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BHASHIKI ISSN: 2454-4388 (Print): Quarterly International Refereed Research Journal of Language, Applied Linguistics, Education, Media, Translation and Literary Analysis भाषा, अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान, शिक्षा, मीडिया तथा साहित्य-विश्लेषण की संदर्भ-रिसर्च तिमाही अंतर्राष्ट्रीय संवाहिका

Thursday 28 February 2019

‘हिंद स्वराज’ की प्रासंगिकता: आधुनिक संदर्भ (Relevance of 'Hind Swaraj' in current era)


हिंद स्वराजकी प्रासंगिकता: आधुनिक संदर्भ
       प्रोफेसर राम लखन मीना, राजस्थान केंद्रीय  विश्वविद्यालय, राष्ट्रीय राजमार्ग-8, बांदर सिंदरी, अजमेर (राज) मो. 94133 00222

मेरे इस शोधपत्र का मुख्य उद्देश्य यह पता लगाना है कि क्या गाँधी की एक सौ दस साल पुरानी रचना हिंद स्वराजआज इक्कीसवीं सदी के लिए दुनिया और भारतवासियों की सहयात्री बन सकती है? ‘हिंद स्वराजको कई दृष्टियों से देखा और विश्लेषित किया गया है। महान लेखक टॉलस्टॉय ने इसे भारत ही नहीं बल्कि पूरी मानवता के लिए सर्वोच्च महत्व की पुस्तक माना था। इसमें यह भी बताने की कोशिश की गयी है कि एक सदी बाद भी हिंद स्वराजको कैसे पढ़ा जा रहा है और पढ़ने की इस प्रक्रिया में अलग अलग किस्म के लोग किस प्रकार अपने विचारधारात्मक स्वार्थ सिद्ध कर रहे हैं। उन्हें भारतीय समाज, राज्य और लोकतंत्र की कोई चिन्ता भी है या नहीं। हिंद स्वराजमें सौ साल पहले जो सवाल उठाये गये थे, वे आज भी समकालीनता को व्याख्यायित करने में सहायक हैं, जैसे कांग्रेस, बंगाल का बंटवारा, असंतोष और अशांति, स्वराज क्या है? हिन्दु और मुसलमान, भारत की दशा, भारत को आजादी कैसे मिले, इटली और भारत, पाशविक शक्ति, सत्याग्रह, शिक्षा, मशीन, सभ्यता क्या है? ये सारे सवाल एक सचेत मनुष्य के भीतर अपने समय के दबावों से उपजे हैं। इनसे से कुछ को छोड़ कर अधिकतर उसी तरह जरूरी हैं। इनमें सभ्यता का सवाल महत्वपूर्ण है। हिंद स्वराजएक किताब के रूप में सहजता और गहनता के अतीन्द्रिय संगम की तरह है।
आधुनिक सभ्यता को गाँधी जी शैतानी सभ्यताकहते हैं।1 उनके अनुसार यह सभ्यता बिगाड़ करनेवाली है, जो मनुष्य को एक पुर्जामानती है। गाँधी जी अतिशय भोगऔर शरीर सुखको निम्न श्रेणी की प्रवृत्ति मानते हैं। इसी प्रवृत्ति के वशीभूत होकर मनुष्य ऊंची प्रवृत्तियों से विमुख होता चला जाता है। गाँधी जी के अनुसार मनुष्य को जीवन की न्यूनतम सुविधाओं के साथ जीने की आदत डालनी चाहिए। न्यूनतम सुविधा ही मनुष्य का हकहै, इससे अधिक का चाहना एक तरह से चोरीहै। आधुनिक सभ्यता मनुष्य की जरूरतों को पूरा ही नहीं करती वरन उसकी जरूरतों को बढाती हैं। यही कारण है कि गाँधी जी इस आधुनिक सभ्यता के बरक्स प्राचीन सभ्यता को महत्वपूर्ण मानते हैं। आज जो हो रहा है उस समय की गयी भविष्यवाणी है जो अब सत्य में बदल रही है। ...न्यायमाता की आंखों पर पट्टी बंधी है, उसके ही नीचे व इर्द-गिर्द जज अपने जातिवादी और भ्रष्ट करतब दिखा रहे हैं। न्यायाधीशों के सिर पर गाँधी लटके हैं, पर कोर्टों में जो हो रहा है वह शर्मनाक और निंदनीय है। ...बहुमत का निर्णय माना ही जाना चाहिए, यह भावना तो करीब-करीब सभी पारम्परिक समाजों के लिए नयी बात है। यह एक अधार्मिक और अनैतिक बात है। एक वहम है। इस वहम को सिर्फ गाँधी का सत्याग्रह ही दूर कर सकता है।
