने को आता है कि ‘ प्रेमचंद ने झुनिया और सिलिया दोनों को दुश्चरित्र की सलीब पर टांगा है।’21 क्योंकि मातादीन का झुनिया के पास आने और मथुरा (सोना का पति) का सिलिया को पकड़ने मात्र से ये आक्षेप लगाये जाये कि वो चरित्रहीन है? जबकि अकेला मानव हमेशा सहानुभूति पाना चाहता है  फिर दोनों अपनी करुण स्थिति में इतनी निर्बल सी हो गयी है की विरोध भी नहीं कर पाती फिर क्या ये समाज उनकी बात पर विश्वास करता ? उसका लाभ ये पुरुष उठाना चाहता है और दोषी स्त्री मानी जाये ? ये तो मात्र निरकुंशता है।
गोदान का पूरा सामंती ढांचा अपना केंद्र स्त्री को बनाता है। और  वो बस उसकी प्रताड़ना झेलती है, अगर प्रतिकार करे तो मर्यादाहीन व गयी- बीती बताकर अपमानित कर दी जाती है। अंत में पछाड़ खाकर गिरने वाली वो मात्र कृषक भार्या धनिया नहीं है , वो पुरे स्त्री वर्ग की प्रतिनिधि है। जो होरी की मौत से पछाड़ नहीं खाती बल्कि ये समाज व्यवस्था उसे पस्त कर देती है। उपन्यास के क्षेत्र में प्रेमचंद की बड़ी सफलता इस बात में भी है कि उन्होंने अच्छी किस्सागोई को व्यापक रचना- दृष्टि से जोड़ा है।’22 जिससे उस  समाज की नारी का  यथार्थ हमारे सामने प्रस्तुत होता है । किस प्रकार नारी अपने  अस्तित्व के लिए संघर्ष करती आई है जो आज भी चल रहा है।
 संदर्भ सूची  :
1: प्रेमचंद- एक विवेचन ( इन्द्रनाथ मदान ) पृ. 96
2: प्रेमचंद और उनका युग ( रामविलास शर्मा ) पृ.96
3: प्रेमचंद और उनका युग ( रामविलास शर्मा ) पृ.96
4: गोदान (उपन्यास ) पृ. 328
5: हिन्दी साहित्य का सरल इतिहास (विश्वनाथ त्रिपाठी) पृ. 113
6: गोदान (समीक्षा) सं. राजेश्वर गुरु  पृ. 94
7: हिन्दी साहित्य – उद्भव और विकास ( हज़ारीप्रसाद द्विवेदी) पृ.229
8. मुंशी प्रेमचंद और दलित समाज (  रत्नकुमार संभारिया ) पृ. 247
9: प्रेमचंद और उनका युग ( रामविलास शर्मा ) पृ. 106
10: प्रेमचंद और उनका युग ( रामविलास शर्मा ) पृ.107
11: प्रेमचंद और उनका युग ( रामविलास शर्मा ) पृ.237
12: गोदान (उपन्यास) पृ.208
13: गोदान (उपन्यास) पृ.136
14: गोदान (उपन्यास) पृ. 175
15: गोदान (उपन्यास) पृ 268
16: गोदान (उपन्यास) पृ. 279
17: गोदान (उपन्यास) पृ. 226
18: प्रेमचंद और उनका युग ( रामविलास शर्मा ) पृ.233
19: गोदान ( समीक्षा) सं. राजेश्वर गुरु  पृ. 92
20: गोदान (उपन्यास) पृ. 233
21: मुंशी प्रेमचंद और दलित समाज (रत्नकुमार संभारिया) पृ.251
22: हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास (रामस्वरूप चतुर्वेदी) पृ. 142

सुधा ओम ढींगरा की कहानियों में सांस्कृतिक मूल्यों की स्थापना और विघटन
अलका, शोधार्थी, हिंदी विभागराजस्थान केन्द्रीय विश्वविद्यालय, अजमेर

Culture is a wider concept than literature, so in this context it will be considered in terms of its relationship with literature, i.e. as a combination of literature and culture.   Thus in the teaching of culture literature plays different roles: it serves either as illustration or a starting point for the study and mediation of cultural phenomena. It is understood as part of a specific foreign civilization, thus by learning about the social, historical, linguistic and other cultural implementations in literary texts specifics of the foreign culture are being mediated.
This wide concept allows for a much more empirical description of actions that are being performed in the field of literature, the main four sectors being production, distribution, reception and processing of literary texts and other literary products. It serves as a basis to understand literature as a set of more or less social activities that mostly can be learned and fostered as literary competences.
संस्कृति एक बहुअर्थी और बहुआयामी शब्द है। ‘संस्कृति’शब्द के भीतर कई अर्थ निहित हैं जो विभिन्न सैद्धान्तिक विश्लेष्णात्मक  ढांचों द्वारा समय समय पर व्याख्यायित  किये गये हैं । संस्कृति को किस रूप में समझा जाए यह प्रश्न महत्वपूर्ण है । रेमण्ड विलियम्स ने  संस्कृति शब्द में चार महत्वपूर्ण अवधारणाओं पर ध्यान रखा है –चित्त की वैयक्तिक आदत ,सम्पूर्ण समाज की बौद्धिक वृद्धि ,कलाएं और समूहों या जनताओं के जीवन चरित का तरीका ।1 एस.आबिद हुसैन ने संस्कृति शब्द का विश्लेषण करते हुए ‘बहुधा सुरुचि और शिष्ट व्यवहार’के अर्थ में इसका प्रयोग किया है ।आबिद हुसैन के अनुसार , “संस्कृति किसी एक समाज में पाई जाने वाले  उच्चतम मूल्यों की वह चेतना है जो सामाजिक प्रथाओं, व्यक्तियों की चित्तवृत्तियों, भावनाओं, मनोवृति, आचरण के साथ उसके द्वारा भौतिक पदार्थों को विशिष्ट स्वरुप दिए जाने में अभिव्यक्त होती है ।”2
संस्कृति इन्द्रधनुष की भांति सतरंगी शब्द है, इसकी प्रकृति में काल के अनुसार परिवर्तन होते हैं और मनुष्य के मनोभाव भी बदलते हैं। संगीत, भाषा , परम्पराएँ, रीतिरिवाज सभी समय के अनुसार बदलते हैं और यही संस्कृति की मुख्य पहचान है । संस्कृति नये समाज व नये परिवेश के अनुसार बदलती रहती है । हर देश व समाज की अपनी एक संस्कृति होती है और वहाँ  के लोगों का जीवन उसी संस्कृति के अनुरूप ही विकसित होता है । संस्कृति सीधे रूप में जीवन को प्रभावित करती है । हर एक समाज की एक अलग पहचान है जो अपने समाज को, देश को दूसरे समाज व देश से अलग करती है ।
लोग एक देश से दूसरे देश में पलायन करते हैं, बसते हैं और वहां की संस्कृति को अपनाते हैं उसी दूसरी संस्कृति के साथ वे अपनी संस्कृति के साथ भी सामंजस्य बनाकर रखते हैं पर यह सामंजस्य बना पाना सभी लोगों के लिए  आसान नही होता कुछ लोग इस तालमेल के साथ अपना जीवन सफलता पूर्वक चला पाते हैं पर कुछ लोग अपने सांस्कृतिक मूल्यों को या तो भूल जातेजाते हैं या फिर नये देश की संस्कृति का अन्धानुकरण करने लगते हैं या फिर अपने सांस्कृतिक मूल्यों में जकड़े अवसाद ग्रस्त जीवन व्यतीत करते हैं । सुधा ओम ढींगरा ने अपनी कहानियों में इसी प्रकार के सांस्कृतिक मूल्यों का विघटन व स्थापना होते हुए दिखाया है । सुधा ओम प्रवासी महिला कहानीकारों में अग्रणीय हैं वे मूलतःभारतीय हैं और 80 के दशक से  प्रवासी के रूप में अमेरिका में बसी हैं ।
अमेरिकी संस्कृति से भलीभांति परिचित हैं जिसका पता उनके साहित्य को पढने से पता चल जाता है। उन्हें भारतीय व अमेरिकी संस्कृति की सूक्ष्म जानकारी है दोनों संस्कृतियों की अच्छाई बुराई को पास से जाना है जिसके कारण उनकी कहानियाँ पाठकों के हृदय को छूती हैं । अपनी कहानियों में भारतीय व अमेरिकी संस्कृति के तालमेल का नया मिश्रण पाठकों के समक्ष रखती हैं उनकी कहानियाँ जितनी प्रवासी संवेदनाओं को व्यक्त करती हैं उतनी ही भारतीय भूमि से जुडी हैं । वे न अमेरिकी संस्कृति को पूर्णतया सही मानती हैं और न भारतीय संस्कृति को । दोनों संस्कृतियों के अच्छे तत्वों को बहुत आसानी से स्वीकार करती हैं वहीं दोनों संस्कृतियों की खामियों को भी उजागर करने में संकोच नहीं करती हैं ।
सुधा ओम की कहानियां –कमरा न.103,वह कोई और थ,  टारनेड़ो ,क्षितिज से परे ,कौन सी जमीन अपनी , ऐसी भी होली इत्यादि कहानियाँ सांस्कृतिक मूल्यों की स्थापना व विघटन की दास्तान बयान करती हैं । कमरा न.103 कहानी भारतीय मूल्यों के टूटने की कहानी है भारत में माता पिता को बागवान का दर्जा दिया जाता है पर विदेशी संस्कृति के मोहपाश में  फंसकर बेटा अपनी ही माँ से गैरो जैसा व्यवहार करने लगता है वो अपनी माँ को ही घर में आया के रूप  में देखने लगता है। माँ के बीमार होने पर देखभाल तो दूर की बात है वो उसे सिटी अस्पताल मैं एडमिट कराकर चला जाता है और वापस लौट कर  नहीं आता एस कहानी मैं नर्से अपनी बातचीत के दौरान भारतीय प्रवासियों की शर्मनाक हरकतों का ब्यौरा देती हैं कि किस तरह भारतीय अपने वृद्ध माँ बाप को बस काम करने के लिय बुलाते हैं। “टेरी,कई भारतीय अपने माँ बाप को बच्चों की देख रेख के लिए यहाँ बुलाते हैं । डे केयर और बेबी सिटर का पैसा बचाते हैं ।”3 कुछ भारतीय अमेरिका में रहते हुए पूरी तरह से अमेरिकी रंग व संस्कृति में रंग जाते हैं , जैसे मिसेज वर्मा कहती हैं “उसके लिए हम अंकुर के माँ  बाप हैं । हमारे प्रति वह अपना कोई उत्तरदायित्व  नहीं समझती। हमारा ख्याल रखना अंकुर की जिम्मेदारी है । वह अमेरिकन कल्चर मैं जन्मी पली अमेरिकंज से भी चार कदम आगे की सोच रखने वाली लड़की है ... वह अपने माँ बाप की बहुत केयर करती है ,पर हमारा बेटा ही अपना फर्ज नहीं निभा पाया ।”4
भारतीय संस्कृति जहाँ संयुक्त परिवार एक परम्परा है वहीं अमेरिका में एकल परिवारों की संस्कृति है वहां  सभी माता पिता शादी के बाद से ही बेटा व बेटी सभी को अलग कर देते हैं ताकि वो लोग अपना जीवन अपने तरीके से जी सकें। इसी के चलते ही मिसेज वर्मा का बेटा अपनी माँ को अमेरिका अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए  बुलाता है और उनका सारा पैसा छीनकर और नौकरों जैसा व्यवहार करके कोमा में पहुँचा देता है । इस कहानी में भारतीय व अमेरिकी संस्कृति के द्वंद्व को दर्शाया गया है जिसमें बच्चें अमेरिकी संस्कृति का अन्धानुकरण कर अपने कर्त्तव्यों से पल्ला झाड़ते दिखाई देते हैं । एक स्थान पर एमी इन्हीं कर्त्तव्यों पर तंज कसते हुए कहती है “...कई भारतीय और पाकिस्तानी अपने माँ बाप को यहाँ बुला लेते हैं ,पर हेल्थ इंश्योरेंस नहीं लेते , सब अच्छा कमाते हैं ,पर दांतों से पैसा बचाते हैं । माँ बाप में से अगर कोई बीमार पड़ जाता है तो उन्हें सिटी अस्पताल में बाहर से ही छोड़ जाते हैं ,दवा दारू का बिल उनके नाम न पड़ जाए ।”5  कमलेश वर्मा भी अपने बेटा बहू  के इसी आचरण से दुखी होकर कोमा में पहुँची थी और नर्स एमी व टेरी के प्रेम भरे व्यवहार से वे कोमा से बाहर आने की कोशिश में जुट गयी थी ।
सुधा ओम की दूसरी कहानी है ‘वह कोई और थी’। यह कहानी अमेरिकी स्वछंद संस्कृति पर तंज कसती है । अभिनन्दन वत्स भारतीय संस्कृति में पला बढ़ा लड़का जो भारतीय संस्कृति की सभी मान्यताओं  को निभाना जानता है उसकी शादी अमेरिकी संस्कृति में पली बढ़ी लड़की सपना से होती है जो अमेरिकी संस्कृति का अन्धानुकरण करती है । “अभिनन्दन वत्स को सपना ने नंदू बना दिया है । सपना को भ्रम है कि अपने पुरुष को पप्पी (छोटा कुत्ता ) बना कर  रखो ,तलवे चाटेगा ।”6  सपना हमेशा इसी सोच में  रहती है वह अभिनन्दन से सारे  घर का काम करवाती है । अभिनन्दन के लिए देश नया था ,वह वर्क  परमिट व अपनी हर जरूरत के लिए सपना व उसके परिवार पर निर्भर करता था कोई अपराध न होने पर भी क्षमा उसे ही माँगनी पड़ती थी । सपना उसे हारा हुआ महसूस करवाती व् उसकी इच्छा के विरुद्ध सभी काम उससे करवाती थी । अपने देश में रोजगार की कमी को देखते हुए अभिनन्दनके मामा ने एनआरआई लड़की से उसकी शादी कराई ताकि वह वहां से कुछ कम कर  अपने परिवार को अच्छे से पाल सकें,पर हुआ उल्टा ,अभिनन्दन के विदेश आते ही सपना ने भारतीय लोगों व संस्कृति का मजाक बना कर रख दिया ।
वह स्वयं कहती है “डैड हिंदुस्तान के लोग भावनात्मक बेवकूफ होते हैं । दिमाग से काम लेना जानते ही नहीं । दिल हथेली पर लिए घूमते हैं । पाँव छूकर, मीठा बोलकर, बड़ों को आदर देकर कुछ भी करवा लो इनसे । हर समय संस्कारों की दुहाई देते हैं ....क्या हैं संस्कार ।”7 हालाँकि सपना की माँ अभिनन्दन व भारतीय संस्कारों को भी बहुत मानती हैं पर वो भी अभिनन्दन के लिए कुछ नहीं कर पाती वे सपना को समझाने का प्रयास करते हुए थक जाती हैं और अंततःसपना को कहती हैं , “सपना अमेरिकी कल्चर को मैंने तुमसे ज्यादा अपनाया हुआ है । तीस वर्षों से यहाँ रहती हूँ । तुम दोनों की तरह बुरी आदतें अपनाकर कल्चर को जानने का दावा नहीं करती।”8  सपना जो हमेशा अभिनन्दन को ग्रीन कार्ड की धौंस देती है, उसी धौंस को न सहकर एक दिन वह उस घर को यह कह कर छोड़ देता है कि तुम वो लड़की नहीं हो जिसे मैंने पसंद किया था ।
‘टारनेड़ो’ कहानी भारतीय संस्कारो की श्रेष्ठता को दर्शाती है जिसमें दो विधवा औरतें वंदना और जेनेफर की कहानी है वंदना जो अपने पति के देहांत के बाद अपनी और अपनी बेटी सोनल की जिम्मेदारी स्वयं उठाती है उसे जीवन में किसी अन्य पुरुष की कामना नहीं है,भारतीय संस्कृति में  इसी तरह का जीवन दर्शन दिखाया व सिखाया गया है । इसके विपरीत जेनेफर अपने पति की मृत्यु के कुछ समय बाद ही बॉय फ्रेंड बनाने से नहीं हिचकिचाती । जब उसकी बेटी उसे ऐसा करने से मना करती है और कहती है कि सोनल की मम्मी तो ऐसा नहीं करती तो जेनेफर वंदना को एबनोर्मल बता देती है । जिसके बाद से क्रिस्टी हर रोज चाहती है कि उसकी माँ भी एबनोर्मल हो जाए । वंदना सोनल के साथ क्रिस्टी की भी देखभाल करती है और क्रिस्टी को भी भारतीय संस्कार अच्छे लगते हैं ,तभी तो वह वंदना को यशोदा माँ का संबोधन देती है वंदना हर प्रकार से क्रिस्टी को ये यकीन दिलाने का प्रयत्न करती है कि वह  अकेली नहीं है,दूसरी और क्रिस्टी की माँ अपने व्यसनों में डूबी रही और अपनी बेटी को अपने आप से दूर कर  दिया जिसके कारण अंततः क्रिस्टी घर छोड़ कर  चली गयी ।
‘क्षितिज से परे’ कहानी में भारतीय विवाहित जोड़े सुलभ व सारंगी की कहानी है जिसमें सारंगी विवाह के 40 साल बाद अपने पति से तलाक लेना चाहती है क्योंकि वह अब और खुद को बेवकूफ कहलवाना पसंद नहीं करेगी । 40 साल पहले अमेरिकी धरती पर पैर रखते ही अपने पति के मूँह से यही संबोधन सुना था ‘बेवकूफ’ जो 40 साल बाद भी उस से वैसे ही चिपका हुआ है । अमेरिका जहाँ विवाह के समारोह में लम्बे –लम्बे चुम्बन लिए जाते हैं और कुछ दिनों बाद तलाक की अर्जी देदी जाती है ।तलाक  अमेरिकी  संस्कृति की एक सामान्य बात है जो भारतीय संस्कृति में पाप की तरह समझी जाती है क्योंकि विवाह को तो सात जन्मों का बंधन समझा जाता है यहाँ तलाक जैसे शब्द का प्रयोग करना भी गलत समझा जाता है, ऐसे  देश की स्त्री अपने विवाह के 40 साल बाद तलाक की बात करें और आगे बढ़ कर अपने पाती से तलाक मांगे तो क्या यह सही है ।
कहानी पढ़ते हुए जैसे जैसे हम आगे बढ़ते हैं तो पाते हैं कि 40 साल जिस दुःख व हीनता की शिकार सारंगी होती रही उसके बाद उसका तलाक मांगना सही है। सुलभ जिस तरह से अपने शोध कार्य के लिए समर्पित था उसे बस अपना ही कार्य सबसे महत्वपूर्ण लगता था सारंगी जो इस नये देश में आई जिसने यहाँ की भाषा भी और लोगों से सीखी और अपने चार बच्चों को कामयाबी की राह दिखाई वो अपने पति की नजरों में 40 साल बाद भी बेवकूफ बनी रही पति की मार सही लांछन सहें ,थप्पड़ खाकर सोचा की पुलिस बुला लूँ ,परन्तु संस्कारों के कारण ऐसा नहीं कर पायी । कहानी के अंत मैं सारंगी कहती है , “मेरी प्राथमिकताए  बदल गयी हैं । भावनात्मक स्तर पर मैं उनसे बहुत दूर निकल चुकी हूँ ...क्षितिज से परे ,मैं सचमुच सुलभ  के साथ रिलेट नहीं कर सकती ।” 9 
‘कौन सी जमीन अपनी’ कहानी भावनात्मक व खून के रिश्तों का खून होने की कहानी है जिसमें सगे माँ- बाप, भाई  मनजीत  की जान के दुश्मन बन जाते हैं वे अपने रिश्तों का मान भी नहीं रखते हैं। मनजीत जो 30 साल पहले अमेरिका जाकर बस गया ,वह इस आस में अपने घर पैसे भेजता है कि उसका अंतिम समय अपने गाँव में कटे।वह कहता है , “ओय मैंने अपना बुढ़ापा यहाँ नहीं काटना ,यह जवानों का देश है , मैं तो पंजाब के खेतों मैं अपनी आखिरी सांसे लेना चाहता हूँ ।”10 मनजीत भारतीय संस्कारों में पला बढ़ा ,हर समय अपने माँ  बाप भाइयों को याद करता हुआ तीस साल पुराने रिश्तों में जीता आया था, उसे यह नहीं पता था कि इन संस्कारों का मोल अब नहीं रहा पैसों की चमक से उसके सारे रिश्ते उसको बस पैसो का एक जरिया मानते थे कोई भावनात्मक सम्बन्ध उसके साथ नही रहा ।
मनजीत जब अपने गाँव लौटा तो घर के लोग ये बात जानकर परेशान हो गये कि वह हमेशा के लिए वहाँ आ गया है और वे उसे रस्ते हटाने की साजिशे रचने लगे ,मनजीत इस स्थिति को स्वीकार नहीं कर  पाया कि उसके भाई और बाप ही उसे मरवाने की सोच रहें हैं । भारतीय  संस्कृति जहाँ सयुक्त परिवार के स्नेह के लिए जानी जाती है वही संस्कार पैसे की चमक के आगे फीके पड़ गये। ‘ऐसी भी होली’ कहानी में एक विदेशी यहूदी  लडकी  वेनेसा और अभिनव के प्रेम की कहानी है। अभिनव के परिवार वाले वेनेसा को अपनाने से मना कर  देते हैं और अभिनव से बातचीत बंद कर  देते हैं ,वहीं वेनेसा भारतीय संस्कृति की जानकार है और सभी भारतीय संस्कारो के महत्व को जानती है , परिवार के महत्व को समझती है और अभिनव के परिवार को प्रेम से मन लेती है ।
सुधा ओम ढींगरा ने इन सभी कहानियों में भारतीय संस्कृति और अमेरिकी संस्कृति को बहुत बारीकी से जांचा परखा है भारतीय संस्कृति की खामियां हो या अमेरिकी संस्कृति की हो उन्हें उजागर किया है उनकी कहानी कौन सी जमीन अपनी ,कमरा न. 103 ,वह कोई और थी , में जिस प्रकार भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों को टूटते हुए दिखाया गया है ,उसका मुख्य कारण लालच है । लालच मैं अंधे होकर मनजीत के परिवार वाले अपने ही बेटे का खून करने को उतारू हो जाते हैं । कमरा न.103 की कमलेश वर्मा अपने पुत्र व बहू के लालच के कारण कोमा में पहुँच जाती हैं । वहीं वह कोई और थी की सपना व उसके पिता के लालच के कारण अभिनन्दन का दिल टूट जाता है और वह सब कुछ छोड़ कर  चला जाता है ।
दूसरी और सुधा ओम भारतीय व अमेरिकी संस्कृति की स्थापना भी करती दिखाई देती हैं ,टारनेड़ो ,क्षितिज से परे ,ऐसी भी होली कहानियाँ मन में सकारात्मक विचार छोडती हैं कि भारतीय व् अमेरिकी संस्कृति के बहुत सारे मूल्यऐसे भी हैं जिन्हें छोड़ा नहीं जा सकता । टारनेड़ो की वंदना अपने सांस्कृतिक मूल्यों को बचा कर  रखती है वो अपनी बेटी के साथ साथ क्रिस्टी को भी उन सब संस्कारों को सिखाती है जो एक खुशहाल जीवन के लिए अतिआवश्यक हैं । क्षितिज से परे की सारंगी अपने को पहचान पाती  है और अमेरिकी परिवेश के अनुसार अपनी सोच को बदलते हुए विवाह के 40 साल बाद अपने पति से तलाक की मांग करती है । ऐसी भी होली की वेनेसा भारतीय संस्कृति से प्रभावित है ,परिवार के महत्व को समझती है और अभिनव के परिवार को व् अपने परिवार को रिश्ते के लिए मनाती है ।
सुधा ओम सरल भाषा में अपनी कहानी कहते हुए संस्कृति के सभी भेदों को पाठकों के सामने उजागर करती हैं ।
संदर्भ ग्रन्थ सूची :
1.                    Raymend Williams ,culture and society (1780-90)p.16
2.                    हुसैन –भारत की राष्ट्रीय संस्कृति .पृष्ठ -3
3.                    सुधा ओम ढींगरा –कमरा न.103.पृष्ठ -38
4.                    वही.पृष्ठ -39
5.                    वही.पृष्ठ- 40
6.                    वही .पृष्ठ -44
7.                    वही .पृष्ठ -51
8.                    वही .पृष्ठ -52
9.                    सुधा ओम ढींगरा –कौन सी जमीन अपनी .पृष्ठ -94
10.                 वही .पृष्ठ -9

आदिवासी साहित्य: अस्मिता का संकट और प्रतिरोध के स्वर
बिरमदेव शोधार्थीहिंदी विभाग, राजस्थान केन्द्रीय विश्वविद्यालयअजमेर,
मो.नं. 9413653626 ईमेल- 2014phdhindi03@gmail.com

The paper explores the terms of discourse of present tribal movements, focusing on the emergence of new left formations. The new realms of action articulated by these movements include a reaffirmation of identity, the struggle to recapture control over resources, a rethinking of the political domain and a redefinition of development. The notions of development, nation building and human (individual) rights have been the prime factors in the progressive destruction of the survival systems of tribal peoples. The emerging perspectives within tribal movements signal a shift from resistance to resurgence, towards ethno-development.
As tribal people rise up to struggle and fight against repression and resist cooption, their acts of heroic resistance serve to highlight the inhuman conditions of the tribal peoples: a cumulative effect of state policy, constructive marginalisation, abetted subjugation and acquiesced genocide. The rich variety of tribal struggles reflects the variations in material conditions, modes of production, social formations, levels of internal and external articulation, mass base and their apparent localised character. This does not lend itself to easy found categories.
Many tribal movements are seriously concerned about the growing ecological crisis. Convinced that the destruction of the environment is intimately linked to the development paradigm which glorifies profits without questioning the means, and renders the environment subservient to the interests of the ruling elites, the tribal people posit the integrity of the environment and their rights as people of forests to preserve and protect the material basis of life, livelihood and ethos. They see environmental preservation as a basic part of their politics.
The focus on identity is effective in empowering when identity politics are construed as the affirmation of the experiences, dignity and rights of historically marginalised people; claiming an identity they are taught to despise and building on the latent strengths of the individual and collective identities in a direct confrontation with the individuals and institutions that have supported or tolerated these forms of discrimination, hatred and exclusion.
Today the state has emerged as the single largest alienator of tribal lands and other survival resources. The provisions of regulations concerning alienation of tribal land are not applied with respect to land acquired by the public sector projects and credit cooperatives. The Colonial Land Acquisition Act, 1894, freely permits the state to alienate tribal land for public purposes. It is not simply that the state enjoys a superior right but it can conveniently convert it into an absolute right while alienating tribal lands.
“कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिए
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए
यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिए.....।”
दुष्यंत कुमार की पंक्तियाँ जहाँ आजादी के लिए संजोए गए सुखद स्वप्नों को यथार्थ स्थिति के साथ पूरी तरह ख़ारिज करते हुए अंतर्मन में घनीभूत पीड़ा को जिस सजीव और मार्मिकता से व्यंजित करती है वहाँ मोहभंग, निराशा, अत्याचार और प्रतिशोध के परिणामस्वरूप हिंदी साहित्य में स्वातंत्र्योत्तर प्रकाश में आए दलित और स्त्री-विमर्श के समकालीन अपने आक्रोश के साथ प्रस्फुटित जनान्दोलन का नया रूप है- आदिवासी विमर्श। इस दृष्टि से विचार करने पर आदिवासी विमर्श एक ऐसा विषय है जिसमें आदिवासी समाज के रहन- सहनसंस्कृति, परम्पराएँअस्मितासाहित्य और अधिकारों एवं उसके विस्थापन के बारें में विस्तृत चर्चा की जाती है ।
आदिवासी लेखन की उभरती चेतना को इंगित करती हुई रमणिका गुप्ता लिखती हैं- “ देखो ! हम एक ऐसा समाज हैं, जिसके मूल्यों का ह्रास हुआ है, न ही उनमें विकृति आई है । हम सामूहिक जीवन प्रणाली में जीते रहें हैं, समाज और समूह में रहते हैं, तुम्हारे द्वारा दी गई कठिन जिन्दगी को हम अपने गीतों और नृत्यों से भूलाते हैं । तुमने हमें अपनी सभ्यता से दूर ठेला- विस्थापित किया, हमने बाँसुरी और नगाड़े के माध्यम से अपना आपसी संवाद जारी रखा । अब यह संवाद, नाद बनकर फूट पड़ा है । बाँसुरी को हमने ‘मशाल’ बना लिया है । अब देश और भाषाओं की सीमाएं और कबीलों के दायरे लाँघकर, हम समूचे समाज को रोशन करने के लिए संकल्पबद्ध हो गए हैं। हमारी भाषाओं ने अब कलम थाम ली है, हम लिखने लगे हैं, अब हमने अपनी अस्मिता पहचान ली है । हमें वनवासी कहकर ‘भुतलाओं’ मत,हम तो प्रकृति के संग पैदा हुए, उसके साथ विकसित और पनपने वाले आदिम मनुष्य है, जो प्रकृति को बचाए रखने में उसके साथ सहयोग और सहभागिता से जीने में विश्वास करतें हैं, हम प्रकृति पर कब्ज़ा नहीं करना चाहते, हम सह-अस्तित्व में विश्वास करतें हैं, विनाश में नहीं..........अब हम लिख रहें हैं, तुम्हारे द्वारा थोपे गए विस्थापन के विरुद्ध ।”आदिवासी साहित्य को विद्रोही साहित्य या जीवनवादी साहित्य कहा जाना चाहिए क्योंकि अन्य साहित्य की तुलना में आदिवासी साहित्य अपनी रचनात्मक ऊर्जा आदिवासी चेतना एवं विद्रोह की परंपरा से लेता है ।
समाज का दर्पण परिभाषित किया जाने वाला साहित्य फिर वह चाहे देशी हो या विदेशी सम-सामयिकता को दर्शाना ही तो उसका मूल अभिप्रेत रहा है । हमारे सभ्य समाज के अप्रत्यक्ष अंग आदिवासी समाज के भौतिक- सांस्कृतिक-आर्थिक प्रत्येक क्षेत्र के परिप्रेक्ष्य में चिन्तन और मनन का साहित्य में सदैव अभाव दृष्टिगोचर होता है । यही कारण है कि भारत के विभिन्न प्रान्तों में निवास कर रहे आदिवासियों ने अपनी अस्मिता, पहचान को बचाने के लिए अंग्रेजोंमहाजनोंजमींदारों और गैर-आदिवासियों के द्वारा किए जा रहे अन्याय, अत्याचार और विस्थापन के विरुद्ध अपने हकअधिकारों और अस्तित्व के लिए व्यापक विद्रोह किए । इनमें छत्तीसगढ़मध्य प्रदेशझारखंड, महाराष्ट्र आदि राज्यों में हुए संथाल तथा बस्तर का विद्रोह जैसे विभिन्न आंदोलन प्रमुख रहे हैं । आदिवासी समाज की चिंतनशीलता की प्रखरता और दृढ़ इच्छाशक्ति का प्रमाण यह साहित्य आदिम युग से उतरोत्तर अब अधिक मुखर और परिपुष्ट हो रहा है । आदिवासी साहित्य की नवोदित नागा कवयित्री ‘मोनालिसा चंककिजा’ लिखती हैं-
“मत करो बरबाद तुम अपना समय
फरमान जारी करने और निर्देश देने में
कि कैसे लूँ मैं अपनी जिन्दगी के
निजी और राजनैतिक फैंसले ?
तुम नहीं जान पाओगे क्योंकि
तुम नहीं जानते ए. के. 47 के आगे का सच ।”2 आदिवासी साहित्य में बिरसा मुंडासिद्धो-कानूतिलका माँझी, झलकारी बाई जैसे व्यक्तित्व प्रेरणा के स्रोत रहे हैं । प्राचीनकाल से ही यह आदिवासी समाज वर्ण- व्यवस्थाजातिगत भेदोंविदेशी आक्रान्ताओं तथा वर्तमान में सभ्य कहे जाने वाले समाज अर्थात् तथाकथित मुख्यधारा के लोगों (गैर- आदिवासियों) द्वारा अपनी जमीनों एवं जंगलों से विस्थापित करते हुए उत्पीड़ित किया गया है । अब तक उपेक्षिता का दंश झेल रहे आदिवासी समाज की उपेक्षा का एक प्रमुख कारण रहा हैं- पिछड़ापन । दूसरा हमारे हिंदी साहित्यकारों का पूर्वाग्रस्त दृष्टिकोण । यह दृष्टिकोण भारतीय समाज के सबसे उत्पीड़ित और पदाक्रांत समुदायों के प्रति कभी अधिक उदारवादी नहीं रहा है ।
यह विकास वंचित समाज जो प्रगतिविहीन, तिरस्कृत तो है ही आदिवासी भी है। आज वह सुविधाभोगी पूंजीपति वर्ग के लिए उपभोग की वस्तुओं को संग्रहित करने का निमित-मात्र बन कर रह गया है । यही कारण है कि इन लोगों ने अपनी हाशिए की स्थिति को प्रमुखता से उठाने के लिए सिर्फ राजनैतिक या सामाजिक स्तर ही नहीं बल्कि साहित्यिक क्षेत्र में भी अपना दवाब बनाने के पक्ष में विद्रोह का रास्ता अपना लिया । आदिवासी साहित्य को यदि दलित साहित्य से तुलनात्मक दृष्टि से आँकने से ज्ञात होता है कि दलित साहित्य को मुख्य धारा से जोड़ने के लिए साहित्यकारों ने जिस प्रकार भरपूर लेखनी चलायी इसके विरुद्ध आदिवासी साहित्य अपनी अपेक्षित उपस्थिति को हिंदी साहित्य के वैचारिक पटल पर दर्ज नहीं करा पाया है । इसे रेखांकित करते हुए रमणिका गुप्ता जी लिखती हैं कि इसका कारण दोनों समाजों की राजनैतिक, सामाजिक चेतना, जीवन- दर्शन, आर्थिक स्थिति और भाषा- भूगोल की भिन्नता भी प्रधान है। यहाँ इसका अभिप्राय हमें किंचित भी यह नहीं ग्रहण करना चाहिए कि इस समाज में सामाजिक- राजनैतिक चेतना शून्य हैं वरन् इतिहास साक्षी है कि स्वतन्त्रता के लिए प्रथम प्रतिरोध की आवाज बुलंद करने वाला समाज आदिवासी समाज ही था ।
यह सर्वविदित है कि साहित्य में आदिवासी समाज पर उतना लेखन नहीं हुआ है जितना होना चाहिए तथापि यहाँ हम संथाली साहित्य को विस्मृत करने की भूल नहीं कर सकते । इसने अपनी भाषा एवं साहित्य का तो विकास किया ही साथ हमें भारतीय आदिवासी समाज की सांस्कृतिक झलक देखने का एक सुनहरा अवसर उपस्थित करवाया। आदिवासियों की लोककला एवं साहित्य सदियों से मौखिक परम्परा के रूप में ही रहा है । उनकी भाषा, व्याकरणलिपि के विकिसत न होने के कारण साहित्य में आदिवासी रचनाकार और उनका साहित्य गैर- आदिवासी साहित्य की तुलना में कम मिलता है । आदिवासी समाज का यह दुर्भाग्य ही माना जाएगा कि अब तक इस समाज में साहित्यकार कम ही जन्में हैं, यदि एकाध पुरूष- महिला रचनाकारों को न गिना जाए तो इनकी संख्या नगण्य ही है । हिंदी साहित्यकारों द्वारा भी इनकी भाषा एवं संस्कृति की रक्षार्थ इस गम्भीर अभाव को महसूस नहीं किया गया। परिणामस्वरूप यह लुप्त होने की कगार पर आ गए हैं ।
वर्तमान में सबसे बड़ा खतरा अगर कोई है तो वह इनकी अस्मिता एवं अस्तित्व का है। कुछ लोगों का मानना है कि आदिवासियों का बाह्य संसार से अधिकाधिक सम्पर्क उनकी मूल संस्कृति की विशेषताएँ समाप्त हो जाएगी। यह सच है कि भौतिकता की अनुगूँज में वे यंत्रवत होते चले जाएगें परन्तु इतिहास साक्षी है कि संसार की बड़ी- बड़ी संस्कृतियों का भी यही हश्र हुआ है । किसी भी आदिवासी जनजाति का इतिहास भी यही स्थिति दर्शाता है । अतः आदिवासियों की पुरानी संस्कृति नष्ट हो जाएगी, इस बात पर हाय तौबा मचाने का कोई औचित्य नहीं हैं । विशेष बोली साहित्य की सामग्री प्राय: सामुदायिक जीवन की वास्तविकता को चित्रित करती है और यदि उसका व्यवस्थित रीति से अध्ययन किया जाये तो वह जाति विशेष के भौतिक और मानसिक जीवन को अद्भुत रूप से उजागर करती है ।
आदिवासी साहित्य में प्रयुक्त बोली- भाषा के शब्द, वाक्य, मुहावरे, कहावतों, लोकगीतों आदि ने हमारे हिंदी साहित्य को व्यापकता से प्रभावित किया है । इसलिए आज के युग में आदिवासी तथा आदिवासी साहित्य के अध्ययन की अपनी प्रासंगिकता है । कविवर बाहरू सोनवणे ने अपनी ‘स्टेज’ शीर्षक कविता में आदिवासी लेखन की इस महती आवश्यकता पर एक अलग ढंग से, लेकिन एकदम सटीक और सही प्रकाश डाला है-
“हम (उस) स्टेज पर गए ही नहीं
जो हमारे (ही) नाम पर बनाई गई थी
 (लेकिन) हमें (मंच पर) बुलाया भी नहीं गया....
....और ‘वे’ स्टेज पर खड़े होकर
हमारा ही दुःख हमें ही बताते रहे
‘हमारा दुःख (हमारा) अपना ही रहा
जो कभी उनका हुआ नहीं”3
इस प्रकार जागरूक और सचेत होकर आदिवासी रचनाकारों ने अपने लोकसाहित्य की परम्परा को आधार बनाकर वर्तमान आदिवासी साहित्य को अभिव्यक्ति दी । आदिवासी कवियों में निर्मला पुतुलबाहरु सोनवणेअनुज लुगुन, हरिराम मीणाडॉ. मंजू ज्योत्स्नासरिता बड़ाइक का नाम विशेष रुप से लिया जाता है । आदिवासी साहित्य के मर्म को उद्घाटित करने में ‘कविता’ की विधा आदिवासी साहित्य की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण रही है । आरंभिक आदिवासी साहित्य गीत या कविता के माध्यम से हमारे सामने आता है । आदिवासी कविताओं के माध्यम से अपने भोगे हुए सत्य के साथ विभिन्न सामाजिक वैयक्तिक जीवन- संघर्ष, अस्तित्व, शिक्षा और विस्थापन जैसी समस्याओं पर प्रमुख रुप से लेखनी चलायी गई है । आदिवासी कविताओं के माध्यम से समाज की प्रताड़ित महिलाओं के चीख, पुकार के शब्द पहाड़ोंजंगलों और घाटियों में नगाड़े की तरह बजने लगते हैं । संथाली कवयित्री निर्मला पुतुल के मन का आक्रोश उनकी कविता में मुखर हो उठता है-
“जो कुछ देखा- सुना, समझा, लिख दिया
बिना किसी लाग- लपेट के
तुम्हें अच्छा लगे, न लगे, तुम जानो
चिकनी चुपड़ी भाषा की उम्मीद न करो मुझसे
जीवन के ऊबड़- खाबड़ रास्ते पर चलते
 मेरी भाषा भी रूखड़ी हो गई है ।”4
आदिवासी कलम में आज विश्वास भर गया है इसलिए महादेव टोप्पो कहते हैं-
वह धनुष उठाएगा प्रत्यांचा पर कलम चढाएगा
 साथ में बांसुरी और मांदर भी जरुर उठाएगा
 जंगल के हरेपन को बचाने के खातिर
 जंगल का कवि माँदर बजाएगा
 चढ़ा कर प्रत्यंचा पर कलम ।5
इसी प्रकार उपन्यास आधुनिक कल की सर्वाधिक शक्तिशाली एवं लोकप्रिय विधा है, जो साहित्य की समस्त सृजनात्मक विधाओं की तुलना में निरंतर प्रवाहमान एवं गतिशील रहा है । हिंदी के आदिवासी जीवन से सम्बधित उपन्यासकारों ने समसामयिक आदिवासी समाज के विविध पक्षों, प्रणालियों तथा मान्यताओं को अपनी लेखनी से साहित्य में प्रतिबिम्बित किया है। आदिवासी जीवन से सम्बधित उपन्यास लिखने वालों में सबसे पहला नाम ‘जगन्नाथप्रसाद चतुर्वेदी’ का लिया जाता है, जिन्होंने ‘बसंतमालती’ नामक उपन्यास लिखा । मन्नन द्विवेदी का रामलाल (1904) में प्रकाशित आदिवासी जीवन परिवेश से सम्बन्धित एक सफल उपन्यास है । ‘जहाँ बाँस फूलते हैं’ के माध्यम से लुशेइयों की समस्याओं को उनके जीवन संदर्भों में उभार कर श्री प्रकाश मिश्र ने हिंदी साहित्य और आदिवासी अस्मिता को रेखांकित किया है । अल्मोड़ा जिले की गहरी घाटियों में बसे आदिवासियों के जीवन को दर्शाने वाला ‘महर ठाकुरों का गाँव’ एक सशक्त केन्द्रीय उपन्यास है। आदिवासी भगवानदास मोरवाल का काला पहाड़, संजीव का जंगल जहाँ शुरू होता है, मैत्रेयी पुष्पा का अल्मा कबूतरी आदि उपन्यास भी महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है ।
हिंदी नाटक साहित्य भी आदिवासी लेखन कर प्रभाव से अछूता नहीं रहा है । डॉ.शंकर शेष का ‘पोस्टर’ नाटक आदिवासियों के शोषण तथा विद्रोह का यथार्थ एवं आदिवासियों के प्रति उनकी संवेदनशीलता की उपज है । इस नाटक में आदिम जाति के लोगों पर वन अधिकारियों तथा जमींदारों के द्वारा होने वाले अन्याय एवं अत्याचार का चित्रण किया है । विभु कुमार का नाटक ‘हवाओं का विद्रोह’ मध्यप्रदेश के पातालकोट इलाके के आदिवासियों की शिक्षा को विषय- वस्तु बनाकर लिखा गया है । आदिवासी साहित्य को प्रोत्साहन देने में साहित्यिक पत्र- पत्रिकाओं ने भी अहम योगदान दिया है । युद्धरत आम आदमी (दिल्ली, सम्पादक - रमणिका गुप्ता), अरावली उद्घोष (उदयपुरसम्पादक- बीपी वर्मा पथिक’), झारखंडी भाषा साहित्य (रांची, सम्पादक- वंदना टेटे)आदिवासी सत्ता (छत्तीसगढ, सम्पादक- के. आर. शाह) तथा बड़ी संख्या में मुख्यधारा की पत्रिकाओं ने भीं आदिवासी विशेषांक निकालकर आदिवासी विमर्श को आगे बढाने में सक्रीय रही हैं जैसे- समकालीन जनमत (2003)दस्तक (2004)कथाक्रम (2012)।
‘इतिहास तुम्हारा, इतिहास के पन्नों पर
गढ़ा नहीं शब्दों ने, ना ही हो सका दर्ज ग्रन्थों में
तुम्हारी विजय- गाथाओं और संघर्षों के गवाह
पेड़ हैंनदियां हैंचट्टानें हैं, तुम्हें अपने आदमी होने की तलाशनी होगी परिभाषा और रचने होंगे स्वयं अपने ग्रंथ ।’-महादेव टोप्पो
निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि 20वीं सदी के आखिरी दशकों में भारत में नए सामाजिक आंदोलनों का उभार हुआ । आदिवासी साहित्य विमर्श अभी निर्माण- प्रक्रिया में हैइसलिए अभी इसके मुद्दे भी आकार ले रहे हैं । स्त्रियोंकिसानोंदलितोंआदिवासियों और जातीयताओं की एकजुटता ने ऐसी माँगें और मुद्दे उठाए हैं जो स्थापित सैद्धांतिक व राजनैतिक मुहावरों के माध्यम से आसानी से समझे और सुलझाए नहीं जा सकते । उदारीकरण की नीतियों से तेज हुई आदिवासी शोषण की प्रक्रिया के प्रतिरोधस्वरूप आदिवासी अस्मिता और अस्तित्व की रक्षा के लिए राष्ट्रीय स्तर पर पैदा हुई रचनात्मक ऊर्जा ही आदिवासी साहित्य है । आज यह कहना बिल्कुल तार्किक होगा कि आदिवासी जीवन पर केन्द्रित लेखन जरूर हुआ है अथवा हो रहा है किंतु उसकी मूल संवेदना को लेकर सशक्त समीक्षा अभी बाकी हैइस दिशा में हमें ध्यान देने की जरूरत है । उपर्युक्त कविताओं, उपन्यासों, नाटकों में अभिव्यक्त आदिवासी समाज की चेतना के आधार पर यह मानना तर्कसंगत प्रतीत होता है कि ये न सिर्फ आदिवासी समुदाय के सामाजिकराजनीतिकआर्थिकशैक्षणिक तथा सांस्कृतिक समस्याओं को सच्चाई के साथ चित्रित करने में पूरी तरह सफल और समर्थ हैं बल्कि व्यवस्था-परिवर्तन के लिए भी संघर्षरत हैं ।
संदर्भ ग्रंथ- सूची
1.आदिवासी लेखन- एक उभरती चेतना- रमणिका गुप्तासामयिक प्रकाशननई दिल्ली2013 पृ॰सं॰16-17 ।
2.आदिवासी विमर्श- अवधारणा और आन्दोलन- कुमार कमलेशतेज प्रकाशनदिल्ली2014पृ॰सं॰ 93 ।
3.वही पृ॰सं॰ 108 ।
4.नगाड़े की तरह बजते शब्द- निर्मला पुतुलभारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशनदिल्ली2005 पृष्ठ॰ सं॰ 91 ।
5.आदिवासी स्वर और नयी शताब्दी- सं. रमणिका गुप्तावाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2008, पृष्ठ॰ सं॰ 47 ।
6.आदिवासी साहित्य विद्या- शास्त्र और इतिहास- डॉ. बापूराव देसाई, गरिमा प्रकाशन, कानपुर, 2013 ।
7.आदिवासी साहित्य: विविध आयाम- सं. डॉ. रमेश संभा कुरे, मालती धोड़ोपन्त, प्राचार्य प्रवीण अनन्तराव शिंदे, विकास प्रकाशन, कानपुर, 2013 ।
8.अन्य विभिन्न पत्र- पत्रिकाएँ-
1. जनसत्ता ।
2. अरावली उद्घोष ।
3. मधुमती ।
4. समवेत ।
 आदिवासी हिंदी उपन्यासों की भाषा और शिल्प
सुमित कुमार मीना, शोधार्थी, हिंदी विभाग, राजस्थान केन्द्रीय विश्वविद्यालय,अजमेर
E-mail: sumitmeena1990@gmail.com  / Mob. : 99293620089887288079