गाँधी के साथ बिडम्बना यह रही है कि उन्हें न तो उनके अनुयायियों ने समझा और न ही विरोधियों ने। उनके अनुयायियों और विरोधियों दोनों ने ही गाँधीवाद या फिर गाँधी को नीम की चटनी खाने, धोती पहनने, चरखा कातने, ब्रह्मचर्य, आश्रम स्थापित करने आदि के संदर्भों में ही जाना व समझा। गाँधी की ज्ञानमीमांसाको समझने की मुकम्मल कोशिशें इक्का-दुक्का ही हुई हैं, जोकि न के बराबर हैं। दरअसल गाँधी के चिन्तन का दायरा काफी विस्तृत है और उसे सिर्फ एक किताब हिंद स्वराजके आलोक में मुकम्मल तरीके से नहीं समझा जा सकता। गाँधी को समझने के लिए हिंद स्वराजके साथ-साथ उनके भाषणों, उनके पत्रों, उनके रचनात्मक कार्यक्रमों, राजनीतिक आंदोलनों आदि को समझना होगा। मेरा जीवन ही मेरा संदेश कहने वाले गाँधी को सिर्फ एक किताब में समेट कर देखना कहीं से भी न्यायसंगत नहीं होगा। हिंद स्वराजएक टेक्स्ट की तरह पढ़ने की कोशिश तत्कालीन व आज के समकालीन संदर्भों में की जाय। महात्मा गाँधी जब सत्य को ईश्वर कहते और स्वराज्य की कुंजी सत्याग्रह को बताते हुए उसे आजमाने के लिए स्वदेशी को अपनाने की बात करते हैं तो स्वयमेव यह स्पष्ट हो जाता है कि स्वदेशी पर आधारित व्यवस्था ही सत्याग्रही अर्थात् ईश्वरीय नियम की व्यवस्था है।2
मेरा मानना है कि आमतौर पर गाँधीवाद की और खासतौर से हिंद स्वराजकी पृष्ठभूमि में पश्चिमी विरासत है जिसके शीर्ष पर लियो टॉलस्टॉय, जान रस्किन और हेनरी डेविड थोरो मौजूद हैं। टॉलस्टॉय की आत्मकथा किंगडम ऑव गॉड इज विदिन अस का अध्ययन किये बिना गाँधी अहिंसा का शास्त्र नहीं रच सकते थे। रस्किन की रचना अनटु दिस लास्ट के बिना वे अंत्योदय और सर्वोदय का सिद्वांत सूत्रबद्व नहीं कर सकते थे। इसी तरह थोरो की रचना एसेज ऑन दि ड्यूटी ऑफ सिविल डिसओबीडिएँस की प्रेरणा के बिना सत्याग्रह, सविनय अवज्ञा या सविनय प्रतिरोध की अवधारणा का ऐसा विकास नहीं हो सकता था। जाहिर है कि गाँधी के ये प्रशंसक उनसे भी ज्यादा पश्चिम विरोधी या गैर पश्चिमी हैं।  गाँधी जी तो महात्माको एक इतना पवित्र शब्द मानते हैं कि उसका हल्के ढंग से किसी के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। मेरे (गाँधी) जैसे व्यक्ति के लिए तो कतई नहीं जो केवल सत्य का विनम्र अन्वेषक होने का दावा करता है, जिसे अपनी सीमाओं की जानकारी है, जो गलतियाँ करता है और करने पर उन्हें स्वीकार करने में कतई नहीं हिचकता और बिना हिचके एक वैज्ञानिक की भांति मान लेता है कि वह तो जीवन के कुछ चिरंतन प्रकारोंके बारे में प्रयोगरत है।