One can start exploring the terms of discourse of tribal movements, from a static point of view of the present, in which case the content of the tribal movement remains more or less the same as it was during colonial rule, the only difference being in the formations, ideological overtones, and locus of the movement, dynamics and consequences. Within these contours, it can be safely assumed that when contradictions worsen, the forms, bases and structure of protests take shape based on the social conditions. Struggles become vigorous and sharp when discontent is high and the political system allows space for legitimate mobilisation to ventilate popular grievances. In both colonial and post-colonial periods, tribal uprisings erupted under conditions of relative deprivation and socioeconomic oppression.
These uprisings sought and achieved a measure of relief and some restructuring of socioeconomic relations. Hence, within such praxis, the movements and their content continue to be conditioned by the inevitable colonial legacy of exploitation as well as a post-colonial policy of retaining the colonial structure and praxis, albeit in a covert form, couched in different phraseology, which fosters unequal socioeconomic development of peoples and regions. Under such conditions, movements can never determine their own agenda. They are forced to be retroactive, to resist, to recover lost ground, and at times of repression, to survive with no time to recuperate.
Notwithstanding Nehru's policy of Panchsheel, guaranteeing preservation and promotion of tribal identities and cultures, the ambition of building and consolidating a culturally homogeneous political entity clearly implied elimination, absorption or integration of other cultures into the 'mainstream'. This process of consolidation and integration, described as 'sanskritisation' in the Indian context, created within tribal societies, structures which were in conformity with the structures that colonialism created in Indian society as a whole and succeeded in creating elite groups in tribal societies which were internally alienated and externally frustrated.
In terms of political mobilisation, the objective is to explore the psychological ramifications of colonial domination and the emasculation of the mind through reification by the oppressor; to explore forms of psychological equality, and critically examine the political implications of culture, the role of sub cultures, the radical potential of fashioning and affirming identity and its ability to confront oppression simultaneously as an individually experienced and collectively organised phenomenon. 
आदिवासी लेखकों और गैर आदिवासी लेखकों ने देशकाल वातावरण के अनुसार जनजातियों की साहित्यिक भाषा का निर्माण किया। एक ओर आदिवासी लेखकों ने अपनी भाषा में आदिवासी संघर्षों को सीधे-सपाट रूप में प्रस्तुत किया, वहीं दूसरी ओर गैर आदिवासी लेखकों ने आदिवासी जीवन के सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक समस्याओं को हिंदी भाषा में प्रौढ़ता से प्रस्तुत किया है। आदिवासी और गैर आदिवासी लेखकों ने विभिन्न आदिवासी पात्रों की भाषा एवं परिवेश को सजीव किया। जनजातीय साहित्य का विकास जनजातियों की अपनी साहित्यिक भाषा के निर्माण के आधार पर ही हो सकता है। अब तक जनजातीय अथवा आदिवासी साहित्य ने हिंदी भाषा में ही अपनी अभिव्यक्ति को विकसित किया है। ‘‘आदिवासी जीवन की सोच तथा संस्कृति का हिंदी की अभिव्यक्ति प्रणाली का बहुत गहरा असर पड़ा है जिसके कारण कभी-कभी कथा की संरचना में भी परिवर्तन होता है।’’1 आदिवासी लेखकों ने अपनी भाषा में आदिवासी संघर्षो को सीधे-सपाट रूप में प्रस्तुत किया है। उनकी भाषा में व्यंजनारूपक अथवा भाषा की शिल्पगत संरचना के आधार पर सीधीसरलस्पष्ट अभिव्यक्ति है। उन्होंने हिंदी में आदिवासी जीवन उसके संपूर्ण परिवेशभाषा से पाठकों को परिचित करवाया हैं। आदिवासी लेखक अपनी भाषाअपने जीवनानुभवअपनी संस्कृति को हिंदी उपन्यास ‘छैला संदु’(मंगल सिंह मुंडा), ‘धूणी तपे तीर’(हरिराम मीणा), ‘जंगल के गीत’(पीटर पॉल एक्का), ‘लौटते हुए’ (वाल्टर भेंगरा ‘तरुण’), ‘पलाश के फूल’(पीटर पॉल एक्का) में उपस्थित करते हैं।
गैर आदिवासी लेखकों ने पूरी प्रामाणिकता के साथ आदिवासी समाज की समस्याओंचिंताओंअपेक्षाओं और तिरस्कार को हिंदी में अभिव्यक्ति दी है। गैर आदिवासी लेखकों ने आदिवासी जीवन के सामाजिकसांस्कृतिकराजनीतिकधार्मिकआर्थिक और मनोवैज्ञानिक समस्याओं को हिंदी भाषा में  कुशलता से प्रस्तुत किया है। गैर आदिवासी लेखकों (रणेन्द्रसंजीवतेजिंदरराकेश कुमार सिंह और श्री प्रकाश मिश्र) ने विभिन्न आदिवासी पात्रों की भाषा-परिवेश को सजीव किया तथा आदिवासी समस्या के अनुरूप उपन्यासों की शिल्प-संरचना में विविधता प्रस्तुत की। "आदिवासी आंदोलन के स्वर को सही दिशा देने हेतु यह जरूरी सा हो जाता है कि हिंदी कथाकार किस कलात्मक तरीके से उनके मुद्दों को उठाता है। सवाल उठता है कि हिंदी कथाकार की भाषाउनके संघर्षों की भाषा है या नहीं। कथा में सामाजिक परिवेश, पात्रों की भाषा आदि से भी पता चलता है कि उसकी अभिव्यक्ति में गहरी मानवीय संवेदना या सामाजिक अंतर्दृष्टि है या नहीं। हिंदी कथाकारों की क्षमता को जाँचने-परखने का पता भी हमें तब चलता है जब वे हिंदी में आदिवासी जीवन उसके संपूर्ण परिवेशसुव्यवस्थित भाषाशिल्प से हमें अवगत कराते हैं। अतःशिल्पसंरचनाभाषा के माध्यम से भी आदिवासी अस्मिता की छवियाँ उभरती हैं।"2
सामाजिक परिवेशसांस्कृतिक चेतना का सीधा असर उपर्युक्त कथाकारों की भाषा पर पड़ा है। उन्होंने विभिन्न आदिवासी समाज और उसके जीवन को पूरी गंभीरता के साथ उठाया है। श्री प्रकाश मिश्र ने मिजो जनजातिसंजीव ने थारू जनजातिराकेश कुमार सिंह ने संताल जनजातितेजिन्दर ने उराँव जनजाति  और रणेन्द्र ने ग्लोबल भाषिक संरचना से जनजातियों की समस्याओं को युगीन यथार्थ के साथ जोड़ा है। उपर्युक्त गैर आदिवासी कथाकारों ने स्थानीय परिवेश की भाषा द्वारा आदिवासी जीवन की अस्मिता एवं अस्तित्व के संघर्ष को प्रस्तुत किया है। प्रसिद्ध आलोचक मैनेजर पाण्डेय के अनुसार, “हिंदी कथा-साहित्य अपनी भाषिक चेतना की विशिष्टता के कारण जन-जीवन के इतिहास से अंतरंग संबंध स्थापित करता है। उपन्यास में केवल स्वरों की अनेकता ही नहीं होतीउसमें सामाजिक भाषाओं की अनेकता भी होती है और सामाजिक भाषाओं की अनेकता के माध्यम से ही विभिन्न सामाजिक समूहों और वर्गों के जीवन के अनुभवोंस्थितियोंवास्तविकताओं और आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति होती है।"3
हरिराम मीणा के उपन्यास ‘धूणी तपे तीर’ में आदिवासी जीवन का विशद अनुभवनिहायत स्थानीय भाषा और रचना-शिल्प आदिवासी जीवन के देशीपन और उसके अस्तित्व के संघर्ष को प्रभावी रूप से व्यक्त किया है, ‘‘ रे छोरा कहां रोता फिरता रहा दिन भरअंधेरा हो गयाअब आता है। चल सुलफी में तम्बाकु भर कर ला।’ ‘गोविंदा ने सोचा दारू पिये आदमी से क्या बात करनी। उसने वापस जाने का मन बनायामगर वह कुरिया से मिलने को बेताब था। यह बात मन में रखे हुए उसने हिम्मत कर सांवता से पूछ लिया – ‘कुरिया नहीं है क्याकाकामैं तो गोविन्दा हूंबेसर बनजारा का छोरा।’           
या बिगित तू कहां से आ टपका ? अरेतू ही तो बिगाड़ रहा है मेरे कुरिया को। तेरे संग ही तो कुरिया दिन में बाबा के थान पर गया बताया था ना। चल तू आ ही गया तो मेरा काम कर। टापरी की बारी के ऊपर आले में सुलफी और तम्बाकु रखी है। सुलफी सुलगाकर मुझे पकड़ा दे। काकातू जानता है मैं पुजारी बाबा का चेला हूं। पुजारी बाबा मरते दम तक यह सीख देता रहा कि दारू और तम्बाकु से आदमी का शरीर व मन दोनों खराब होते हैं। मैं भी इस तरह की आदत को अच्छी नहीं मानता। अच्छा तो पुजारी ने यह भी सीख दे दी कि बड़ों की बात को नहीं माननी चाहिए। बेटाबड़ों की बात नहीं मानन पाप है। ’’4
आदिवासी जीवन जो अभिशप्त और हाशिए पर है। आदिवासी लेखकों ने अपनी सहज भाषा और आदिवासी समाज की स्थानीय भाषा का थोड़ा स्वरूप देकर आदिवासी की अपनी अस्मिता को अभिव्यक्ति दी है। ‘‘ सिसिलिया दो दिनों से कह रही थी कि मांड़ झोर आते-खाते वह अनसा गई है। इसलिए मां बारी से आज झींगी और भिंडी तोड़ कर लायी थी। माँ कौन सी सब्जी बनाऊँ?’ सलोमी झींगी और भिंडी अलग करती हुई बोली।’ मैं अभी झींगी बनाती हूँ। उसमें सूखी मछली डाल दूंगी मजेदार बन जायेगी। दीदी झींगी और मछली ही बनाओ।’ सिसिलिया बीच में ही बोल पड़ी। छोटी बोल रही है तो वही बनाओ। मैं शाम को भिंडी भूजिया बना दूंगी।’ उसकी मां ने कहा।`
‘ सलोमी को भी मछली पसन्द थी। इसलिए बरसात के दिनों में यह गांव के लड़के-लड़कियों के साथ पास की नदी तक खेत-दोहार के डोभों में मछली पकड़ने जरूर चली जाती है। पिछले साल उन के खेतों के दोहार में नदी से बरसात के दिनों में बहुत सी मछलियां ऊपर की ओर चढ़ी थी। सलोमी ने ढेर सारी मछलियां पकड़ी थी। पौलुस को भी मछलियां पकड़ने का शौक था। दोनों ने इतनी सारी मछलियां पकड़ी कि खाने के बाद भी बच गई। तब उसकी मां ने उन्हें सुखा कर रख लिया था। अब जब मछलियां खेतों और डोभों मान भी मिली तो किसी भी सब्जी में सूखी मछली मिला दो तो तियन का स्वाद ही दोगुना हो जाता है। सलोमी ने जल्दी से हल्दी धनिया आदि मसाला भी सिललोढ़ा से पीस कर तैयार कर लिया। वैसे उसके आबा को इस तरह के तियन में थोड़ी मिरची अधिक अच्छी लगती है। आबा के कारण घऱ में सबको इसकी आदत सी हो गई थी।
मांभात तियन तैयार हो गया।मैं अभी कुएँ की ओर जा रही हूँ। नहा भी लूंगी और घडाबाल्टी में पीने के लिए पानी भी लेती आऊंगी।’, सलोमी ने जाते हुए कहा। ‘सिसि तुम मां से मांग कर इस बीच जल्दी से भात खा लेना। अच्छा दीदी।’ सिसिलिया बोली। ‘लेकिन आकर तुम ही मेरा बाल बना देना दीदी।’’5 आदिवासियों के सामाजिक जीवन में सुधार लाने के आशय तथा दबी हुई प्रतिरोध की आवाज़ को तेज करने का काम आदिवासी कथाकारों के पात्र गोविन्द गुरूसन्दुसलोमीमार्थासुनील आदि करते हैं, ‘‘ बेशक नानी माँ बेशकउन्होंने हमारा घर –द्वारहल-बैलखेत-खलिहान सबका सब उजाड़कर रख दिया। यहीं पर उनका अत्याचार खत्म नहीं होता। फिर तो उन्होंने इस मासूम बच्चे के सिर परसोने की मोहरों का इनाम ही घोषित कर डाला। मरता सो क्या न करता। जान बचे तो लाखों पाए। हमने अपनी जान माल की रक्षा में एक रात निकल पड़ने का निश्चय किया और हम भटकते-भटकते यहाँ....’’ सुरजय ने कन्द खाते-खाते आपबीती बताई। ‘‘आह ! जानती हूँमैं जानती हूँ। दिकुओं की काले करतुतों को बखूबी से जानती हूँ। उन्होंने तुम पर बहुत जुल्म किया है। पर उनसे लोहा कौन ले सकता। वे हमसे बलशाली है। हथियार मजबूत है। संख्या में अधिक हैं। ऐसे में भला उनके आगे हमारी क्या बिसातहम उन्हीं के डर से वर्षों से यहाँ छिपे हुए हैं। न बाबा न। उनके आगे अपना सिर कौन कटाए। तुम लोग भी इस गाँव में झोपड़ी डाल लेना। इस गाँव में हम साथ-साथ रहेंगे। इसे हमने मरंगहदा गाँव का नाम दिया है। वह देखो मैदान पर जगह-जगह कई झोंपड़ी खड़ी की गई हैं। इस पड़ाव में कोई दस-बारह परिवार आ बसे है। कोई आगे आया। कोई पीछे। हमारे तुम्हारे जैसे सबके सब इस दिकु जाति से आतंकित होकर भागते-भागते यहाँ अपने बिरादरों की खोज में आ मिले हैं। तुम्हें चिन्ता की कोई बात नहीं। हम यहाँ सुख-शान्ति से रहेंगे। यहाँ कोई राजा था दिकु नहीं आ सकते। देखते नहीं चारों तरफ घने जंगलऊँचे-ऊँचे पहाड़-पहाड़ीशेर-चीतेसाँपछछूँदर.... न घोड़ों की टाप सुनाई देगीन राजा हकीम की डोली की चरमराहट.... बस अपनी दुनिया आप बसा लो...हा...हा...हा... है न मजा ?...’’6
‘‘ मैं अपनी धूणी पर पूजा के निशानों सहित बैठा हूं। मैं दूसरों के द्वारा दिए जाने वाले अनाज पर गुजार रहा हूं। मैं ना तो चोरी करता हूं ना ही अपने शिष्यों को ऐसा करने की सलाह देता हूं। यदि वे मेरी बात नहीं मानते हैं तो मेरा उनका गुरू होना व्यर्थ है। आपको भ्रमित किया गया है। आप अनपढ़ नहीं है एवं आपको अन्य लोगों के बहकावे में नहीं आना चाहिए। संसार नश्वर है। हमको जीने के लिए केवल अनाज व तन ढ़कने के लिए कपड़ा चाहिए। आप यहां इतनी विशाल सेनालेकर क्यों आए हैंभील व मीणें इस भय से कि उन्हें व उनकी महिलाओं को बेइज्जत किया जाएगापहाड़ों की ओर भाग गये हैं। उन्हें शराब पीने व मांस-भक्षण हेतु बाध्य किया गया है। गुरीको भी अपमानित किया गया था। हमारा दुर्भाग्य हमें कहीं बसने की अनुमति नहीं देता। आप अगर हम से पूछेंगे कि क्या हमने कोई चोरी अथवा हत्या की है तो हमारा जवाब है कि हमने ऐसा कुछ नहीं किया। केवल भक्ति की है। हम जन्म से सीधे-साधे हैं। हम बनियों की तरह चतुर नहीं हैं। हम कानून के अन्दर रहकर खेती व वनोपज से जीवन यापन करते है। यूं तो हम साधारण सांसारिक आदमी है व पहाड़ी पर इसलिए आए हैं कि हमारे धर्म को नष्ट किया जा रहा था। निम्नलिखित बंदी दशनामी अखाड़े के गौसाई हैः-
घोटा गिरीजी,
सालन गिरीजीएवं
राज गिरीजी।’’7   
‘‘ साइट के निरीक्षण में सुनील खोया रहा। किसी ने उसे बताया सलयाजीतूबिरसा के आदमी काम पर नहीं आये हैं। पिछले रविवार को एक सभा हुई थी। सभों ने एकमत होकर कहा थावे भूखों मर जायेंगेपर काम पर नहीं जायेंगे। वे गाँव-गाँव जातेलोगो को समझाते। कहते – गाँवघरखेत-टाँड़ छिन जायेगा तो हमारा क्या होगा। डेम तो बन जायेगापर हमारा तुम्हारा क्या होगा। जूठे पत्तल सा फेंक दिये जायेंगे। जब तक हमें खेत-टाँड़ देकर फिर बसाया नहीं जाता कोई काम पर नहीं जायेगा। कोलगंवार जरा अपनी आँखें खोलो। हम अपना हक ही तो माँग रहे हैं कोई गुनाह तो नहीं कर रहे हैं। भूखों मर जाओ पर अपने हक के लिए लड़ते रहो।
सप्ताह भर काम चलता रहा। फिर आठवें दिन कोई काम पर नहीं आया। करतार जी देखते रह गये – आशा नहीं थी भूखों मरते ये मजदूर काम पर नहीं आयेंगे। सूनी-सूनी निगाहों से सुनील बर्बादियों की यह समा देखता रहा। गुस्से से करतार पैर पटकते चला गया। उन्हें कौन कैसा जादू कर जाता है। वह कौन सी चीज थी जो उन्हें एक साथ एक धागे में बाँधे रहता है। सुनील थका हारा खामोश हेड क्वाटर्स लौट गया।’’8
संजीव का उपन्यास जंगल जहां शुरू होता है में पश्चिम चंपारण की भाषा को बड़ी सहजता से पात्रों और परिवेश में उतारकर पुलिसप्रशासनन्यायव्यवस्था के खिलाफ अविश्वास और डाकुओं के प्रति विश्वास जताकर बिहार के पश्चिम इलाके की थारू जनजाति के जीवन का यथार्थ है। उपन्यास में उनके लोकगीत तथा बिहार की भाषा के टोन का प्रस्तुत किया हैशोषण और अत्याचार के प्रसंगों में स्थानीय भाषा का प्रयोग जनजाति के ऊपर पुलिस बर्बरता को दर्शाता है, “प्रेम  आकाश उसी तरह झोंटा पकड़े हुए उसे घसीटकर ले गया घर में पुलिस के जवानों ने पहले ही सर्च के चलते घर को तहस-नहस कर रखा था। चारों ओर दरिद्रता का आलम थाकथरीगुदड़ीलूगेलन्तेसूपचलनीमकाई की छिटराई बालें अरागनी पर से गिरी फटी रजाई।"9 संजीव ने झोंटा (बाल)कटारीगुदड़ीलूगेलन्तेआदि को स्थानीय भाषा के अनुरूप ही व्यंजित किया है। श्री प्रकाश मिश्र के उपन्यास जहाँ बाँस फूलते हैं के माध्यम से हिंदी कथा-साहित्य में पहली बार उत्तर-पूर्व की मिजो जनजाति पर लिखा गया है। प्रस्तुत उपन्यास की महत्ता यह है कि कथाकार ने मिजो अस्मिता के प्रश्न को मिजो शब्दावली में ही प्रस्तुत किया है। "हाँ पू दोला। हम जोवा की तरफ से पुई की बात करने आए हैं।एक बोला। अ सुआल लुकतुक, 'चेहरे पर बिना कोई भाव लाए दोला बोला।
जोवा का खून खौल उठा। भला होने वाले दामाद के बारे में कोई इस तरह से कहता है! पर बोला  कुछ नहीं। कुछ देर खामोशी रही। फिर दोला की बीवी तामचीनी के मगों में चाय लाकर सबको थमा दिया तथा मोढ़ी खींच स्वयं एक तरफ बैठ गई। पहला बूढ़ा बोला, 'दोनों शादी करना चाह रहे हैं। नुपुई मान तय कर लेना ही ठीक है।"10 उपन्यासकार ने मिजो अस्मिता के प्रश्न को मिजो भाषा महत्वपूर्ण शब्दों द्वारा प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। श्री प्रकाश मिश्र ने मिजो की अंतरंगता में घूल-मिलकर उपन्यास के शिल्प और भाषा का निर्माण किया है।
रणेन्द्र के उपन्यास 'ग्लोबल गांव के देवताकी शिल्प संरचना आख्यान और कविता के बीच की है। मैनेजर पाण्डेय के अनुसार "संरचना के लिहाज से ग्लोबल गांव के देवता ऐसा उपन्यास है जिसमें आख्यान और कविता का कथादृष्टि और काव्य संवेदना का दुर्लभ सामंजस्य है।"11 रणेन्द्र ने प्रस्तुत उपन्यास में वर्तमान और परंपरा के क्रमशः वस्तुस्थिति और मिथक का सुन्दर प्रयोग किया है, “राजा मैटकोम का कटा सिर और चाचा का कटा सिर आपस में गड्मड् हो गये। मेरा दिमाग़ अपनी जहम से हिलता मालूम हुआ। एक बार फिर समझ में नहीं आ रहा था कि मैं कहाँ हूँ और किस काल में हूँ।
काठी बेचे गोले असुरिन,
 बाँस बेचे गेले गे,
 मेठ संगे नजर मिलयले,
 मुशी संग लासा लगयले गे,
कचिया लोभे कुला डूबाले,
रूपया लोभे जात डूबाले गे।
यह गीत नौजवान लड़कों के मुँह के अकसर सुनाई पड़ता कि लकड़ी और बाँस बेचने गयी असुरिनतुमने खदान के मेठ के साथ नज़रे क्यों मिलायी तुमने खदान के मुंशी के साथ लगाव क्यों बढ़ाया पैसे(कचिया) के लोभ में तुम कुल का नाम डूबा रही हो। रूपये के लोभ में जाति का नाम डुबा रही हो।"12
तेजिंदर कृत काला पादरी उपन्यास में धर्मांतरण की राजनीति और धर्मांतरण ने आदिवासियों का शोषण किया हैइस तथ्य को केन्द्र में रखकर अपनी भाषा और शिल्प की संरचना से उराँव जनजाति के शोषण को अपरोक्ष रूप में रखा है। उपन्यासकार ने आदिवासियों के समझौता रहित अस्मितापरक संघर्ष को शोषक की भाषा यानी अंग्रेजी युक्त शब्दों के साथ प्रस्तुत किया। राकेश कुमार सिंह के उपन्यास ‘जो इतिहास में नहीं है’ में ऐतिहासिक विकास-क्रम की शिल्प संरचना में संताल जनजाति के संघर्ष और विद्रोह को प्रस्तुत करता है। कथाकार प्रस्तुत उपन्यास में संताल के जीवन-संघर्ष को जिस भाषा में अभिव्यक्ति देता हैउसमें कथाकार के इतिहास बोध और वर्तमान स्थितियों की गहरी वैचारिकी देते हैं।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि आदिवासी कथाकारों ने आदिवासी समाज के जननायकों की आवाज को अपने उपन्यासों में जीवित रखा। आदिवासी जीवन और उसके चरित्र की अभिव्यक्ति करने में तत्कालीन प्रचलित भाषा पूरी तरह समर्थ नहीं हो सकती थी इसलिए आदिवासी लेखकों ने अपने उपन्यासों में अंचल विशेष की भाषायी संस्कृति को प्रस्तुत किया है। इससे आदिवासी जीवन और उसकी अस्मिता का बड़ा प्रभाव यह रहा कि आदिवासी लेखकों की कथा-भाषा सहजप्रभावशाली रूप में ढलने लगीउनकी भाषा में सहजतासरलतादेशीपन और आंचलिकता जैसे गुण निहित हैं। गैर-आदिवासी लेखकों ने सहानुभूति के आधार पर ही वर्तमान हिंदी कथा-साहित्य में आदिवासी दर्द को प्रामाणिक भाषा प्रदान की है। उनके कथा-साहित्य में यथार्थ की खुरदुरी संरचनालोकजीवन की तरलताआदिवासियों की अपनी भाषा में विश्वनीयता और वर्तमान संदर्भों के अनुरूप कथा शिल्प को प्रस्तुत किया है।  आदिवासी और गैर आदिवासी कथाकारों ने आदिवासी समाज की आवाज को अपने उपन्यासों में जीवित रखा। दोनों प्रकार के लेखकों ने हिंदी में आदिवासी जीवन एवं उसके संपूर्ण परिवेश और भाषा से पाठकों को परिचित करवाया।
संदर्भ:-
1)        आदिवासी अस्मिता वाया कथा-साहित्यरसाल सिंहबन्ना राम मीणा, पृ. 167
2)        आदिवासी अस्मिता वाया कथा-साहित्यसं. रसाल सिंह/बन्ना राम मीणापृ. 169
3)        इंद्रप्रस्थजनवरी-जून 2009, पृ. 20 ('उपन्यास और लोकतंत्रलेख से)
4)        धूणी तपे तीरहरिराम मीणापृ28
5)        लौटते हुएवाल्टर भेंगरापृ185-186
6)        छैला सन्दुमंगल सिंह मुण्डापृ136
7)        धूणी तपे तीरहरिराम मीणापृ352
8)        पलास के फूलपीटर पौल एक्कापृ133
9)        जंगल जहाँ शुरू होता हैसंजीवपृ. 196
10)      जंगल जहाँ शुरू होता है,संजीवपृ. 59
11)      आदिवासी साहित्य एवं संस्कृतिसं. बिशाला शर्मा /दत्ता कोल्हारेपृ. 73
12)      ग्लोबल गांव का देवतारणेन्द्रपृ. 38

 ‘त्यागपत्र’ में स्त्री और भारतीय समाज
शशि, शोधार्थी- भारतीय भाषा केन्द्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली

Jainendra Kumar appeared on the literary horizon in 1929, his first published work being a book of short stories. Thereafter the author's rise to prominence was phenomenal, and within a few years he was probably the most talked of figure in Hindi literature, not only because of the high literary quality of his subsequent work, but also, and possibly more, on account of the disturbing originality of his creative outlook. His thought, his story material, his characters, even his language, was provokingly different, and each new novel seemed to define more clearly a philosophy that was in startling contrast with the nationalistic aspirations current at the time.
The novel itself covers some familiar territory -- a boy named Pramod in a middle class family has an intense attachment to his aunt Mrinal (his Bua), who is only five years older than himself. Mrinal (or Mina) has lived with Pramod's family since she was orphaned as a child. As a teenager, she develops an attachment to a local boy who is off-limits as a marriage prospect. She is married off against her wishes by Pramod's parents, and is immediately unhappy. She continues to be in touch with her sweetheart from before marriage, and comes under suspicion from her husband of committing adultery. After several years, her husband leaves her, and she is effectively excommunicated from Pramod's family, and by middle-class society in general. She sinks through the ranks, taking up with laborers who mistreat her among other things, and finally dies.
At the end of the novel Pramod visits Mina one lasts time to try and save her from utter destitution. At this point she is living in a tenement amongst "aging prostitutes, coolies out of work, professional beggars and hunted criminals. The harshness of this vision, where no liberation or solidarity is really possible, puts Jainendra clearly at odds with the major Progressive voices of his time. 
The writing is fantastic. Every word is in its place and most credit goes to the translator (who often gets ignored) for the wonderful derivation of setting, meaning and the right words to add the much needed pace and communicative technique. It broke all rules of traditional sensibilities and that’s what makes it a great read. Indian literature is not what it seems most of the time till discovered and devoured. Great books such as these make it truly a niche genre.
भारतीय समाज व्यवस्था में स्त्री की पराधीनता कोई नई बात नहीं है। इस पराधीनता की बुनियाद या कहें कि स्त्री-पुरुष में असमानता उसके जन्म लेने से ही शुरू हो जाती है। जैसे- एक लड़की के जन्म पर परिवार या समाज वाले दबाव में या कहें कि मन ही मन व्यथित क्यों हो जाते हैं ? और अगर परिवार में पहले से ही एक-दो लड़कियाँ हैं तो तीसरी लड़की बर्दाश्त नहीं होती और हमारे समाज के लोग लड़की को जन्म देने वाली उस औरत को कोसते हैं और उसे कुल बोरनी, कुलक्षिणी आदि नामों से पुकारते हैं। ठीक इसके विपरीत अगर वही स्त्री लगातार लड़कों को जन्म देती है तो वह घर की लक्ष्मी है, वंश परंपरा को आगे बढ़ने वाली आदि कई तरह के नामों से उस औरत को सुसज्जित करते हैं।
यहाँ पर एक प्रश्न बार-बार मेरे मन को कुरेदता है कि जो पुरुष हर चीज में अपनी दावेदारी दिखाता है इन चीजों से कैसे अपने आपको दूर रख सकता है। जबकि यह संसार का साश्वत नियम है कि एक औरत तब तक माँ नहीं बन सकती जब तक वह पुरुष से सम्बन्ध नहीं स्थापित करती। इस प्रकार देखें तो एक औरत के माँ बनने की प्रक्रिया में स्त्री-पुरुष दोनों का बराबर का योगदान होता है, तो लगातार लड़कियों को जन्म देने वाली औरत को ही क्यों कोसा जाता है पुरुष को क्यों नहीं ? जबकि उस बच्चे के जन्म में वह भी उतना ही सहभागी होता है जितना कि जन्म देने वाली औरत ? ऐसे ही न जाने कितने तरह के नियम-कानून हैं जो पुरुषों के लिए तो नैतिक माने जाते हैं, वही नियम-कानून जब स्त्री पर लागू होते हैं तो वह अनैतिक हो जाते हैं क्यों ? स्त्रियों की सुन्दरता के सारे प्रतिमान उसकी देह की पवित्रता को लेकर ही क्यों होता है ? पुरुष के लिए प्रेम करना पाप नहीं है तो एक औरत के लिए प्रेम करना कैसे पाप हो सकता है? और तो और औरत को उस प्रेम की इतनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है कि उसका जीवन ही तहस-नहस हो जाता है। इन्हीं कुछ ज्वलंत प्रश्नों को जैनेन्द्र ने ‘त्यागपत्र’ के माध्यम से हमारे सामने रखा है जो आज भी उसी रूप में हमारे समाज में विद्यमान है।
किसी भी रचना का मूल्यांकन उस दृष्टिकोण, सामाजिक परिवेश व मन:स्थिति का मूल्यांकन होता है जिस परिवेश में रहकर रचनाकार अपने समाज को शब्दों में बुन रहा होता है। कथाकार जैनेन्द्र का उपन्यास ‘त्यागपत्र’ बीसवीं सदी के चौथे दशक के अंतिम वर्षों में लिखा गया है, जिस समय उपन्यास की दुनिया में कथाकार प्रेमचंद का दौर गुजर रहा था। प्रेमचंद ने हिन्दी उपन्यास को तिलस्मी, ऐयारी, जासूसी और आदर्श परंपरा से उठाकर यथार्थोन्मुख आदर्शवाद तक कथा साहित्य को पहुँचा दिया था। ऐसे में कथाकार जैनेन्द्र के सम्मुख चुनौती यह थी कि वह किस नए दृष्टिकोण को लेकर आयें और हिन्दी कथा साहित्य को न केवल नवीनताओं से युक्त करवाएं बल्कि मनुष्य की कौन सी मन:स्थितियाँ बची हुई थी, उससे हिन्दी साहित्य की विरासत को युक्त कर पायें।
‘त्यागपत्र’ उपन्यास में जैनेन्द्र ने भारतीय समाज और पश्चिमी विचारधारों को पचाकर भारतीय समाज में मौजूद रूढ़िवादी विचारों तथा मनुष्य के मन में परत दर परत अनेक ऐसे मूल प्रश्नों को उठाया है जिसे समाज की थोथी नैतिकतावादी मान्यताएँ तो झूठा सिद्ध कर देती हैं लेकिन वह मनुष्य मात्र का वास्तविक सच है। इस उपन्यास में कथाकार जैनेन्द्र ने मृणाल के माध्यम से भारतीय स्त्री, जो अनेक सामाजिक जकड़नों में बंधी हुई है तथा उन मान्यताओं को स्वीकार्य करना या तो उसकी नियति है या फिर अगर वह समाज की उन मान्यताओं को नहीं स्वीकारती तो उसे अभिशप्त होना पड़ेगा। इन्हीं प्रश्नों के आलोक में उपन्यास से तथ्यों को लेकर तथा भारतीय सामाजिक व्यवस्था की वर्तमान स्थिति तथा उस समय जिस समय जैनेन्द्र यह उपन्यास लिख रहे थे दोनों का विश्लेषण करके यह समझने की कोशिश की जाएगी कि आखिर जैनेन्द्र उस समय भी एक ऐसे समाज का सपना देख रहे थे जिसमें स्त्री न केवल मुक्त हो, बल्कि वह अपनी व्यक्तिगत पहचान या अस्तित्व के साथ जी सके। पुरुष प्रधान भारतीय समाज में स्त्री का अस्तित्व स्वतन्त्र अस्तित्व तो नहीं है बल्कि वह पिता, भाई, पति और पुत्र के माध्यम से नियमित और निर्देशित होती है।
वैसे भी “सामाजिक नियमों की शक्ति स्रियों के लिए मानो स्वाभाविक हो चली है। स्त्री की सीमाएँ निर्धारित हुई, संबंध निर्धारित हुए और पुरुष समाज की कथित प्रतिष्ठा इससे जुड़ गई। स्त्री अगर समाज व्यवस्था की मर्यादा तोड़ती है तो इससे समाज, परिवार तथा संबंधों की प्रतिष्ठा चली जाती है। उसके लिए घर की चारदीवारी ही दुनिया है जहाँ उसके सुख और दुःख दोनों पलते हैं। जहाँ उसके आँसू कोई नहीं देख सकता। जहाँ उसकी वेदना कोई नहीं जान सकता। बस एक करुणा और दीनता की मूर्ति बनी यह नारी अपने लिए नहीं, पति के लिए, बच्चों के लिए और समग्रत: परिवार के लिए जीती है।”[1] इसलिए आज भी ज्यादातर स्त्रियाँ समाज में सम्मानपूर्ण जीवन जीने के लिए समझौता वादी रवैया अपनाती हैं। यह मान्यता जैनेन्द्र जब यह उपन्यास लिख रहे थे उस समय तो मौजूद ही थी। आज जब हम इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक के लगभग मध्य में हम खड़े हुए हैं तो भी स्त्री के प्रति भारतीय नजरिया लगभग वही है। इससे एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि कथाकार जैनेन्द्र अपने समय और समाज के बहुत आगे सोच रहे थे। भारतीय समाज में विवाह व्यवस्था पर टिप्पणी करते हुए वह कहते हैं कि : “विवाह की ग्रंथि दो के बीच की ग्रंथि नहीं है, वह समाज के बीच की भी है। चाहने से ही वह क्या टूटती है ? विवाह भावुकता का प्रश्न नहीं है, व्यवस्था का प्रश्न है। वह प्रश्न क्या यूँ टाले टल सकता है ? वह गाँठ है जो बंधी की खुल नहीं सकती। टूटे तो टूट भले ही जाये लेकिन टूटना कब किसका श्रेयस्कर है।”[2]
यहाँ जैनेन्द्र ने भारतीय समाज में मौजूद विवाह व्यवस्था की कठोर सामाजिक मान्यताओं को बहुत ही तार्किक ढंग से अभिव्यक्त किया है। उन्होंने इस बात को उठाया है कि भारतीय समाज में विवाह का बंधन दो व्यक्तियों की निजी इच्छाओं का परिणाम न होकर समाज की सामूहिक मान्यताओं का परिणाम है। ऐसा होने का फायदा यह है कि कोई व्यक्ति (स्त्री या पुरुष) अपने वैवाहिक बंधन को यूँ ही ठुकरा नहीं सकता, यह बात समाज को नियमित करने के दृष्टिकोण से ठीक है। इसका नकारात्मक परिणाम यह है कि दो व्यक्तियों के इच्छाओं के बिना ही कई बार उस बंधन में बांधकर साथ जीवन जीने के लिए मजबूर किया जाता है। अब सवाल यह है कि पति-पत्नी जैसे सुकुमार संबंधों को क्या जबरदस्ती की बुनियाद पर लम्बे समय तक मधुर और समरसता पूर्ण बनाये रखा जा सकता है ? यदि समाज की पड़ताल की जाय तो ऐसे संबंधों से भरा पड़ा है भारतीय दाम्पत्य जीवन जहाँ सिर्फ दाम्पत्य संबंधों के नाम पर पत्नी पति को, और पति पत्नी को ढो रहे हैं। वहाँ जैनेन्द्र ने ‘टूटना कब किसका श्रेयस्कर है’ कहकर यह स्पष्ट कर दिया है कि विवाह व्यवस्था को नकारना या तोड़ना आज की स्त्री विमर्श की तरह उनका उद्देश्य नहीं था बल्कि स्त्री-पुरुष को एक दूसरे को चुनने तथा लोकतान्त्रिक मूल्यों से युक्त लचीली विवाह व्यवस्था के वह हिमायती थे, जिसमें स्त्री-पुरुष एक दूसरे पर बोझ बनकर नहीं बल्कि अपने व्यक्तिगत पहचान के साथ सामूहिक जीवन जीने के सार्थक थे।
इक्कीसवीं सदी में जब पूरी दुनिया में लैंगिक समानता को लेकर आन्दोलन चल रहे हैं और एक मान्यता सी यह बन गई है कि प्रेम विवाह में स्त्री ज्यादा सुरक्षित है। प्रश्न यह है कि जो पुरुष भारतीय समाज में अपने जन्म से ही एक खास पुरुषवादी मानसिकता में ढाला जाता है क्या उसी पुरुष के साथ विवाह बंधन को हटाकर प्रेम विवाह के नाम पर कोई स्त्री अपना जीवन बिताएगी तो क्या वह पुरुषवादी मानसिकता की शिकार नहीं होगी ? इसका उत्तर यह हो सकता है कि जब तक पुरुष भावावेश में जी रहा हो और उस स्त्री पर अत्यधिक अनुरक्त हो तब तक वह अपनी पुरुषवादी मानसिकता की सीमित अभिव्यक्ति करेगा। जैसे ही प्रेम की तीव्रता घटेगी वैसे ही उसकी पुरुषवादी मानसिकता जागृत होगी। सच तो यह है कि जैनेन्द्र इस उपन्यास में लोकतान्त्रिक मूल्य व लचीलेपन के हिमायती थे, वास्तव में स्त्री या पुरुष दोनों का कल्याण उसी में निहित है। विवाह व्यवस्था शब्द को हटाकर प्रेम विवाह शब्द ला देने से बुनियादी स्तर पर कोई तब्दीली नहीं आने वाली है।
भारतीय समाज में महिलाओं को अपने परिवार के सदस्यों द्वारा बहुत खास तरह के आशीर्वाद भी दिये जाते हैं। इस उपन्यास में जब मृणाल अपने मायके से ससुराल जाने लगती है तो उसकी भाभी आशीर्वाद देते हुए कहती हैं : “पतिव्रता रहने, पूतो फलने, बड़भागिन होने आदि के आशीर्वाद उन्होंने ऐसे प्रणत भाव से दिये कि मानो उनके नीचे वह गड़कर भी मर जाए तो धन्य हो जाए, नहीं तो...नहीं तो...”[3]
जिस समाज में खुद महिलाओं के द्वारा ही महिलाओं को ऐसे आशीर्वाद दिये जाते हैं उस समाज में यदि महिलाओं का पुरुषों के द्वारा शोषण हो रहा हो और उन्हें पता नहीं चल रहा हो तो कोई अतिशयोक्ति की बात नहीं है। ऐसा कहना इसलिए सही है क्योंकि वह जो महिला आशीर्वाद दे रही है वह भी इसी तरह के संस्कारों के द्वारा संस्कारित की गई है। ऐसे में उस महिला की भी गलती नहीं है बल्कि पूरे भारतीय सांस्कृतिक प्रक्रिया में व्याप्त लैंगिक भेदभाव की दृष्टि में ही दोष है। आज वर्तमान में लैंगिक समानता के लिए जिस सांस्कृतिक परिवर्तन की बात की जा रही है उसकी अनुगूँजें 1937 से ही इस उपन्यास में स्पष्ट सुनाई पड़ती हैं।
इस उपन्यास में मृणाल का विवाह शीला के भाई की घटना का उसकी भाभी को पता चलने के बाद आनन-फानन में कर दिया जाता है। यह विवाह बेमेल तो है ही साथ ही साथ पुरुष के द्वारा शोषण पर भी टिका है। मृणाल शीला के भाई से प्रेम करती है लकिन उससे शादी नहीं कर पाती। जब वह अपने ससुराल जाती है तो यह निश्चय करती है कि पति-पत्नी के संबंधों में सच्चाई होनी चाहिए, सत्य की बुनियाद पर ही दाम्पत्य संबंधों को जीवित रखा जा सका है। इस उपन्यास में जैनेन्द्र लिखते हैं : “ब्याह के बाद मैंने बहुत सोचा, बहुत सोचा। सोचकर मैंने यही पाया कि मैं छल नहीं कर सकती, छल पाप है। हुआ जो हुआ ब्याहता को पतिव्रता होना चाहिए। उसके लिए पहले पति के प्रति सच्ची होना चाहिए। सच्ची बनकर ही समर्पित हुआ जा सकता है।”[4]
जिस सच की आकांक्षा के तहत मृणाल ने अपने पति से सारी बातें बताई, वही सच उसके लिए नासूर बन गया ? सवाल यह है कि मृणाल ऐसा रास्ता क्यों अपनाई ? एक बात तो तय है कि वह अपने पति से इस बात को बताने से पहले ही यह जानती थी उसका क्या हस्र होने वाला है। ऐसा इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि उसके पति द्वारा घर से भगा दिये जाने पर मृणाल कभी चिन्तित नहीं दिखती बल्कि उसमें एक सहज स्वीकार्य का भाव दिखता है। उसमें यह सहज स्वीकार्य का भाव आखिर आया कहाँ से ? यदि वह नहीं जानती होती तो वह कहीं न कहीं जाकर समझौता कर लेती, लेकिन वह कहीं समझौता नहीं करती। वह अंत तक बहिष्कृत जीवन ही जीती है। इस उपन्यास का शीर्षक ‘त्यागपत्र’ मृणाल द्वारा भारतीय समाज की रूढ़िवादी मान्यताओं से त्यागपत्र है, यह केवल भतीजे प्रमोद का जजी से त्यागपत्र नहीं है।
उपन्यास में मनोविश्लेषणवाद जिसका शाब्दिक अर्थ यह है कि मनुष्य के चेतन में अनेक ऐसी भावनाएँ, अनेक ऐसी इच्छाएं सामाजिक नैतिकता के कारण दबी हैं उसकी सूक्ष्म अभिव्यक्ति इस उपन्यास में मिलती है। जैनेन्द्र एक जगह लिखते हैं : “उस रोज रात तो मुझे बहुत देर तक अपने से चिपटाए रही। फिर पूछने लगी, “प्रमोद तू मुझसे प्यार करता है ?” सुनकर बिना कुछ बोले मैंने अपना मुँह उनकी छाती के घोसले में और दुबका लिया। इस पर वह बोली प्रमोद मैं तुम्हें बहुत प्यार करती हूँ।”[5] .... “वह नवीं क्लास में थी या दसवीं में, मुझे ठीक से याद नहीं। मेरी बारह वर्ष की अवस्था रही होगी। मेरा मन उस समय बिल्कुल बुआ के वश में था, वह मुझे सचमुच प्यार करती थी। लेकिन तभी मैंने अनुभव किया कि उनके प्यार का रूप बदल गया है वह मुझे अब उपदेश नहीं देती बल्कि अपनी छाती से लगाकर जाने पार कहाँ देती हैं।”.... “मैंने उस समय यह अनुभव किया उन्हें अब एकान्त उतना बुरा नहीं लगता।” “...मैं बिना जवाब दिये पास आकर खटोले पर उनके बराबर बैठ जाता। वह शनै: शनै: मुझको अपने ऊपर लुढ़का लेती, कहती “देख पतंग, देख पतंग।”[6]
यहाँ विचारणीय प्रश्न यह है कि मृणाल शीला के भाई से बेहद प्रेम करती है लेकिन अपने भतीजे प्रमोद को लेकर भी प्रेमपरक मनः स्थिति में ही दिखाई पड़ती है। दरअसल यह केवल मृणाल की मनः स्थिति नहीं है बल्कि यह मनुष्य मात्र की मूलभूत मनः स्थिति है। हर मनुष्य के जीवन में ऐसी स्थितियाँ उत्पन्न होती हैं  जिसे मनुष्य समाज के सामने खुलकर अभिव्यक्त नहीं कर पाता है क्योंकि समाज की नैतिकतावादी मान्यताएँ उसे ऐसा करने से मना करती हैं। वह सामाजिक सम्मान की चाह के लिए यह झूठी मान्यताएँ ही सही, लेकिन उसको स्वीकार्य करता है। इन अभिव्यक्तियों के पीछे ही मनुष्य का कल्याण है क्योंकि काम चेतना यदि बहुत ज्यादा दबाई जाएगी तो व्यक्ति को कुंठा तथा अवसाद की तरफ ले जायेगी। इन अभिव्यक्तियों को व्यापक पैमाने पर सामाजिक मान्यता तो देना उचित नहीं है लेकिन इनकी सीमित और सलीके की अभिव्यक्ति पर मनाही नहीं होनी चाहिए।
इस छोटे से उपन्यास की संवेदनाओं के घनत्व का विस्तार जितना अधिक है उसके शिल्प का प्रयोग भी उतना ही महत्वपूर्ण है। यह उपन्यास पूर्वदीप्ति (फ्लैस बैक) शैली में लिखा गया है। फ्लैस बैक शैली की विशेषता यह है कि इसमें घटनाएँ पहले घटित हो जाती हैं, उसके बाद उसकी अभिव्यक्ति स्मृति के आधार पर किया जाता है। इस शैली का प्रयोग करते हुए उपन्यासकार प्रमोद के जजी के त्यागपत्र से शुरुआत करते हुए मृणाल के सामाजिक त्यागपत्र तक ले जाता है। वास्तव में यह घटना ठीक इसके उल्टी थी जिसमें मृणाल का सामाजिक त्यागपत्र पहले है और प्रमोद के जजी का त्यागपत्र बाद में। मनोविश्लेषणवादी उपन्यास की खासियत यह होती है कि उसको चेतना प्रवाह शैली में अभिव्यक्त किया जाता है। इसका मतलब यह है कि भावनाएँ जिस वेग और जिस बेतरतीब क्रम में आती हैं उसी क्रम में उनकी अभिव्यक्ति भी की जाती है, परन्तु इस उपन्यास में जैनेन्द्र ने चेतना प्रवाह शैली का बेतरतीब नहीं बल्कि तरतीब वर्णन किया है। यह उनकी शैलीगत चिंतन की नूतनता का परिणाम है। इस उपन्यास में सूक्तिपरक वाक्यों जैसे “स्त्री जब तक ससुराल की है तभी तक मायके की है। ससुराल से छूटी तो मायके से आप ही छूट जायेगी।”[7].... “करुणा हद लाँघ कर क्रोध हो जाती है।”[8] का सटीक प्रयोग किया गया है। इस उपन्यास की भाषिक विशिष्टताओं के संवादों में नाटकीयता भी एक प्रमुख तत्व है जो निम्नलिखित रूपों में अभिव्यक्ति पाती है :
“मैंने कहा, “बुआ, क्या है ?”
बोली, “सर में दर्द है”
“माथा दबा दूँ”
“नहीं”
“बाम लगा लो”
“नहीं”
“बूड़ी कोलोन की पट्टी लाता हूँ”
“अरे नहीं नहीं नहीं”[9]
इस तरह के पात्रों के संवाद सामन्यत: उपन्यास जैसी विधाओं में कम प्रयोग होते हैं जिसमें एक नाटकीय रोचकता दिखती है। वास्तव में नाटक विधा की विशिष्टताओं को उन्होंने उपन्यास में पिरोने की नवीन कोशिश की है।
अत: यह कहा जा सकता है कि इस उपन्यास में प्रेमचंद का यथार्थवादी चिंतन तो मौजूद ही है साथ ही साथ मनोविश्लेषणवाद जैसी नवीन संवेदनाओं से भी हिन्दी साहित्य को युक्त करने की दिशा में सराहनीय कार्य जैनेन्द्र ने किया है। इस परंपरा की और सशक्त अभिव्यक्ति अज्ञेय और इलाचंद्र जोशी के साहित्यिक चिंतन में दिखाई पड़ती है। शिल्प के दृष्टिकोण से भी पूर्वदीप्ति शैली (फ्लैस बैक) व चेतना प्रवाह शैली का प्रयोग परंपरागत ढांचे से हटकर मौलिक रूप में किया गया है।
अन्तत: हम कह सकते हैं कि स्त्री सदियों से इस पुरुष सत्तात्मक समाज में शोषित होती आयी है, जैनेन्द्र ने उसका एक सजीव चित्र ‘त्यागपत्र’ के माध्यम से हमारे सामने प्रस्तुत किया है। “चाहे कोई युग हो, चाहे कोई काल हो। यह तीखा सच दुनिया भर में प्रमाणित होता रहा है कि पुरुष सत्ता का नियंता है और स्त्री उसकी सेविका... समाज व्यवस्था में पुरुषों की प्रधानता रही है। पुरुष ने अपनी सुविधा के लिए समाज व्यवस्था के नियम निर्धारित किये, उसके विधान बनाये और अपने को इसकी जकड़बंदियों से मुक्त रखा।”[10] इन सभी प्रश्नों को जैनेन्द्र ने ‘त्यागपत्र’ में बहुत ही बारीकी के साथ उठाया है, वह समस्याएँ आज भी हमारे समाज में किसी न किसी रूप में विद्यमान हैं जिस पर हम सबको विचार करने की जरूरत है।

हिंदी सिनेमा में चित्रित सामाजिक समस्याएँ
चाईना मीनाहिंदी विभाग, राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय, अजमेर
ईमेल- chainacuraj@gmail.com / मोबाइल न. 9660664113

Despite its vacillation between the two extremes of sometimes being awfully responsible and at others outright sensational, Indian cinema's efforts in mirroring social reality deserves to be applauded. If popular perception is an indicator, a major part of the social transformation in India can be attributed to cinema' social reformist role. The drive to link success of a film to box office returns has undoubtedly led to cinema's commercialisation at the cost of its social and developmental goals. But, despite the commercially driven attempts to cater escapist and fantasy-oriented entertainment, a good part of Indian films continues to be social theme carriers. These films enjoy a unique advantage of remaining out of the censor tangles. Of course, a prominent question remains to be answered is whether cinema can influence and change society. This paper attempts to answer this question through a historical review of the Hindi films.
Cinema is a mirror of social reality holds good beyond doubt if one looks back at the thematic treatment of India's mainstream cinema. From the very early years, Indian feature film developed the admirable ability of focusing on different facets of Indian life. The cinemas concerns with social problems continue to be overtly expressed from the thirties, right through to the sixties, in a handful of most significant films. Any discussion on films and society confronts a vital question 'dose cinema has any impact on the society'. There are two schools of thought on this issue among film makers. One line of thinking believe that films can never affect or reform the social body or the events taking place within it, but the other believes that the medium does have a direct or indirect impact on social streams, even though it may not be immediately perceptible. The former cites the example that 'just after a couple of excellent anti-war films were exhibited, the second world war engulfed humanity' hence cinema cannot and should not offer any solutions for social problems raised by its writer and directors, by its content and style. The mere exposition of the problem is enough and there ends cinema's artistic obligation as well as compulsion. The later, however, stretches cinema's roles further to promote a thought process and line of action where by the viewers are provoked into trying a change for the better. Films, which talked directly and movingly about the wrongs of society, go on to influence it and shape it along better lines. Baghban tugged at our hearts when it came out but the social issue it raised, that of the elderly being mistreated by their own children, remains as pertinent as ever. Presenting reasons why we still love the film even after all this while. The couple provided the best facilities to their children so that they can be successful in their lives, even at the cost of their own requirements.Due to their sacrifices and hard work, their children finally succeeded in their lives and got settled.Things was going smooth until Amitabh took retirement from his job. Now, when their sons’ turn came to look after their parents, they treated their parents in a horrible manner.They even separated them, but the parents didn’t utter a word in order to keep their children happy. Amitabh finds out that his writings have been published and the book became a hit. Now, as he again has the respect and money,their children again started treating them well in order to have some share in the money.This is the story of most of the youngsters nowadays.People today have become so materialistic that they don’t even care about their parents.This movie was an attempt to make such people realize their mistake.
Similarly Yeh Kaisa Insaf?" is a family drama with a nice story. It concerns a story of a normal working class couple who both need to fend their families and have a hard time to meet the ends meet. Things are alright when the husband needs to support his family financially, but same doesn't hold true when the wife supports her family through her salary. This creates a tension in the relationship and the whole theme of the movie unravels on this discussion why the issues on fending the family don't hold equal for a husband and wife. Perhaps the tension created through this theme brings the essence of the drama and grips you most of the time. But the film is interesting only for the story and rest of the drama meanders in the ordinary 80s gimmicks with unnecessary sequences and mediocre songs which you can skip. The film is interesting only during the discussions on our social structure which has set different values for a husband and wife which creates tension in the relationships ultimately breaking the marriages. I would recommend these movie if you like social dramas from 80s.
The foremost role of cinema in society ought to be is to provide entertainment, impart education and teach positive values. It can project nationally desirable ideas and aspirations and help in the healthy growth of a nation. It can creatively portray social issues to strengthen pro-social behaviour which can eventually lead to social harmony. It can also promote debate on emerging social issues to accelerate social transformation.
सिनेमा समाज का वह सच्चा अंग है जो उसके स्वरुप को  समाज के सामने हुबहू प्रस्तुत करता है। समाज में जो कुछ भी घटित होता है उससे निश्चित रूप से सिनेमा प्रभावित होता है। यही कारण है कि समाज के विभिन्न वर्गों और परिवेश को केंद्र में रखकर बनने वाली फिल्में ही समाज को अधिक प्रभावित करती हैं। अतः सिनेमा समाज की सामाजिकराजनीतिक ,ऐतिहासिकआर्थिकसांस्कृतिक और धार्मिक समस्याओं को भी प्रस्तुत करता रहा है।  ये समस्याएँ आज भी समाज और सिनेमा में ज्यों की त्यों देखी जा सकती हैं। ’‘जब लोकप्रिय फिल्मो का निर्माण अपनी जवानी पर था,तब भी (भारत में तथा विदेशो में ) सामाजिक समस्याओं को फिल्म का विषय बनाना सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था।’‘1 
वस्तुतः सिनेमा और समाज का गहरा रिश्ता होता है। सिनेमा का निर्माण ही समाज की समस्याओं की अभिव्यक्ति हेतु हुआ है। भारतीय संस्कृति में पारंपरिक मूल्यरीति-रिवाजसंस्कार सुसंगठित समाज का आधार माने जाते हैं। वैश्वीकरणउदारीकरण और निजीकरण के कारण  आज का युवा पश्चिम की ओर मुखातिब हो रहा है। जिसके कारण आज भारतीय  समाज में वर्तमान पीढी द्वारा उक्त मूल्यों को  नकारा-सा जा रहा है। आज मानवीय मूल्य विघटित होते जा रहे हैं। चूँकि सिनेमा समाज का प्रतिबिम्ब हैअतः इन्ही विघटित होने वाले मूल्यों को इसमें दिखाया जा रहा है।  पारिवारिक विघटनदाम्पत्य जीवन में आयी कड़वाहटबदलते हुए रिश्तेघटते मानवीय मूल्योंबढ़ते अपराध,मानसिक विकलांगतासंकीर्णता तथा आधुनिकता की चकाचैंध में फंसती नव पीढ़ी समाज की मुख्य समस्या बन रही हैं। बदलते हुए सामाजिक,आर्थिक और सांस्कृतिक परिवेश के कारण फिल्मों में भी परिवर्तन आता गया। इन्ही समस्याओं को केंद्र में रखकर कई सामाजिक और पारिवारिक फिल्में बनी। जिनमें संयुक्त परिवार का टूटनविस्थापनगरीबी-अमीरीसास-बहू के झगड़ेदाम्पत्य जीवन में आते बिखराव को दिखाया गया है।
बी.आर. चोपड़ा निर्मित और रवि चोपड़ा निर्देशित फिल्म बागबान’ में इसी प्रकार की सामाजिक समस्या को रेखांकित किया है। यह फिल्म आज के परिवेश में आये बदलाव एवं भारतीय परम्परागत मूल्यों के टूटने की कहानी है। आज का युवा किस कदर बदल गया है कि उसके मां-बाप ही उन पर बोझ बन गए है। माँ-बाप भूख-प्यास सहन कर अपनी संतान के सपने साकार करने के लिए स्वयं के सुख-दुःख को भूला देते हैं। वे चाहते हैं कि उनका बेटा पढ़-लिख कर अपना भविष्य बनाए। बेटा पढ़-लिखकर  अपना भविष्य तो बना लेता है परन्तु माता-पिता के भविष्य के साथ खिलवाड़ करने लग जाता है। ऐसे ही पिता हैं राज मल्होत्रा (अमिताभ बच्चन) जिनके  चार पुत्र हैं।  वे नौकरी करते हुए अपने चारों पुत्रों को पढ़ा-लिखाकर उनकी जिन्दगी को स्थापित करते हैं साथ ही वे एक अनाथ बालक आलोक (सलमान खान) को भी सहारा देते हैं। आलोक पढ़ लिख कर विदेश चला जाता है विदेश जाकर भी पालनहार माँ बाप की आज्ञा को सर्वोपरि मानता हैजबकि उनके सगे बेटे उनकी अवहेलना करते हैं। यहाँ तक कि वह शादी भी उसे पालने वाले माँ-बाप की इच्छा से ही करता है। राज मल्होत्रा (अमिताभ बच्चन) की  सेवानिवर्ती  के बाद उनकी संतान माँ बाप को बोझ  समझती हैं यहाँ तक कि चारो पुत्र अपने माता पिता को साथ ले जाने के बजाय एक दूसरे के ऊपर थोंपने का प्रयास करते हैं। 
यह है भारतीय संस्कारों में आया बदलाव जिसके कारण चारों पुत्र धन के पीछे पड़े रहते है और अपने माँ-बाप को बोझ समझने लगते हैं। जबकि भारतीय संस्कृति में माँ-बाप को ईश्वर से भी ऊपर माना गया है। संतान तभी तक खुश है जब तक पिता अपने पुत्रों को शहर भेज कर उन्हें हर प्रकार से संबल प्रदान करे परन्तु जब माता पिता की सेवा की बात आती हैतो वही संतान अपने कर्तव्य से विमुख हो जाती है। यहाँ प्रतीत होता है की पिता पुत्र का सम्बंध आर्थिक आधार तक सीमित होकर रह गया।  भारतीय संस्कृति से कटकर चारों पुत्र अपने माँ बाप को बुढ़ापे में एक दूसरे से अलग कर देते हैं पूजा (हेमा मालिनी) को बड़ा पुत्र अपने साथ तथा राज मल्होत्रा को दूसरे पुत्र के साथ रहना  पड़ता है। इसके बाद जो व्यवहार अपनी ही संतान द्वारा किया जाता हैवह एक नौकर से भी निम्न दर्जे का है। आज की युवा पीढी शहर की चकाचैंध में फंस कर संस्कार भूल जाती हैं।
सांस्कृतिक मूल्यों का विघटन होता जा रहा है। बाल्यावस्था में राज मल्होत्रा से आश्रय पाने वाला आलोक अचानक उनको मिल जाता है। आलोक ही अपने माता पिता को स्वीकार कर सम्मान देता है। यहाँ पर यह दिखाने का प्रयास किया गया है की स्वयं की संतान से सहारा पाने  में असमर्थ एक बाप अनाथ  हो जाता है और पालित पुत्र उसे संबल देता है। यहाँ एक  दूसरी बात की ओर भी इशारा किया गया है कि  मानव से ज्यादा जानवर वफादार होता है। राज मल्होत्रा के पालित कुत्ते ही मनुष्य से ज्यादा वफादार होते हैंवे अधिक जुडाव रखते हैं। जानवर भी शायद उतने बेईमान नहीं होते जितनी आजकल की संताने अपने अभिभावकों और जन्म-दाताओ के प्रति हो रही हैं।2
वर्तमान पीढी इस तथ्य को भूल रही है कि आज जो  व्यवहार अपने माता पिता के साथ कर रहे हैं कल उनके साथ भी वही होने वाला है। आज खून के रिश्ते जिस तीर्व गति से परिवर्तित होते हुए गर्त में जा रहे हैं उसे इस फिल्म में सफलता पूर्वक प्रस्तुत किया गया है। इस फिल्म में चित्रित समस्या समाज की वास्तविक तस्वीर प्रस्तुत करती है। सम्पति का बंटवाराधन का लालचपरस्पर अविश्वासमन-मुटाव के कारण संयुक्त परिवार एकल परिवार में परिवर्तित होते जा रहे हैं। यह एकल परिवार प्रथा सामाजिक ढांचे को कमजोर बनाती है। परिवार में अकेलेपन के कारण असुरक्षा की भावना उत्पन्न होती है तथा सभी जिम्मेदारियों का भार अकेले व्यक्ति पर होने से मानसिक अस्वस्थदबाव और मशीनी जिन्दगी जीने को मजबूर हो जाता है। भविष्य के प्रति गलत अंदेशा कर अपने ही रिश्तों के प्रति अविश्वास पनपा देता है। एकल परिवार की तथाकथित स्वतन्त्रता अनुमानित सुखानुभूति व्यक्ति को परिवार से अलग कर देती है  भारतीय समाज में विवाह नामक संस्था को पवित्र माना गया हैलेकिन आज दाम्पत्य जीवन में भी बिखराव आ रहा है। इस बिखराव को भी हिंदी सिनेमा के द्वारा दिखाया गया है।
पुराने पारिवारिक ढांचे को अस्वीकार करते हुए अब पति-पत्नी के सम्बन्धो को भी भौतिक धरातल पर देखा जाने लगा है। सन् 1980 में प्रदर्शित फिल्म  ये कैसा इंसाफ‘  पारिवारिक विघटन की कहानी है। जिसमें दिखाया गया है कि आज किस प्रकार पति -पत्नी का पवित्र सम्बन्ध भी टूट रहा है। फिल्म के कथानक के अनुसार नायक नायिका एक दूसरे का साथ देने का वादा करते हैं। नायिका नोकरी पेशा है। विधवा माताभाई और नौकरानी के पुत्र की जिम्मेदारी से दबी नायिका के लिए प्रेम कोई सहज वस्तु नहीं है। उसके लिए प्रेम दूसरे जहाँ की वस्तु हैपरंतु प्रेम अँधा होता हैवह न चाहते हुए भी नायक से इस शर्त पर विवाह करने के लिए तैयार हो जाती है कि नायिका अपनी तनख्वाह से अपने मायके की जिम्मेदारियां निभाएगी तथा उसकी तनख्वाह में नायक कोई हिस्सा नहीं लेगा। परन्तु शादी के बाद नायक पर पुरुषवादी मानसिकता प्रभावी हो जाती है और नायिका आधी तनख्वाह देने को मजबूर होती हैवह भी ऐसे समय में जब उसकी माँ अस्पताल में जिदगी और मौत के बीच जुझ रही हैभाई को मेडीकल की पढ़ाई की फीस जमा करवानी है।
ऐसे मुश्किल समय में नायक अपने वादे से दूर हटता है और नायिका को अपने साथ चलने को कहता है। यहीं से शुरू होती है रिश्तों में दरार। नायिका अपने पति की जिम्मेदारी में भी साथ देती है लेकिन पतिसास-ससुर चाहते हैं कि वह पूरी तनख्वाह ही पति को दे तथा अपने मायके का कोई सहयोग न करे। ऐसी स्थिति में नायिका क्या करे नायक उसे त्याग कर घर से निकलने को मजबूर कर देता है। इससे यही स्पष्ट होता है कि पुरुष की मानसिकता इसमें अधिक जिम्मेदार है। नायक का यह कथन ‘‘तुम्हारे लिये शायद ठीक नहीं लेकिन मेरे लिए तो ठीक है क्योंकि में मर्द हूँ अगर तुम मेरे साथ नही आई तो समाज तुम पर ही अंगुली उठायेगा।3  स्पष्ट करता है कि  पुरुष समाज स्त्री को कितने अन्तराल पर रखता है।
शिक्षित परिवार जहाँ नौकरी पैसा पति - पत्नी है वहां भी पुरुषवादी मानसिकता जड़ जमाये हुए है। सभी कर्तव्यों का निर्वाह पत्नी अपने पति के साथ मिलकर करती है फिर भी किस आधार पर स्त्री के लिए समाज के बंधन तैयार किये जाते हैये इस फिल्म के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। स्त्री को उसके अधिकारों की बात तो दूर उसे दूसरा दर्जा  प्रदान कर दिया जाता है स्त्री के प्रति समाज का रवैया नायिका के कथन से स्पष्ट होता है -‘‘समाज! कैसा समाज कहाँ का समाज जो ताकतवर के आगे झुकता है और कमजोर को अपने पांव तले कुचल देता है जिसके पास इन्साफ के अलग तराजू है मर्द के लिए एक इन्साफ औरत के लिए दूसरा इन्साफ‘‘ 4 ‘‘हम दोनों में फर्क क्या है यही न आप मर्द हैं और में औरत।5
स्त्री के प्रति हीन द्रष्टिकोण समाज की एक समस्या ही है। यह फिल्म मुख्यतया दाम्पत्य जीवन में आते बिखराव पर आधारित है  और बिखराव के कारणों को उजागर करने का प्रयास किया है। समाज में देखा जा सकता है कि दाम्पत्य जीवन में आज अविश्वास प्रकट होने लगा है पवित्र सम्बन्धो में दरार आ रही है इसका कारण चाहे पाश्चात्य संस्कृति हो या भारतीय समाज की रूढीयां पुरुष की अहंवादी मानसिकता कभी भी स्त्री को समानता का दर्जा देने के पक्ष में नही रही है। इस फिल्म में दिखाया गया है कि दाम्पत्य जीवन में दूरियों का कारण स्त्री पुरुष के लिए निर्धारित अलग अलग मापदंड भी हैनायिका का यह कथन इस बात की पुष्टि करता है ‘‘अपने माता पिता और भाई बहिन के लिए पुरुष जो करता है वह उसका कर्तव्य हैउसे देवता स्वीकार किया जाता है,लेकिन वही फर्ज स्त्री निभाती है तो समाज उसे गिरी हुई नजर से देखता है।” 6
ये कैसा इन्साफ फिल्म के द्वारा समाज के अंहकार की तस्वीर प्रस्तुत की गयी है। आज हम स्त्री को शिक्षित करना चाहते हैं लेकिन वही स्त्री जब पढ़ लिखकर नौकरी करती हैअपने परिवार का सहारा बनती है या अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो जाती है तो पुरुष इसे अपना अपमान समझ लेता है तथा नौकरी करने से इंकार किया जाता है। नौकरी नहीं छोड़ने पर घर से बाहर जाने को मजबूर करता है समाज की इसी असमान दृष्टि के फलस्वरूप दाम्पत्य जीवन की समस्या जन्म लेती है। इस फिल्म में एक पेड़ के माध्यम से भी रिश्ते के बिखराव को दिखाया गया है। रिश्ता एक पेड़ के समान ही है जिस पर स्वार्थ तथा अविश्वास के प्रहार होते रहने से वह कमजोर हो जाता है और मानसिक संकीर्णता तथा अहंकार के कारण वह पूर्णतया टूट जाता है।
दहेज की समस्या दिनों-दिन विकराल रूप धारण करती जा रही है। यह समाज की अन्य समस्याओं का मूल भी है। दाम्पत्य जीवन की टकराहट के मूल में दहेज भी एक कारण है। दहेज की समस्या समाज के आधे हिस्से स्त्री के अस्तित्व की समस्या बन रही है। भ्रूण हत्या के मूल में भी दहेज की समस्या ही है। इस दहेज की समस्या को ‘‘ये कैसा इन्साफ‘‘ और कल्पतरु द्वारा निर्देशित ‘‘पराया घर‘‘ फिल्मों में दिखाया गया है। इन फिल्मों के पात्रो के द्वारा स्पष्ट रूप से दहेज की मांग की गई है। पराया घर फिल्म में विनोद की बहिन के फेरों में  बैठने से पहले ही सम्बन्धी का कथन जी कुछ लेन देन भी होगा या सुखा ही टरका दोगे‘‘7 ‘जो कुछ से काम नहीं चलेगा कपड़जेवर,एयर कंडिशनरटी .वी.,फ्रिजस्कूटर वगेरह - वगेरह साथ में एक लाख रूपये नगद।8 से स्पष्ट होता है कि दहेज आज के समाज की बहुत बड़ी समस्या बन चुकी है।
समाज में पढे लिखे परिवारों में भी दहेज प्रथा विकराल रूप धारण करती जा रही है। यहाँ तक की नौकरी पैसा करने वाली लडकी की शादी में दहेज की मांग और अधिक बढ जाती है। ये कैसा इन्साफ” फिल्म की  नायिका संगीत में नौकरी करती है। उसकी शादी से सम्बन्धित कथन ‘‘वह भजन गाने वाली लड़की क्या लाएगीइस घर में। 9 आज स्त्री विरुद्ध स्त्री की मानसिकता को भी उजागर करती है फिल्म के नायक की बहिन के लिए लड़का देखने जाते हैं तब लडके के पिता का कथन आज के तथाकथित उच्च वर्ग की सोच को प्रकट करता है मैं बिजनेस मेनलडके की तालीम पर बीस हजार रूपये खर्च किये हैं। ब्याज जोड़कर तीस हजार बनते हैं। ब्याज छोड़ दोतुम्हे दहेज में बीस हजार रूपये जरुर देने पड़ेंगे।10 इस प्रकार देखा जा सकता है कि समाज की मुख्य समस्याओं में दहेज की भी है।
समाज की रीढ़ नौकरशाही मानी गयी है। वर्तमान समाज में संचालित नौकरशाही व्यवस्था की हकीकत को भी फिल्मों में दिखाया गया है। ऐसी ही फिल्म है टी. प्रकाश राय द्वारा निर्देशित घर-घर की कहानी” इस फिल्म में उजागर किया गया है कि किसी भी सरकारी दफ्तर में प्रवेश द्वार से ही रिश्वत का पहिया लगा होता है। इस फिल्म में चपरासीहेड क्लर्क रिश्वत के पहिये लगा कर ही फाइल को अग्रेषित करते हैंसब की मिली भगत से ही होने वाला यह सफेद वस्त्रों के पीछे काला खेल इस फिल्म में प्रस्तुत  किया गया है। एक तरफ ईमानदार अफसर अपने बच्चों की शैक्षिक आवश्यकताओं में भी सहयोग प्रदान नहीं कर पाता दूसरी तरफ रिश्वतखोर कर्मचारी शौक करते है। धुम्रपानशराबखोरीसमाज को खोखला कर देती हैं। कई समस्याओं के मूल में यह विद्यमान रहती हैं। आर्थिक समस्या के मूल में भी यह समस्या है सामाजिक मूल्यों को विघटित करने वाले  कई पक्षों को इस फिल्म में प्रस्तुत  किया गया है।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि पारिवारिक विघटनदाम्पत्य जीवनदहेज-प्रथायुवा पीढ़ी का पाश्चात्य संस्कृति की ओर बढ़ता आकर्षणभ्रष्टाचार आदि सामाजिक समस्याओं को सिनेमा के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। सिनेमा में बिखरते मूल्यों को दिखाकर समाज की सांस्कृतिक स्थिति की तस्वीर को प्रस्तुत किया गया है। इसके पीछे फिल्मकार का उद्देश्य व्यक्ति को भावनात्मक रूप से प्रभावित कर उसे सामाजिक मूल्यों की ओर प्रेरित करना है निःसंदेह हिंदी सिनेमा ने समाज से विगलित होते मानव मूल्यों को रुपहले पर्दे पर उकेर कर समाज में यह सन्देश प्रसारित करने का प्रयास किया है कि भारतीय संस्कृति के मूल्यों को जीवित रखना है तो उन्हें जीवन में भी उतारना है।
संदर्भ सूची:-
  1. सामाजिक यथार्थ का बदलता संदर्भख्वाजा अहमद अब्बास (हिंदी सिनेमा का सच)पृ. -22
  2. डॉ.सी.भास्कर राव ,समकालीन हिंदी सिनेमा पृ. -43
  3.ये कैसा इंसाफ‘ फिल्मसन् 1980प्रोड्यूसर एल.वी. प्रसाद
  4. वही फिल्म5 वही फिल्म6 वही फिल्म,
  7 ’पराया घर’ फिल्मसन् 1989निर्देशक-कल्पतरू,
  8. वही
  9.ये कैसा इंसाफ‘ फिल्मसन् 1980प्रोड्यूसर एल.वी. प्रसाद
 10. वही फिल्म।

जयप्रकाश कर्दम के उपन्यासों का स्त्रीवादी स्वर
सुनील कुमार, हिंदी विभाग, राजकीय महाविद्यालय, रूद्रप्रयाग, उत्तराखण्ड  मो0 9719356047