सबसे बड़ी बिडम्बना है स्वतंत्र भारत में हिंद स्वराजको अपनाये बिना ही उसे अप्रासंगिक घोषित कर दिया गया। हिंद स्वराजही नहीं बल्कि सम्पूर्ण गाँधीवाद के साथ एक बहुत बड़ा अन्याय यह हुआ कि उसके अनुसार राजनीतिक आर्थिक व्यवस्था चलाने का प्रयास न के बराबर हुआ। भारत ही नहीं बल्कि दुनिया की किसी भी राजसत्ता ने गाँधीवादी मॉडल को अपनाने की कोशिश नहीं की। पूंजीवादी मॉडल को अपनाया गया और उसमें भयंकर खामियाँ पायी गयीं। इसी तरह, मार्क्सवादी मॉडल को अपनाया गया और वह असफल हो गया। गाँधीवादी मॉडल को तो अपनाया ही नहीं गया, इसलिए इसकी अप्रासंगिकता की बात करना बहुत बेमानी है।3 जहाँ तक इतिहास और वर्तमान के अनुभवों का प्रश्न है वहाँ गाँधीवाद का प्रयोग अत्यंत सफल रहा है। इसकी सबसे बड़ी मिसाल भारत का राष्ट्रीय आंदोलन है। उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष में गाँधीवादी उपकरण ही सबसे अधिक कारगर रहा। इतनी विराट जनसंख्या ने संघर्ष के गाँधीवादी तरीकों को अपनाया और अंततः सफलता भी प्राप्त की। गाँधी बहुत से समाज सुधारकों की तरह परम्परा, जातिवाद, ब्राह्मणवाद आदि का तिरस्कार करते हुए डरते नहीं। यही क्रिटिकल इनसाइडर का काम है और इसीलिए आधुनिकता के लिए किये गये उदारवादी तथा मानवीय संशोधनों को भी स्वीकारते हैं, जिससे कि तेजी से बदलती हुई दुनिया में हम अपनी आधुनिकता को सही ढंग से परिभाषित कर सकें।
विश्व के संदर्भ में देखें तो लम्बे समय तक चलने वाले दो बड़े आंदोलनों मार्टिन लूथर किंग जूनियर के नेतृत्व में अमेरिका में अश्वेतों का संघर्ष और दक्षिण अफ्रीका में नेल्सन मंडेला के संघर्ष के प्रेरणास्रोत गाँधी ही थे। गाँधीवादी रास्तों पर चल कर ही इन आंदोलनों ने अपने लक्ष्यों को प्राप्त किया। हिंसक संघर्षों की लगातार असफलता ने दुनिया के सामने कोई और विकल्प छोड़ा ही नहीं है। आज भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के बहुत से समाजसेवी और चिन्तक जो संसार को सुंदर बनाने के संघर्ष में लगे हुए हैं, वे सभी किसी न किसी अर्थ में गाँधी से जुड़ाव महसूस करते हैं। दुनिया में हर तरफ बढ़ती हिंसा और प्राकृतिक संसाधनों के अधाधुंध शोषण से पर्यावरण और मानवीय जीवन पर आ रहे संकट ने दुनियाभर के चिन्तकों का ध्यान हिंद स्वराजकी तरफ खींचा है क्योंकि यह पुस्तक सतत् विकास’ (सस्टनेबल डेवलपमेण्ट) की संकल्पना को सर्वाधिक प्रामाणिक रूप से रेखांकित करती है। मानवता की इन चिन्ताओं से जुड़ी होने के कारण हिंद स्वराजएक ग्लोबल टेक्स्टबन गया है। स्थानीयता से अपनी सार्वभौमिकता का अनूठा उदाहरण हिंद स्वराजहै। इसलिए, पिछले दो तीन दशकों से हिंद स्वराजको पश्चिमी औद्योगिक सभ्यता की प्रमाणिक भारतीय आलोचना से कहीं अधिक व्यापक संदर्भ में देखा जा रहा है। इसका एक वैश्विक स्वरूप उभर कर सामने आ रहा है।
हिंद स्वराजको समझना वास्तव में गाँधी को समझना है। गाँधी-वाङ्मय को समझने के निर्देशक सिद्धांत’ ‘हिंद स्वराजमें मौजूद हैं। इस आलेख में मैं हिंद स्वराजकी मूलभूत अंतर्दृष्टि को रेखांकित करने की कोशिश करूंगा। विस्तार से बचने के लिए मैं उन पहलुओं को छोड़ दूंगा जिन पर पर्याप्त चर्चा हो चुकी है, और जिन पर विभिन्न विद्वानों ने पहले ही बहुत कुछ लिख दिया है। गाँधी और हिंद स्वराजपर इतना महत्वपूर्ण कार्य हो चुका है कि किसी मौलिकता का दावा करना तो मूर्खतापूर्ण होगा, किन्तु बलाघात के फर्क से भी कई बार अर्थ बदल जाता है। गाँधी ने कहा था कि मेरा जीवन ही मेरा संदेश है। नेहरू ने जैसे इसी बात की तस्दीक करते हुए गाँधी के नाम अपने पत्र में लिखा कि बापू आप अपनी छोटी-छोटी किताबों से कहीं ज्यादा बड़े हैं।