Jayprakash Kardam‘s novel ‘Chappar’ is a master piece of social realism – even though the plot itself is Utopian - Ajay Navariya‘s novel can be interpreted as an effort to transcend the stereotypes of social realism (yathaarthvaad) and manierism (kalaatmaktaa). The narrative structure of “Chappar” corresponds closely to the classicalsocially realistic narrative structure developed in the 1920s and 1920s, and to Premcand‘s Godan (1936) in particular. At the same time, the Utopian transformation of a village from a cast bound feudal society to a modern and egalitarian village commuty deviates very strongly from the pessimism in much of Premcand‘s writing in general and Godan in particular. This vision of how a new humanism replaces hierarchical order as a result of the resolute activity of a Dalit hero and the repercussions of his activities within the village as a whole is a somehow unique piece of Dalit literature, contradicting the social pessimism dominating fictional Dalit writing. “Udhar ke log” reflects an advanced level of literary and psychologicalreflexivity and displays a much more “post-colonial” type of Dalit narrativity. The plot isfocused on the personal narrator, who is himself a middle class young male Dalit and his partly traumatic experiences and communications.
The novel explains his social interaction, including the interaction with western academics, and his exposure to the mixture of modernity and traditionalism he is constantly exposed to. The story illustrates contemporary middle class Dalit discourses beyond the social idealism of “Cappar”. The focus of his reflexivity and the narration is the suicide of his first wife, a self conscious Brahmin woman, which perhaps was intended to blackmail him emotionally. In the end, the feeling of guilt and the psychological disorder originating from this event is only overcome by the mutual and personal love between him and his second wife, becoming parents – a kind of deep love, transcending any social determinations it is embedded into.
The notion of Dalits as being victims of material and cultural deprivations has been an abiding theme that has often functioned to legitimize State measures to alleviate their inhuman condition. Yet despite the Indian State’s use of constitutional provisions together with legal remedies, to uplift the Dalits, this condition of victimhood persist. Even Dalits participation within the democratic process has provided only some of the Dalits with a sense of political visibility and empowerment. How does one account for this persistence of Dalit victimhood in modern Indian society?.In this paper i argue that the continued reproduction of Dalit victimhood also servesto perpetuate Caste ideology and practice in modern Indian society. Not only does victimhood perpetuate the condition of dependency on State amongst Dalits, more crucially it deflects the dalit struggle from a critical engagement with Caste annihilation. By inverting the caste gaze back onto its victims, untouchability and its debilitating conditions becomes exclusively a Dalit problem to be resolved by Dalits themselves with the help of an instrumental state apparatus. In assessing the condition of Dalit victimhood in modern India, I critically engage with the ideas of both Ambedkar and Gandhi to understand the radically different ways in which they sought to bring Dalits out of Victimhood. In my paper, I suggest that both Ambedkar and Gandhi have been selectively appropriated and Idolized by their respective supporters. Their effectiveness in the struggle against caste annihilation has thus been greatly diminished. Both Ambedkar and Gandhi envisaged a situation beyond Victimhood for the Dalits. Both saw the resolution of untouchability through a critical engagement with caste consciousness in modern Indian society. But in the feminist movement, writers did not take a conscious note of the caste injustice dalit women are subjected to. Their perception ‘all women are dalit’ led to a flattening of the woman’s question. This led dalit, bahujan women writers to initiate ‘dalit feminism’ in 1990. The discussions revolved around satyashodhak (truth seeking) feminism born out of the adivasi, dalit, bahujan woman’s question and non-brahminist feminism. At last they declared that, ‘Feminism is attainable and will be successful only when the dalit woman on the lowest rung achieves freedom from all social restrictions and commodification.’ They built their feminism on this ideological premise.
Marred and sidelined by mainstream feminism, Dalit women took it upon themselves to give vent to their experiences and concerns; moving from the periphery to the centre. These women produced volumes of literature such as autobiographies, poetry, and short stories etc. that speak for the Dalit women’s identity and champion the cause of the Dalit movement. Dalit women poets talk differently from their male counterparts and upper caste women, usurping and transgressing the territory monopolised by male and later by mainstream feminists.
His main concern has been to introduce the socio-economic and political, religious backwardness and exploitation of dalits to sensitize the society to make their attitude towards dalits positive. Dalit literature has become the central point of the Indian literature now. It has created an important discourse, which has raised the burning questions related to the problems of the Dalits and made the society awakened about it. In spite of the fact that there are so many writers, critics etc. who still do not accept or recognize Dalit literature, it has increasingly acquired the space in the world of literature. Today Dalit literature is included in the syllabi at under-graduate and post graduation level and a large number of research works have been done and are being done in different universities in India and abroad. In fact, Dalit literature has broken the silence and non-livingness of the literature and made it living and progressive. Considering the journey of Dalit literature by now, it can be said that the future of this literature is very bright. 
जयप्रकाश कर्दम एक ऐसे समकालीन साहित्यकारों में हुये हैं। जिन्होंने साहित्य की हर विधा पर लेखनी चलायी। इसके साथ ही इनकी हर विधा में शोषण के प्रति आक्रोश एवं प्रतिकार है। इनके उपन्यासों में स्त्री पात्रों को मुख्य भूमिका में चित्रित किया गया है। आधुनिक भारतीय समाज में स्त्री को जिन मूलभूत आवश्यकताओं के कारण जूझना पड़ रहा है। उसे किस प्रकार के संघर्षों का सामना करना पड़ रहा है। जयप्रकाश कर्दम ने उन संघर्षों को यथार्थ रूप में अपने उपन्यासों में चित्रित किया है। जयप्रकाश कर्दम ने अपने उपन्यासों के माध्यम से स्त्रियों की दशा को यथार्थ रूप में उजागर करने का साहस किया है। कैसे एक स्त्री को बचपन से ही संघर्षों के साथ आगे बढ़ना पड़ता है। उसके लिए जीवन का कोई भी दौर आसान नहीं होता है। लेकिन फिर वह इन संघर्षों की राह पर चलकर अपने पदचापों के ऐसे निशान स्थापित कर देती है। जो समाज में मील के पत्थर के रूप में स्थापित हो जाते हैं। जयप्रकाश कर्दम के उपन्यासों की स्त्री पात्र भी अपने जीवन संघर्षों पर चलकर समाज में एक ऐसी सीख स्थापित कर देते हैं। जो समाज को स्त्रियों के प्रति अपनी संकीर्ण विचारधारा को बदलने के लिए विवश करती हैं। अपने पदचापों के माध्यम से समाज को कल्याणकारी एवं प्रगतिशील विचारधारा के ओर अग्रसर करती हैं।  
जयप्रकाश कर्दम के उपन्यास छप्पर’ में स्त्री के उस मर्म को उजागर किया गया है। जो इस उपन्यास से पहले बहुत ही कम उपन्यासों में देखने को मिलता है। इस उपन्यास की स्त्री पात्र रमिया के माध्यम से जयप्रकाश कर्दम ने आर्थिक रूप से पिछड़ी स्त्रियों के जीवन संघर्ष को अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है।कि रमिया जैसी हजारों स्त्रियां विवाह से पूर्व कैसी स्वप्नमयी होती हैं। लेकिन जैसी ही विवाह उपरांत वह यथार्थ के धरातल पर कदम रखती है। तो कैसे उनके स्वप्न रूपी सौन्दर्य चकना¬चूर हो जाता है। सुक्खा के माध्यम से जयप्रकाश कर्दम रमिया की दशा को कुछ इस तरह से अभिव्यक्त करते हैं- जब दुल्हन बनकर आयी थी रमिया तो कैसी सुन्दर लगती थी-कबूतरी सी। कैसे अपने चपल हाथों से जल्दी¬जल्दी घर का काम निपटाकर मेरे काम से लौटने का इन्तजार करती थी। उसकी चूड़ियों की खनक से कैसा संगीत¬सा घुला रहता की वह चमकवह रौनक सब बीते कल की बात हो गई है। सदां गुलाब के फूल की तरह खिला¬खिला रहने वाला उसका सुन्दर शरीर अब सूखकर कैसा कांटा सा हो गया है। कैसी काठ सी हो गई है कल की वह कबूतरी1 जयप्रकाश कर्दम ने अपने छप्पर उपन्यास के माध्यम से ग्रामीण क्षेत्र की स्त्रियों के साथ¬साथ शहरी क्षेत्र की स्त्रियों की आर्थिक दशा को भी उजागर करने का प्रयास किया। कि कैसे तंग हाल जीवन जीने के लिए शहरी क्षेत्र की गरीब महिलाऐं आधुनिक सदी में भी मजबूर हैं। जयप्रकाश कर्दम ने इस गरीबी के अभिशाप को झेलने वाली इन स्त्रियों के मर्म को ऐसे यथार्थ के साथ उजागर किया है। कि आज के विकसित समाज को स्वयं पर लज्जा महसूस करने लगेगा। कि कैसे एक वर्ग धन सम्पन्न है और एक वर्ग ऐसा है। जिसके पास मूलभूत आवश्यकतायें भी नहीं हैं।
उपन्यास का पात्र चंदन जब शिक्षा ग्रहण करने शहर जाता है। तो उसे वहां भी गरीबी वैसे ही दिखाई देती है। जैसे ग्रामीण क्षेत्रों में है। जयप्रकाश कर्दम ने चंदन के माध्यम से शहरी क्षेत्र की गरीब महिलाओं के मर्म को अभिव्यक्त करते हैं- बहुत सी औरतों के पास यहां भी मैली-कुचैली सी सिर्फ एक साड़ी होती हैसस्ती सी कच्चे-पक्के रंगो की। दूसरी साड़ी के अभाव में बहुत सी औरतें नहा-धो नहीं पाती महीनों तक। इतना ही नहींबहुत सी गर्भवती औरतों को फुटपाथ पर ही खुले आकाश के नीचे बच्चे पैदा करने पड़ते हैं।2 जयप्रकाश कर्दम ने छप्पर उपन्यास की पात्र रमिया के उस संघर्ष से समाज को अवगत कराने का प्रयास किया है। जिसे हर गरीब स्त्री को जीवन भर भोगना पड़ता है। रमिया के पति सुक्खा को जब लगान का पता चलता है। तो उसके चेहरे पर परेशानियां साफ दिखाई देने लगती है। जो रमिया उसके चेहरे के भाव को पहचान लेती है।
जयप्रकाश कर्दम ने स्त्रियों के मनोविज्ञान को पढ़ने के उस हुनर का भी खूबसूरती के साथ वर्णन किया है और यह सच भी सामने लाने का प्रयास भी किया है। कि कैसे स्त्री जीवन-संगनी होने के अपने कर्तव्य को संपूर्ण जीवन भर पूर्ण समर्पण के साथ निभाती है। साथ ही संपूर्ण परिवार के दुखों को अपने कंधों पर उठाने के लिए जुजारू बनी रहती है। छप्पर उपन्यास की पात्र रमिया के माध्यम से जयप्रकाश कर्दम ने रमिया जैसी स्त्रियों के अपने पति के साथ संघर्षरत् जीवन का मर्म चित्रण प्रस्तुत किया है। कैसे एक स्त्री अपने परिवार के सुख-दुख को निभाती है। जयप्रकाश कर्दम छप्पर उपन्यास की पात्र रमिया के माध्यम से अभिव्यक्त करते हैं कि- मैं तुम्हारी जीवन संगनी हूँ। तुम्हारा सुख-दुख मेरा सुख-दुख है। दोनों मिलकर सोचेगें-करेगें तो क्या पता हमारी तकलीफ खत्म हो जाए....या सोचते हो कि मैं बुढ़िया हो गई हूँ और किसी काम की नहीं रहीतुम्हारी कोई मद्द नहीं कर सकती मैंपर देखो बुढ़िया जरूर हूँ मैं और उम्र से गिर गई हूँ। यह मेरे वश की बात नहीं है। लेकिन हिम्मत और हौसले में किसी से कम नहीं हूँ मैं अभी भी। बड़े से बड़े त्याग कर सकती हूँ मैं तुम्हारे लिए चंदन के बापू3
जयप्रकाश कर्दम ने छप्पर उपन्यास की पात्र रमिया के माध्यम से अभिव्यक्त किया है। कि आर्थिक संकट आने पर आने पर गरीब परिवारों के ऊपर कैसी मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ता है। रमिया जैसी अनेक स्त्रियां इस विषमता मूलक समाज में मिल जायेगी। जिनके पास तन ढकने तक के लिए कपड़ा नहीं है। कैसे नंगे पैर काम करते हुए उनके पैरों पर जख्म बन जाते हैं। आर्थिक अभावों के कारण कैसे आज भी हमारे देश में रमिया जैसी महिलाऐं मूलभूत आवश्यकताओं के अभाव में जीने को विवश हैं। इस मर्म को रमिया के माध्यम से जयप्रकाश कर्दम अभिव्यक्त करते हैं- जेवर के नाम पर जो एकाध चीज थी रमिया के हाथ-पांव में वह पहले ही बिक चुकी है। हाथ-पांव नंगे रह गए हैं बेचारी रमिया के भी। दिन-रात नंगे पांव कील-खोबडों में चलते-फिरते तलुओं में जख्म बन गए हैंएक जोड़ी जूती तक नसीब नहीं हो पाती। एक-दो गजा तहमद और फटा-सा मैला-कुचैला कुर्ता है सुक्खा के पास और एक पेटीकोटकमीज और ओढ़ना रमिया के पासउनमें भी जगह-जगह थेकली लगी हैं।4
जयप्रकाश कर्दम ने छप्पर उपन्यास की पात्र कमला के माध्यम से समाज में आर्थिक रूप से निर्बल लड़कियों के साथ होने वाली सामूहिक बलात्कार जैसे जघन्य अपराध को समाज के सामने लाने का प्रयास किया है। कि कैसे बाहुबली अपने धन बल के द्वारा गरीब लड़कियों को अपनी हवस का शिकार बनाते हैं। और कमला जैसी लड़कियों को नाजायज संतान पैदा करने के लिए विवश कर देते हैं। जिनसे उनका जीवन इतना संघर्षमय हो जाता है। कि उसे शब्दों में भी बयां नहीं किया जा सकता है। जैसे कि छप्पर उपन्यास की पात्र कमला को उपन्यास के पात्र चंदन के द्वारा जब उसके बेटे के पिता का नाम पूछा जाता है। तो वह जो बताती है। उससे एक सभ्य समाज के पैरों के नीचे से जमीन खिसकती नजर आती है- हां बाबू साहब। एक होता तो बता देतीलेकिन एक नहीं कई थे वे लोग।5 बलात्कार की शिकार स्त्रियों के साथ पुलिस भी कैसा दुव्र्यवहार करती है। जयप्रकाश कर्दम ने अपने उपन्यास छप्पर में कमला के साथ हुयी सामूहिक बलात्कार की घटना के द्वारा उजागर किया है। कैसे दंबगों के द्वारा इस जघन्य अपराध को अंजाम देकर कानून को अपनी पहुँच में कर लेते हैं। जिसके कारण कानून के इन रक्षकों द्वारा आर्थिक रूप से निर्बल महिलाओं के साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता है। जब कमला का बापकमला के साथ हुयी सामूहिक बलात्कार की घटना की रिपोर्ट लिखवाने के लिए थाने जाता है। तो कैसे पुलिस के द्वारा उनके साथ दुव्र्यवहार किया जाता है। जयप्रकाश कर्दम ने इस मार्मिक दंश को कमला के माध्यम से उजागर किया है- बापू गए थे थाने में रिपोर्ट लिखवाने लेकिन थानेदार की जेब मालिक ने पहले ही भर दी थी। रिपोर्ट लिखने के बजाए बापू को मार कर भगा दिया थानेदार ने।6
छप्पर उपन्यास की पात्र कमला के द्वारा जयप्रकाश कर्दम ने कमला जैसी अन्य स्त्रियों के संघर्ष को समाज के सामने लाने के लिएमेहनत मजदूरी का कार्य करती है। कि अपने बच्चों को एक अच्छा भविष्य दे सके। जयप्रकाश कर्दम ने आर्थिक रूप से निर्बल लड़कियों के खूबसूरत होने पर अपने आप को दोषी मानने के मर्म को उजागर करने का प्रयास किया है। कमला कहती है- मेरा दोष यही था कि मेरा रंग दूसरी लड़कियों से थोड़ा साफ था और मेरे नाक-नक्शा दूसरी लड़कियों से थोड़े अच्छे थे।...काश में बदसूरत होती तोकम से कम मेरा जीवन बर्बाद नहीं होता।7 जयप्रकाश कर्दम ने स्त्री मन का अदभुत सौन्दर्य चित्रण अपने छप्पर उपन्यास में रमिया के माध्यम से किया है। कि कैसे एक स्त्री पहले अपने विवाह के सपने देखती हैविवाह होने के बाद बच्चों का पालन-पोषण करती है। फिर उसके विवाह के बारे में सोचने लगती है। कि उसके घर में बहु आयेगीउसके घर में भी नाती-पोते आयेगें। तो बुढ़ापे में नाती-पोतों और बहु के साथ जीवन खुशहाली के साथ व्यतीत हो जायेगा। कई सपने उसे सोने नहीं देते हैं। लेकिन उसके सपने सच तो होते हैं। लेकिन संघर्ष फिर भी कहीं समाप्त होने का नाम नहीं लेता है। उसका संघर्ष आजीवन चलता रहता है। जयप्रकाश कर्दम रमिया के सपनों के सौन्दर्य को कुछ इस तरह से अभिव्यक्त करते हैं- वर्षों से एक सपना संजोये हुए थी रमिया अपने मन में कि घर में बहु आयेगी। छम-छम करती फिरेगी सारे घर में। पोते-पोती होंगेकिलकारी मारते फिरेगें आंगन में। घर खुशियों से भर जायेगा। जब कभी वह इस विषय में सोचती उसका मन उल्लास से भर जाता।8
जयप्रकाश कर्दम ने छप्पर उपन्यास की पात्र रजनी के द्वारा समाज के सामने यह आदर्श रखने का प्रयास किया है। कि शिक्षित सवर्ण युवतियां कैसे समाज की दिशा एवं दशा को बदल सकती हैं। कैसे वह दलित एवं आर्थिक रूप से पिछड़े समाज को समतामूलक धरातल पर लाने का प्रयास कर सकती हैं। जैसे कि छप्पर उपन्यास के पात्र ठाकुर हरनाम सिंह की बेटी रजनी ठाकुर होते हुए भी चमार जाति के चंदन के प्रति सवर्ण समाज के द्वारा किये जा रहे अन्याय का विरोध करती है। और अपने पिता हरनाम सिंह को समझाते हुये कहती है- संविधान के अनुसार देश के प्रत्येक नागरिक को सम्मान और स्वाभिमान पूर्वक जीने का हक है। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी स्वेच्छानुसार व्यवसाय चुनने और जीवन की दिशा निर्धारित करने की स्वतंत्रता है।9 किस प्रकार आज भी सामंतवादी सोच अपना विशिष्ट स्थान बनाये हुये है। ऐसी सामंती सोच वालों को बदलने के लिए समाज में रजनी जैसी प्रगतिशील सोच वाली युवतियों का आगे आना और समाज को सही दिशा की ओर अग्रसर करना एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी बन जाती है। किस प्रकार  अपने पिता ठाकुर हरनाम सिंह को दलित एवं आर्थिक रूप से निर्बल लोगों के विकास की राह में रोड़ा बनने पर रजनी अपने पिता हरनाम सिंह का प्रतिरोध करती है और कहती है- लेकिन अपने स्वार्थ की खातिर दूसरों को बलि बनाना तो उचित नहीं है। किसी को मूर्ख बनाकरधोखे में रखकर अथवा जबरदस्ती से अधिक समय तक उसका शोषण नहीं किया जा सकता। 10
रजनी अपने पिता ठाकुर हरनाम सिंह की सोच बदलने के लिए प्रयास करती है और उन्हें कई प्रकार के तर्क देकर समझाती है। जयप्रकाश कर्दम छप्पर उपन्यास की सवर्ण पात्र रजनी के द्वारा शिक्षित सवर्ण समाज की सामाजिक विषमता को दूर करने में क्या भूमिका हो सकती है। इस तथ्य को उजागर करने का प्रयास करते हैं। रजनी अपने पिता हरनाम सिंह से कहती है- लेकिन पिताजीवे भी तो मनुष्य हैं। एक मनुष्य दूसरे का शोषण करे यह कहां का औचित्य है ?“11 जयप्रकाश कर्दम ने रजनी जैसी युवतियों के स्वर में परिवर्तन की गूँज भरी हुयी है। जो समाज में धीरे-धीरे ही सही गूँज रही है। एक दिन यह परिवर्तन का नाद सारे समाज में सुनायी देगा। लेकिन इस परिवर्तन में स्त्रियों की महत्वपूर्ण भूमिका होगी। उनकी भूमिका के बिना परिवर्तन लाना सम्भव नहीं है। रजनी ने एक समाज विशेष की अस्मिता की रक्षा को ध्येय बनाकर अपने पिताजी ठाकुर हरनाम सिंह से कहती है- अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए आप इतने चिन्तित हैं। लेकिन जिनका आप दमन कर रहे हैं उनके बारे में सोचा है कभी। उनकी भी तो कुछ अस्मिता होगी।12
छप्पर उपन्यास की रजनी एक ऐसी स्त्री पात्र है। जो रूढ़ियों को बदलने के लिए प्रयासरत् है। वह अपनी जिद् पर अड़ी हुयी है। कि जो समाज में यह खोखली व्यवस्था बनी हुयी है। इसे समाप्त किया जाना चाहिएक्योंकि इससे एक समाज विशेष का शोषण हो रहा है। ऐसी कोई भी व्यवस्था जो किसी वर्ग विशेष के विकास की राह में अवरोधक का कार्य कर रही हैउस व्यवस्था को ऊखाड़ फेंक देना चाहिए। छप्पर उपन्यास की रजनी एक ऐसी स्त्री पात्र हैजो सामाजिक समता के लिए किसी भी प्रकार का समझौता नहीं करती। बल्कि सामाजिक विषमता को समाप्त करने के लिए प्रयासरत् है। यह बदलाव वह अपने ही घर से शुरू करती है। वह अपने पिता हरनाम सिंह से कहती है- कौन कहता है व्यवस्था को बदला नहीं जा सकता। आखिर आदमी की ही तो बनाई हुई हैं सारी व्यवस्थाएंऔर सारी व्यवस्थाएं आदमी के लिए ही हैं। तब,  यदि किसी व्यवस्था में दोष हो और वह उत्थान की बजाय पतन का कारण बनती होतो उसे अवश्य बदला जा सकता हैऔर बदला जाना चाहिए। 13
लेकिन छप्पर उपन्यास का सामंती पात्र ठाकुर हरनाम सिंह अपनी बेटी रजनी के समझाने पर समझता नहींबल्कि कहता है। उन्होंने किसी समुदाय विशेष पर कोई अत्याचार नहीं कियाकिसी का शोषण नहीं किया। बल्कि यह तो समाज की परम्परा है। इसे बदला नहीं जा सकता है। इस पर अपने पिता ठाकुर हरनाम सिंह को कासूरवार मानते हुये रजनी कहती है- कसूर है आपका पिताजी ! बेकसूर नहीं हैं आप भी। यदि परम्पराएं गलत हो जन विरोधी होयदि व्यवस्था दोषपूर्ण हो तो उसका विरोध किया जाना चाहिए और यदि करने की सामथ्र्य या साहस नहीं तो कम से कम इतना किया ही जा सकता है कि हम स्वयं उस व्यवस्था और परम्पराओं को न मानें।14 इस प्रकार जयप्रकाश कर्दम के उपन्यास छप्पर के स्त्री पात्र रमिया और रजनी ने अपने संघर्ष एवं दृढ़-इच्छा शक्ति से समाज में परिवर्तन की धारा को प्रभावित किया है। जयप्रकाश कर्दम के इस उपन्यास में स्त्री को याचक के रूप में प्रस्तुत न करके उसे संघर्षशील एवं लगनशील व्यक्तित्व के रूप में प्रस्तुत किया है।
इस तरह जयप्रकाश कर्दम का दूसरा उपन्यास करूणा’ स्त्रीवादी स्वर को लेकर ही लिखा गया है। इस उपन्यास की मुख्य पात्र ही स्त्री है और उसी के नाम पर इस उपन्यास का नामकरण भी किया गया है। करूणा अपने मां-बाप की इकलौती संतान थी। किसी भी प्रकार के सुख सुविधाओं की कमी नहीं थी उसके पास। काॅलेज में उसकी दोस्ती रमेश नामक युवक से हो जाती है। दोनों एक दूसरे के प्रेम में बंध जाते हैं। रमेश पढ़ाई पूरी करने के बाद नौकरी की तलाश में लग जाता है। लेकिन उसे कहीं भी नौकरी नहीं मिल पाती है। उस समय सरकार की नसबंदी योजना चल रही थी। जो नसबंदी करवायेगा उसे नौकरी दी जायेगी। रमेश के परिवार की आर्थिक स्थिति दिन प्रति दिन बिगड़ती जा रही थी। इस कारण उसने विवाह से पूर्व ही अपनी नसबंदी करवा दी। जिसका परिणाम उसके परिवार के साथ ही करूणा को भी भुगतना पड़ा। क्योंकि एक दिन रमेश के साथ ऐसा हादसा हो जाता हैजो करूणा और रमेश दोनों की जिंदगी को पूरी तरह बदल देता है। एक दिन रमेश कुछ सोचता हुआ सड़क पर जा रहा था कि अचानक एक तीव्र गति से आते हुये एक वाहन से टकरा गया। उसके कटी-प्रदेश पर भीषण आघात लगा। दो महीने की जद्दो-जहद के पश्चात वह ठीक तो हो गया लेकिन...वह इस काबिल नहीं रहा था कि वह विवाहित जीवन व्यतीत कर सके।15
इस घटना से करूणा को बहुत बड़ा आघात लगा कि उसने प्रेम में त्याग की ऐेसे मिशाल प्रस्तुत की जो बहुत कम ही देखने को मिलती है।  उसका मन संसार की मोह माया से भंग हो गया और करूणा ने बौद्ध भिक्षुणी का जीवन धारण कर लिया। इस उपन्यास के माध्यम से जयप्रकाश कर्दम ने बेरोजगारी एवं आधुनिक समय की आर्थिक स्थिति को उजागर करने का प्रयास किया है। कि कैसे आर्थिक स्थिति खराब होने के परिणाम एक परिवार के संपूर्ण सदस्यों को भुगतने पड़ते हैं। इस उपन्यास की एक स्त्री पात्र रीता के पिता की मृत्यु हो जाने के कारण उसे अपनी पढ़ाई कैसे बिगड़ती आर्थिक स्थिति के कारण बीच में ही छोड़नी पड़ती है। अखिलेश से छोटी एक लड़की थी रीता। इस समय रीता की आयु सोलह-सत्रह वर्ष की रही होगी। आठवीं क्लास पास करने के बाद उसकी पढ़ाई रूक गयी थी। उसके मन में आगे बढ़ने की तीव्र इच्छा थी किन्तु पारिवारिक परिस्थितियों की विषमता के कारण उसे अपना मन मार कर ही पढ़ाई बीच में ही छोड़ देनी पड़ी थी।16
जयप्रकाश कर्दम ने करूणा उपन्यास के माध्यम से उस ज्वलंत मर्म को अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है। जिसके कारण कई जवान होती इच्छाएं असमय ही बूढ़ी और जर्जर हालात में पहुंच जाती हैं। और कुछ ऐसी भी परिस्थितियां सामने लाने लगती हैं। जिसके कारण जीती-जागती जिंदगी मृत्यु का वरण कर देती है। जयप्रकाश कर्दम ने आर्थिक रूप से निर्बल परिवार की लड़कियों की विवाह की समस्या को मार्मिक रूप से उजागर करने का प्रयास किया है। करूणा उपन्यास की पात्र रीता के बारे में जयप्रकाश कर्दम कहते हैं- रीता दिन प्रतिदिन घास-फूंस की तरह बढ़ती जाती थी। उसके अंग-अंग से यौवन प्रस्फुटित होने लगा था। अमीर की बेटी भले ही घर पर ही जवान क्या बूढ़ी क्यों न हो जायउसकी ओर कोई अंगुली नहीं उठाता किन्तु गरीब परिवार की बेटी का उम्र होने पर घर रहना ठीक नहीं होता। लोक-लाज का भय बना ही रहता है। बड़े लोगों पर तो लोक लाज का कोई प्रभाव नहीं पड़ताकिन्तु छोटे लोगों के लिए जीवन-मरण का प्रश्न बन जाता है।17 आर्थिक तंगी के कारण गरीब परिवार के लोगों के लिए लड़कियों का विवाह करना बोझ बन जाता है। क्योंकि हमारे समाज में दहेज रूपी दानव का ऐसा प्रचलन हो गया है। जिसने हजारों युवतियों के जीवन की आहुति लेकर अपने इस दहेज रूपी कुंड में समा दिया है। हमारा समाज चांद-तारों को छूने की बात करता है। लेकिन आज भी संकीर्ण मानसिकता के साथ जी रहा है। इस संकीर्ण मानसिकता में अशिक्षित व्यक्तियों की अपेक्षा अधिक प्रतिशत शिक्षित व्यक्तियों का है। जिन्हें समाज के सामने एक आदर्श प्रस्तुत करना होता है। वे ही समाज के सामने संकीर्ण विचारों की आग को जलाये हुए हैं। जिससे समाज इस दहेज रूपी अंधकार से बाहर निकलने का नाम ही नहीं ले रहा है। स्त्री शिक्षा के द्वारा ही समाज को इस अंधकार रूपी कुएं से बाहर निकाला जा सकता है। क्योंकि जब महिलाएं शिक्षित होगीअपने अधिकरों के प्रति सजग होगी तो तब उन्हें कोई भी इस दहेज रूपी दानव के रूप में प्रताड़ित नहीं कर सकता है।
लेकिन समाज में रीता जैसी युवतियां भी हैं। जिन्हें पहले अपने माता-पिता के घर में आर्थिक निर्बलता का दंश झेलना पड़ता है। और किसी प्रकार उनकी शादियां हो भी जाती हैं। तो ससुराल में भी उन्हें कई प्रकार के दंश झेलने पड़ते हैं। किसी महिला की संतान न होने की स्थिति उस महिला के लिए जीवन ऐसा संघर्ष बन जाता है। जिसे किसी भी स्थिति में नहीं सहा जा सकता है। ऐसा ही उपन्यास की पात्र रीता के साथ भी होता हैबड़ी कठिनाइयों के साथ उसका विवाह होता है। लेकिन विवाह के बाद जब उसके गर्भ से संतान नहीं होती है। तो उसके ससुराल वालों के द्वारा उस पर अनेक प्रकार के अत्याचार किये जाते हैं। और अंत में रीता जीवन के संघर्ष से हार कर मृत्यु का वरण कर लेती है। जयप्रकाश कर्दम इस कुछ इस तरह से अभिव्यक्त करते हैं- अगले दिन प्रातः को सब लोग सोकर उठे किन्तु रीता नहीं उठी। उसे खूब झिझोंड़ा गया। मुँह पर पानी के छीटें भी मारे किन्तु रीता ने आँखे नहीं खोली। वह चिर-निद्रा में डूब गयी थी। उसके क्लान्तमलीन चेहरे पर असंतोष और पराजय के लक्षण थे।18
 जयप्रकाश कर्दम ने करूणा उपन्यास में अंगूरी पात्र के माध्यम से दलित एवं आर्थिक रूप से निर्बल परिवार की युवतियों के साथ सामाजिकआर्थिक एवं राजनीतिक रूप से सशक्त सामंती सोच के लोगों के द्वारा किये जाने वाले बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों का पर्दाफाश करने का प्रयास किया है। कि कैसे अपने धन बल के कारण ये सामंती सोच वाले दलितनिर्धन युवतियों के साथ अमर्यादित व्यवहार करते हैं। जो एक सभ्य समाज के लिए कलंक के समान है। करूणा उपन्यास के पात्र ठाकुर सुखदेव सिंह का पुत्र सूरज गाँव में अयाशी के कामों को अंजाम देता है। जयप्रकाश कर्दम ने अंगूरी के साथ किये गये उसके कुकृत्य को कुछ इस तरह से अभिव्यक्त करते हैं- एक दिन संध्या में जब अंगूरी जंगल से घर लौट रही थी सूरज ने अकेला देख उसे धर दबोचा और बलात्कार करने की चेष्टा की।19 जयप्रकाश कर्दम ने पृ. पात्र के माध्यम से समाज में वेश्याओं के प्रति दृष्टिकोण को भी प्रस्तुत करने का साहस दिखाया है। कि कैसे यही पुरूष प्रदान समाज अपनी अंधी हवस के कारण स्त्रियों को वेश्या बनाता है और जब सूरज जैसा कोई व्यक्ति एक वेश्या को अपनी जीवन संगनी बनाना चाहता है। तो समाज के इन वहसी ठेकेदारों के द्वारा कैसा विरोध किया जाता है। लेकिन सूरज अपने पिता ठाकुर सुखदेव सिंह से कहता है- क्यों एक वेश्या को अपने घर में बैठा लिया तो कौन सा गुनाह हो गया। वेश्या क्या औरत नहीं होती है क्या कमी है पृ. में.......?“20
इस प्रकार जयप्रकाश कर्दम के उपन्यासों के स्त्री पात्रों में स्वाभिमान का स्वर हैउनके अंदर आक्रोश का स्वर है। लेकिन जयप्रकाश कर्दम के स्त्री पात्रों का जीवन आर्थिक एवं सामाजिक रूप से संघर्ष भरा है। लेकिन वे अपने अधिकारों के प्रति एक सजग पहरी की तरह हैं। चाहे छप्पर’ उपन्यास की पात्र रमियाकमलारजनी हो या फिर करूणा’ उपन्यास की पात्र करूणारीताअंगूरीपृ. हो ये सभी समाज की संकीर्ण मानसिकता का शिकार होते हैं। लेकिन रमियाकमलाकरूणारीता जैसे पात्र ही समाज को एक नयी दिशा देने का महत्वपूर्ण प्रयास करते हैं। जयप्रकाश कर्दम के उपन्यास स्त्रीवादी स्वर को केन्द्र में रखकर ही लिखे गये हैं। इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है। कि जयप्रकाश कर्दम स्त्री चेतना एवं विमर्श के पुरोधा लेखक हैं।
संदर्भः-
1. छप्परजयप्रकाश कर्दमपृ. 6प्रथम संस्करण: 2012प्रकाशक: राहुल प्रकाशन30/80गली न0 8विश्वास नगरशाहदरादिल्ली-110032
2. वहीपृ. 10,11
3. वहीपृ. 20
4. वहीपृ. 28
5. वहीपृ. 47
6. वहीपृ. 49
7. वहीपृ. 50
8. वहीपृ. 58
9. वहीपृ. 64
10. वहीपृ. 65
11. वहीपृ. 66
12. वहीपृ. 67
13. वहीपृ. 82
14. वहीपृ. 90
15. करूणाजयप्रकाश कर्दमपृ. 17प्रथम संस्करण: 2007प्रकाशक: कंचन प्रकाशन30/64गली न0 8विश्वास नगरशाहदरादिल्ली-110032
16. वहीपृ. 8
17. वहीपृ. 21
18. वहीपृ. 25
19. वहीपृ. 27
20. वहीपृ. 55                                                       
आधुनिक संदर्भ में कबीर वाणी
डा. अरविन्द्र कौर, अध्यक्षहिन्दी विभाग, ए.एस.कालेजखन्ना (पंजाब)
मोबाइल: 95019-16488 ईमेल : akhindi31@gmail.com