4हिंद स्वराजगाँधीवाङ्मय की मूलभूत कृति है और गाँधी का हिंद स्वराजमें लिखी बातों पर विश्वास अंतिम समय तक अक्षुण्ण बना रहा। एँथोनी परेल ने अपनी महत्वपूर्ण कृति हिंद स्वराज एँड अदर राइटिंग (2007) में गाँधीवाङ्मय में हिंद स्वराजकी केन्द्रीयता का विशद विवेचन किया है। उस विस्तार में जाने की न तो आवश्यकता है और न ही सार्थकता, क्योंकि उन बातों से हम भलीभांति परिचित हैं। सिर्फ यह ध्यान रखने की जरूरत है कि पॉवेल ने अदर राइटिंग के अंतर्गत गाँधी की जिन अन्य कृतियों का उल्लेख किया है, वे पॉवेल के अनुसार हिंद स्वराजकी पूरक हैं, इसलिए हिंद स्वराजको ठीक से समझने के लिए इन कृतियों को भी ध्यान में रखने की जरूरत है।
हिंद स्वराज पहली किताब थी जिसने स्वराज और उसकी विपरीत स्थिति, कुराज, का विश्लेषण किया। गरीबी, अशिक्षा और लिंग भेद का खयाल किये बिना हर व्यक्ति को मताधिकार देने का साहसपूर्ण संवैधानिक निर्णय गाँधी के इसी विश्वास (सबसे कमजोर को भी वही अवसर मिलना चाहिए जो सबसे मजबूत को प्राप्त है’) की पुष्टि करता है। डॉ भीमराव आम्बेडकर को कांग्रेस के टिकट पर संविधान सभा में चुनवाने का आग्रह करके गाँधी ने आरक्षण का रास्ता साफ किया, जिसने भारतीय समाज को भविष्य में हो सकने वाले जाति-युद्धों से बचा लिया। अहिंसा की राजनीतिक अवधारणा ही देश में हर समस्या को तर्काधारित बहस मुबाहिसे के जरिए हल करने की इजाजत देती है। सार्वजनिक जीवन में तर्कबुद्धि आधारित वाद-विवाद और न्याय के सिद्धांत का जो सूत्रीकरण आगे चल कर हेबरमास या रॉल्स जैसे सिद्धांतकारों ने गाँधी का उद्धरण दिये बिना किया, अपने उत्तर हिंद स्वराजजीवन में गाँधी उसी तरह की परिकल्पना पेश करते नजर आते हैं। प्रोफेसर भीखू पारेख ने परम्परा और विज्ञान के अपने अनूठे अध्ययन में कहा है कि गाँधी के लिए परम्परा पूर्व दृष्टांतों का एक अंध संग्रह भर नहीं थी। बल्कि, वह छानबीन का एक रूप, एक वैज्ञानिक जोखिम, एक अनियोजित लेकिन जीवन के कठोर यथार्थ से सतत परीक्षित एवं परिशोधित ठोस सामुदायिक विज्ञान थी। परस्पर विरोधी होने की बात तो छोड़ ही दीजिए, परम्परा और विज्ञान घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं। परम्परा अनियोजित विज्ञान थी, और विज्ञान नियोजित छानबीन की एक परम्परा थी।5
गाँधी जी एक महत्वपूर्ण बात कहते हैं कि एकांत में वे बैठ ही नहीं सकते। यह मनोविज्ञान सिद्ध तथ्य है। स्वस्थ व्यक्ति ही एकांत में बैठ सकता है, स्वस्थ अर्थात जिसका चित्त स्व में स्थित हो, यदि ऐसा नहीं है तो उसे ही अस्वस्थ कहते हैं। उनमें आत्मिक शांति का अभाव है अर्थात आत्मिक शांति से युक्त व्यक्ति ही एकांत में बैठ सकता है। गाँधी जी उस मर्म को पहचान रहे थे। प्रतिदिन की बेतहाशा भाग दौड़ और इंद्रिय सुख में आत्मिक शांति कब की खत्म हो चुकी है। गाँधी जी के लिए आत्मिक शांति की कसौटी है नैतिकता। जीवन और जगत के सभी संदर्भो में नैतिकता का पालन होना चाहिए। नैतिक धरातल को छोड़ कर मनुष्य स्वयं के लिए भी और समाज के लिए भी मुश्किलें खड़ी करता है। उनके अनुसार ‘‘नैतिकता स्वयंसिद्ध है, क्योंकि उसका विरोधी आचरण यदि सार्वभौम स्तर पर स्वीकार कर लिया जाय तो पूरी मानवजाति और दुनिया नष्ट हो जायेगी। इसलिए नैतिकता का पालन करने के लिए कष्ट भी उठाना पड़े तो श्रेयस्कर है। ...नैतिकता का अर्थ ऐसे व्यक्तिगत आचरण से है जिसको सार्वभौमिक मान लिए जाने पर समाज का विकास होता रहे। इसलिए नैतिक आचरण प्रत्येक व्यक्ति का उत्तरदायित्व है और इससे बचने के लिए वह किसी भी बहाने का इस्तेमाल नहीं कर सकता।6
वस्तुतः हिंद स्वराजएक ऐसी किताब है जो न सिर्फ आधुनिक सभ्यता की आलोचना प्रस्तुत करती है बल्कि मूल्यों पर आधारित एक ऐसे समाज का यूटोपिया रचती है जो अहिंसक है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि गाँधी शांतिनहीं अपितु अहिंसाकी बात करते हैं, क्योंकि शांति तमाम अन्य कारणों से भी होती है। रचनात्मक कल्पनाशीलता और विनम्र साहस के बिना हिंद स्वराज के निहितार्थों और सम्भावनाओं को पकड़ पाना लगभग असम्भव है। ध्यातव्य है कि स्वयं गाँधी ने भारतीय सांस्कृतिक परम्परा और ज्ञानमीमांसा के मूल्यांकन में ऐसी ही रचनात्मक कल्पनाशीलता और विनम्र साहस से काम लिया था। अकारण नहीं है कि गाँधी की बातों को तोतारटंत की तरह पाठ करने वाले गाँधीवादीविद्वानों के मुकाबले उन विद्वानों का लेखन ज्यादा प्रेरक प्रतीत होता है जिन्होंने गाँधी के मूलभूत सरोकारों की उपेक्षा किये बिना उनकी अंतर्दृष्टियों के निहितार्थों को सर्जनात्मक विस्तार दिया है। अतः ऐसे प्रयासों को गाँधी की अपेक्षाओं के अनुरूप ही मानना चाहिए। गाँधी के सपनों का भारत बनाना आज यदि लगभग असम्भव लगता है तो इससे आधुनिकता की गाँधी द्वारा की गयी आलोचना बेमतलब नहीं हो जाती क्योंकि आधुनिकता का प्रोजेक्ट आज जिस कदर संकटग्रस्त और दिग्भ्रमित है, उतना संकटग्रस्त और दिग्भ्रमित वह पहले कभी नहीं रहा।
इन सभी संदर्भों में हिंद स्वराज की स्थापनाओं का महत्व और गाँधी जी की दूरदर्शिता का सहज अध्ययन किया जा सकता है। आधुनिक सभ्यता की उपभोक्तावादी मानसिकता ने मनुष्य को एकायामी बना दिया है। गाँधी जी के अनुसार नैतिकता, प्रेम, अहिंसा और सत्य को छोड़ कर भौतिक समृद्धि और वैयक्तिक सुख को महत्व देने वाली सभ्यता विनाशकारी है। दो विश्वयुद्धों से होकर गुजरती यह सभ्यता, जल, जंगल, जमीन जैसे बुनियादी अधिकारों से मनुष्य को वंचित करती हुई आज परमाणु बम के ऊपर बैठी है। अंधेरे में एकरेखीय मार्ग पर बढ़ती हुई पाश्चात्य सभ्यता सभी चीजों के अंत की घोषणा के साथ हतप्रभ खड़ी है। गाँधी जी जब आधुनिक सभ्यता की आलोचना करते हैं तो उनके तर्क कोई जटिल दार्शनिक तथ्य न होकर अति सरल और सामान्य होते हैं।7 गाँधी जी हिंद स्वराजमें आज से सौ साल पहले जितने समीचीन थे उससे अधिक आज प्रासंगिक हैं। गाँधी जी पहले व्यक्ति थे जिन्होंने सभ्यता के द्वारा थोपे जा रहे, प्रभुत्व, हिंसा, वर्चस्व और सांस्कृतिक दासता का विरोध किया। साथ ही भारतीय जनमानस में फैले अंग्रेजी माईबाप’,‘अंग्रेज राय बहादुरजैसे वर्चस्व और प्रभुत्व के विशेषणों को चुनौती दी। अंग्रेजों की श्रेष्ठता के लगभग सभी मुहावरों को गाँधी जी ने ध्वस्त किया।