Kabir: a non-believer in God but a firm believer in humanity. The researcher is led to believe that though Kabir was a disciple of Ramananda, he seems to have realised that following a particular set of 150 scriptures inevitably involved blindly believing in some methods, which later would degenerate into rituals and idolising some exponents, without any rational base. In other words, Kabir seemed to be well aware that following any scriptures mostly leads to bigotry and fanaticism and when scriptures rule minds of people a true human voice gets muffled. Kabir might have perceived two threats on the path of Bhakti first, cults, and second, scriptures. The researcher is of the view that a cult does not allow a person to look at things objectively, i.e., one’s observation and reactions are coloured by the philosophy of the cult one follows. Similarly, scriptures can guide one as long as they are taken as great literature but when they acquire the status of words of God and therefore unquestionable dogmas, they hamper our thinking and render us bigoted.
Though Kabir advocated Bhakti, i.e. devotion, his Bhakti seems to be nirguna Bhakti, i.e., not believing in any form of God rather considers God as something that permeates all animates and inanimate things. That is why he appears to deride idolatry as a foolish activity that misguides people to be very much sensitive and responsive to his time and could have jumped to an action when he saw vices like idolatry, superstitions, hypocrisy and futile rites growing rampant in the society. He appeared to have felt an urgent need to curb them. Though he was enlightened, he did not get satisfied with his own enlightenment rather he wanted others to taste the same bliss he had tasted, so he lived among 149 people and invited them to walk on the razor sharp path of the truth.
There seems to be rationality in Kabir’s thinking. Since God is everywhere and in everybody, he seems to believe it to be utterly ridiculous to divide people according to their castes and religions. During Kabir’s days there were said to be a lot of cults, traditions and religions and there prevailed mutual hostility among them. Therefore, Kabir seems to have strongly protested this kind of disparity and division and advocated equality among all people. The researcher thinks that this also has brought about social solidarity among them. With very convincing examples, Kabir explained that the differences are merely differences of naming and are not real.
The rigidity against which Kabir launched a crusade was not an ordinary rigidity; it rather seemed to be a rigidity that had been pushed into people’s mind for a long time. Futile rites and irrational practices such as casteism, idolatry, holy ablution, pilgrimage and fasting seemed to have been deeply rooted in people’s mind. Moreover, it is believed that with the invasion of Mogals there came many more useless rituals. Therefore, Kabir did not seem to have spared anybody who propagated rituals and irrational practices and he appears to have mercilessly attacked mullas, pundits and their disciples who slavishly followed them. Kabir saw that pundits and mullas had not realised the truth but they were simply reiterating words written in scriptures. Kabir demonstrated a very high level of audacity and spoke the truth. He was a saint who thought on his own instead of adhering to the traditional thinking. He was such a spontaneous and original thinker that he must have scoffed at bookish learning. Kabir appears to be of the opinion that the truth is not something to be learnt from books but something to be experienced personally. He thought himself to be radically different from others of his time
Though Kabir’s philosophy seems to support egalitarianism, he was not an ‘egalitarian’ in the strictest sense of the term. Basically, he is believed to be a rebellious visionary who never compromised his principles. Besides, he seems to know that only superficial changes were not going to help society. 145 In a society whose very direction of thinking is fallacious and where people mistake untruth for the truth, a radical change is needed and Kabir seems to have become aware of this need. Kabir might have realised that people’s way of thinking needed to be changed. Consequently, he embarked on a crusade against superstitions and sets of beliefs that were against humanity and the truth. Professor Dwiwedi says: “He was a rebel who completely eradicated outer rituals and practices. His way was not compromise.
सोलहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक का युग संत कवियों का युग माना जाता हैजिनमें सदनात्रिलोचननामदेवरामानंदसेनपीपारैदास आदि के नाम प्रमुख हैं। इन कवियों के इलाबा जिस संत का नाम जीणे परम्पराओं के खुलकर विरोध करने के परिप्रेक्ष में लिया जाता हैउसमें कबीर का नाम मुख्य रूप से लिया जाता है । लोक चेतना में कबीर की प्रतिष्ठा कम नहीं आंकी जा सकती । नाभादास ने भक्तमाल’ में उनका आदरपूर्वक स्मरण किया है । लोकोक्तियों में भी तुलसी’ और सूर’ के बाद कबीर’ का ही महत्व स्वीकार किया गया है । इस महत्व का कारण उनकी दृढ़ आस्थानिर्भीक व्यक्तित्व और अविचल भक्ति रही है । आज कबीर’ को जो महत्व दिया जा रहा हैउसका कारण कुछ और है । आज का कवि और साहित्यकार कबीर की मानसिकता को अपनी काव्य संवेदना के काफी निकट पाता है । यह पूछ जाने पर कि ’’हिन्दी के आदि कवि सरहण’ से लेकर आज के नये से नये कवियों में आपको कौन अच्छे लगते हैं ?’’ प्रभाकर माचवेरघुवीर सहायअजीत कुमारश्रीकान्त वर्मामुद्रा राक्षस और राजकमल चैधरी जैसे कवियों ने कबीर’ का नाम आदरपूर्वक लिया है।’  सम्पूर्ण साहित्य में यही एकमात्र कवि है जिन्होंने जनता को आडम्बर विहीन भगवद् प्रेम की प्रेरणा दी है ।
संत कबीर अध्यात्म सच्चे साधकपरम भागवत् और सिद्ध पुरुष थे लेकिन इससे पहले वे मानवतावादी थे । कबीर अध्यात्म के उस शिखर पर पहुंच चुके थे जहां पर आनन्द ही आनन्द है लेकिन एकात्मता की इस ऊँचाई पर पहुँच कर भी लोक कल्याण की भावना से सटे रहे थे और हृदय से चाहते थे कि मेरे बनाए रास्ते पर चल कर जनता शान्ति प्राप्त करे । उनके युग में भी वही राजनीतिक अवस्था अैर उथल-पुथल थी जो आधुनिक युग में भी देखी जा सकती है । जनता जिस प्रकार आज अनेक प्रकार के संताप और समस्याओं से ग्रसित होकर कष्ट उठा रही हैठीक वही अवस्था उस समय भी थीसमय की दारुण स्थिति देखकर कबीर साहिब चीत्कर कर उठते हैं-
चलती चक्की देख केदिया कबीरा रोय । दो पाटन के बीच मेंसाबुत बचा न कोए ।।
आधुनिक संदर्भ में भी भटकते हुए मानव के लिए दिग्भ्रमित जनसमुदाय के लिए एक सबल मार्गदर्शक की नितांत आवश्यकता है ।’’साहित्य के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि भारत में सदा महान् संतों का आविर्भाव होता रहा हैजिन्होंने अपने पौरुष से तथा आध्यात्मिक ज्ञान से देश की अवस्था को सुधारने और एकता को मज़बूत करने में अपूर्व योगदान दिया । शंकराचार्यविवेकानंदरामतीर्थ आदि का नाम इसी कोटि में आता है ।’’  मनुष्य सदैव ही आनन्द प्राप्त कर मुक्त होना चाहता है और इसका सर्वप्रथम  मात्र है अध्यात्मवाद । कबीर जी ने अध्यात्म के मार्ग पर चल कर आम जनता को एक ऐसा भव्य आलोक प्रदान किया जिससे सम्पूर्ण जत अपना उद्धार कर पाने में सक्षम हो जाए । इसी से ही मनुष्य जीते जी मुक्ति प्राप्त कर सकता है । धर्म ही एकमात्र ऐसा मार्ग है जो सचमुच समाज को नई दिशा प्रदान कर सकता है । अध्यात्म के द्वारा मनुष्य स्वयं की दिशा सुनिश्चित करने में सफल हो सकता है । स्वामी विवेकानंद ने अपनी उद्घोषणा की थी - ’’समाज की यह दशा दूर होगीलेकिन धर्म का नाश करके नहीं वरन् हिन्दु धर्म के महान उपदेशों का अनुसरण करके।’’  इसी प्रकार महर्षि अरविन्द ने भी घोषित किया - ’’धर्म का संरक्षणदुनिया के सामने हिन्दु धर्म का संरक्षण और उत्थान यही कार्य हमारे सामने है ।’’  इस तरह देखा जाए तो जो वाणी कबीर साहित्य से प्राप्त होती है वही वाणी आधुनिक युग में राष्ट्रप्रेमी और समाज के शुभचिन्तकों की दृष्टिगोचर हो रही है । आज भी सत्य के प्रेमीसत्य के अन्वेषक उपेक्षित हैं और आडम्बर वालों की छाप सर्वत्र रग जमा रही है। समय चाहे परिवर्तित हो चुका है किन्तु स्थिति में कोई खास परिवर्तन दिखाई नहीं पड़ रहा । जो संक्रान्ति काल उस समय था और देश जिस कठिन अवस्था में से गुज़र रहा थाठीक वैसी ही स्थिति आधुनिक युग की भी है । इतिहास अपने को दुहराता नज़र आ रहा है । महात्मा गांधी की तुलना कबीर जैसे सत्यनिष्ठ संत से की जा सकती है जिन्होंने देश की स्वतंत्रता प्राप्ति मेंउसकी सुरक्षा और लोकहित के लिए अपने जीवन की बलि दे दी । कबीर ने उस समय जो कुछ कहा थावही इस युग में महात्मा गांधी जी भी कुछ इस तरह से कहते हुए नज़र आते हैं - ’’ईश्वर पूर्ण आत्म समर्पण के बिना संतुष्ट नहीं हो सकता ।’’  जहां एक ओर कबीर वाणी कहती है -
’’माला फेरत युग गयागया न मन का फेर ।
कर का मनका छाड़ि कैमन का मनका फेर ।।’’
इसी प्रकार गांधी जी ने भी भगवान के आगे अपना हृदय अर्पण करने के लिए प्रेरित किया है - ’’प्रार्थना या भजन जीभ से नहींहृदय से होता है।’’
कबीर और गांधी दोनों संत थे - एक पन्द्रहवीं शताब्दी का और दूसरा बीसवीं शताब्दी का । आज की जटिल परिस्थिति में कबीर साहित्य इतना ही मंगलकारी और उपयोगी है जितना वह उनके जीवन काल में था । आज भी भारतीय समाज की वही स्थिति है जो कबीर के काल में थी । समाज बाह्याडम्बरोंभेद-भावोंजाति-पाति के कुचक्रोंव्यभिचार और भ्रष्टाचार जैसी कुरीतियों से आज भी प्रभावित हो रहा है । आए दिन ही समाचार पत्रों में अगलगीदहेज मौतलूटहत्या और आत्महत्या की खबरें छपती रहती हैं । समाज में फैल रही इन कुरीतियों को नष्ट करने और जन-समुदाय में सुख-शान्ति लाने के लिए जिस प्रकार के कबीर जी चिन्तित दिखाई पड़ते हैं । वे तो समाज के ऐसी विचित्र हलात देखकर चकित रह जाते हैं । समाज जिस प्रकार से दुहरी नीतियों पर चल रहा हैउनसे कबीर जी के मन में क्षोभ उत्पन्न होता है । उस समय में इन सभी कुरीतियों का ही बोलबाला था । कबीर जी ने उन सब का खंडन करते हुए कहा -
’’तुम कत ब्राह्मण हम कत सूदहम कत लौहु तुम कत दूध ।
जो तुम बामन बामनि जायाआन वाट काहे नहि आया ।।’’
कबीर सामाजिक जागृति का सन्देश देने वाले ऐसे महान व्यक्ति हैं जिन्होंने केवल उसी समय के जन-जीवन को प्रभावित नहीं किया अपितु आज भी कर रहे हैं । आज भी इनका महत्त्व भारतीय समाज में अक्षुण्ण बना हुआ है और सदैव बना रहेगा । कबीर पंथ की परम्परा में स्वामी अलखानंद लिखते हैं -
’’सिंह ही से स्यार लड़ाई में जीति,
साधु करे चोरि चोर करे नीति ।    
लड्डू लेइ खात स्वाद आवे तीति,
मरीच के  खात स्वाद मीठ मीति ।
ऐसे ही ज्ञान देखो उल्टा रीति ।।’’ 
आधुनिक संदर्भ में कबीर साहित्य प्रत्येक दृष्टिकोण से पूरी तरह प्रासंगिक दिखाई पड़ती है । जिस ज्ञान और अध्यात्म की चर्चा आज के चिंतक और संत समाज कर रहे हैंवही उद्घोषणा कबीर ने अपने काल में की थी । अतः आज भी कबीर साहित्य की सार्थकता और प्रासंगिकता बनी हुई है । अगर कबीर वाणी का प्रचार और प्रसार किया जाए तो आधुनिक समाज उससे पूरी तरह से लाभान्वित हो सकता है । अज्ञानतावश संसार साम्प्रदायिक मतभेदों में पड़ा हुआ हैइन मतभेदों व दंगों का कारण चाहे कुछ भी है इनसे मुक्त करवाने के लिए कबीर वाणी का अस्त्र काम में लाया जा सकता है । विषमता के अन्धकार में डूबी हुई मानवता का उद्धार करने में कबीर वाणी पूर्ण रूप से सक्षम है । कबीर जी ने स्वयं भी मानवता के उद्धार की लड़ाई जीवन पर्यन्त ज़ारी रखी थी । हिन्दु-मुस्लिम जाति का विश्वास व श्रद्धा ईश्वर में था । कबीर जी ने इसी विश्वास के बल पर दोनों जातियों को एक करने का प्रयास किया । ऊँच-नीचजाति-पाति का भेद मिटाकर सबको एक समान सामाजिक स्तर देने का कार्य किया । आज के संदर्भ में भी इसी चीज़ की जरूरत है:-
’’गुप्त प्रकट है एकै दूधाकाको कहिए बाभन-शूद्रा ।
झूठो गर्व भूलो मति कोईहिन्दू तुरुक झूठ कुल दोई ।।’’
कबीर के स्वर में जाति बन्धन का कोई स्थान नहीं है । यह स्वर सारे अलगाववादी विधानों को तोड़कर एक शुद्ध मानव-जाति के निर्माण का द्योतक है । जिसकी आधुनिक समाज में उपय®गिता अधिक स्वीकार की जा रही हैउसके पीछे केवल कबीर की नैतिक मूल्यों के प्रति जागरूक दृष्टि ही है ।
तत्कालीन आर्थिक स्थिति अन्यायमूलक थी । जहां एक ओर शासक वर्ग भोग-विलास का जीवन व्यतीत कर रहा थादूसरी ओर साधारण निरीह जन की स्थिति भी शोचनीय बनी हुई थी । उस निर्बल वर्ग के प्रति कबीर को सहानुभूति थी । वे चाहते थे कि विपन्नता में रहकर भी कमज़ोर वर्ग आनन्द का जीवन व्यतीत करे । उनकी दृष्टि में भक्ति-भजन का महत्व हैधन का नहीं । धन की अधिकता से सुख की प्राप्ति असंभव है । कई बार ज्यादा धन भी दुःख का मुख्य कारण बन जाता है। उनकी दृष्ट में सबसे बड़ा धन सन्तोष है । सन्तोष प्राप्त हो जाने से मन तृप्त हो जाता है । वे कहते हैं -
’’जो सुख पाया राम भजन में, सो सुख नाहीं अमीरी में,
भला-बुरा सब साथ मिले जब, कर गुज़ारा गरीबी में,
मन लागो यार फ़कीरी में ।।’’
जब मनुष्य मन से स्वस्थ हैसन्तुष्ट हैसुखी हैचिंतामुक्त है तो वह अपने पास कुछ न होने पर चिंता में नहीं पड़ता और प्रत्येक चीज़ की प्राप्ति में सक्षम बन जाता हैवास्तब में वही स्थिति होती है जब वह असल में सम्राट कहलाने के योग्य बन जाता है-
साईं इतना दीजिएजा में कुटुंभ समाये । मैं भी भूखा न रहूंसाधू न भूखा जाये ।।
एक जगह कबीर सम्पत्तिवानकाज़ीमुल्ला को खरी खोटी सुनाकर और भला-बुरा कहकर उन्हें धर्म और ईश्वर के प्रति आस्थावान बनाने का प्रयास करते हैं ताकि गरीब जनता के प्रति वे उदार बन सकें और शोषण बंद करें । दूसरी तरफ वे शोषित जनता को धर्म और अध्यात्म की ओर लगाकरविपन्नता के बीच रहकर भी उसे सुखी और शान्तिमय जीवन देने की चेटा में संलग्न हैं । कबीर की यह समन्वय नीति आधुनिक युग के आवश्यक तत्व हैं । आधुनिक संदर्भ में भी इसी समन्वयवादी दृष्टिकोण के प्रसार की परम आवश्यकता है ।
कबीर काल और आधुनिक काल का विश्लेषण करने पर यह पता चलता है कि जो आर्थिक स्थिति पन्द्रहवीं शताब्दी में थीवही आज भी बनी हुई है । कबीर के समय में भ्रष्टाचार चाहे नहीं था किन्तु गरीबों और निर्बलों का शोषण उस काल में भी हो रहा था । पूंजीपति और निर्धन वर्ग उस समय भी थावह आधुनिक युग में भी है । आधुनिक संदर्भ में कबीर जैसे स्पष्ट-वक्ता की आवश्यकता है जो समाज के भ्रष्टाचारअनाचार को उधेड़ कर रख दें । गरीबी-अमीरी के बीच आज जो एक बड़ी खाई बन गई है उसे मिटाने के लिए एक साहसीबलिष्ठ व्यक्ति की आवश्यकता है जो क्रान्तिकारी बनकर पूंजीपतियोंशासकों और समाजविरोधी तत्वों से लोहा ले सके । ऐसी स्थिति में कबीर साहित्य की अनिवार्यता विशेष रूप से बढ़ गई है क्योंकि समस्याएं चाहे वैयक्तिक हों या सामाजिक सबका समुचित समाधान नैतिकता के आधार पर ही संभव हो सकता है ।
कबीर साहित्य का सृजन एक ऐसी विषम परिस्थिति में हुआ थाजब भारत में मुस्लिम शासन अपनी जड़ें जमा चुका था । इस्लाम धर्म का प्रचार शासन के आश्रय में तलवार के बल पर हो रहा था । ऐसी स्थिति में राष्ट्रीय एकता खतरे में पड़ गई थी । अतः राष्ट्रीय हित के लिए कबीर ने अपनी जोरदार व सशक्त वाणी द्वारा जनता का आह्वान किया -
’’हिन्दु तुरुक की एक राह हैसतगुरु सोई लखाई ।
कहहिं कबीर सुनो हो संतोराम न कहूं खुदाई ।।’’
नीति विरोधी कर्म का फल सर्वदा घातक होता है । आधुनिक युग में भी चारों ओर नैतिकता का दिवाला निकल रहा है और जो जीवन मूल्य राष्ट्र नेताओं ने कभी स्थापित किया था सब काफी अंशों में धूमिल जोने जा रहे हैं । अब भी पुरानी पीढ़ी की ओर लौटकर देखने समझने की और उनके विचारों को हृदयागत करने की जरूरत है । कबीर ने राष्ट्रहित के लिए नीति और धर्म के अनुसार कर्म करने की चेतावनी अपने समय में दी थी । महात्मा गांधी ने भी इसी विचारधारा का प्रचार किया था और उन्होंने सत्य और अहिंसा का नारा लगाया। आज तो लगता ही नहीं कि व्यक्ति या सारा समाज कोई आस्था एवं सिद्धांत में बंधा हुआ है । हर तरफ झूठफरेब और हिंसा के अंधकूप में ही धंसता चला जा रहा है । समाज के कर्णधार तथा कथित समाजवादी अपने-अपने विचारों से समाज सुधार की बजाए उनकी तबाही पर तुले हुए हैं । इन विकट परिस्थितियों से बाहर निकालने में सही मार्गदर्शक के रूप में कबीर साहिब ही सामने आते हैं । यद्यपि आज का समय कबीर के समय से भिन्न हैकिन्तु जो समस्याएं आज दिखाई पड़ती हैंवही राष्ट्रीय संकट की परिस्थिति उस समय भी विषम ही थीं । देश उस समय भी हिन्दु-मुस्लिम नीतियों का विरोधी थादेश की अखंडता को लेकर संघर्षरत था । कबीर के समय की जिन ज्वलंत समस्याओं से घिरा है वही समस्याएं आज भी देश को ग्रसित करती दिखाई पड़ती हैं । राष्ट्रीय भावना से आम जनता को जागरूक करने के लिए आज कबीर जैसे निर्भीक व्यक्तित्व की ही आवश्यकता है । उसी से ही राष्ट्र को कश्मीर पर हो रहे पाकिस्तानी आक्रमणपंजाबहरियाणा की समस्याओं से मुक्त करवाया जा सकता है । सभी संतों ने एक स्वर में घोषणा की कि देश में व्याप्त संकटअराजकता  और अन्याय से मुक्ति दिलाने में अगर कोई महत्वपूर्ण साधन हो सकता है तो वह अध्यात्म ही है । इसके आश्रय के द्वारा ही देश को गौरव दिलाकर उसे प्रगति के मार्ग की ओर अग्रसर कर सकते हैं । भारत एक ऐसा देश है जहां संतों का ही निवास रहा है और यह परम्परा अबाध गति से आज तक बनी हुई है । इस युग में भी विवेकानंदअरविन्दमुक्तानन्दसत्यानंदज्योतिर्मयानन्द आदि संतों ने अपने प्रवचनों के द्वारा जन कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया है । अति आधुनिक काल के संत महात्मा गांधी की मान्यता है, ’’आनन्द दूसरों को दुःख देकर नहींबल्कि इच्छापूर्वक स्वयं दुःख झेलने से ही प्राप्त होता है ।’’ आचार्य रजनीश का सुझाव है कि ’’अगर पृथ्वी पर मनुष्य प्रतिदिन ध्यान की साधना करे तो विकास और शान्ति के क्षेत्र में अद्भुत चमत्कार सिद्ध होगा । विज्ञान आज जिस उंचाई तक पहुंच गया हैअध्यात्म योग वहां से शुरू होता है ।’’
भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ. राधा कृष्णन की मान्यता है कि धर्म में अभी भी इतनी क्षमता है कि मानव जाति को ऐसी बहुमुखी सम्पूर्णता की ओर ले जा सकते हैंजिसमें हिन्दु धर्म की आध्यात्मिक ज्योतियहूदी धर्म की आस्था और आज्ञाकारितायूनानी देवार्चन की सुन्दरताबौद्ध धर्म की काव्य करुणाईसाई धर्म की त्याग भावना सम्मिलित हो ।’’   इससे स्पष्ट है कि जो आवाज़ पन्द्रवीं शताब्दी में कबीर ने उठाईउनसे प्रेरणा लेकर आज का संत समाजदार्शनिक व चिन्तक देश की अखंडता इसकी सुरक्षा और शान्ति के लिए उठा रहे हैं ।
निष्कर्ष स्वरूप कहा जा सकता है कि कबीर वाणी अपने समय की प्रगति व बाह्याडम्बरों से मुक्त होने की प्रेरणा देती हैवहीं दूसरी ओर आधुनिक संदर्भ को अपनी वाणी के ही बल पर उलझनों से मुक्ति दिलाने में समर्थ भी बन पड़ी है ।
 इक्कीसवीं सदी में लघुपत्रिका की दिशा एवं दशा
दिव्या जोशीहरियाणा केंद्रीय विश्वविद्यालयशोधार्थी, एम.फिल हिंदी

The magazine and journal periodical is a form of mediated communication that serves a wide variety of functions in society. It contributes to dialogue and debate on critical social and political issues, increases public knowledge that allows for participation in civic and community activities, disseminates and helps define shifts in lifestyles and preferences and offers opportunities for recreation and leisure. With the advent of the twenty-first century, communication media in all their forms are undergoing major changes. Many result from the adoption of digital age technologies, such as the Internet, tablets and proliferating social media, among others.
In this mediated environment, the non-newspaper periodicals commonly known as magazines and journals remain a major social force that affects far more than the general public. The medium is diverse, providing a means of communicating critical information in the workplace, within and across the boundaries of informal and formal communities and organizations of interest, including scientific and scholarly. While some predict new communication technologies foreshadow the demise of the magazine form, others argue the medium will simply adopt and adapt as it has in the past.
In the face of these changes, there is increasing interest in better understanding the sociocultural and organizational factors that influence and shape the medium, its content, effects and role in society. Scholarly inquiry has only begun to examine the multiple facets of the magazine, even as growing evidence suggests systematic research on and related to the medium has begun to achieve critical mass on multiple dimensions and find its place in the larger academic enterprise. New research increasingly draws on prior studies. As scholars around the world engage with the periodical and all media forms from increasingly diverse critical cultural, interpretive and social scientific perspectives, inquiry is being enriched by careful articulation of theoretical and empirical questions, as well as advances in methodological approaches. The parallel infusion of multiple intellectual streams of thought gives increasing evidence of maturation in the scholarly work on the medium, from studies of its history and ongoing social system within the field to questions related to communication problems and structure as they occur in the medium and the institutions that produce its content.
The current practices are a double-edged sword. On the one hand, they signal agreement that there are, among the thousands of periodicals published worldwide, sufficient differences to prevent their all fitting into a single, homogeneous group. On the other hand, referring to a named title or clusters of titles as a type or types implies the existence of a systematic, theory-driven base for categorizing the universe of non-newspaper periodicals that is both generally accepted and meets accepted standards for scientifically based classification, when analyses of the current strategies do not support that assumption. An alternative is working within the genre framework, with its less rigorous requirements for clarity between groups. However, doing so might only further complicate the existing mix of terminology. For the social scientist, the rigor of the typological framework would allow for pulling cross-sectional samples, useful for the building and testing of theory that explains and predicts communication behavior as it occurs through the medium.
The universe of non-newspaper periodicals is large. Conservative contemporary counts suggest anywhere from 9,000 to between 250,000 and 300,000 worldwide; the total may be higher.The wide variance in these numbers results in part from there being no source capable of providing a comprehensive count of the total population of periodicals. That lack in turn is partially a function of how the extant directories, listings and databases define the medium for inclusion or exclusion. Thus the question of how to define the scope of the medium and what is or is not a magazine or other non-newspaper periodical is core to studying the magazine, as attested by multiple scholars over time. A theoretically based framework that clearly articulates the core characteristics and relationships among the multiple dimensions of non-newspaper periodicals would serve both scholar and practitioner, equipping them with new tools to enable them to explore multiple facets of communication as it occurs through periodicals in all their diverse forms and philosophies. The maturation of communication theory and research is intensifying the need for a cogent approach to classifying magazine and journal periodicals. The growing body of theoretical perspectives and methods from social-scientific, cultural and critical perspectives is tapping into increasingly important dimensions of mediated communication. Identifying such a framework could provide a solid foundation for research on the magazine medium, overcoming past tendencies toward fragmentation and barriers to communication research on the magazine medium.
Educators’ greater sensitivity to preparing students to observe, report, write and edit for the spectrum of the medium, young professionals could take into entry-level and later positions both a better understanding of where they might best contribute their talents and a stronger working knowledge of how communication can be better effected through different magazine forms. So, too, scholars embarking on the research path would know the horizons are broader than those defined by the so-called general or consumer magazine, whether historical or contemporary.
किसी भी युग का सम्बन्ध साहित्यपत्रकारिताराजनीति तथा सामाजिकता से जुड़ा होता है। एक साहित्यकार, लेखकरचनाकारविचारक अपने युग की ही उपज होते है। वह अपने युग को बहुत कुछ प्रदान करता है साहित्य, रचना आदि। उन्हीं की मान्यताएं विचारधारा, तत्कालीन  परिस्थितियों तथा परिवेश को प्रभावित करती है। किसी भी युग के साहित्य का बोध ज्ञान तथा नेतृत्त्व का आभास उस समय की पत्रिकाओं से प्राप्त किया जा सकता है। साहित्य विचारधारा को जनमानस तक पहुँचाने का कार्य पत्रिकाओं  के माध्यम से ही होता हैं।
मानव जीवन में पत्रिकाओं का बड़ा महत्व है। पत्रिकाओं को समाज के विचारों और साहित्य के विकास के रूप में माना जाता है। जो साहित्य व समाज में अपना विशेष स्थान रखती है और समाज व साहित्य का निर्माण करती है। पत्रकारिता को आधुनिक युग में पांचवे वेद की संज्ञा दी गई है। पत्रकारिता आधुनिक युग में ज्ञान व विधा के रूप में प्रतिष्ठित है जो आम जनता को अपने दायित्त्व के प्रति सचेत करने का कार्य करती है। पत्रिकाएं सभ्य समाज के लिए बड़ी पूंजी व सबसे बड़ा हथियार व सेवा का माध्यम है। पत्रिकाओं निकालने के लिए आज बहुत वर्षो पहले ‘अकबर इलाहाबादी’ ने एक मूल मंत्र दिया था। ‘‘खीचों  न  कमानों  को  न  तलवार निकालों जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालों।”[1]
हिंदी में लघु-पत्रिका का मतलब लघु आकार, प्रसार का लघु दायरा और प्रकाशन की लघु संरचना है। कथाकार ‘प्रियंवद’ लघुपत्रिका की सुरत को स्पष्ट करते हुए कहा है कि-“लघु पत्रिका अनियतकालीन हो,लघु आकर की हो, साधारण रूप से छपी हो,कम संख्या में प्रकाशित और साथियों के सहयोग से वितरित हो,उसके पीछे कोई बड़ी पूंजी, प्रतिष्ठान या सुव्यवस्थित बुनियादी ढांचा न हो, व्यक्तिगत पत्रिकाओं संसाधनों से निकलती हो,उसका ध्येय आर्थिक उपार्जन न हो वह किसी विशेष विचारधारा और सत्ता-व्यवस्था का सक्रिय प्रतिरोध हो तथा वह बड़ी पूंजीवादी पत्रिकओं के आतंक व वर्चस्व को चुनौती देती हो!”2 लघु पत्रिका के मर्म में परिवर्तनकारी राजनीतिक और सामाजिक रूपांतरण की आवाज गूंजती है। साहित्य में लघुपत्रिका का प्रारम्भ भारतेंदु युग में निकलने वाली ‘कविवचनसुधा’ नामक ‘मासिक’ पत्रिका से माना जाता है। जिसके प्रकाशन का प्रारम्भ भारतेंदु ने 1868 में ‘उतर प्रदेश’ के ‘काशी’ से किया । पत्रिका के नाम से ही स्पष्ट  है कि ये पत्रिका कवियों के कविताओं के संग्रह को प्रकाशित करने के लिए ही इस पत्रिका का आरंभ किया गया था। हिंदी साहित्य के विकास में भारतेंदु युग की लद्युपत्रिकाओं ने विशेष योगदान दिया। जिसने लद्यु होने पर भी समय-समय पर महत्वपूर्ण योगदान दिया। बड़ी वस्तु के मुकाबले में कभी-कभी  छोटी वस्तु भी बहुत महत्त्व रखती है। वैसे ही लद्युपत्रिकाओं ने हर क्षेत्र में अपना योगदान दिया है। परिवर्तन की प्रक्रिया में कंधे से कंधे मिलाकर अपना अविस्मरणीय योगदान दिया है।
आज साहित्य विचार धारा को जनमानस तक पहुँचाने का कार्य लघु पत्रिकाओं  के माध्यम से ही होता हैं। जीवन की विविधता एवं नवीनतम साधनों की प्रचुरता ने लद्युपत्रिकाओं को साहित्य में बहुआयामी बना दिया है। हिंदी साहित्य के विकास में आज की लघुपत्रिकाएं अपनी विशिष्ट भूमिका निभा रही है। ‘डॉ देवीसिंह राठौड’ ने लिखा है कि, “चित्र और विशेषकर चित्र लिपि मानव की पहली पत्रिका हैलघु पत्रिका है। जिसमें असीम प्राकृतिक सत्ता सूर्य चन्द्र इत्यादी के सम्मुख मनुष्य को स्वयं को धनुधार्री एवं पराक्रमी रूपों में चित्रित किया है। यही से उसने संघर्ष की शुरुआत कालांतर में भाषासाहित्य,चित्र एवं शिल्पकला में अभिव्यक्त हुई।3
 बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में लघुपत्रिकाओं पर दृष्टि डाले तो एक बात अधिक आकर्षक है कि वह युग राष्ट्रीय जागरण का युग था। लोग समाज धर्म से अलग हटकर स्वतंत्रता प्राप्ति की और जाग्रत थे। इसी के परिणाम स्वरूप उस समय की अधिकांश लघुपत्रिकाओं ने राजनीति की और अपना मुख कर लिया था। लेकिन साधनों के आभाव के कारण हिंदी की लघुपत्रिकाएं अधिक विकसित नहीं हो सकी। इसी के परिणाम स्वरूप हिंदी की लघुपत्रिकाओं का झुकाव सामयिकता की अपेक्षा साहित्य की और अधिक होने लगा। ऐसी स्थिति में सहित्यिक लघुपत्रिकाओं को स्थान मिलने लगा। लघु पत्रिका हर समय चुनौती के रूप में कार्य करती है  ‘धर्मेन्द्र गुप्त’ ने कहा है “लघु-पत्रिका एक चुनौती के रूप में जन्म लेती है। यह चुनौती ही समाज में परिवर्तन का वातावरण तैयार करती हैलेकिन इसके लिए पहली शर्त यह है कि अपने सोचने और कार्य के दायरे को बड़ा करें।
समाज में सांस्कृतिक क्रांति के लिए महज एक लम्बी कविता का सहारा लेना था ‘लघु-पत्रिका’ को ऐसी कविताओं से भर देनाजिससें व्यवस्था के प्रति बनावटी आक्रोश होअपने को झुठलाना होगा। लघु पत्रिका’ के पृष्ठ सिर्फ कहानी और कविता के छापने के ही कम न आकरगद्य की तेज-तर्रार शैली मेंयह पूछने के काम भी आने चाहिए कि सवर्ण-असवर्ण का भेदप्रांतीयता का मोहगरीब-अमीर के बीच की खाईअंग्रेजी की हीनता आदि बीसवीं सदी के उत्तरार्ध्द में भी कायम क्यों हैं। ‘लघु-पत्रिका’ अपने को आम आदमी की प्रतिनिधि घोषित करके ही न रह जायंबल्कि ‘आम आदमी’ में भी उस नैतिकता को जगाया जो व्यक्ति को सही प्रकार से जीने और सही लक्ष्य के लिए लड़ने की शक्ति देती है।4                                               
 सन् 2000 के बाद लद्यु पत्रिकाओं ने आधुनिकता की विशिष्ट उपलब्धि को प्राप्त किया है। आधुनिकता का प्रारम्भ नवजागरण के साथ हुआ जिससे हमारे भीतर एक ऐसी सांस्कृतिक चेतना उत्पन्न हुई जिससे समाज, देश,पाश्चात्य जगत को अधिकाधिक जानने व समझने की उत्सुकता जाग्रत हो उठी और भारत में साहित्यिक लघु पत्रिकाओं का जन्म व विकास हुआ। ‘डॉ विद्यानिवास मिश्र’ ने लघुपत्रिकाओं के विकास को बताते हुए कहा है कि- “सृजन का पक्ष मजबूत होने के कारण वह केवल आतिशबाजी का काम नहीं करेंगी,बल्कि फूल बनकर खिलेंगी जिसकी सुगंध चारों ओर फैलेगी।5
लघुपत्रिकाओं में प्रकाशन अवधि के आधार पर साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिकद्विमासिक,त्रैमासिकअर्ध्दवार्षिक, वार्षिक, महत्वपूर्ण है। इक्कीसवीं सदीं की लघु पत्रिकओं ने साहित्य को सही दिशा देने के लिए राहों की  तलाश कि, जिससे साहित्य के विविध आयामों का जन्म हुआ। प्राचीन समय में लघु पत्रिकाएँ कविताओं को अधिक महत्व देती थी लेकिन वर्तमान समय में लघुपत्रिका ने कविता के अलावा अन्य गघ विधाओं का भी लघुपत्रिकाओं में समावेश किया। उपन्यास, कहानी, कविता, निबन्धनाटक, आलोचना, यात्रावृतांत, जीवनी, डायरीशोध पत्रसंस्मरणआलेखसाक्षात्कार आदि।
वर्तमान में लद्युपत्रिकाएं राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय  स्तर पर काम कर रही है। साहित्य में भी लद्युपत्रिकाएं अपनी विशिष्ट भूमिका निभा रही है।  नए लेखकोनये विचारोंविद्यागत प्रयोगों की जगह देना व साहित्य को जड़ो से जोड़ने का कार्य लद्युपत्रिकाएं कर रही है। लघु पत्रिकाओं की तत्कालीन स्थिति को बताते हुए ‘कमलेश्वर’ ने कहा है “लघु पत्रिकओं को जंगल के शेर के स्थान पर भेड़ों का गिरोह निरुपित किया करते हुए कहा-‘ये पत्रिकाएँ एक स्वर में बोल रही है :व्यर्थता का।”6
जीवन की विविधता एवं नवीनतम साधनों को लघुपत्रिका ने अपनाया है। इक्कीसवीं सदीं की  लघुपत्रिकाओं में हंसआलोचना, संवदियापरिकथा, कथादेश, कथाक्रमकल्याण, ज्ञानोदय, परिचय, पहल, सारिका, तद्भवनटरंग, पाखी, वसुधावागर्थ, पक्षधरसमयांतररचनाक्रमबहुवचन, साखीवातायनसाहित्य अमृत, वर्तमान साहित्यकादम्बनी आदि लघुपत्रिकाओं ने वर्तमान समय में विशेष उल्लेखनीय कार्य किया है।
 इक्कीसवीं सदी की साहित्यिक पत्रिकाओं का उद्देश्य था नए-नए लेखकों, कवियों व रचनाकारों की रचनाओं को प्रस्तुत कर उन्हें प्रोत्साहित करना नई-नई प्रतिभाओं को सामने लाना। वर्तमान में लघुपत्रिकाओं में अनेक विषयों को सम्मिलित किया गया है; क्योंकि  समय के साथ-साथ व्यक्ति भी बदल रहा उसके साथ उसके आसपास का वातावरण समाज परिस्थिति आदि भी बदल रही है। इक्कीसवीं सदी की लघुपत्रिका में, रचनाओं के माध्यम से उन मुद्दों को सामने लाने का प्रयास किया जा रहा है, जो आज हमारे केन्द्र में है। इक्कीसवीं सदीं में लघु  पत्रिकाओं की भूमिका को  स्पष्ट करते हुए ‘अबरीष सक्सेना’ लिखते है – “इक्कीसवीं सदी में हमारा देश तेजी से आगे बढ सके और विकास का लाभ समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुंच सके, इसके लिए छोटे समाचार पत्र को प्रोत्साहन देना जरूरी है। ये पत्र तभी प्रभावी हो सकते है जब वे जनता से जनता की जुबान में ही बात करे अर्थात हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में।”7 इक्कीसवीं सदी की लद्युपत्रिका में भारतीय परिदृश्य की वर्तमान स्थिति में चलने वाले विभिन्न आन्दोलनों का बोलबाला है।
जनता की समस्याओं के समाधान इक्कीसवीं सदीं  की पत्रिकाओं में दिखाई देने लगा है। इन सब से आम-आदमी धीरे-धीरे जागरूक हो रहा है। अपने हक के लिए स्वतंत्र होकर आवाज उठा रहा है, प्राचीन लघुपत्रिकाएं  जनसुधार, जन कल्याण व समाज सुधार को अधिक महत्त्व देती थी। इक्कीसवीं सदीं की लघुपत्रिकाओं ने समाज कल्याण, कृषि, पर्यावरण, किसानमजदूरगरीबवर्तमान व्यवस्था, बेरोजगारी, नक्शलवाद आदि विषयों को व्यापक रूप से लघुपत्रिकाओं में सफलतापूर्वक प्रकाशित किया जा रहा है।
सन् 2000 के बाद लद्युपत्रिकाओं पर बहस भी छिड़ने लगी क्योंकि पूर्ववर्ती सभी पत्रिकाएं समान थी। लेकिन इक्कीसवीं सदीं में पत्रिकओं के आधार व स्वरूप में परिवर्तन आने लगा। साहित्यिकराजनीतिकसांस्कृतिकधार्मिकबाल, शिक्षाआर्थिकबालशिक्षा, महिलापयोगी आदि विभिन्न विषयों पर लघुपत्रिकाएं अलग-अलग निकलने लगी। इक्कीसवीं सदी की लघुपत्रिकाओं के माध्यम से  युवा लेखन में  जाग्रती गई। जिसके परिणामस्वरुप हिंदी साहित्य में अनेक श्रेष्ठ रचनाकार उभरकर सामने आये। जिन्होंने अपनी विचार व तर्कशक्ति के माध्यम से साहित्य में कई विमर्शों को जन्म दिया जिनको स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श, किसान विमर्श, बाल विमर्श आदि कई रूपों में देख सकते हैं। जिनको इनमें व्यापक रूप से सफलतापूर्वक प्रकाशित किया जा रहा है।
इक्कीसवीं सदीं  में हिंदी लद्युपत्रिकाओं को भी लेकर आंदोलन की शुरुआत की गयी। आंदोलन की शुरूआत तब की गई जब साहित्यकारों व लेखकों को यह अनुभव  होने लगा कि बड़ी पत्रिकाएं वर्ष में, माह में एक बार प्रकाशित होती है फिर भी व्यवसायिक व वैचारिक दबाव के कारण निम्न स्तरीय रचनाएं भी प्रकाशित कर रही है। तब लेखकों ने लद्युपत्रिका के महत्व को पहचान और  आंदोलन की शुरूआत की। हिंदी में लघुपत्रिकाओं के आन्दोलन को स्पष्ट करते हुए ‘रामकृष्ण पांडेय’ ने लिखा है कि-“एक समय था जब भारतीय भाषाओं में छोटी पत्रिकओं का एक बड़ा आन्दोलन विकसित हुआ था। उसका मूल स्वर व्यवस्था विरोध और बड़ी पत्र-पत्रिकओं की जकड़बंदी से साहित्य को बाहर निकलना था। कहना न होगा कि छोटी पत्रिकाओं के आन्दोलन ने उस राजनीति को संपोषित किया जो परिवर्तनकामी थी और सामाजिक रुपान्तरण की पक्षधर थी।9
वर्तमान में लघुपत्रिकाएं साहित्य का अभिन्न अंग बन चुकी है। यह पाठको की रूचिचेतनाआस्था, स्वभाव और कर्म को सीधे प्रेरित करती है। लघुपत्रिकाओं में पर्याप्त लोगों की रूचि ही समाहित होती है इसीलिये लघुपत्रिका की नवीनता इसी में निहित है कि वह परिवर्तन की जानकारी दे। यह जानकारी साहित्यसमाजधर्म, राजनीतिसंस्कृति आदि की हो सकती है क्योंकि परिवर्तन में उत्तेजना विध्यमान है। ‘सत्यम् शिवम् सुंदरम्’ को प्रस्तुत करना ही लघुपत्रिकाओं का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है क्योंकि पत्रिकाओं का प्रकाशन समाज व राष्ट्र को सत्य से अवगत करता है।
लघुपत्रिका के वृत्त को पूरा करने के लिए उसका अभिन्न अंग लेखक होता है। लघुपत्रिका का निर्माण करने वाले लेखक की समाज व देश के प्रति बड़ी जिम्मेदारी होती है। वह अपनी सोच-समझ के साथ पाठकों का मार्गदर्शन करता है। उसकी लेखनी घटनाओं के मानसरोवर में डुबकी लगाती है। जो लेखक अपने लक्ष्य के प्रति पूर्ण निष्ठा रखता है उसे धन या ऊँचे पद का लोभ नहीं होता है। ईमानदारी व कर्त्तव्यनिष्ठा का पालन करते हुए अपने लेखकीय कार्य को गति प्रदान करता है। वह लेखक सुख-दुःख से ऊपर उठकर लिखता है, जो भीड़ में भी उसकी पहचान बन जाती है। लेखक अपने अन्दर और बाहर को तराशता हुआ धार उत्पन्न करता हैं।
लघुपत्रिकाओं में लेखक रीढ की हड्डी के समान  होता है अगर लेखक रास्ता भटक कर अपने लक्ष्य से हट जाय तो समाज निर्माण में बाधा उत्पन्न हो जाती है। एक लेखक को बहुत ही विवेकदूरदृष्टि सम्पन्न तथा संवेदनशील होना चाहिए। ‘माखनलाल चतुर्वेदी’ साहित्यकार व लेखक  को स्पष्ट करते हुए कहा है-“जब एक साहित्यकार स्वयं को मिटा देता है, तो समाज बन जाता है और साहित्यकार स्वयं को बना देता हैतो समाज मिटा जाता है”[1]0 इक्कीसवीं सदीं का युवा नवलेखन लघुपत्रिकाओं के द्वारा उभर कर सामने आया है ‘धर्मेन्द्र गुप्त’ ने कहा है- “कहा जाय कि लघु पत्रिकाएं नवलेखन पर छा गयी और उन्होंने बुद्धिजीवी वर्ग के सोचने-समझने की दिशा को न केवल बदल दिया बल्कि एक गति भी दीतो गलत न होगा।[1]1 वर्तमान लघुपत्रिकाओं ने भाषासाहित्य तथा संस्कृति के अध्ययन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया। आज की लघुपत्रिकाओं का स्वरूप पहले की लघुपत्रिकाओं से अधिक भिन्न नहीं है लघुपत्रिकाएं वर्तमान समय में सृजनात्मक अधिक हो गई हैं। आज की लघुपत्रिकाएं छोटे नगरों से लेकर महानगरों तक लघुपत्रिकाएं प्रकाशित की जा रही है। नई पीढ़ी की लघुपत्रिकाएं बनी-बनाई परिपाटी से अलग हटकर साहित्य को प्रकाशित  कर रही है जिनसे पुराने मानदण्डों में परिवर्तन आना स्वाभाविक है।
इक्कीसवीं सदी  की लघुपत्रिकाएं अपनी परम्परा से प्रेरणा लेकर आगे बढ़ रही है। लघुपत्रिकाओं ने महत्त्वपूर्ण युग का साहित्य, इतिहास व   लेखक भी बनाया। वर्तमान लघुपत्रिकाओं की सबसे बड़ी विशेषता आधुनिक साहित्यबोध और कला विवेक को उजागर करना है। लघुत्रिकाओं ने सकारात्मक रूप से साहित्य का निर्माण किया है। नवीन चंद्र पंत’ ने लिखा है- “लघुपत्रिकाओं की अपनी परम्परा है। लघु साहित्यिक पत्रिकाएं जहाँ प्रतिष्ठान द्वारा पुष्ट मूल्य मान्यताओं के विरूद्ध रही हैवहीं सकारात्मक रूप में नए साहित्यबोध के माध्यम से नए विचारों को प्रतिष्ठित करने में सक्रिय तथा सचेत रहीं”[1]2 वर्तमान छोटी पत्रिकाएँ सामाजिक और राजनीतिक प्रतिबद्धता की पत्रिकाएँ भी निकाल रही है। वर्तमान में हिंदी में ही नहीं अन्य भाषाओं में भी लघुपत्रिकाएं प्रकाशित हो रही है। भोजपुरीमैथिली,  राजस्थानी आदि भाषाओं ने भी लघुपत्रिकाओं में अपना प्रतिनिधित्त्व घोषित कर दिया है। बेरोजगारी, महंगाईवर्तमान व्यवस्थता द्वारा जनता का शोषणमनुष्य का नैतिक पतन इन सब प्रश्नों को युवा नवलेखक लघुपत्रिकाओं के द्वारा सामने लाते है। इक्कीसवीं सदी का  युवा लेखन भी लघुपत्रिकाओं के द्वारा उभर कर सामने आया है लघुपत्रिका ने पुरानी हर आम सहमतियों के लगभग हर बिंदु को चुनौती दी है। पुराने सत्यों का दामन छोड़कर,चाहे वे राजनितिक सत्य हों या साहित्यिक, इक्कीसवीं सदी की लघुपत्रिका ने साहस के साथ अपने सामने उपस्थित सत्य का साक्षात्कार किया है।‘धर्मेन्द्र गुप्त’ ने लघुपत्रिका में नवलेखन की उयोगिता को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि  “कहा जाय कि लघु पत्रिकाएं नवलेखन पर छा गयी और उन्होंने बुद्धिजीवी वर्ग के सोचने-समझने की दिशा को न केवल बदल दिया बल्कि एक गति भी दीतो गलत न होगा।[1]3 वर्तमान में लघु पत्रिकाएँ बिना किसी राजनीतिक दबाव के अपने को सामने लाती है इस प्रकार लघुपत्रिकाएं नये लेखकों को ही नहीं, प्रतिष्ठित और मान्य लेखकों को भी अपने बीच लाकर उन्हें चिन्हित करने का अवसर प्राप्त कर रही है। नि:संदेह आज की पत्रिकाएँ पठनीय योग्य है जों साहित्य की श्रेष्टता को छूती हैं। ‘डॉ वेदप्रताप वैदिक’ लघुपत्रिकाओं के आगमन को स्पष्ट करते  हुए लिखते हैं,    “एक चीज साफ दिखायी देती हैजों राहत हैऔर जिसका पूरी तरह स्वागत किया जाना चाहिए। वह है छोटी पत्रिकओं ‘स्त्री की योनि’ से निकालकर एक स्वस्थसार्थकधरातल पर आ गयी है। मिजाज का यह परिवर्तन स्वागत योग्य हैं।”[1]4 आज की लघुपत्रिकाएं दूर दराज तक हो रहे गरीब हरिजन, किसान, असहाय लोगों, मजदूर, महिलाओं आदि हो रहे   अत्याचारों की सूचना का माध्म भी है।
वर्तमान में लघुपत्रिकाएं यथार्थ को उद्घाटित करती है। लघुपत्रिकाओं के वर्तमान स्वरूप को स्पष्ट करते हुए ‘शम्भुनाथ’ ने लिखा है कि- “60 के दशक की लघु-पत्रिकओं पर अराजकताकुंठा और निराशा की छाप भले होआज के लघुपत्रिका आन्दोलन की अंतर्वस्तु नई ऐतिहासिक जरूरत के अनुसार बदल गई है। आज की लघु-पत्रिकाएँ खंड और मिथ्या चेतनाओं के खिलाफ सांस्कृतिक नवजागरण की महत्त्वपूर्ण न्यूकि्लयस है ये इकट्ठा हो रहा हैं भीतर युद्धविराम की एक स्पष्ट घोषणा के साथ। वैचारिक मतभेद लघुपत्रिकाओं की बृहतर एकता में अब बाधक नहीं है। साठ के दौर की लघु पत्रिकाएँ आपसी टूट से लगातार बिखरती जा रही थी और अतंर्कलहग्रस्त थींपर आज की लघु पत्रिकाएँ अपनी स्वायत्तता बरकरार रखते हुए एक दूसरे के साथ मिलकर चलने को विकल हैं।[1]4
प्राय:वर्तमान पत्रिकाओं का चरित्र यथास्थितिवादी होता है। वर्तमान लघुपत्रिकाएं नवीनता के लिए आवश्यकीय साहस दिखाती है और सस्ती लोकप्रियता से बचती है। आज की लघुपत्रिकाओं में नवीनता का प्रयोग एक तरह की विचारधारा की प्रतिष्ठापन हेतु किया जाता है। आज का प्रखर साहित्य लघुपत्रिकाओं के माध्यम से ही सामने आता है वर्तमान लघुपत्रिकाओं में प्रखर आलोचनात्मक संवाद अथवा संघर्ष का रूप देखने को मिलता है।
 सन्दर्भ:-        
1 हिंदी पत्रकारिता- कृष्ण बिहारी मिश्र, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, संस्करण-2011,पृष्ट संख्या 348
2 लेख-लघुपत्रिका आन्दोलन:संरचना और सरोकार ,राजीव रंजन गिरि,हिंदी समय(वेबसाइट), पृष्ट संख्या -1
3  पत्रकारिता के विविध आयाम–डॉ. राजेन्द्र मिश्र,डॉ.देवीसिंह राठौड,लक्ष्यशिला प्रकाशन,संस्करण-2003 पृष्ट संख्या 49  
4 हिंदी पत्रकारिता के विविध आयाम-डॉ वेदप्रताप वैदिक,हिंदी बुक सेन्टर ,संस्करण -2006 पृष्ट संख्या 310
5 हिंदी पत्रकारिता अतीत और वर्तमान- डॉ मुकेश चन्द्र गुप्त,निर्मल पब्लिकेशन,संस्करण -2012 पृष्ट संख्या139
6 पत्रकारिता के विविध आयाम–डॉ. राजेन्द्र मिश्र,डॉ.देवीसिंह राठौड,लक्ष्यशिला प्रकाशन,संस्करण-2003 पृष्ट संख्या 49  
7 इक्कीसवीं सदीं में हिंदी पत्रकारिता-अर्मेंद्र कुमार,निशांत सिंह,नटराज प्रकाशन,पृष्ठ संख्या 27
8 लेख-लघुपत्रिका आन्दोलन:संरचना और सरोकार ,राजीव रंजन गिरि,हिंदी समय(वेबसाइट),पृष्ट संख्या 1
 हिंदी पत्रकारिता अतीत और वर्तमान- डॉ मुकेश चंद्र गुप्तनिर्मल पब्लिकेशन,संस्करण -2012, पृष्ट संख्या 17
10 हिंदी पत्रकारिता के विविध आयाम-डॉ वेदप्रताप वैदिक,हिंदी बुक सेन्टर,संस्करण-2006 पृष्ट संख्या 307 
11पत्रकारिता का इतिहास-नवीन चंद्र पंत,तेज प्रकाशन,संस्करण-2015 पृष्ट संख्या 267
12 हिंदी पत्रकारिता के विविध आयाम-डॉ वेदप्रताप वैदिक,हिंदी बुक सेन्टर ,2006 पृष्ट संख्या 307 
13 वही।
14 लेख-लघु-पत्रिका आंदोलन:संरचना और सरोकार-राजीव रंजन गिरि,हिंदी समय (वेबसाइट), पृष्ट संख्या 11 