गाँधी ने भारतीय संस्कृति को नये सिरे से रचा और उन्होंने इस संस्कृति के कुछ तत्वों को महत्व दिया, कुछ को छोड़ दिया और कुछ की महत्ता बदल दी। इस प्रकार उन्होंने भारतीय संस्कृति को युगानुरूप नयी अर्थवत्ता दी। गाँधी का खयाल था कि सिर्फ आधुनिक सभ्यता पर तोहमत लगाने से भारत का भला नहीं होने वाला। भारतवासियों को अपनी कमियाँ दूर करनी पड़ेंगी और इसके लिए व्यक्तिगत स्तर पर आत्मसंयम / आत्मशुद्धता का उद्यम करना होगा। उनके लिए अंतरात्मा की चेतना सर्वोपरि थी। गाँधी आधुनिक राष्ट्र राज्य की अभूतपूर्व शक्ति और सत्ता के दुरुपयोग की सम्भावना से संशकित थे। इसीलिए उन्होंने गांव को बुनियादी इकाई मानते हुए सत्ता के विकेन्द्रीकरण पर जोर दिया था। वस्तुत गाँधी के लिए विकेन्द्रीकरण का अर्थ था समानांतर राजनीति की रचना, जिसमें लोकशक्ति को सांस्थानिक रूप दिया ताकि आधुनिक राष्ट्र की सारी शक्ति केन्द्रित कर लेने और लोगों को बेगाना बना देनी की प्रवृत्ति को रोका जा सके। इस प्रकार गाँधीवादी विकेन्द्रीकरण की नीति में राज्य के खात्मे की प्रक्रिया अंतर्निहित थी। गाँधी जी कहते हैं: ‘‘बहुत से अक्ल देने वाले आते जाते रहते हैं, मगर हिन्दुस्तान अपनी जगह अडिग बना रहता है। यह उसका लंगर है।’’8
गाँधी जी पहले व्यक्ति थे जिन्होंने भारत पर अंग्रेजों के शासन के पीछे अंग्रेजों के श्रेष्ठ होने को नहीं बल्कि हम भारतीयों के कमजोर होने को उत्तरदायी माना था। वे भारतीय जनमानस से अंग्रेजी श्रेष्ठता का भूत उतारने का कार्य कर रहे थे। हिंद स्वराजके हिन्दुस्तान कैसे गयाअध्याय में गाँधी जी लिखते हैं कि ‘‘भारत को अंग्रेजों ने लिया हो सो बात नहीं, हमने उन्हें अपना देश दिया है। वे यहाँ अपने बल से नहीं टिके, बल्कि हमने उन्हें टिका रखा है। ...कम्पनी के लोगों की मदद किसने की? कौन उनकी चांदी देख कर लुभा जाता था? इतिहास साक्षी है कि वह सब हम ही करते थे। फौरन धनवान बन जाने की नीयत से हम उनका स्वागत करते थे, उनकी मदद करते थे।’’9 गाँधी जी यहाँ उस मूल तथ्य की और संकेत कर रहे थे जो अंग्रेजी शासन का आधार था। अंग्रेज शासन के मूल में उनकी शक्ति नहीं हमारी कायरता है। यही वह खास कार्य है जो गाँधी जी ने हिंद स्वराजके माध्यम से किया, अर्थात भारतीय जनमानस में अंग्रेजों की सभ्यता आदि के प्रति जो एक प्रभुत्व और वर्चस्व बना हुआ था उसको तोड़ दिया। गाँधी जी को इस बात पर अथाह विश्वास था कि मानसिक और सांस्कृतिक गुलामी से मुक्त जनता ही राजनैतिक और आर्थिक गुलामी के विरोध में खड़ी हो सकती है। गाँधी जी आधुनिक सभ्यता और उसके द्वारा पोषित तकनीकी विकास के मॉडल पर सवाल खड़ा कर भारतीय जनता को उसी मानसिक और सांस्कृतिक गुलामी से मुक्त करने का उपक्रम कर रहे थे।
एँथॉनी परेल ने लिखा है कि लेनिन ने पूंजीवाद और उपनिवेशवाद की आलोचना की थी। गाँधी ने एक कदम आगे गाँधी ने समानता, नागरिक स्वाधीनता, अधिकार, आर्थिक स्थिति में सुधार, स्त्रियों की दशा में सुधार और धार्मिक सहिष्णुता के तत्वों को उन्होंने स्वतंत्रता को स्वराज (आत्मबोध / आत्मज्ञान / आत्मसंयम / मोक्ष) के, अधिकारों को कर्त्तव्य के, अनुभवजन्य ज्ञान को नैतिक अंर्तदृष्टि के, आर्थिक प्रगति को आध्यात्मिक प्रगति के, शहरों को गांव के, धार्मिक सहिष्णुता को धार्मिक विश्वास के और नारी-मुक्ति को मनुष्यता की व्यापक अवधारणा के अधीन रखा। गाँधी ने मास प्रोडक्शनके बजाय मासेजद्वारा प्रोडक्शन की बात कही।10 वस्तुतः वे किसी स्थान की आबादी और पर्यावरण को विनाश से बचाने वाली नीति की ओर संकेत कर रहे थे, जिसे आज की भाषा में उपयुक्त टेक्नालॉजी और टिकाऊ विकास कहा जा सकता है। वे ऐसे विकास की बात कर रहे थे जिसमें सुख का पैमाना सिर्फ भौतिक समृद्धि नहीं थी। वे ऐसे व्यक्ति की बात कर रहे थे जो स्वाधीन और प्रबुद्ध था और जो व्यक्तिगत हित और सामुदायिक हित में आत्यंतिक विरोध नहीं देखता था और जिसे त्याग में भी सुख मिलता था। वे एक ऐसी प्रगति की बात कर रहे थे जो प्रतिस्पर्द्धा पर नहीं, पारस्परिक सहयोग, भाई चारे और प्रेम पर आधारित थी।
गाँधी किसी अज्ञान से परिपूर्ण अंधकारयुग में वापसी की बात नहीं कर रहे थे, बल्कि वैकल्पिक जीवन मूल्यों की पेशकश कर रहे थे; स्वैच्छिक सादगी, अपरिग्रह और मंथरता में सौन्दर्य देखने की वकालत कर रहे थे, जिसे आधुनिकता ने पिछड़ेपन की निशानी बता कर अवैध घोषित कर दिया था। महादेव देसाई ने 1924 में गाँधी की मनोदशा को व्यक्त करते हुए लिखा हैः गाँधी का विरोध यंत्रों के लिए नहीं है, बल्कि यंत्रों के पीछे जो पागलपन चल रहा है, उसके लिए है। ...उनसे मेहनत जरूर बचती है, लेकिन लाखों लोग बेकार होकर भूखों मरते हुए सड़क पर भटकते हैं। समय और श्रम की बचत तो मैं भी चाहता हूँ, परंतु वह किसी खास वर्ग की नहीं, बल्कि सारी मानवजाति की होनी चाहिए। कुछ गिने गिनाए लोगों के पास सम्पत्ति जमा हो ऐसा नहीं, बल्कि सबके पास जमा हो, ऐसा मैं चाहता हूँ। ...मैं इतना कहने की हद तक समाजवादी तो हूँ ही कि ऐसे कारखानों का मालिक राष्ट्र हो या जनता की सरकार की ओर से ऐसे कारखाने चलाये जाये। उनकी हस्ती नफे के लिए नहीं, बल्कि लोगों के भले के लिए हो। लाभ की जगह प्रेम को कायम करने का उसका उद्देश्य हो।11
गाँधी ने स्थानीयता के महत्व को दोबारा स्थापित किया। स्थानीयता में भी गांव की चिन्ता इसलिए आवश्यक थी क्योंकि पूंजीवाद ने पहले यूरोप और फिर उपनिवेशों में सबसे पहले गांव और गांववासियों को ही तबाह किया था। वे ऐसे किसी भी आर्थिक विकास नीति से सहमत नहीं हुए जिसके कारण गांव और गांववासी बड़े पैमाने पर तबाह हों, बेरोजगारी बढे और सारी शक्ति कुछ लोगों के हाथों में सिमट जाय। गाँधी का गांव आच्छादित करने वाली और विस्तृत होती जाती सामुद्रिक लहरों के जाल का केन्द्र था। यह गांव देश दुनिया से अलग थलग और बेखबर नहीं था। गाँधी जिस गांव की बात कर रहे थे वह सिर्फ एक भौगोलिक इकाई, सांख्यिकीय आंकड़ा या सामाजिक वर्ग मात्र नहीं था। गाँधी का गांव एक परिघटना था, एक स्वप्न था, एक संस्कृति था, कुछ मूल्यों का समुच्चय था। गाँधी की मौलिकता यह है कि आत्मसंयम/मोक्ष/बोध/ज्ञान के केन्द्रीय महत्व को कायम रखते हुए भी इसे उन्होंने सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मुक्ति के अभियान से जोड़ दिया। उन्होंने कहा कि आत्मसंयम के बिना स्वाधीनता शक्तिशाली व्यक्तियों का शासन बन जायेगी। लेकिन यह आध्यात्मिक मुक्ति सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन से विमुख रहने पर नहीं मिलने वाली।