सुधा अरोड़ा की कहानियों की भाषिक जीवन्तता
पूर्णिमारानी, शोधार्थी, हिन्दी विभाग, जयनारायण व्यास विश्वविद्यालयजोधपुर

Renowned storyteller Sudha Arora has explained various aspects of women's life through the medium of stories. Sudha Arora writes less, but when she writes that her image in the reader's mind to be continues for a long time and reaches the depths of the heart. She is always associated with her social concerns. She writes on every issue related to women and also gives their voices to those issues from the platform of social and women organizations. Her stories find special expressions from the ordinary life of the women living in their surroundings. She has known for writing the best stories on the social phenomena and in the form of a journalist, screaming and struggling, and then rising women. She considers empowerment is a mental state, the person who is to be empowered and to feel empowered. The woman has to change her condition. She will change when she sees herself with her own eyes and regardless of social vision.
She is a Hindi writer and poet with more than 11 short story collections to her credit.  Her poetry volumes include, Rachenge Hum Sajha IthihasKam se Kam Ek DarwazaYahi Kahi Tha Ghar is her much appreciated novel. As an attempt to bring world literature to Hindi she began the venture Vasundhara which is both a publishing house and a beautiful book store. She has been awarded by the Uttar Pradesh Hindi Sanstan, Priya Darshini Academy, Maharashtra Hindi Sahitya Akademi and Bharat Nirman and has also received the Women Achiever’s Award.
She with has a post-graduate degree in Hindi from Calcutta University. She taught in two degree colleges in Calcutta from 1969 to 1971. From 1993 to 1999 she was affiliated with the women’s organization, HELP. Sudha’s first story was published in 1965. Her forte is considered the short story genre. But apart from stories she has also written many poems, radio scripts, articles and has edited books including two volumes of SPARROW (Sound & Picture Archives for Research on Women) books.
She is also considered that women empowerment cannot describe in one or two sentence many dimension included in women empowerment. Women empowerment definition is different from class to class. We can say women empowerment mean awareness. Ignorance causes all problems.
सातवें दशक की हिन्दी कहानी की चर्चित कथाकार एवं यथार्थ के प्रति आग्रहशील सुधा अरोड़ा ने अपनी कहानियों में मानव-जीवन के तमाम पहलुओं की संश्लिष्टता को देश, काल, घटना, परिस्थिति, प्रसंग एवं पात्रानुकूल भाषा के जरिये सहृदय पाठकों तक पहुँचाने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है । अपने आस-पास के माहौल के बहुआयामी पक्षों को अपने लेखन में बड़ी बारीकी व सपाटबयानी के साथ अभिव्यक्त करना लेखिका के लेखन का लक्ष्य रहा है, साथ ही भाषिक संरचना के अन्तर्गत सरलता, सहजता, रोचकता तथा लालित्यपूर्ण शब्दावली उनकी कहानियों का वैशिष्ट्य है । जीवन्त भाषा उनकी गूढ़ अनुभूति की सहज अभिव्यक्ति के केन्द्र में है । यही भाषा की जीवन्तता तथा बोधगम्यता उनकी कहानियों की प्रभावोत्पादकता को बढ़ाने में पूर्णतः सक्षम है।
भारतीय समाज सदियों से युगीन परिस्थितियों के अनुसार अपने को ढालता आया है । परिवर्तित परिस्थितियों का प्रभाव तत्कालीन समाज पर पड़ता है । यही नहीं, समाज के साथ-साथ मानव-जीवन और मानवीय बौद्धिकता भी उनसे प्रभावित होते हैं । मानव बुद्धि की प्रौढ़ता साहित्य को उन्नत व लोकप्रिय बनाती है । समाज और साहित्य के मध्य केवल पारस्परिक सम्बन्ध ही नहीं है बल्कि दोनों परस्पर एक-दूसरे को संशोधित तथा पुनराविष्कृत भी करते हैं । इस प्रक्रिया का एक प्रमुख माध्यम भाषा है । भाषा के सम्बन्ध में डॉ॰ भोलानाथ तिवारी का कथन है –  “भाषा पूर्णतः आदि से अन्त तक समाज से सम्बन्धित है । उसका विकास समाज में हुआ है । उसका अर्जन समाज से होता है, और उसका प्रयोग भी समाज में ही होता है ।”1 वस्तुतः भाषा वह धात्री है जो समाज व साहित्य में नित्य-प्रति नव्य संभावनाओं को जन्म देती है ।
साहित्यकार समकालीन सामाजिक परिवेश में रहते हुए अपने आस-पास के जन-जीवन के यथार्थ का पर्यवेक्षण करने के साथ-साथ अपनी निजी अनुभूतियों का विश्लेषण भी अपने साहित्य में करता है । तमाम परिस्थितियों के आकलन व समीक्षा के दौरान वह अनेक अनुभवों का अर्जन करता है तथा अनेक रूढ़ियों व मान्यताओं का वर्जन भी  करता है । अर्जन और वर्जन की इस प्रक्रिया के द्वारा वह अपने साहित्य को एक नवीन भाषा के कलेवर में प्रस्तुत करता है । भाषा और साहित्य के विषय में मधुमती पत्रिका की संपादक डॉ अजित गुप्ता का यह कथन उल्लेखनीय है – “भाषा है तो साहित्य है और जब साहित्य होता है तब भाषा स्वतः ही विकासमान होती है ।”2 हिन्दी साहित्य की विकासयात्रा के दौरान भी तत्कालीन भाषा का स्वरूप विभिन्न विधाओं की विविधताओं के रूप में सामने आया । हिन्दी कहानी की भाषा भी अनेक विमर्शों तथा सरोकारों से रूबरू होते हुए न केवल स्वयं परिष्कृत हुई वरन् अपने प्रयोक्ता समाज को भी प्रभावित एवं संस्कारित किया ।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् हिन्दी कथा साहित्य के अनेक कथाकारों ने अपनी कहानियों में भाषिक अभिव्यक्ति के बल पर समाज, परिवार एवं मानव-जीवन की सूक्ष्मातिसूक्ष्म चुनौतियों तथा संघर्षों का सजीव, अकृत्रिम, जीवन्त तथा यथार्थ चित्रण किया है । इसी सन्दर्भ में सातवें दशक की सुप्रसिद्ध कथाकार सुधा अरोड़ा की कहानियाँ भी सही मायनों में भाषिक कसौटियों पर खरी उतरती हैं । उनकी कहानियाँ समय व परिवेश के गहरे बोध की सूचक हैं और पाठकों को सम्मोहित करने की पूर्ण क्षमता रखती हैं । लेखिका भाषा की गरिष्ठता के बजाय सरलता और सहजता में विश्वास रखती हैं फलतः पाठक वर्ग को आद्योपांत अपने साथ बाँधे रखती हैं ; इन स्थितियों में उनकी भाषा साहित्यिक भाषा नहीं रहती बल्कि जनभाषा बन जाती है । यही कारण है कि सुधा अरोड़ा की भाषा मानव-जीवन के दैनिक कार्यकलाप एवं आचार व्यवहार के समीप जान पड़ती है । एक साक्षात्कार के दौरान लेखिका कहती हैं – “सहज भाषा की एक अपेक्षाकृत बड़े वर्ग तक पहुँच होती है । ...... कथ्य और भाषा का सानुपातिक सामंजस्य ही कहानी को सम्प्रेषणीय, प्रभावी तथा ग्राह्य बनाता है।”3
सुधा अरोड़ा की कहानियाँ सामाजिक जीवन के छोटे-बड़े पहलुओं की सच्चाइयों को बिना किसी लाग-लपेट के ईमानदारी के साथ प्रस्तुत करती हैं । उनके पात्रों की वाणी में बनावटीपन न के बराबर है । उनकी कहानी ‘अन्नपूर्णा मंडल की आखिरी चिट्ठी’ में भाषा की सहजता द्रष्टव्य है – “यह मेरी शादी के बाद की पाँचवी बरसात है । बरसात के ठीक पहले ही तुमने मेरी शादी की थी । जब बाँकुड़ा से बम्बई के लिए मैं रवाना हुई, तुम सबकी नम आँखों में कैसे दिये टिमटिमा रहे थे । जैसे तुम्हारी बेटी न जाने कौनसे परीलोक जा रही है जहाँ दिव्य अप्सराएँ उसके स्वागत में फूलों के थाल हाथों में लिए खड़ी होंगी ।”4
एक अन्य कहानी ‘तानाशाही’ में उनकी भाषा का सजीव रूप दिखाई देता है – “सुनील भाई के जाने के बाद घर का पूरा नक्शा ही बदल गया था । अम्मा भंडार घर की खटिया पर पड़ी-पड़ी पुरानी बातें बड़बड़ाया करती थीं । माँ और पिताजी में अब सिर्फ बहुत जरूरी बातें होती थीं । पिताजी रात देर तक राजधानी का हिन्दी अखबार पढ़ा करते थे और माँ तड़के, मुँह-अँधेरे ही उठकर बगिया में पानी देने, सब्जियाँ तोड़ने चली जाया करती थीं । माँ और पिताजी दोनों समझदार थे और अपने को व्यस्त रखने, भरमाने के सामान बड़ी आसानी से जुटा लिया करते थे ।”5 लेखिका की प्रयुज्य भाषा के इसी वैशिष्ट्य के कारण कहानी की अंतर्वस्तु ऐसी प्रतीत होती है मानो यह हमारी अपनी ही जीवनानुभूति हो ।
प्रायः कथाकार ऐसी भाषा व शब्द-समूह का चयन करते हैं जिसके प्रयोग से वे मानव-मन के सभी प्रकार के भावों को उजागर कर पाएँ । आचार्य किशोरीदास वाजपेयी के अनुसार – “विभिन्न अर्थों में संकेतित शब्द-समूह ही भाषा है, जिसके द्वारा हम अपने मनोभाव दूसरों के प्रति सरलता से प्रकट करते हैं ।”6 सुधा अरोड़ा की कहानियों में स्त्री-जीवन से जुड़ी तमाम भावनाओं तथा विसंगतियों का यथार्थ अंकन दृष्टिगत होता है । खास तौर पर स्त्रीगत असह्य पीड़ाएँ और अस्मिता के रक्षार्थ किये गए उनके संघर्ष भाषा-कौशल के कारण उनकी कहानियों में जीवन्त हो उठते हैं । उदाहरणस्वरूप लेखिका की कहानी ‘तीसरी बेटी के नाम – ये ठंडे, सूखे, बेजान शब्द’ में यह भाषागत कौशल देखने लायक है – “वह तुझ पर जुल्म ढाने लगा । बाहर की दुनिया से तेरे सारे सरोकारों को उसने रद्द कर दिया । तुझ पर पहरे बिठा दिए । अकेले कमरों में तेरा दम घुटने लगा । तूने एक दिन इस कैदखाने से हमेशा के लिए निज़ात पानी चाही और जहर को गले से नीचे उतार लिया, पर तुझे जीना था । यह नियति थी या कुछ और ............ पर इस नई जिन्दगी ने तुझमें जीने का, लड़ने का नया हौसला भरा । तूने अपने पैरों के नीचे की ज़मीन को पहचाना । ......... अपने हिस्से का आसमान मुट्ठियों में बंद करना है, यह तूने ठान लिया था । ”7
मात्र सहजता, सरलता तथा जीवन्तता ही सुधा अरोड़ा की भाषा के गुण नहीं हैं बल्कि इन गुणों के साथ  उनकी अपनी मानसिकता का दार्शनिक पक्ष भी प्रकट होता है । ऐसे में उनकी कहानियों की भाषा परिष्कृत व तत्समप्रधान संस्कृतनिष्ठ शब्दावली का रूप धारण कर लेती है । हालांकि उनका यह रूप सामान्य स्तर के पाठकों के लिए दिक्कत पैदा करता है किन्तु कहानी की क्रमबद्धता एवं उपयुक्त संवाद-योजना के कारण भाषा की क्लिष्टता, अर्थबोध में कोई खास बाधा नहीं डाल पाती । इस सन्दर्भ में ‘अन्नपूर्णा मंडल की आखिरी चिट्ठी’ कहानी में प्रयुक्त भाषा द्रष्टव्य है – “बाबा तुम कहते थे न – आत्माएँ कभी नहीं मरतीं। इस विरत व्योम में, शून्य में, वे तैरती रहती हैं – परम शांत होकर । मैं उस शांति को छू लेना चाहती हूँ । मैं थक गयी हूँ बाबा ।”8
यद्यपि सुधा अरोड़ा महानगरीय संस्कृति में पली-बढ़ी महिला हैं ; ग्रामीण परिवेश से उनका दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है । बावजूद इसके, उनकी भाषा में लोक-संस्कृति व सामान्य जन से जुड़ी भावनाएँ प्रकट हुई हैं । हमें उनका यह रूप ‘भागमती पंडाइन का उपवास यानी करवाचौथ पर भरवाँ करेले’ कहानी की भाषा में देखने को मिलता है – “एक समय वो भी रहा कि जब मौर बाँधके ये मड़वा में आये तो हमारी सखी-सहेली निकोटा-चिकोटी लगीं, करने को तो ये बेचारे भकुआय गये । और जब कोहबर में आके बैठे तब हमारी बुआ, चाची, मौसी, मामी – सब लगीं इनसे इनके नात-हित के लोगों के नाम पूछने । ये एकदम मौनी बाबा ।”9
कहानी विधा मानव-जीवन के विविध कोणों को यथार्थ रूप में उद्घाटित करने का एक सशक्त माध्यम है । अतः कहानी की भाषा व शैली सुबोध, रोचक, सरल तथा प्रभावपूर्ण होनी आवश्यक है । सुधा अरोड़ा भाषा के प्रति इन सभी विशिष्टताओं को लेकर सजग हैं ; साथ ही अपनी कथावस्तु की माँग को देखते हुए वे भाषिक अभिव्यक्ति में यथास्थान मुहावरों, लोकोक्तियों आदि को भी शुमार करती हैं । त्रिभुवन राय के अनुसार – “सुधा की कहानियों की शक्ति रचनात्मक प्रतिवाद की व्यंजना में लक्षित की जा सकती है । इसके लिए निश्चय ही उनकी व्यंजना प्रवण, मुहावरेदार, बैलोस एवं धारदार तीखी भाषा को श्रेय दिया जाना चाहिए ।”10
लेखिका ने अपनी कहानियों में प्रायः मुहावरों का प्रयोग तो बड़े ही स्वाभाविक रूप में किया हैं । ‘पीले पत्ते’ कहानी में उनकी मुहावरेदार भाषा देखने योग्य है – “मेरे होश फाख्ता हो गए । मैं मुँह बाए देख रही थी और सोच रही थी, इसकी किस बात पर बोलूँ ।”11 सही अर्थों में सुधा अरोड़ा की भाषा आम बोल-चाल की भाषा होते हुए भी लाक्षणिकता, चामत्कारिकता, बौद्धिकता आदि तत्त्वों से अलंकृत है । उनकी कहानियों की भाषा में प्रयुक्त हिन्दी शब्द-समूह के साथ तद्भव, देशज, उर्दू आदि शब्दों का भी प्रचुरता के साथ प्रयोग हुआ है । विकास एवं परिवर्तनशील मानसिकता की पक्षधर सुधा अरोड़ा अपनी कहानियों की भाषा में समयानुकूल बदलाव भी लाती हैं । यही कारण है कि आधुनिक परिप्रेक्ष्य में लिखी कहानियों की भाषा में अंग्रेजी शब्दों को बहुतायत से अपनाया गया है । एक साक्षात्कार में वे स्वयं कहती हैं – “कथाकार जब तक सृजनरत रहता है, वह अपनी पिछली इमेज से आगे जाकर एक नयी छवि गढ़ता है और लगातार विकास करता है । उसके लेखन को पीढ़ियों में बाँधकर आँका जाना उसके साहित्य के प्रति ज्यादती है । वे अपने चिर-परिचित भाषागत लहजे के बावजूद अपने पुराने इज्म को तोड़ते हैं ।”12 अंग्रेजी भाषा की शब्दावली लेखिका की कहानियों की भाषा में इस कदर घुल-मिल गयी है कि उन शब्दों को हटाने पर कहानी अधूरी सी लगती है, साथ ही कथ्य की प्रभावोत्पादकता भी क्षीण हो जाती है । भाषा का यह रूप उनकी ‘वर्चस्व’ कहानी में देखा जा सकता है – “शाम को दोनों बेटियाँ स्कूल से लौट आयीं । दोनों ने उसे पुचकारा, हाय स्वीटी पाय, व्हाय डिडन्ट यू ईट ? ... ममा, आप इसे घास-फूस खाने को क्यों देते हो ? हाऊ कैन शी ईट दिस रॉटनफूड ? फिर फ्लॉपी को गोद में लेकर पुचकारा, ओह माय डार्लिंग, यू आर सो हंग्री । व्हाट अ पिटी ।”13
वर्तमान में कहानी की भाषा को लेकर कहानीकारों के समक्ष अनेक चुनौतियाँ आयीं । ऐसे में पारंपरिक भाषा से पृथक् नई कथा-भाषा, जिसमें परम्परागत हिन्दी, प्रादेशिक, अंग्रेजी, उर्दू आदि अनेक भाषाओं के शब्द-समूहों का प्रयोग किया जाने लगा है । इस प्रकार की शब्दावली के आगमन को लेकर राजेश जोशी का कथन है – “टेक्नोलोजी और मुक्त बाजार ने अचानक ही भाषा को बहुत सारे नए शब्दों, नए पदों और नई अवधारणाओं से भर दिया है । यह बहुत अचानक और आक्रामक ढंग से हुआ है ... भाषा में नए शब्दों का प्रयोग अच्छी बात है ।”14 हालांकि सुधा अरोड़ा सदा से ही हिन्दी भाषा की पक्षधर रही हैं और उनका मानना है कि – “हिन्दी भाषा अपनी लिपि और ध्वन्यात्मकता (उच्चारण) के लिहाज से सबसे शुद्ध और विज्ञान सम्मत भाषा है।”15 किन्तु आधुनिक परिप्रेक्ष्य में वे अंग्रेजी भाषा का भी समुचित प्रयोग करती हैं। उनकी ‘युद्ध विराम’ कहानी में अंग्रेजी मिश्रित हिन्दी का प्रयोग हुआ है – “अब अखबार की हैडलाइंस पुरानी होकर उन तक आती है । कभी उसमें ‘मेट्रीमोनियल्स’ का कॉलम कटा रहता है, कभी ‘ऑक्शन’ का पन्ना गायब रहता है, कभी किसी नए कास्मेटिक का विज्ञापन ।”16  इस प्रकार जब भाषा बदली तो कहानियों का फार्म भी बदल गया और इस बदले नये कलेवर द्वारा कथाकारों ने जीवन के यथार्थ को पाठकों के सम्मुख पूरी सजीवता व जीवन्तता के साथ प्रदर्शित किया ।
वस्तुतः भाषा का सीधा सम्बन्ध मन से होता है । लेखिका का भी मानना है कि मन के भावों की प्रेरणा के फलस्वरूप ही भाषा स्वतः प्रस्फुटित होती है । कथाकार स्वयं के मन के भाव एवं विचार, भाषा के मार्फत ही पाठकों के मन तक पहुँचा पाता है । लेखिका अपनी कहानी ‘अविवाहित पृष्ठ’ में नायिका सुधा के माध्यम से कथाकार के लिए भाषा की स्वतंत्रता की बात करते हुए कहती हैं – “लिखते समय हमारी भाषा ऐसी हो जिसमें अभिव्यक्ति के लिए शब्दों का सहारा न ढूँढना पड़े, भाव स्वतः अंकित होते चले जाएँ ।”17
सुधा अरोड़ा की कहानियाँ पाठकों को न केवल समाज तथा मानव-जीवन के यथार्थ का दिग्दर्शन कराती हैं बल्कि उस यथार्थ की अभिव्यक्ति विषयक जागरूकता के कारण अपनी सहज, सरल और जीवन्त भाषा के बल पर ह्रदय को छू सकने का सामर्थ्य भी रखती हैं । उनकी रचनात्मक दृष्टि अनवरत विकासशील होने के बावजूद यथार्थ के धरातल से संबद्ध है । लेखिका की भाषिक क्षमता का स्तर कहानी की विषय-वस्तु के अनुसार बदलता रहता है। उनका मूल लक्ष्य अपनी संवेदनाओं एवं विचारों को जीवन्त भाषा के जरिए पाठकों तक संप्रेषित करना है ; समकालीन मुद्दों को प्रभावी व सुरुचिपूर्ण भाषिक अभिव्यक्ति के प्रयोग द्वारा समाज के प्रत्येक वर्ग के पाठकों के मध्य बेहतर तरीके से प्रस्तुत करना है । निष्कर्षतः सुधा अरोड़ा की कहानियों की सजीवता एवं सफलता के केन्द्र में उनका रचनात्मक तथा जीवन्त भाषिक विधान ही है । 
सन्दर्भ सूची –
1.        तिवारी, डॉ॰ भोलानाथ, भाषा विज्ञान, पृ.क्र.40, किताब महल प्रा.लि., इलाहाबाद.
2.        गुप्ता, डॉ॰ अजित (सं.), मधुमती, पृ.क्र.5, अंक- जुलाई-2007,राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर.
3.        अरोड़ा, सुधा, काला शुक्रवार (कहानी संग्रह), पृ.क्र.134, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली.
4.        अरोड़ा सुधा, एक औरत : तीन बटा चार (कहानी संग्रह) , पृ.क्र.21, बोधि प्रकाशन, जयपुर. 
5.        अरोड़ा, सुधा, रहोगी तुम वही (कहानी संग्रह), पृ.क्र.143, रेमाधव पब्लिकेशन प्रा.लि., नोएडा.
6.        वाजपेयी, आचार्य किशोरीदास, भारतीय भाषा विज्ञान, पृ.क्र.6.
7.        अरोड़ा, सुधा, एक औरत : तीन बटा चार (कहानी संग्रह) , पृ.क्र.53, बोधि प्रकाशन, जयपुर.
8.        अरोड़ा, सुधा, 21 श्रेष्ठ कहानियाँ (कहानी संग्रह), पृ.क्र.176, डायमंड बुक्स पब्लिकेशन, नई दिल्ली.
9.        अरोड़ा, सुधा, बुत जब बोलते हैं (कहानी संग्रह), पृ.क्र.102, लोकभारती प्रकाशन, इलाहबाद.
10.     राय, त्रिभुवन, पीड़ित पक्ष की कहानियाँ (कहानी संग्रह समीक्षा), पृ.क्र.13, पुस्तक वार्ता, अंक- 21 मार्च-अप्रैल 2008, म.गा.अ.हि.विश्वविद्यालय, वर्धा.
11.     अरोड़ा, सुधा, एक औरत : तीन बटा चार (कहानी संग्रह ), पृ.क्र.79, बोधि प्रकाशन, जयपुर.
12.     अत्रि, अनिल (सं.), स्त्री-समय-संवाद, पृ.क्र.14, साहित्य भंडार, इलाहाबाद.
13.     अरोड़ा, सुधा, काला शुक्रवार (कहानी संग्रह ), पृ.क्र.112, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली.
14.     कामता कमलेश्वर (सं.), हिन्दी अनुशीलन, पृ.क्र.73, अंक-3-4,सितम्बर-दिसम्बर 1998, भारतीय हिन्दी परिषद्, इलाहाबाद.
15.     साहित्यिक निबंध (हिन्दी दिवस पर विशेष), अभिव्यक्ति पत्रिका.
16.     अरोड़ा, सुधा, 21 श्रेष्ठ कहानियाँ (कहानी संग्रह ), पृ.क्र.30, डायमंड बुक्स पब्लिकेशन, नई दिल्ली.
17.   अरोड़ा, सुधा, बगैर तराशे हुए (कहानी संग्रह), पृ.क्र.69, इकाई प्रकाशन, इलाहाबाद.
 साम्प्रदायिकता और ‘काला पहाड़’
सुरेश यादवशोधार्थी, हिंदी विभाग, हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय, हैदराबाद, 500046
सम्पर्क सूत्र: 78891588810, 9063277202 ईमेल – kolwaking.internet@gmail.com

A formidable presence in contemporary Hindi literature, Bhagwandass Morwal has been hailed as the chronicler of Mewat, the land of his birth and nurture. Straddling Rajasthan, UP and Haryana, the region of Mewat, despite its unique cultural compositeness, lies on the socio-economic margins of India. The creative contours of Morwal’s much hailed Kala Pahad (1999) and Babal Tera Des Mein (2004) are shaped by the shifting sounds, sights and sensibility of Mewat that are as much rooted in the individual experiences of the author as in the collective memory of the region. How good a writer is depends on the structure of his stories and his capacity to communicate. It also depends on how well he can create a picture with words. Narak Masiha, a novel of Bhagwandas Morwal, meets these criteria. He was awarded the Kathakram national award for the year 2006 for his novel: ‘Kaala Pahaad’. His another novel Halala ritual, which still exists in Muslims and compels a woman to marry another man in order to remarry her husband who divorced her. 
However, the consumerist-communalist onslaught of the contemporary, in the guise of modernity, progress and vote-politics, has started asserting both due and undue pressure on the composite Mewati life style. Morwal makes this experiential reality, a poignant blend of memory and desire, emotion and thought, the takeoff point of his creative imagination to offer a fictional glimpse into the present day Mewat. As such his narratives are in the service of common people; they take sustenance from the existential aspirations and inspirations of the laity, pitchforks it within the social, economic and political contours of contemporary India to present a simultaneous critique both of the local and the national, the subaltern and the mainstream.
जिस प्रकार से एक उपन्यासकार की विशेषता होती है कि वह अपने उपन्यासों में अपने परिवेश का यथार्थ चित्रण करे तथा अपने समाज को प्रस्तुत करे । भगवानदास मोरवाल ने अपनी कृतियों में उन लोगों को और उस समाज को दर्शाने की कोशिश की है जिससे वह कही न कही बहुत अधिक प्रभावित हैं । हाशिये पर जीवन यापन करने वाले लोगों को अपनी कथा में उन्मुक्त भूमिका निभाने की छुट दी है ।
प्रत्येक व्यक्ति का अपना एक परिवेश होता है । व्यक्ति जिस समाज में रहता है उसके वातावरणसमाजजीवन शैली आदि को हम उसके परिवेश के रूप में देख सकते हैं । किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व को जानने के लिए पहले उसके परिवेश को जानना बहुत आवश्यक होता है क्योंकि हर व्यक्ति के निजी व्यक्तित्व पर उसके परिवेश का सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों प्रकार का प्रभाव दिखाई पड़ता है । किसी भी व्यक्ति के परिवेश को जानने के लिए उसके आस-पास के वातावरण तथा उसकी सामाजिक, आर्थिकराजनैतिकधार्मिक परिस्थितियों को जानना अत्यंत आवश्यक होता है क्योंकि व्यक्ति के बाह्य परिवेश से ही उसका मानसिक विकास होता है ।1
अतः जरूरी हो जाता है कि व्यक्ति की मानसिकता को जानने के लिए उसके बाह्य परिवेश को भी जानना आवश्यक हो जाता है । हर उपन्यासकार और कथाकार का भी अपना एक मानसिक परिवेश होता है । भगवानदास मोरवाल एक मजदूर एवं अत्यंत पिछड़े वर्ग से सम्बन्ध रखते हैं । इस प्रकार से एक आर्थिक पिछड़े वर्ग से सम्बन्ध रखने कारण परिवार की आर्थिक स्थिति भी कमजोर ही थी ।  इसलिए इनकी रचनाओं में देखा जा सकता है कि जो भी पात्र होंगे वो निम्न या पिछड़े वर्ग के ही होंगे । भगवानदास मोरवाल ने अपने उपन्यास ‘काला पहाड़’ में भी अपने आस पास के परिवेश को ही दर्शाने का प्रयास किया है । ‘काला पहाड़’ उपन्यास उनके आस-पास के परिवेश का ही प्रभाव है । 
मेवात का एक छोटा सा क़स्बा नगीना’ और उसका चौधरी मोहल्ला काला पहाड़ के केंद्र में है । इसका मुख्य नायक सलेमी डूबते-उतरते इस मोहल्ले के साथ-साथ नगीना और पूरे मेवात के अतीतवर्तमान और भविष्य की धड़कनों को जिस शिद्दत के साथ व्यक्त करता हैवह मेवात की उस छवि को खंडित करता है जो किसी भी मुसलमान बाहुल्य क्षेत्र में बनी हुयी है या बना दी गयी है। इस उपन्यास में संवेदनशीलता और मार्मिक चित्रांकन रंग तो गहरा और स्वाभाविक है ही इसके अलावा यह साम्प्रदायिकता के विरुद्ध ज्यादा सशक्त ढंग से अपना सृजनात्मक प्रतिरोध भी व्यक्त करता है ।2 साम्प्रदायिकता वह राजनीति है जो धर्म के नाम पर चलायी जाती है दुसरे शब्दों में साम्प्रदायिकताधार्मिक पहचान के आधार पर राजनैतिक समर्थन जुटाती है । यद्यपि ऊपर से देखने पर ऐसा लगता है कि यह धर्म आधारित राष्ट्रवादी संघर्ष है परन्तु वास्तव में साम्प्रदायिकता वह राजनीति है जो प्रजातंत्र का गला घोटती है । जन्म आधारित लिंग भेद को समाज पर लादती है और सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया में रोड़े अटकाती है । यह वह राजनीति है जो स्वतंत्रतासमानता और बंधुत्व के मूल्यों को नकारती है और बात सामाजिक सद्भाव की करती है । ‘काला पहाड़’ का मेवात वह मेवात है जहा के लोगों को यह भी पता नहीं है कि ‘साम्प्रदायिकता’ क्या होती है , अयोध्या किस तरफ है ? जिन्हें अफवाह से पता चलता है कि उनके गाँव में कर्फ्यू है । उन्हें यह पता नही होता है या उनकी अज्ञानता ही एक कारण है कि वहाँ अफवाहें खबरे बनी और खबरे अफवाहें बनी । धीरे-धीरे वहाँ साम्प्रदायिकता उन्ही के द्वारा प्रवेश करती है जो किसी न किसी रूप में बेरोजगारी से सशक्त हो चुके हैं, जो अपनी सत्यता का कारण किसी न किसी पर थोपना चाहते हैं । 
  काला पहाड़ उपन्यास का कार्य समकालीन यथार्थ को उजागर कर अतीत को पुनर्जीवित और भविष्य के मिजाज को रेखांकित करना है । काला पहाड़’ उपन्यास के पात्रों की कर्म भूमि हरियाणा, राजस्थान और उत्तरप्रदेश की सीमओं में फैला मेवात क्षेत्र है। यह वही क्षेत्र है जहाँ से भगवानदास मोरवाल सम्बन्ध रखते है तथा जिस क्षेत्र ने मुग़ल साम्राज्य के संस्थापक बाबर से टक्कर ली थी । जिसने भारतीय संस्कृति को आज तक संजोये एवं सुरक्षित रखा है ।3
काला पहाड़’ केवल उपन्यास का शीर्षक मात्र नहीं है । यह मेवात की भौगोलिकसांस्कृतिकअस्मिता और समूचे देश में व्याप्त बहुआयामी विसंगतिपूर्ण प्रक्रिया का प्रतीक है । उपन्यास के आरम्भ में जिस खबर की चर्चा की गई है वह है प्रधानमंत्री के महू आगमन की । महू जो की काले पहाड़ की खोह में बसा एक गाँव है प्रधानमंत्री की महू यात्रा के माध्यम से लेखक एक प्रकार से विषय में प्रवेश करता है । इससे लेखक क्षेत्र एवं क्षेत्रवासियों की आकांक्षाओं का परिचय देता है । क्षेत्र के आर्थिक पिछड़ेपन और पुलिस के रवैया से भी अवगत कराता है और सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यह राजनेताओं और राजनीति के स्वभावों से भी परिचय करवाता चलता है । इस उपन्यास को स्वंतत्रता के पश्चात भारतीय समाज के धर्म-निरपेक्ष ढाँचे के टूटने के रूप में पढ़ा जा सकता है । जो बाबरी मस्जिद और मंदिर की मूर्ति के साथ टूट चुका है । उपन्यासकार भगवानदास मोरवाल ने इसी विमर्श को लेकर मेव जाति और मेवात क्षेत्र के समाज को पृष्ठभूमि बनाते हुए इस उपन्यास की सृष्टि की है ।
वर्तमान में सांप्रदायिक दंगों पर साहित्य में लेखन कार्य करने वालों में भगवानदास मोरवाल का नाम उनके उपन्यास काला पहाड़’ को लेकर विशेष रूप से सामने आया है । उपन्यास की रचना बाबरी ध्वंस की घटना और इससे उपजी लोगों में साम्प्रदायिकता की भावना को लेकर की गयी है । इस उपन्यास में न केवल अयोध्या बल्कि पुरे भारतवर्ष में साम्प्रदायिकता और धर्म के नाम पर स्थान-स्थान पर होने वाले भीषण नर-संहार को विवेचित किया गया है । देश के छोटे-छोटे गाँवों में हिन्दू और मुसलमान भाई-चारे से रहते है पर उनमें भी साम्प्रदायिकता की आग भड़की हैजिसका दस्तावेज काला पहाड़’ उपन्यास है ।
काला पहाड़’ उपन्यास में मेवात क्षेत्र में रहने वाली मेव जाति जो अपने को सूर्य वंशी और चंद्रवंशी क्षत्रिय पहले मानते है और मुसलमान बाद मेंतथा जो अपने आप को मेव जनजाति के रूप में पहचानते है । इन मेवों का यहाँ रहने वाले अल्पसंख्यक हिन्दुओं के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध हैं । दोनों धर्मशांति और सद्भावना से जीवनयापन करते आ रहे हैं । परन्तु कुछ स्वार्थी लोग इनमें साम्प्रदायिकता का जहर घोल देते है और उसके परिणामस्वरूप मिश्रित (हिन्दू-मुस्लिम) संस्कृति और धार्मिक सहिष्णुता का ह्रास होता है ।
काला पहाड़’ उपन्यास का मुख्य पात्र सलेमी है । सलेमी को पछतावा यह है कि मैं तो रात दिन बस वा घड़ी ही कोसतों रहो हूँ जो घड़ी हमें पाकिस्तान जाण सू न कर दी ही । परन्तु इस उपन्यास में धर्म-निरपेक्ष ढाँचे से मोहभंग की समस्या को केवल घिसे-पिटे हिन्दू-मुस्लिम खांचो के माध्यम से ही नहीं समझाया जा सकता है क्योंकि मेवात का मेव मुसलमान न विभाजन को लेकर आगे आया था और न ही भारत छोड़कर पाकिस्तान ना जाने का निर्णय लेने वाले मेव मुसलमान अखण्ड भारत के हिमायती रहे हैं । जिसका पता इस उद्धरण से लगता है ‘1857 में दो सौ अट्ठावन मेव जाति के लोग शहीद हुए थे । इस इलाके में कोई फिरकाना फसाद न हुआ है । सबसे बड़ी बात तो ई है कि काकले में हिन्दू और मेव एक कुडबे की तरह रहता आया है ।’4
मेवात क्षेत्र की जिस मेव जनजाति को लेखक अपने उपन्यास में मुसलमान बताते हैं तथा जिनको कथ्यात्मक बनाते हैं उस जनजाति के सम्बन्ध में यह प्रसिद्ध है कि ‘हिन्दू से इस्लाम धर्म कबूल करने वाला शायद यही आखरी हिन्दू है । वास्तव में मेव एक पुरानी क्षत्रिय कोम है ।’ मेव समाज में लुप्त होती भाई-चारे और निर्जन होते मेवात इलाके के कारणों की तलाश करता यह उपन्यास कथा-विकास में इस विकलांगता को भी रेखांकित करता है । जिसके चलते प्राकृतिक विपदाओं की विकरालता और बढ़ जाती है । लोग अपना घरगाँवसमाजइलाकोंको छोड़कर शहरों की और पलायन कर रहे हैं गाँव में रहके काई भूखो थोडेही मरणो हैं...रोजगार न धंधा...लावणी भी अब तक न रही...जब पेट ही भरण मुश्किल हो जाय तो आदमी यही करोगो ।5
उपन्यास में साम्प्रदायिकता की भावना को दर्शाने के लिए उपन्यासकार ने सुभान नामक पात्र का एक कथन दिया है । सुभान का दीवाली पर दीपक लेने से मना करना केवल उसका आर्थिक कारण ही नहीं था बल्कि वह उसके मजहबी अलगाव का भी परिणाम है । जो मेव संस्कृति के विरुद्ध है । उपन्यासकार इसे सलेमी के इस कथन द्वारा अभिव्यक्त करता है  मैं कद कह रों हूँ कि हमारे हदीस में होली दीवाली मने है...पर ई भी तो सही है कि हमारे मेवन में कही तो मने ही है । यह कथन उपन्यासकार की इच्छा का परिणाम नहीं है बल्कि उस मेव संस्कृति से विन्यस्त हैजिसमें बकोल इतिहासकार मुशिरूरल हसन ‘अधिकांश लोगों के नाम या तो हिन्दू थे या हिन्दू नाम के आगे खान शब्द लगा था । वे दिपावलीदशहरा या कृष्ण-जन्माष्टमी मनाने के साथ-साथ सालार’ मसूद गाजी के सालार (ध्वज) की भी इबादत करते थे और उनकी बेटियों को विरासत सम्बन्धी साधिकार नहीं थे ।’6 लेखक ने बाबरी विध्वंस के पश्चात मेवात क्षेत्र में फैली साम्प्रदायिकता और राजनेताओं द्वारा इस पर अपने स्वार्थ की रोटियां सेकने के दृश्यों के साथ-साथ संस्कृति विघटन को भी दर्शाया है । काला पहाड़ उपन्यास को पढ़ने के यह बात कहने में संकोच नहीं होता कि इस उपन्यास की वर्णन शैली प्रभावी है । यह विषय सुखद हैरानी का विषय तो है ही साथ ही साथ रचनाकार के लिए आगे साहित्य सृजन के लिए चुनौती भी थी । उसे भविष्य में और बेहतर लिखना होगा किन्तु यह तय हा कि ‘काला पहाड़’ को पढ़कर सहज ही कहा जा सकता है किरचनाकार ने मेवाती को अपने अनुभव और चिंतन की साझी समझदारी के साथ प्रस्तुत किया है ।
उपन्यास में दिखया गया है कि मेवात क्षेत्र में रह रही जनता को राजनीति किस तरह से निचोड़ कर रख देती है । भारतीय राजनीति का बदलता स्वरुप और सांप्रदायिक ताकतों की बढ़ती हुई राजनीति भारतीय ग्राम्य जीवन की निश्छल संस्कृति को कैसे नष्ट कर रही है । यह काला पहाड़ में बड़े यथार्थपरक ढंग से देखने को मिलता है ।7
इस प्रकार लेखक ने ‘काला पहाड़’ उपन्यास का समापन सलेमी की मौत के साथ किया है । उसके अंतिम संस्कार में हिन्दू मेव सभी शामिल होते है। सलेमी की पौली में सलेमी के मौत के आगोश में जाने के दृश्य बड़े मार्मिक हैं । सलेम की मरणासन्नता का वर्णन ह्रदय विदारक है, सलेमी विक्षिप्त हो जाता है । उसकी मानसिक उथल-पुथल का वर्णन लेखक ने बड़े ही मनोवैज्ञानिक और स्वाभाविक ढंग से किया है । साथ ही वह एक सवाल भी खड़ा करता है कि  सलेमी जैसे करोडो लोग साम्प्रदायिकता के माहौल में विक्षिप्तता के शिकार होते हैं । आखिर इनका दोष क्या है ? इसका जवाब इतिहास, वर्तमान, धर्म, राजनीति, शासक, न्याय किसके पास है । सलेमी को आखिर किस अपराध की सजा मिली ? इस निराधारजनक परिस्थिति में इस प्रकार के कई सवालों का मुहं खुला छोड़ कर ‘काला पहाड़’ समाप्त हो जाता है । एक बेहतर समाज की संकल्पना मनुष्य –मनुष्य में प्रेम के बंधनहीन रास्ते मनुष्य और समाज दोनों के साझे दायित्व पर निर्भर है, ऐसा इशारा यह उपन्यास करता है ।
सन्दर्भ सूची:-
1)       भगवानदास मोरवाल, ‘काला पहाड़’ (1999)राधाकृष्ण प्रकाशन,नई दिल्ली
2)       भगवानदास मोरवाल, ‘काला पहाड़’ पृ.121
3)       वही पृ.213
4)       वही पृ.236
5)       वही पृ.236
6)       वही पृ.254
7)       वही पृ.258

गुरु जाम्भोजी के साहित्य में सामाजिक चेतना
महेंद्र जाट, शोधार्थी, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर

Guru Jambheshwar used religion to convey his message of living peacefully with love, and harmony with other faiths and nature. The culturalvalue in Bishnoism teaches love, peace, kindness, simple life, honesty, compassion, forgiveness, hard work, and good moral character, internal and external purity. Bishnois are nature lover people and are first environmentalists of India. He had laid down 29 principles to be followed by the sect. Bish means twenty and noi means nine. Thus, Bishnoi translates as Twenty-niners. Killing animals and felling trees were banned. Before his death, he has stated that the black buck was his manifestation after death and should be conserved. The Khejri tree (Prosopis cineraria), is also considered to be sacred by the Bishnois.
His teachings were in poetic form known as Shabadwani. Although he preached for following 51years, travelling across India, only 120 shabads, or poetic verses, are available at present. It is claimed that these 120 shabads are a source of great wisdom and are sufficient for an individual to understand and follow his path. It is well known that the twenty-eighth principle (niyam) of Bishnois prohibits its followers from eating non-vegetarian food (mans nahin khana). Bishnois know that armed with lethal technology and weaponry, human beings can unleash terror in the world. They can kill animals not only with the intent to eat them but also for sport, as enjoyment, to prove their supremacy over the world and its beings.
They can uproot trees not only to meet their needs of fuel andhouse-building material, but also to prove to themselves that they can transform the environmentin the way they want. If this attitude continues unchecked, both animal and plant life will be imperiled. Keeping this in view, the Bishnoi dharma contains maxims that promote the sentiments of compassion and sympathy. The tenth principle (chama sahanshilta rakhna) submits that human beings should pardon others. They should also develop in themselves the capacity totolerate and bear.
The Bishnoi dharma knows that people need wood for their hearth. If they fall short of fuel, their survival may be endangered; hence for cooking (and keeping themselves warm) they need a minimal level of natural products. But for fuel (or any other thing), one should never cut the‘live’ (i.e. green) trees: this is the nineteenth principle of Bishnois (hare vriksha nahin katna).However; one is permitted to collect dried wood. While gathering, one should take care that it does not harbour the colonies of termites or any other parasites; this principle is coupled with another: milk should be sieved before drinking (indhan bin kar ve dudh chan kar len). Besides cleaning, it will also separate it from any of the living objects.This idea is also contained in their eighth principle: they should sieve water before drinking (Pani Chan kar piyen). This principle also has another part, which emphasizes the purity of one’s speech (vani shudh boley). They should also control their passions (Kama), anger (krodh) and lust (moh) – this is Bishnoi’s twentieth principle (ajar ko jarna). Bishnoi are also expected to cook their own food: this is their twenty-first principle (apne hath se rasoi pakana). By doing so, they will be able to preserve the purity of their food. When others (especially those of other castes) cook for you, you cannot be sure whether they have cared for the mores of purity and cleanliness. If you wish to practice strict vegetarianism, then it is imperative that you cook your own food. This would explain why Bishnois avoid eating in non-vegetarian households even when they may cook vegetarian food for their guests, or in restaurant that serve both vegetarian and no vegetarian foods. At the same time, they do not keep commensal relations with those who eat meat. But when it is a matter of trees being axed in their area or animals slaughtered and hunted, they would not leave a stone unturned in saving the lives of trees and animals, whether or not anexplicit principle exists to that effect. At this moment, we shall recall the most famous Bishnoi sacrifice of the eighteenth century alluded to earlier. When the axe-men working for the Prince of Jodhpur arrived in Jalnadi (now known as Khejarla), a village in the district of Jodhpur, to cut trees for wood to be used in building the imperial palace, a Bishnoi woman tried to stop them by submitting that for the members of her faith trees were extremely dear, almost like their children.
भारतीय इतिहास में मध्यकाल अपने सामाजिक, धार्मिक सुधार आंदोलनों को लेकर अत्यधिक चर्चित रहा है और इस आंदोलन का सहज परिणाम था - भक्त कवि और भक्तिकालीन साहित्य। सर्व विदित है कि भक्तिकाव्य हिंदी कविता की सर्वोपरि उपलब्धि है। भक्ति को काव्य मूल्य एवं जीवन मूल्य के रूप में स्थापित करने वाली इस कविता का समय तीन शताब्दियों तक फैला हुआ है। मध्यकाल के सामंतवादी अँधेरे में भक्तिकाव्य मानवतावादी चेतना की प्रथम प्रखर अभिव्यक्ति है। उल्लेखनीय है कि बड़ी कविता वही होती है जहाँ मनुष्य के संकट को उठाया जा सके, मानवीय एकता और सामजिक समन्वयता की चर्चा हो सके, समरसता के सुर पैदा कर सके, लोक जागरण की पक्षधरता के स्वर मुखर हो सके और इस प्रकार भक्तिकालीन कविता इस शर्त को बखूबी निभाती है ।
हिंदी साहित्य के इतिहास में भक्तिकाल को अधिकांश विद्वानों ने दो धाराओं में विभाजित किया है – सगुण व निर्गुण । भक्तिकाल के समस्त संत कवियों को निर्गुण काव्य धारा में एंव भक्त कवियों को सगुण काव्य धारा में रखकर मूल्याङ्कन किया गया  है । डॉ. हीरालाल माहेश्वरी ने उत्तरी भारत की संत परम्परा को दो भागों में बंटा है –"निर्गुण भक्ति काव्य परम्परा एव सगुणोंमुख निर्गुण भक्ति काव्य परम्परा । निर्गुण भक्ति परम्परा के संवर्धक कबीर रहे हैं तो सगुणोंमुख निर्गुण भक्ति काव्य परंपरा के जाम्भो जी ।" सगुणोंमुख निर्गुण काव्य परम्परा से तात्पर्य ऐसी परम्परा से है , जिसमें अधिकांश प्रवर्तियां तो निर्गुण काव्य परम्परा की ही है पर कुछ प्रवर्तियाँ सगुण काव्य की भी है । डॉ. माहेश्वरी ने इसे स्पष्ट करते हुए लिखा है – “दूसरी परम्परा के उपास्य तो निर्गुण ब्रह्म ही रहे है किन्तु विशेषता यह है कि परमेश्वर के दस अवतारों की मान्यता है, शास्त्र ग्रंथो पर आस्था है तथा मूर्ति पूजा बिल्कुल ही स्वीकार्य नही है ।....अवतारवाद में आस्था के कारण इस परम्परा के कवि को स्वानुभूति की अभिव्यक्ति के अतिरिक्त एक विस्तृत क्षेत्र और प्राप्त हो गया – परमेश्वर के अवतार रूपों और उनके विभिन्न कार्यों के वर्णन का , दूसरे शब्दों में लीलगान का । 
चिरकाल से ही राजस्थान की पवित्र वीर भूमि लोक संतों की वाणी और उपदेशों से समृद्ध रही है। यहाँ की मिट्टी से पैदा हुये बहुधा संत कवि अपनी प्रतिभा एवं सदाचार से समूचे उत्तर भारत के जनसमूह को जागरूक कर ईश्वर से साक्षात्कार कराया। इसी प्रवृत्ति के अनुरूप यहाँ की धरा पर पीपासर नामक स्थान पर भाद्रपद अष्टमी संवत् 1508 को गुरू जाम्भोजी का अवतरण हुआ । गुरू जाम्भोजी अपने युग के महान संत, विचारक, प्रेरक एवं प्रतिभाशाली समाज सुधारक थे । गुरु जाम्भोजी के मरुप्रदेश में आविर्भाव होने से पूर्व इस प्रदेश में नाथपंथियों का बोलबाला था इनका इतना अधिक दबदबा था कि इनका विरोध करना अत्यंत कठिन था । जाम्भोजी वस्तुत: बहुमुखी प्रतिभायुक्त महापुरुष थे । सत्यनिष्ठां, मानवतावाद तथा प्राणिमात्र के प्रति करुणाभाव से ओतप्रोत होकर उन्होंने ऐसी अभिनव परम्पराएँ संस्थापित की जिन पर आगामी शताब्दियों में विशिष्ट सामाजिक – धार्मिक संस्कृती का विशद भवन अस्तित्वमान हुआ । जाम्भोजी द्वारा मानव – जीवन के उन्नयन एव उसके कल्याण की ओर अभिमुखिकरण का सरल, सहज तथा व्यवहारिक मार्ग निर्दिष्ट किया था । इस हेतु उन्होंने आप्त वाक्यों के स्थान पर अनुभूत सत्य को व्यवहारिकता की कसौटी पर कसकर आचरित करते हुए आदर्श जीवनचर्या का आधार बनाया । इन्होंने जीवन पर्यंत सामाजिक-धार्मिक विषमताओं को दूर करने का सराहनीय प्रयास किया। गुरू जाम्भोजी ने अपनी वाणी में समय-समय पर अपने भक्तों, शिष्यों एवं जन-मानस को सम्बोधित कर उपदेश दिये तथा उनकी शंकाओं का समाधान किया। गुरू जाम्भोजी के सबदों का संग्रह ही जम्भवाणी या सबद वाणी है। इस वाणी में इनके विराट एवं सहिष्णु लक्ष्य का परिचय मिलता है। गुरू जाम्भोजी ने लोक चेतना और साधारण जन के सामाजिक उत्थान हेतु 29 नियमों पर आधारित बिश्नोई पंथ की स्थापना की। गुरु जाम्भोजी के  29 धर्म – नियमों का प्रतिपादन किसी वर्ग, एक जाती, सम्प्रदाय, मजहब और एक देश के लिए नहीं हैं । वे समस्त मानव जाति के लिए वैश्विक है ।
गुरू जाम्भोजी ने तत्कालीन समाज के भीतर जो भी विषमतायें तथा विसंगतियाँ थी, उनको उजागर कर उनके परिष्कार के सटीक उपाय भी बताये। व्यक्ति तथा समाज जिन रूढ़ियों, बुराइयों तथा विकारों से ग्रसित था, आपने उन पर निर्भीकता पूर्वक चोट करते हुये एक सात्विक, नैतिक एवं अनुशासित जीवन जीने की प्रेरणा दी । समाज के परमार्थ की आत्मानुभूति ही जम्भवाणी की आत्मा है । गुरु जाम्भोजी ने लोक की दशा को अपनी वाणी के माध्यम से अभिव्यक्त किया । गुरु जाम्भोजी ने भक्ति का क्षेत्र सबके लिए खोला । सामाजिक प्रगति के निर्माण में आध्यात्मिक द्रष्टि को ग्रहण किया । सब प्रकार के वर्गभेद से परे व्यापक एंव सार्वभौम धर्म के रूप में मानव धर्म का सन्देश दिया । जाम्भोजी द्वारा प्रवर्तित बिश्नोई पंथ मानवता के नियमों पर आधारित है । जाम्भोजी की जम्भवाणी दया के भाव को व्यापक रूप में प्रसारित करने की बात करती है । जम्भवाणी प्राणीमात्र से लेकर वनस्पति तक के प्रति दया,करुणा एंव अहिंसा का सन्देश देती है “ जीव दया पालणी अर रुंख लीला नहीं धावै ” से बढ़कर मानवीयता क्या हो सकती है । जम्भोजी  के दर्शन के आयाम बहुत व्यापक रहे है । उन्होंने पर्यावरण सरंक्षण पर अत्यधिक बल दिया है । “ पृथ्वी का पर्यावरण संतुलन सभी जीवों  के लिए आवयशक होता है मनुष्य के लिए तो और भी आवश्यक ।” जाम्भोजी ने वृक्षों को काटने का तीव्र प्रतिरोध किया है –
“ सोम अमावस आदितवारी, कांय काटी वन रायों  ।”
गुरु जाम्भोजी  ने मध्यकालीन समाज में धर्म के नाम पर प्रचलित हिंसा का पुरजोर शब्दों में विरोध किया –
“आप खुदायबंद लेखो मांगे ,
रे बिनही गुन्हे जीव क्यूँ मारो ,
थे तक जाणो तक पीड न जाणो ।”
जाम्भोजी ने समकालीन समाज के अशिक्षित, सामान्य शिष्टाचार विहीन, असभ्य कहे जाने वाले लोक की दुर्दशा को देखा तथा उनमें चेतना के संचार का बीड़ा उठाया । जाम्भोजी ने मनुष्य को मनुष्य के रूप में प्रतिष्ठा दिलवाने का कार्य किया । जाम्भोजी का समाज दर्शन एंव जीवन दर्शन परस्पर अंतर्सम्बन्ध है। दोनों के केंद्र में मानव जीवन है । स्त्री संबंधी विचार व्यक्त करते हुए आपने इस प्रकार कहा है -
“तइया सांसू तइया मांसू, तइया देह दमोई ।
उतम मध्यम क्यूँ जाणीजे, बिबरस देखो लोई ।”
जो श्वास एक पुरुष में चलता है, वही श्वास स्त्री में भी चलता है , वही मांस दोनों में है, वही पंच भौतिक देह दोनों की बराबर है तथा जीवात्मा में भी कोई भेद नहीं है , फिर ज्ञानी कहलाने वाले भी उत्तम एंव मध्यम का भेद क्यों करते है । अब आप इस विषय पर विचार कीजिए ।  
गुरु जाम्भोजी ने जहाँ मानव के आचरण, चिंतन और व्यवहार के मानक स्थापित किये, वही उन्होंने मानव – मानव के बीच तथा मानव ईश्वर के मध्य पृथकता स्थापित करने वाले व्यवहारों, वादों तथा प्रचलनों को निरर्थक एंव सारहीन बताते हुए त्यागने एंव सदैव दूर रहने का सन्देश देते हुए कहा कि निरालंभ, निराकर विष्णु का जप करो ।
“ कांय जपीजे  तेपण जाया जिऊ, जपा तो एक निरालंभ शिम्भू । ”
जम्भवाणी में निहित समाज दर्शन व्यापक है, जाम्भोजी की वाणी में सामाजिक चेतना का स्वर कई रूपों में उद्घाटित हुआ है। श्री जाम्भोजी ने अपनी सबदवाणी के प्रथम सबद में ही ज्ञान के प्रदाता गुरु की महिमा का बखान करते हुए कहा है – ‘आप लोग अपना कल्याण चाहते हो तो हितोपदेष्टा गुरु की पहचान करो तथा हे पुरोहित! तुम भी अपना अज्ञानमूलक कार्य छोड़कर सद्गुरु के कथानुसार कार्य करो । जो मानव परमात्मा की प्राप्ति के लिए सद्गुरु को खोजकर उनके कहे हए मार्ग पर चलता है वह परमपिता परमात्मा की प्राप्ति कर सकता है । सद्गुरु के मुख से वास्तविक धर्म की व्याख्या होती है । सद्गुरु के लक्षण बताते हुए श्री जाम्भोजी ने कहा कि जो गुरु स्वभाव से वैदिक शास्त्रों में वर्णित धर्म को प्रिय शब्दों के द्वारा युक्तिपूर्वक शिष्यों को बतलावे तथा स्वयं भी आचरण करे वही सद्गुरु है ।
इंसान के सामाजिक जीवन (मानव जीवन ) में धर्म के महत्वपूर्ण भूमिका रही है । मानव के अनुभवों का सर्वेक्षण करने से पता चलता है कि आदिकाल से लेकर अब तक धर्म मनुष्य के जीवन और इतिहास में प्रमुख रहा है । धर्म चाहे आदिम रूप में रहा हो, चाहे विकसित रूप से हो, सदैव मानव जाती के जीवन का अभिन्न अंग माना जाता है । इसी से यह उक्ति सही प्रतीत होती है कि मनुष्य केवल रोटी से जीवित नहीं रहता ।’ धर्म के कारण ही मनुष्य पशु से भिन्न है । धर्म मनुष्य के विवेक में अनुस्यूत है । मानव – चेतना में धार्मिक चेतना समाहित है । इसलिए मनुष्य बिना धर्म के जीवित नहीं रह सकता । जाम्भोजी द्वारा प्रतिपादित विश्नोई धर्म मानवता का पालन करने वाले नियमों पर आधारित है । विश्नोई धर्म मानव के साथ – साथ प्रत्येक प्राणी पर दया और पर्यावरण सरंक्षण को भी प्राथमिकता देता है । वर्तमान में इन्ही नियमों के कारण लोकप्रिय हो  रहा है ।
जाम्भोजी ने आदर्श एंव नैतिक समाज के निर्माण हेतु मनुष्य को मानवीय बुराइयों से दूर रहने को कहा है । चोरी, क्रोध, मोह, झूठ आदि समाज की उन्नति का मार्ग अवरुद्ध करते है । अंहकार के कारण मनुष्य का स्वस्थ विकास नहीं हो पाता है । अंहकार  के मद में चूर व्यक्ति अच्छे – बुरे  का भेद नहीं कर पाता है । अंहकार ग्रस्त व्यक्ति स्वयं के साथ ही समाज का भी अहित करता है । जाम्भोजी ने अहंकार के संबंध में कहा है “ जां जां घमण्डै स घमण्डू, ताके ताव न छायो ।”
गुरूजी ने लोक भाषा, लोक-प्रतीक, लोक प्रचलन तथा लोकचार के माध्यम से समाज को अभिनव संस्कार, संदेश एवं संहिता प्रदान की। उन्होंने मानव-मानव के बीच किसी भी प्रकार के भेद को निरर्थक एवं निराधार घोषित किया। इस तरह महान सामाजिक दर्शन के प्रणेता गुरू जाम्भोजी ने सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक आंदोलन का प्रवर्तन कर तथा युक्तियुक्त सिद्धांतों का समन्वय कर सार्वभौम पंथ का निर्माण किया । बिश्नोई पंथ जहाँ एक और मानव को मानवता  का पाठ सिखाता है वही दूसरी ओर मानव को प्रकृति का महत्व बता कर उसके सरंक्षण की बात करता है । विश्नोई पंथ के सभी उन्नतीस नियम प्रत्येक व्यक्ति को संतुलित और परोपकारी जीवन जीने की  प्रेरणा देते है । इस प्रकार जाम्भोजी ने मानव समाज को मानवता और प्रकृति के बीच संतुलन और सरंक्षण का महत्वपूर्ण सन्देश दिया है।
संदर्भ सूची –
1)       डॉ. हीरालाल माहेश्वरी – जाम्भोजी पृष्ठ – 27
2)       डॉ. हीरालाल माहेश्वरी – जाम्भोजी पृष्ठ – 40
3)       डॉ. कृष्णलाल बिश्नोई    – गुरु जाम्भोजी एंव विश्नोई पंथ का इतिहास
4)       डॉ. बनवारी लाल सहू   – गुरु जाम्भोजी और बिश्नोई पंथ
5)       डॉ. कृष्णलाल विश्नोई    –गुरु जाम्भोजी का जीवन दर्शन
 शबरी’ काव्य में निहित सामाजिक चेतना
चंपालाल कुमावत शोधार्थी, हिन्दी विभाग, जयनारायण व्यास विश्वविद्यालयजोधपुर

Shabari is an elderly woman ascetic in the later versions of the Hindu epic Ramayana. She is described as an ardently devoted woman who received Rama's darshan and blessing due to her Bhakti to him. There is always a debate regarding the fruit offered by Sabari. Whether the fruit was bitten or not bitten is a worthless debate. It is when we are bound by this body and ego that we feel bad about a bitten fruit. When True Bhakti dawns the difference melts away. Sabari offering the fruits is not part of the Valmiki Ramayana but it is very popular in all regions. Some people are of the view that an observation in the Padma Purana led to belief that She shared half eaten fruit with Sri Ram.
There are some who are of the view that offering half eaten fruit to Sri Ram is unthinkable and Sabari would have never done it. But there is a strong question has raised that so called Bhagwan eaten half bite fruit and otherside he had brutally killed innocence human being and philosopher Shambuka, a shudra ascetic, was slain by Rama for attempting to perform penance in violation of dharma, the bad karma resulting (giving education to downtrodden society children and shudras  from which caused and alleged for the death of a Brahmin's son. It is believed that Shambuka was beheaded in a hill at Ramtek, near Nagpur in Maharashtra.
   ‘शबरी’ डॅा. नरेश मेहता का सन् 1977 में प्रकाशित एक सुन्दर छन्दों बद्ध खण्डकाव्य है। वाल्मीकि रामायण में शबरी पात्र का महत्वपूर्ण वर्णन हुआ है। उसी पात्र को लेकर कवि ने प्रासंगिक सामाजिक समस्याओं का वर्णन किया है। शबरी शबर जाति की स्त्री थी। उसका नाम श्रमणा’ था। जिसका स्वभाव था - हिंसा से घृणा एवं अहिंसा से प्रेम। शबरी पात्र सचमुच मानव समाज के लिए चेतना के समान है। यह नाम संघर्षमय जीवन के प्रतीक है।
शबरी’ काव्य मुख्यतः वाल्मीकि रामायण की कथा पर आधारित है। शबरी की कथा निम्न वर्ग की ऐसी कथा है जो रामायण के शीर्षस्थ पात्रों में भी अपनी पहचान बनाए रखती है। इस खण्डकाव्य में वर्ण व्यवस्था के प्रश्न को उठाया गया है जो आज की अन्य समस्याओं की तरह एक ज्वलंत समस्या है। यह समस्या आज की नहींबल्कि प्राचीनकाल से चलता आया ज्वलंत प्रश्न है। इसका समाधान कवि ने नवीन संदर्भों में किया है। इसमें यह भी स्पष्ट है कि व्यक्ति चाहे वह अंत्यज जाति से संबंधित होअपने कर्मो से ऊर्ध्वता को प्राप्त कर सकता है। वह सांसारिक बंधनों को त्याग कर पंपासर चली जाती हैजहाँ मतंग ऋषि उसे आश्रय देते है। शबरी योगभक्ति व ज्ञान के द्धारा ऐसा पद प्राप्त कर लेती है कि उसे तापसियों में शिरोमणी घोषित किया जाता है।
त्रेता-युग की व्यथामयी
यह कथा दीन नारी की,
राम कथा से जुड़कर
पावन हुईउसी शबरी की।1
शबरी’ काव्य रचना के समय नारी का उतना बड़ा स्थान नहीं था जितना स्थान आज है। शबरी की एक निम्न वर्ग की स्त्री समझ कर आम जनता ने उसका तिरस्कार किया लेकिन मनीषी मतंग ने उसकी जाति को महता न देकर उसके ज्ञानतपस्या और भक्ति को निहार कर बड़े आनंदित होकर उसको सम्मान देते हैं और अपने आश्रम में स्थान देते है। धर्म सामाजिकता से ऊपर नहींफिर भी मतंग ऋषि उसका सम्मान का खुद समाज के सामने अपराधी बनते हैं। इस स्थिति को समझकर शबरी अपने तपज्ञान एवं भक्ति के सहारे समाज में अपने का देवप्रियरामप्रिय सिद्ध कर दिखाती है। शबरी जब अपने कर्मों से भगवान राम का दर्शन करती है। त्रेता युग के मनीषी शबरी को तपस्वियों में शिरोमणि घोषित करते हुए कहते है कि शबरी से ऊपर कोई श्रेष्ठ भक्त नहीं है। तब से समाज में नारी का स्थान एवं महत्ता बढ़ने लगी। आज वह शबरी शुद्र से शक्ति बन गई है। शबरी ने मानव जीवनं में जो असाध्य हैउसको साध्य कर दिखाया था।
केवल मतंग थे अविचल
संतोष बड़ा था मन में,
शुद्रा से शक्ति बनी वह
सम्भव सब कुछ जीवन में।2
शबरी’ काव्य त्रेता से संबंधित है। स्त्री को उस समय असमानता व अनादर की दृष्टि से देखता था। शबरी शुद्ध मन से भगवान की प्राप्ति के लिए तड़प रही थी। उस समय पंपासर के महान मनीषी मतंग ने उसका आशय समझकर एवं उसकी पवित्र भक्तिदृढ़ शक्ति को जानकर उसे आश्रय दिया। वह एक पवित्र एवं सांसारिकता से विरक्त नारी बनकर भगवद् भक्ति में लीन हुई। उसकी निश्छल भक्ति व पवित्र आत्मा से तृप्त होकर  भगवान राम उसे दर्शन देते है। मतंग ऋषि ने शबरी के पवित्र रूप को देखकर ही उसे अपने आश्रम में आश्रय दिया। सज्जनों को सज्जन ही पहचान सकता है। मतंग ऋषि ने उसकी पवित्रता को देखकर जान लिया कि यह जरूर कोई पुण्यात्मा हैन जाने किन कर्मों के कारण वह भटक रही है।
विह्वल शबरी को तब मतंग
आश्वासन दे भीतर लाए3
शबरी अपनी शक्ति के अनुसार समाज में समानता लाने का प्रयत्न करती है। शबरी जन्म से ही समाज की कुटिल वर्गनीति के विरूद्ध संघर्ष करती है। समाज को कलंक लगाने वाली इन वर्ण व्यवस्थावर्ग व्यवस्थाजातीयताऊँच-नीच आदि भेद भावों को मिटाकर अंधविश्वासों एवं रूढ़ियों का जोरदार खंडन करती हैवह सदा संघर्षशील रहती है। समाज में जागृति एवं चेतना भर देती है। वर्ण व्यवस्था एवं वर्ग व्यवस्था जैसी अनिष्ठ तत्वों का नामों निशान मिटाने का प्रयत्न करती है। अपने ज्ञानभक्ति और तपस्या से यह चेतना जागृत करने के लिए त्याग एवं तपस्या की बड़ी आवश्यकता होती है। अपने ज्ञानभक्तित्याग व तपस्या के आधार पर समाज में सर्व समानता की स्थापना करने के लिए शबरी एक चेतनामयी शक्ति के रूप में है। प्राचीनकाल में मनुष्य को कर्म के आधार पर चतुर्थ वर्ग की श्रेणी विभाजन का शिकार होना पड़ता था-
रक्षक और पालक क्षत्रिय
थे वैश्य बने व्यापारी
श्रमिक शुद्र थेथी समाज की
यही व्यवस्था सारी।4
इस काव्य में शबरी त्रेतायुग की समस्या वर्ण समस्या को लेकर न केवल अपने स्वार्थ के लिए संघर्ष करती है वरन् समूचे संसार में फैली हुई समस्या का निर्मूलन कर लोक की जनता के लिए ही वह संघर्ष करती है। उसके सामने वह अनेक सामाजिक समस्याएँ आने पर भी वह हिम्मत नहीं हारती। लेकिन अपने स्वार्थ के लिए नहींसमाज की चेतना के कल्याण के लिएउनके हित के लिए वह संघर्ष करती है। यही उसकी लोकोपकारक दृष्टि है। जो लोक हित के लिए संघर्ष करता हैवह लोकनायक व्यक्ति बनाता है। यही गुण शबरी में देखते है। जो समाज के लिए संघर्ष करता हैकष्ट उठाता है वह व्यक्ति महान एवं सर्वमान्य बनता है। शबरी लोकोपकारक दृष्टि से ही संघर्ष कर इस इतिहास में महान बनी है। जो व्यक्ति समाज में जैसे बोलता हैवह वैसे ही चले तो वह आदर्श व्यक्ति कहलाता है -
मंदार पुष्प का सा जिसका
सर्वस्व समर्पित प्रभु को
जो स्वयं तपस्या है अब
क्या वेद-मंत्र है उसको।5
सामाजिक चेतना सम्पन्न व्यक्ति आदर्श मानव बनकर रहता है। शबरी समाज में उच्चता प्राप्त करने के लिए संघर्ष करती है। अपने परिवार के बंधन तोड़ लेती है। आदर्श व्यक्ति कहलाने के लिएव्यक्ति को जो गुण बहुत आवश्यक हैंवे हैं - त्यागतपभक्तिलोक हितसमाज हित एवं श्रम। शबरी अपनी पवित्र भक्ति व त्याग से समाज की वर्ण एवं वर्ग व्यवस्था के प्रति जागृति उत्पन्न करती है। आदर्शों के कारण समाज में उसे स्थान प्राप्त होता है। इसी आदर्श से समाज का कल्याण संभव है। समाज की जागृति संभव है। सुखशांति एवं राम राज्य की स्थापना संभव हो सकती है।
शबरी’ काव्य में सेवा मनोभाव को स्थान मिला है। सच्ची सेवा ही मानव को मुक्ति दिलाती है। यह तथ्य शबरी के जीवन में देखते है। जिसके मन में सेवा की भावना होती हैअवश्य उसका आत्मोन्नयन होता है। भक्ति के अन्तर्गत नवधा भक्ति में दास्य भक्ति के लिए शबरी अपने भगवान को दर्शन करती है। व्यक्ति के आत्मोन्नयन के लिए सेवा’ पहली सीढ़ी है। इस काव्य में शबरी गुरू मतंग की बड़ी सेवा करती है। अंत्यज वर्ग की होने पर भी अपनी सेवा भक्ति से उस कलंक को मिटा लेती है। शबरी अपने सेवा मनोभाव से संसार में सामाजिक जाग्रति पैदा करती है। मंतग आश्रम में आकर ऋषि से कहती है। मैं शबर जाति की हूँ और आपके चरणों की सेवा आज से मेरा इष्ट है। इस प्रकार शबरी आश्रम के बाहर गोशाला में गायों की प्रकृति की एवं प्रभु की दासता एवं सेवा भक्ति से करती हुई अपने को पूजनीय और महान कहलाने योग्य होती है।
मैं चाह रहीकेवल प्रभु के
श्री चरणों की सेवा करना,
मैं कर लूँगी संतोष मिले
यदि गायों की सेवा करना।
प्रभु के श्रीमुख से प्रवचन सुन
यह भवसागर तर जाऊँगी,
पापी हूँगुरू की कृपा हुई
तो हरि गुण गा तर जाउगी।6
शबरी’ काव्य में शिष्टाचार का बड़ी मात्रा में अनुपालन हुआ है। शिष्टाचार का अर्थ है कि - व्यक्ति समाज सुधार एवं कल्याण के लिए आधार बनकर आदर्श एवं आचार - विचार तथा धर्म का अनुपालक होकर चलना है। इस काव्य में शबरी भी सामाजिक रूढ़ियों तथा अंधविश्वासों के प्रति जागरूक रहती है और उनका खंडन कर समाज में समानता स्थापित करती है। उसकी भावनाएँ सामाजिक शिष्टाचारों से भरपूर है। शबरी अपने आचारों से भगवान राम के दर्शन कर लेती है। जिनमें आचारों का आदर्श हैउनको भगवान जरूर प्रत्यक्ष होता है। हमारे  आचार ही हमारी रक्षा करते हैं। ऐसे शिष्टाचारमय पुरूष देवता के समान होता है। शिष्टाचार ही व्यक्ति के व्यक्तित्व को बढ़ाता है। अंत्यज और तिरस्कृत होने पर भी अपने शिष्टाचारों से शबरी समाज की प्रमुख सदस्या बन गई। उस समाज में उसका उत्थान दृष्टिगोचर होता है।
शबरी’ काव्य में राम के प्रति निहित शबरी का दास सेवा भक्ति का निरूपण हुआ है। राम ही शबरी के लिए जीवन मुक्ति दाता है। शबरी सभी कर्मों को प्रभु का श्रृंगार समझती है। वह प्रकृति दर्शन में प्रभु दर्शन का आनंद लेती है। उसमें प्रभु दर्शन के प्रति आत्मसमर्पण भावना है। बड़ी कठिन तपस्या के कारण अंत में शबरी को राम दर्शन देते हैं। शबरी के भक्ति से प्रसन्न होकर राम कहते हैं  - शबरी अंत्यज है तो क्या हुआवह भक्ति का रूप हैशिव शक्ति का रूप है। जब राम उसकी कुटी की तरफ बढ़ रहे हैं ऐसा लगता है कि आज तो सागर स्वयं नदी के द्वार पर चल कर आया है। राम को पधारे हुए देखकर वह कहती हैं कि -           
चरणों पर श्रद्धानत हो
आँसु से भींग गए पग
श्रद्धा सी झुकीविनत हो। 7
मैं तुम्हारे ही भरोसे हूँ। मुझे मुक्ति दो इस कुल कलंकिनी शुद्रा को तुम बड़भागी बना दो। वह प्रभु के चरणों में श्रद्धा और विनय भाव से झुकी हुई है। राम उसकी भक्ति से चकित होते हुए कहते है कि त्रेता युग में शबरी से अधिक श्रेष्ठ भक्त कोई नहीं। अंत में अपनी राम भक्ति के कारण वह एक शुद्रा से शक्ति बन जाती है। राम के प्रति उसके मन में अटूट श्रद्धा है। राम ही उसके लिए सर्वस्व है। स्वयं राम और लक्ष्मण वहाँ आते हैं और शबरी को तपस्वियों में शिरोमणि घोषित करते हुए कहते है -
अन्य कौन त्रेता में
जो श्रेष्ठ भक्त शबरी से
है यंत्रयज्ञ यह सब कुछ
सब सिद्ध इसी शबरी से। 8
त्रेता युग की समस्याएँ जो आज भी प्रासंगिक हैंवे ये है - वर्ग भेदवर्ण भेदजातीयता आदि। समाज की मूढ़तापरिवेशगत समस्याओं तथा गत्यवरोधों के बावजूद अपने को मानव ऊपर उठा सकता है। ऐसा वर्चस्व शबरी में है। शबरी में निष्ठा होने के कारण सामाजिक विषमताओं का सामना साहस से करती है। उन्हें उखाड़ फेंकती है। शबरी कलियुग की नारी के समान सामाजिक समस्याओं की अभिव्यक्ति को संगत और समीचीन आयाम बन कर सामने आयी है। कवि ने शबरी के माध्यम से सामाजिक रुढ़ियों एवं परम्पराओं का विवचेन और विश्लेषण कर उनकी उपयुक्त स्थिति को व्यक्त करते हुए वर्ण व्यवस्था की समकालीन समस्या का समाधान नवीन संदर्भो में किया है - व्यक्ति समाज की मूढ़तापरिवेशवातावरण तथा युग की समस्याओं के बावजूद अपने को जागृत कर सकता है। शबरी ने एक कलियुग की नारी बनकर यह विचार समाज परिवर्तन की दिशा में अपना योगदान प्रस्तुत किया है। शबरी एक कलियुग की नारी के समान ही संकोचभय हम सबकों साथ थाम लेती हुई समाज में जागरण उत्पन्न करती है।
शबरी’ काव्य में सर्व धर्मो का समन्वय हुआ है। शबरी सामाजिक धर्म के लिए सांसारिक धर्म की ओर ध्यान देती है। समाज कल्याण के लिए विश्व धर्म अर्थात् मानव धर्म की ही आवश्यकता है। केवल सामाजिक धर्म से समाज में विभिन्नता पैदा हो सकती हैलेकिन विश्व कल्याणनिष्ठा एवं मानव धर्म से समता स्थापित होती है। शबरी इसका प्रमाण है। सच्चा धर्म वही है - जो विश्व के लिए घात शक्ति न बने और विश्व मानव की सृष्टि करे।
निष्कर्ष रूप में यही कह सकते हैं कि शबरी’ नरेश मेहता की एक ऐसी कृति हैजिसमें शबरी’ के माध्यम से समाज के अंधविश्वासोंरूढ़ियोंवर्ग भेद तथा जातीयता का खुलकर खंडन किया है। शबरी एक आदर्श नारी के रूप में दृष्टिगोचर होती है। त्यागतपभक्तिलोकहितसमाज हितश्रम आदि के कारण शबरी का जीवन पावन बन जाता है। शबरी अंत्यज जाति की होने पर भी अपनी सेवा भक्ति से उस कलंक को मिटा लेती है। त्रेतायुग के मनीषी शबरी को तपस्पियों में शिरोमणि घोषित करते हुए कहते है कि शबरी से ऊपर कोई श्रेष्ठ भक्त नहीं। तब से समाज में नारी का स्थान एवं महत्ता बढ़ने लगी। शबरी अपने सेवा मनोभाव से संसार में सामाजिक जागृति पैदा करती है। शबरी प्रेम की मूर्तिसहन शक्ति का प्रतीकवर्ग भेद निवारण की मूल प्रेमिका बनकर समाज के सामने एक सभ्य नारी प्रमाणित हुई है। इस काव्य में शबरी यह भी स्पष्ट करती है कि जब कि परिवेशगत समस्याएँ होयुग के गत्ववरोध हो लेकिन मनुष्य में निष्ठा हो तो व्यक्ति समाज बन सकता है। शबरी ने भी इसी भूमिका पर वर्ण मुक्ति प्राप्त की है।
संदर्भ:-
1. श्री नरेश मेहताशबरीत्रेतालोकभारती प्रकाशनपृ.13
2. श्री नरेश मेहताशबरीदर्शनलोकभारती प्रकाशनपृ.61
3. श्री नरेश मेहताशबरीपम्पासरलोकभारती प्रकाशनपृ.25
4. श्री नरेश मेहताशबरीत्रेतालोकभारती प्रकाशनपृ.15
5. श्री नरेश मेहताशबरीतपस्यालोकभारतीप्रकाशनपृ.34
6. श्री नरेश मेहताशबरीपम्पासरलोकभारती प्रकाशनपृ.24,25
7. श्री नरेश मेहताशबरीदर्शनलोकभारती प्रकाशनपृ.58
8. श्री नरेश मेहताशबरीदर्शनलोकभारती प्रकाशनपृ.60
                                                                                 
राहुल सांकृत्यायन का इतिहास-दर्शन
मुकेश कुमार वैष्णव, शोधार्थी, हरियाणा केंद्रीय विश्वविध्यालयमो.नं.- 8502833810

Rahul Sankrityayan (9 April 1893 – 14 April 1963), who is called the Father of Hindi Travelogue Travel literature because he is the one who played a pivotal role to give travelogue a 'literature form', was one of the most widely travelled scholars of India, spending forty-five years of his life on travels away from his home. Buddhism came to him and changed his life.He lost faith in God's existence but still retained faith in reincarnation. Later he moved towards Marxist Socialism and rejected the concepts of reincarnation and afterlife also. The two volumes of Darshan-Digdarshan, the collected history of World's Philosophy give an indication of his philosophy when we find the second volume much dedicated to Dharmakirti's Pramana Vartika. This he discovered in Tibetan translation from Tibet.
Sankrityayan was a multilingual linguist, well versed in several languages and dialects, including Hindi, Sanskrit, Pali, Bhojpuri, Urdu, Persian, Arabic, Tamil, Kannada, Tibetan, Sinhalese, French and Russian. He was also an Indologist, a Marxist theoretician, and a creative writer. He started writing during his twenties and his works, totalling well over 100, covered a variety of subjects, including sociology, history, philosophy, Buddhism, Tibetology, lexicography, grammar, textual editing, folklore, science, drama, and politics. Many of these were unpublished.He translated Majjhima Nikaya from Prakrit into Hindi.
The historian Kashi Prasad Jayaswal compared Rahul Sankrityayan with Buddha. Rahul's personality was as impressive and memorable as are his achievements. He travelled widely and wrote in five languages – Hindi, Sanskrit, Bhojpuri, Pali and Tibetan. His published works span a range of genres, which include autobiography, biography, travelogue, sociology, history, philosophy, Buddhism, Tibetology, lexicography, grammar, text editing, folklore, science, fiction, drama, essays, politics, and pamphleteering. Volga Se Ganga is a collection of stories by great scholar and Writer Rahul Sankrityayan. Rahul Sankrityayan was a true vagabond who traveled to far lands like Russia, Korea, Japan, China and many others. He mastered the languages of these lands and was an authority on cultural studies.
He maintained daily diaries in Sanskrit which were used fully while writing his autobiography. In spite of profound scholarship, he wrote in very simple Hindi that a common person could follow. He wrote books of varied interest. He was aware of limitations of Hindi literature and singularly made up the loss in no small measure.
राहुल जी की समस्त उपलब्धियों का प्रमुख आधार उनकी इतिहास दृष्टि ही रही है। उनके इतिहास संबंधी ग्रंथों में हिंदी काव्य-धारापुरातत्त्व निबंधावलीदक्खिनी हिंदी काव्य-धारामध्य एशिया का इतिहासअकबरऋग्वेदिक आर्यमानव समाजवोल्गा से गंगा आदि कई महत्तवपूर्ण ग्रंथों का नाम लिया जा सकता है। राहुल जी की इतिहास दृष्टि के संबंध में गोरे लाल चंदेल का कथन है“वस्तुत: वर्तमान व अतीत के बीच एक मजबूत सूत्र होता है जो वर्तमान व अतीत को जोड़ने का काम करता है। इसी सूत्र को जब वर्तमान व अतीत को एक साथ देखने के साधन के रूप में प्रयुक्त किया जाता है तब इसे इतिहास दृष्टि की संज्ञा दी जाती है।
राहुल जी की इतिहास दृष्टि उनके अपने समाज के इतिहास संबंधी जरूरतों से विकसित होती है। यही वजह की उनकी रचनाओं में अतीत और वर्तमान का निरंतर गतिमान द्वंद्व दिखाई देता है।”1 इतिहास के अध्ययन के साथ-साथ राहुल जी भूगोल के अध्ययन में भी गहरी रुचि थी। इसे राहुल जी महत्त्वपूर्ण मानते हुए लिखते हैं“ऐतिहासिक अनौचित्य से बचने के लिए जिस तरह तत्कालीन ऐतिहासिक सामग्री और इतिहास का अच्छी तरह अध्ययन आवश्यक हैवेसे ही भौगोलिक अध्ययन की भी आवश्यकता है।”2 जिसे उनकी कई रचनाओं में भी देखा जा सकता है। उनके इतिहास दर्शन को धर्म संबंधी विचार-धाराघुमक्कड़ी विचार-धारासाम्यवादी विचार-धाराद्वंद्वात्मक भौतिकवादी दृष्टिकोण आदि कई रूपों में देख सकते हैं।
राहुल सांकृत्यायन की लेखनी किसी एक विषय की मोहताज नहीं रही है। उन्होंने साहित्य के सभी क्षेत्रों में अपनी लेखनी दौडक़र विस्तृत अध्ययन प्रतिभा का परिचय दिया। इन्होंने साहित्यइतिहासधर्मदर्शनराजनीतिभाषा आदि सभी क्षेत्रों को अपनी लेखनी में समेटा। इसलिये राहुल जी सर्वतोमुखी प्रतिभा सम्पन्नप्रतिभाशालीबहुभाषाविद्भाषाशास्त्रीदर्शनशास्त्रीयायावरराजनीतिज्ञबौद्ध-दार्शनिकइतिहासकारपुरातत्त्वेता कहे जाते थे। उन्हें संस्कृतपालिप्राकृतआपभ्रंशतिब्बतीचीनी आदि लगभग 36 भाषाएँ ज्ञान था। भाषा के संबंध में राहुल सांकृत्यायन ने लिखा हैभाषाओं का परिवर्तन अपने अंदर खास रहस्य रखता है। इस रहस्य के खुलने से मनुष्य के इतिहास पर भी बहुत प्रकाश पड़ता है। बहु भाषाविज्ञ होते हुए भी राहुल जी ने हिंदी भाषा को विशेष महत्त्व दिया। उनके हिंदी भाषा संबंधी योगदान तथा महत्त्व को प्रतिष्ठापित करते हुए नामवर सिंह ने लिखा हैराहुल जी ने अपना सारा काम चाहे वह पालि संबंधी हो या प्राकृतअपभ्रंश संबंधी हो या संस्कृतअपनी सारी जान को हिंदी में निचोड़ दिया था।’’ ......‘‘निराला के शब्दों में कहें तो हिंदी के हित का अभिमान वहदान वह। हिंदी गद्य साहित्य की अनेक विधाओं में साहित्य सृजन किया। कहानीउपन्यासनिबंधसंस्मरणजीवनीआत्मकथायात्रा- वृतांत आदि सभी क्षेत्रों में सर्जनात्मक कार्य किया।
राहुल सांकृत्यायन व्यापक दृष्टि के पालक थे। उनकी दृष्टि विविध क्षेत्रों तक व्याप्त थी। उन्होंने धर्मदर्शनइतिहासमार्क्सवादघुमक्कड़शास्त्रसमाजविज्ञानराजनीति आदि कई विभिन्न क्षेत्रों में लेखनी दौड़ाई। इन्होंने सम्पूर्ण जीवन किसी एक धर्म का अंधश्रधा से पालन नहीं किया। प्रारम्भ में उन्होंने परिवार से मिले वैष्णव धर्म का पालन किया। परन्तु उसमें व्याप्त रूढि़वादिताछुआछूतअपृश्यताअंधविश्वासमूर्तिपूजाकर्मकाण्ड आदि बुराइयों का अनुसरण न कर सके। अत: आर्य समाज के विचारों तथा मान्यताओं से प्रभावित होकर आर्य धर्म ग्रहण कर दिया। इस धर्म में भी ज्यादा दिनों तक नहीं रह सके।
श्रीलंका प्रवास के दौरान बौध धर्म तथा बाद में मार्क्सवादी बन गये और मानवावादी’ धर्म को अपनाया। किसी भी एक धर्म का जीवनपर्यंत पालन नहीं किया। धर्म को परिवर्तनशील मानते हैं। यदि धर्म हमारे विचारों को प्रभावित नहीं करता है तो बेहिचक उसे छोड़ देना चाहिये। समयानुसार वैचारिक परिवर्तन के साथ धर्म में भी परिवर्तन होना चाहिये। डॉ. कन्हैया सिंह ने लिखा है, ‘‘संसार की अन्य सभी चीजों के समान धर्म भी परिवर्तनशील है। समाज की परिस्थियिों के बदलने परतदनुसार धर्म को भी बदलना चाहिए।’’3
डॉ. कन्हैया सिंह ने आगे फिर लिखा है कि ‘‘धर्म राहुल जी का अनुयायी था न कि वे। इसलिये वे किसी भी धर्म मत को जीवन उपयोगिता से जोड़ते थे। जो धर्म जीवन की समस्याओं का समाधान करने में असमर्थ होता था वे उसे बेहिचक छोड़ देते थे। वे मत परिवर्तन को श्रेष्ठ मानते थे। वे किसी भी मत के अंधानुकरण को तुच्द और हेय मानते थे।’’ मज्जिम निकाय का यह वाक्य राहुल जी का आदर्श वाक्य बन गया ‘‘वेडे की तरह पार उतरने के लिए मैंने विचारों को स्वीकार किया न कि सिर पर उठाये उठाये फिरने के लिए।’’4
राहुल जी परलोकवादपुनर्जन्मईश्वरोपासना आदि धार्मिक विश्वासों के कटु आलोचक थे। इनके संबध में उनके विचार थे कि , ‘‘लोक की कल्पना पर जीवित रहने की अपेक्षा उसी लोक कोसुखमय बनाना चाहिए। वर्तमान जीवन का वैयक्तिक तथा सामाजिक विकास में अधिकाधिक उपयोग करना चाहिए।’’5 उनके विचारों में धर्म का अंधश्रद्धा से अनुकरण क्षय रोग के समान घातक है। धर्म को अपने शब्दों में इस प्रकार व्याख्यापित किया है, ‘‘स्वस्थ मानव का मन जिसे उचित समझे वही धर्म है। प्रचलित कुप्रथाओं के कारण रुढिग़त धर्म का पालन समाज के लिए क्षय रोग के समान घातक है।’’5 इन कुप्रथाओं का पालन धर्म के ठेकेदार अपनी रोटियाँ सेंकने हेतु करते हैं। धर्म के दिखावटीपन तथा बाहरी आवरण व अंधविश्वास को स्पष्ट करते हुए लिखते है, ‘‘जब आदमी चुटिया काट दाढ़ी बढ़ाने भर से मुसलमान और दाढ़ी मुड़ा चुटिया रखने मात्र से हिंदू मालूम होने लगता हैतो इसका मतलब साफ है कि यह भेद सिर्फ बाहरी और बनावटी है।’’6 अस्पृश्यता एक बहुत बड़ी बीमारी है। यूरोप में जिसका अभाव है। इसकी दूसरे देशों से तुलना करते हुए लिखते है, ‘‘लंदन यूनिवर्सिटी में पढऩे वाले एक चीनी छात्र हमारे पास आये और उन्होंने पूछा - ‘‘अस्पृश्यता क्या हैमैंने कुछ समझाना चाहा। उन्होंने पूछा - ‘‘क्या कोई छूत की बीमारी होती है या कोढ़ की तरह का कोई कारण होता है जिससे कि लोग आदमी को छूना नहीं चाहते?’’7
सम्पूर्ण भारतीयों को एक जाति का स्वीकार करते हैं। समस्त भारतीयों की एक ही जाति मानते हैं उसी जाति से भारत के बाहर सभी भारतीयों को जानापहचाना व पुराकारा जाता है। वे लिखते हैं, ‘‘हिन्दुस्तानी जाति एक है। सारे हिन्दुस्तानी चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमानबौद्ध हों या ईसाईमजहब के मानने वाले हों या न मानने वालेउनकी एक जाति है- हिन्दुस्तानीभारतीय।’’8 राहुल जी मानवतावादी धर्म को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं। मनुष्य की सहायता करना तथा उसकी समस्याओं का हल निकालकर उसे समस्या मुक्त करना यही मानवता है तथा यही सबसे बड़ा धर्म है। डॉ. कन्हैया सिंह ने लिखा है, ‘‘निष्कर्षत: राहुल जी का धर्म मानवतावादी भौतिकवादी था। वे मानव समाज से प्रेम करना और उनकी समस्याओं को सुलझाना ही मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म मानते हैं।’’9
‘‘साथी राहुल 1940 के अखिल भारतीय किसान सभा के पलाया (आंधप्रदेश) अधिवेशन के सभापति चुने गये।’’सभापति भाषण लिखने के दौरान भारत सुरक्षा कानून में उन्हें गिरफ्तार कर दो वर्ष का कारावास हेतु हजारी बाग जेल भेज दिया गया। वहाँ उन्होंने वैज्ञानिक भौतिकवाद’ नामक पुस्तक लिखी। उसमें उन्होंने द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद को स्पष्ट करते हुए लिखा, ‘‘द्वंदात्मक भौतिकवाद अपने को प्रचलित तर्कशास्त्र की कोटि में रखने के लिए तैयार नहीं हैक्योंकि वह दिमागी कसरत के नहीं बल्कि प्रयोग (भौतिक जगत में प्राप्त वस्तुस्थिति) को परम प्रमाण मानता हैयही उसके लिये सत्य की सर्वश्रेष्ठ कसौटी है।’’10 इसमें तर्क व मान्यताओं तथा परम्पराओं का कोई स्थान नहीं। प्रयोग तथा प्रमाण को ही सर्वोपरि माना जाता है। बिना प्रयोग के किसी तथ्य को सत्य नहीं माना जाता है।
राहुल जी ने वैज्ञानिक भौतिकवाद तथा दर्शनों के अंतर को स्पष्ट करते हुए अपनी पुस्तक वैज्ञानिक भौतिकवाद में लिखा है, ‘‘वैज्ञानिक भौतिकवाद एकमात्र प्रयोग को ही सत्य की कसौटी मानता है उसके लिये कोई ज्ञान तब तक सत्य नहीं हैजब तक कि वह प्रयोग की कसौटी पर पक्का नहीं उतरता।’’11 आगे उन्होंने स्तालिन के मन्तव्य को स्पष्ट करते हुए लिखा है - ‘‘सिद्धांत प्रयोग के बिना बाँझ है.....दार्शनिकों ने सिर्फ जगत की व्याख्या को परिवर्तित कियाकिन्तु हमारा काम हैखुद जगत को परिवर्तित करना।’’12 राहुल जी ने वैज्ञानिक भौतिकवाद के दो अंश स्वीकार किये है। जिनमें एक द्वन्द्ववाद तथा दूसरा है भौतिकवादइनका स्थान निर्धारित करते हुए उन्होंने लिखा है कि द्वन्द्ववाद हेगेल के विज्ञानवाद में था और भौतिकवाद सत्तहवीं-अठारहवीं सदी के यांत्रिक भौतिकवाद में।
अंतत: वैज्ञानिक भौतिकवाद को स्पष्ट करते हुए तथा इस संबंध में स्तालिन के विचार को प्रत्यक्षत: रखने हुए कहते है। “वैज्ञानिक भौतिकवाद किसी वादविचारदिमागी कल्पना को तब तक मानने के लिए तैयार नहींजब तक कि प्रयोग-भौतिक विश्लेषण और परीक्षण-पर ठीक न उतरेजैसा कि आज के वैज्ञानिक भौतिकवाद के जीवित सर्वश्रेष्ठ विचारक स्तालिन का कहना है- “प्रयोग बिना वाद (सिद्धान्त) नपुंसक बाझ हैवाद बिना प्रयोग अंधा है।’’13 उनकी दृष्टि में वैज्ञानिक भौतिकवाद एक श्रेष्ठ उपागम है। जिसका प्रयोग करके कल्पनातर्क तथा मान्यताओं को खण्डित कर उन्हें निरर्थक किया जा सकता है।
महान् घुमक्कड़ राहुल सांकृत्यायन ने घुमक्कडी को सर्वश्रेष्ट धर्म माना तथा घुमक्कड को समाज व राष्ट्र का हितकारी स्वीकार किया। आगे वे लिखते हैं कि घुमक्कड होना बडे सौभाग्य की बात है आजीवन उन्होनें इसी धर्म का पालन किया। यहाँ तक की उन्होंने घुमक्कड़ों की सहायता के लिए 'घुमक्कड़ शास्त्र' नामक एक पुस्तक की भी रचना की। पुस्तक के प्रथम अध्याय में लिखते हैं कि“मेरी समझ में दुनिया की सर्वश्रेस्ठ वस्तु है घुमक्कडी। घुमक्कड़ से बढ़कर व्यक्ति व समाज का कोई हितकारी नहीं हो सकता।"14 इसी का पालन करने हेतु नौ साल की छोटी उम्र में ही घर से बाहर निकल गये तथा मृत्यु-पर्यन्त कई स्थानों का भ्रमण किया। घुमक्कड को ही दुनिया की सर्वश्रेष्ठ विभुति मानते हैं। उनका मानना है कि इसी घुमक्कड़ी ने ही दुनिया को बनाया है। उन्होंने महात्मा बुद्धमहावीर स्वामीप्रभु ईसाशंकराचार्यगुरु नानकदयानन्द सरस्वती कोलम्बसवास्को डी-गामा आदि कई महान् घुमक्कड़ों का उदाहरण देकर यह स्पष्ट किया कि इन्होंने ही कूपमण्डूकता की चहारदीवारी को तोडक़र समाज व राष्ट्र का विश्व में स्थान निर्धारित किया। धर्मसंस्कृतिविचार आदि का परस्पर आदान-प्रदान करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। घुमक्कड़ की भूमिका को स्पष्ट करने हुए लिखा है।“ ..... उसी ने आज की दुनिया को बनाया है।
यदि आदिम-पुरुष एक जगह नदी या तालाब के किनारे गर्म मुल्क में पड़े रहतेतो वह दुनिया को आगे नहीं ले जा सकते थे।’’15 इस कार्य को इतना आसान नहीं मानते। संसार का हर एक प्राणी इस धर्म का पालन नहीं कर सकता। क्योंकि इस धर्म का पालन करने हुत उसे सभी पारिवारिक रिश्ते तोडऩे पडऩे हैं जो इतना आसान काम नहीं हैपरन्तु यदि घुमक्कड़ बनना है तो उसे किसी की परवाह नहीं करनी चाहिएराहुल जी लिखते हैतो उसे किसी की परवाह करनी चाहिएन पिता के भय और उदास होने कीन भूल से विवाह लाई अपनी पत्नी के रोने-धोने की फिक्र करनी चाहिए और न किसी तरुणी को अभागे पति के कलपने की।’’16 बिना किसी की परवाह किए दृढ़ निश्चय करके अपने कर्त्तव्य पथ की ओर उन्मुख हो जाना चाहिये। जो इनकी परवाह करता है वह कभी इस धर्म का पालन नहीं कर कर सकता।
यह भी आवश्यक नहीं कि धनवान ही अधिक पैसा खर्च करके घुमक्कड बन सकता है। यदि कोई धनी युवक इसका पालन करता है, ‘‘तो उसे अपनी धन-सम्पति से संबंध विच्छेद कर लेना चाहिए अर्थात् समय-समय पर केवल उतना ही पैसा पॉकेट में लेकर घूमना चाहिए जिसमें भीख माँगने की नौबत न आये और साथ ही भव्य होटलों और पाठशालाओं में रहने का स्थान न मिल सके।’’17 इसके लिए आत्म-सम्मानस्वाभीमाननिडरवाचालबहुभाषाविज्ञकर्मण्यप्राथमिक चिकिकत्सा का ज्ञान आदि गुणों की आवश्यकता है।
राहुल जी ने इस धर्म को सार्वदैशिक विश्वव्यापी धर्म थी संज्ञा दी है। यह किसी धर्मसम्प्रदायवर्गक्षेत्र आदि तक सीमित नहीं है। युवतियाँ भी इस धर्म को अपना सकती है। परन्तु वे इसके लिए इनकी संख्या का निर्धारण करते हैं। तरुणियों को तीन की संख्या में धुमक्कडी करनी चाहिए। इस संबंध में आगे लिखते है, ‘‘तीन की संख्या आरम्भिक यात्राओं के लिए हैअनुभव बढऩे के बाद उसकी कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। एको चरे खग्ग विसाण-कप्पो’’ (गैंडे के सींग की तरह अकेले विचरे) घुमक्कड के सामने तो यही मोटो होना चाहिए।’’18 इन्होंने घुमक्कडों को कई श्रेणियों में विभक्त किया है। प्रथम श्रेणीद्वितीय श्रेणीतृतीय श्रेणी आदि कई श्रेणियाँ बनाई है। प्रथम श्रेणी के घुमक्कड़ को इन्होंने श्रेष्ठ माना है। महावीर स्वामीमहात्मा बुद्धशंकराचार्य सभी प्रथम श्रेणी के घुमक्कड को हम श्रेष्ठ पुरुष मानते हैं। वह मानव-मानव में संकीर्ण भेदभाव को नहीं पसन्द करता। सभी धर्मों ने मानवता की जो अमूल्य सेवाएँ भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में की हैउसकी वह कदर करता हैयद्यपि धर्मान्धों को वह क्षमा नहीं कर सकता।’’18
इनकी घुमक्कडी की तुलना चीनी यात्री हेनसांग से की जाती है। इन्होंने भी हेनसांग की तरह बौद्ध साहित्य के उत्थान व खोज हेतु घुमक्कड़ी को अपनाया। डॉ. कन्हैया लाल ने इसकी तुलना करते हुए लिखा है, ‘‘हेनसांग की भाँति ही आधुनिक युग में महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने लंकातिब्बत और चीन की यात्रा कर भारत में अनुपलब्ध बौद्ध साहित्य की खोजकर उसका संग्रह कार्य किया।’’
राहुल जी की घुमक्कडी व लेखनी की निरंतरता को स्पष्ट करते हुए डॉ. कन्हैया सिंह ने लिखा है, ‘‘वैसे वे जीवन भर चलते रहेवैसे ही उनकी लेखनी भी सतत् चलती रही। उनकी कलम तथा चरण एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते थे।’’18 परिवर्तनवादी विचारधारा के कारण वे बौद्ध धर्म में ज्यादा समय तक नहीं रह सके। अंतत: ‘‘19 अक्टुबर 1939 ई. को राहुल जी भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी के सदस्य बन गए। इस समय वे पूर्ण नास्तिक और मार्क्सवादी भौतिकवादी थे।’’18 इसी दिन को स्मरणीय दिवस के रूप में मानते हुए पार्टी की अपनी सदस्यता के बारे में राहुल जी लिखते हैं, ‘‘अनुशासन रहित भीड़ का सेनापति होने की जगह अनुशासन बद्ध सेना का एक साधारण सैनिक होना ज्यादा अच्छा है।’’ 18
हिंदी व उर्दू के मुद्दे को लेकर पार्टी से अलग हो जाने हैं परन्तु वे वैचारिक तौर से पार्टी से कभी अलग नहीं हुए। कार्यकताओं व मित्रों से उनका व्यवहार वैसा ही रहा। अधिक समय तक वे पार्टी से अपने आप को अलग नहीं रख सके। ‘‘अत: सन् 1955 ई. में पुन: कम्युनिष्ट पार्टी की सदस्यता प्राप्त की और फिर आजन्म साम्यवादी ही रहे।’’ 19
पूँजीवाद की परिभाषा को उन्होंने अपने शब्दों में स्पष्ट करते हुए लिखा है, ‘‘पूँजीवाद धन-अर्जन का वह खास ढंग है जिसमें एक मनुष्यदूसरा कोई प्रभुत्व न रखते हुएसिर्फ अपनी पूँजी के बल पर चीजों के बनाने के बहुमूल्य साधनों पर अधिकार कर बहुसंख्यक मनुष्यों के श्रम के कितने ही भाग को मुक्त ही अपने निजी और अपनी मददगार पूँजी के बढ़ाने में उपयोग करता है।’’ 20 ‘‘पूँजीवाद कुछ लोगों को धनी बना कर उनके लिए सुख और विलास की नई-नई सामग्री जुटा सकता है।’’ इसकी शुरुआत उन्होंने भाप यंत्रों के आविष्कार से ही मानी है। उनका मानना है कि भाप के यंत्रों के आविष्कार से कल-कारखानों का विकास हुआजिससे उनके मालिकों का एक नया वर्ग बन गया। उन्हें मजदूरों का शोषण व पूँजी वृद्धि का अत्यधिक लोभ होने लगा जिससे समाज में पूँजीवाद की स्थापना में सहयोग मिला। वे लिखते है कि ‘‘ज्यादा नफा होने पर भी मशीनों का दाम अधिक होने से कारीगर स्वयं उन्हें खरीद नहीं सकता था। इस प्रकार पूँजीवाद का आरम्भ भाप की भौतिक शक्तियों द्वारा संचालित मशीनों के आविष्कार के साथ होता है।’’ 21 वहीं दूसरी तरफ राहुल जी ने वैज्ञानिक आविष्कारों को समाज के लिए घातक नहीं माना तथा न ही इनको पूँजीवाद के उदय का कारण माना है। समाज की व्यवस्था तथा असमान वितरण को ही पूँजीवाद के उदय का हेतु स्वीकार किया है। आविष्कारों का उपयोग वैयक्तिक लाभ के लिए जब किया जाता है तभी पूँजीवाद का उदय होता है। ‘‘जब इन आविष्कारों का इस्तेमाल वैयक्तिक नफे के लिए करना शुरु किया गयातभी बेकारी की यह भारी समस्या पैदा हुई।’’ 22 साम्यवाद द्वारा सुझाये बेकारी की समस्या के हल को राहुल जी स्पष्ट करते हुए लिखते है, ‘‘छह आदमी जितने कपड़े को बारह घंटे में बना सकते थेयदि मशीन द्वारा एक आदमी ही उतने कपड़ों को बारह घंटे में बना सकता हैतो उस बारह घंटे के काम को हम छह आदमियों में दो-दो घंटा कर के बाँट सकते हैं। बेकारी का यह बहुत अच्छा हल है जो साम्यवाद पेश करता है।’’ 23
राहुल जी किसानों व मजदूरी की समस्त समस्याओं का समाधान इसी साम्यवादी पार्टी में ही मानते थे। जब किसानों व मजदूरों ने पार्टी के विचारों को स्वीकार किया तथा पार्टी को अपना समर्थन देने उचित समझा। किसानों का भविष्य इस व्यवस्था में ही सुरक्षित मानते हुए लिखा है, ‘‘किसानों ने अपना भविष्य चुन लिया है। हजारों वर्ष से वे भाग्य और भगवान का ख्याल करके भूखों मरते आये। अब धनिकों और सत्ताधारियोंपूँजीपतियों और साम्राज्यवादियों के अन्यायपूर्ण कानूनयह नाटकीय जीवन बिताने के लिए उन्हें मजबूर नहीं कर सकते। अपमान और लाँछनाएँजेल और हथकडिय़ाँकिसान कार्यकर्ताओं की हिम्मत को तोड़ नहीं सकती।’’ 24
भाप के आविष्कार को पूँजीवाद व साम्यवाद समाज हित के लिए स्वीकार करते हैं तथा विज्ञान के आविष्कारों को काम में लेने के पक्ष में हैंराहुल जी ने लिखा है, ‘‘दोनों ही विज्ञान के आविष्कारों को काम में लाने के पक्ष में हैं 25 परंतु आगे वे दोनों के उद्देश्य में अंतर को स्पष्ट करते हुए लिखते है ‘‘किन्तु जहाँ पूँजीवाद कुछ आदमियों के नफे के लिए सारे मानव-समाज को नरक बनाने के लिए तैयार हैवहाँ साम्यवाद का ध्येय है कुछ मनुष्यों के स्वार्थ के लिए नहीं बल्कि सारे मनुष्य समाज के लिए सुख-सामग्री की वृद्धि करना।’’25 ‘‘सारे देश या विश्व को एक सम्मिलित परिवार बना देना और देश की सारी सम्पति को उस परिवार की सम्पत्ति करार कर देना।’’ 25 साम्यवाद स्त्री स्वतंत्रता प्रदान करता है। क्योंकि यदि स्त्री आर्थिक दृष्टि से सक्षम है तो उसकी स्वतंत्रता में आने वाली बाधाओं में कमी आ जाती है। साम्यवाद स्त्रियों को आर्थिक स्वतंत्रता प्रदान करता है, ‘‘स्त्रियों की स्वतंत्रता साम्यवाद ही में संभव हैक्योंकि वह उन्हें सभी स्वतंत्राओं की जननीआर्थिक स्वतंत्रता प्रदान करना है।’’ 26
साम्यवाद की अपने अधिकारों की मांग को लेकर चल रही लड़ाई तब तक समाप्त नहीं होगी जब तक कि समाज में आर्थिक समानताभेदभाव रहित मानव समाजशोषण मुक्त समाजशोषक व शोषित वर्ग की समाप्ति नहीं हो जाएगी। इस लड़ाई की समाप्ति के उपरांत समाज की स्थिति व परिणाम के संबंध में राहुल जी लिखते है, ‘‘इस प्रकार साम्यवाद का युद्ध तब तक जारी रहेगा जब तक कि संसार में धनी-गरीबशोषक-शोषित का भेद मिट न जाएगा। जब वर्ग भेद रहित मानव समाज कायम हो जाएगाउस समय वर्तमान की कठिनाईयों ही दूर न हो जाएगीबल्कि उसकी अनेक प्रकार की चिंताओं और अव्यवस्थाओं के दूर हो जाने से मानव-जीवन अधिक शांतिमयसुखमय और संतोषमय होगा और प्राकृतिक आपदाओं से आने पर अधिक तैयारी मुसौदीसंयम और धर्म के साथ उनका मुकाबला किया जा सकेगा। मनुष्य का मनुष्य के साथ बर्ताव भी उस समय अधिक प्रेमसहानुभूति और समानतापूर्ण तथा दिखावट शून्‍य होगा।’’ 26        
राहुल जी की साम्यवादी विचारधार को स्पष्ट करते हुए ब्रजेश कुमार श्रीवास्तव ने लिखा है, ‘‘राहुल जी के सम्पूर्ण चिन्तन एवं कृतित्व पर दृष्टि डाली जाये तो हम पाते है कि उनकी विचारधारा सदैव साम्यवादी विचारधारा से प्रभावित रही थी। इसी कारण शोषितोंदलितोंअसहायों एवं निर्धनों के प्रति उनकी सदैव सहानुभूति रही।’’ 27 साम्यवाद की स्थापना के पीछे उनका मूल उद्देश्य है समाज को आर्थिकसामाजिक आदि कई आधारों पर समानता की स्थापना तथा वैयक्तिक लाभ के स्थान पर सामूहिक लाभ को प्रोत्साहन।
सामंत युगीन काव्य की पृष्टभूमि की चर्चा करते हुए राहुल जी लिखते हैं, ‘‘कवियों ने जो खास-खास शैली भावको लेकर कवितायें कीवह देश की तत्कालीन परिस्थिति के कारण ही।’’ 28 तत्कालीन सम्पत्ति व विलास की समस्त सुख-सुविधाओं का भोग सामज के विशेष वर्ग के लोग ही करते थे जिनमें सामंत प्रमुख थे। ‘‘वस्तुत तत्कालीन भारत की अपार सम्पति के मुख्य भोगने वाले थेयही सामन्त पुरोहित और सेठ तथा उनके दरबारी-खुशामदी।’’29 सामंतों के वैभव तथा उनके युद्ध कौशल का वर्णन करते हुए राहुल जी लिखते है, ‘‘किसी सामन्त (राजा) के लिए बड़े शर्म की बात होती यदि वह छोटा-मोटा दिग्विजय न करता या कम से कम किसी पड़ौसी राजा की कुमारी को न पकड़ लाता। यह सामन्तयुग के यौवन का समय था।’’30
सामंतों को युद्ध के दौरान मिलने वाली पराजय के उपरांत उन्हें सिद्धों की कविता का सहारा लेना पड़ता। ‘‘हाँयदि कभी पराजय का मुँह देखना पड़ातब या तो सरहपा के पास जाना पड़ता या किसी अपने कवि से निराशावादी बात सुन संतोष करना पड़ता।’’ 31 सामन्तीय वैभवविलासइनकी सामाजिक उपयोगिता व साहित्यिक पृष्ठभूमि को आधार मानकर ही राहुल जी ने इस समय का नामकाल सिद्ध सामंत युग’ रखा। जिसकी उपयोगिता को नकारना हमारे लिए हानिकारक बनाया। वे हिंदी काव्यधारा की भूमिका में लिखते है, ‘‘बीच की पाँच सदियों के अपभ्रंश काव्यों का थोड़ा सा भी अनुशीलन हमें लाभ ही पहुँचायेगा....’’ यह न केवल हिंदी हीबल्कि बगलागुजरातीमराठीसिंधीउड़ीसापंजाबीराजस्थानीमराठीमैथिलीभोजपुरी आदि भाषाओं की समिलित निधि हैसिद्ध-सामंत-युगीन जन साहित्यिकी अवहेलना हमारे लिए परम हानिकर होगी।’’ 32
राहुल जी की व्यापक इतिहास दृष्टि का ही परिणाम है कि उन्होंने साहित्य को समृद्ध किया तथा हिंदी साहित्य को अपना अविस्मरणीय योगदान दिया।
संदर्भ


[1]. ज्योतिष जोशी- जैनेन्द्र और नैतिकता, पृष्ठ सं. 84
[2]. जैनेन्द्र- त्यागपत्र, पृष्ठ सं. 25
[3]. जैनेन्द्र- त्यागपत्र, पृष्ठ सं. 38
[4]. जैनेन्द्र- त्यागपत्र, पृष्ठ सं. 56
[5]. जैनेन्द्र- त्यागपत्र, पृष्ठ सं. 12
[6]. जैनेन्द्र- त्यागपत्र, पृष्ठ सं. 10-11
[7]. जैनेन्द्र- त्यागपत्र, पृष्ठ सं. 57
[8]. जैनेन्द्र- त्यागपत्र, पृष्ठ सं. 32
[9]. जैनेन्द्र- त्यागपत्र, पृष्ठ सं. 31
[10]. ज्योतिष जोशी- जैनेन्द्र और नैतिकता, पृष्ठ सं. 84


1)   उद्धृतराहुल सांकृत्यायन: एक इतिहासपरक अनुशीलनब्रजेश कुमार श्रीवास्तवकिताब महल- इलाहबादसंस्करण-2004, पृष्ठ संख्या-182
2)    उद्धृतवहीपृष्ठ संख्या-183
3)    उद्धृतराहुल सांकृत्यायन समग्र अनुशीलनडॉ.कन्हैया सिंहकिताब महल-इलाहबादसंस्करण-1994, पृष्ठ संख्या-160
4)   उद्धृतराहुल सांकृत्यायन समग्र अनुशीलनडॉ.कन्हैया सिंहकिताब महल-इलाहबादसंस्करण-1994, पृष्ठ संख्या-6-7
5)   वहीपृष्ठ संख्या-62
6)   वहीपृष्ठ संख्या-61-62
7)   उद्धृतराहुल सांकृत्यायन:एक इतिहासपरक अनुशीलनब्रजेश कुमार श्रीवास्तवकिताब महल-  इलाहबादसंस्करण-2004, पृष्ठ संख्या-11
8)   राहुल सांकृत्यायन समग्र अनुशीलनडॉ.कन्हैया सिंहकिताब महल-इलाहबादसंस्करण-1994, पृष्ठ संख्या-62
9)    वही ।
10)   तुम्हारी क्षयराहुल सांकृत्यायनकिताब महल-इलाहबादसंस्करण-2014, पृष्ठ संख्या-13
11)   वहीपृष्ठ संख्या-45
12)   वहीपृष्ठ संख्या-52
13)   राहुल सांकृत्यायन समग्र अनुशीलनडॉ.कन्हैया सिंहकिताब महल-इलाहबादसंस्करण-1994, पृष्ठ संख्या-62
14)  [i] वैज्ञानिक भौतिकवादराहुल सांकृत्यायनलोक भारती प्रकाशन- इलाहाबादसंस्करण-2014 पृष्ठ संख्या-9
15)   वैज्ञानिक भौतिकवादराहुल सांकृत्यायनलोक भारती प्रकाशन- इलाहाबादसंस्करण-2014 पृष्ठ संख्या-21
16)   वहीपृष्ठ संख्या- 37
17)    वही।
18)   वहीपृष्ठ संख्या- 129
19)   घुमक्कड़ शास्त्रराहुल सांकृत्यायनकिताब महल- इलाहाबादसंस्करण-२०१५ पृष्ठ संख्या-७
20)   वहीपृष्ठ संख्या-8
21)   वहीपृष्ठ संख्या-12
22)   वहीपृष्ठ संख्या-53
23)   वही।
24)   राहुल सांकृत्यायन:एक इतिहासपरक अनुशीलनब्रजेश कुमार श्रीवास्तवकिताब महल-  इलाहबादसंस्करण-2004, पृष्ठ संख्या-60
25)   राहुल सांकृत्यायन समग्र अनुशीलनडॉ.कन्हैया सिंहकिताब महल-इलाहबादसंस्करण-1994, पृष्ठ संख्या-85
26)   वहीपृष्‍ठ संख्‍या -89
27)   वहीपृष्‍ठ संख्‍या -61
28)   महापण्डित राहुल सांकृत्‍यायनगुणाकर मुलेनेशनल बुकइंडियासंस्‍करण-1998
29)   साम्‍यवाद ही क्‍यों?, राहुल सांकृत्‍यायनकिताब महल- इलाहाबादसंस्करण-2015 पृष्ठ संख्या-17
30)   वहीपृष्‍ठ संख्‍या -28
31)   वहीपृष्‍ठ संख्‍या -18
32)   वहीपृष्‍ठ संख्‍या -25


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