यह सर्वविदित है कि आधुनिक शिक्षा व्यवस्था का मकसद व्यक्ति को अच्छा व्यक्तिबनाना नहीं अपितु बाजार का एक एजेण्ट बनाना ज्यादा है, जो कि गरीबों का शोषण कर सके या कि बतौर उपभोक्ता या उत्पादक इस पूंजीवादी बाजारवादी व्यवस्था को मजबूत कर सके। डॉक्टरों, वकीलों की गाँधी द्वारा की गयी आलोचना इसीलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि वे जनता की सेवा नहीं करते अपितु सिर्फ अपना लाभ कमाना चाहते हैं। अंग्रेज भारत में अंग्रेजी शिक्षा इसीलिए लाये थे ताकि वे बाबुओं को तैयार कर भारतीयों का शोषण कर सकें या कि रेल इसलिए लाये क्योंकि इससे सेनाओं के आवागमन व माल ढुलाई में आसानी होती थी। गाँधी के लिए साध्य व साधन का प्रश्न बहुत ही महत्वपूर्ण है और आधुनिक सभ्यता में साध्य व साधन दोनों की ही पवित्रता नहीं है। वस्तुतः गाँधी आधुनिक सभ्यता के नियामक तत्वों की आलोचना करते हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, न्याय व्यवस्था, जीवन पद्धति यह वह चीजें हैं जो किसी भी सभ्यता को न सिर्फ निर्मित करती हैं बल्कि उसके चरित्र को भी स्पष्ट करती हैं। आज की दुनिया में हिंसा का सवाल एक बड़ा सवाल है। एक तरह से यह तथाकथित आधुनिक सभ्यता हिंसा की चपेट में है। भय और हिंसा इस सभ्यता के मूल में है।
गाँधी ने मानवता को अहिंसा का पाठ पढ़ाया। लेकिन यह ध्यान रखने की जरूरत है कि हिंसा का विकल्प हिंसा नहीं हो सकता और न ही हिंसा को हिंसा के सहारे पराजित किया जा सकता है। उन्होंने राज्य की हिंसा और जनता की हिंसा को अलग न करते हुए हिंसा मात्र को त्याज्य माना। दरअसल, गाँधी ने बहुत पहले ही यह देख लिया था कि हिंसा से किसी समस्या का स्थायी समाधान नहीं हो सकता और हिन्सा से प्राप्त की गयी सत्ता का चरित्र भी अंततः हिंसक ही होगा। कम्युनिस्ट शासकों के दौरान हुई भारी हिंसा ने गाँधी की बात को सही साबित किया है। वस्तुतः हिंसा के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि अगर हिंसा को किसी भी हालत में एक बार वैद्य ठहरा दिया गया तो यह तय करना बहुत मुश्किल हो जायेगा कि कौन हिंसा अच्छी है और कौन बुरी? गाँधी ने हिंसा का जवाब सत्याग्रहऔर आत्मबलसे देने की बात कही। उन्होंने हिंद स्वराजमें लिखा, “शरीर बल का उपयोग करना, गोला बारूद काम में लाना हमारे सत्याग्रह के कानून के खिलाफ है। इसका अर्थ तो यह हुआ कि हमें जो पसंद है वह दूसरे आदमी से हम (जबरन) करवाना चाहते हैं। अगर यह सही हो तो फिर वह सामने वाला आदमी भी अपनी पसंद का काम हमसे करवाने के लिए हम पर गोला बारूद चलाने का हकदार है।”12
गाँधी ने प्रत्येक चीज पर सोचने की एक अलग दृष्टि दी है जो पश्चिम से बुनियादी रूप से भिन्न है। विकल्प के तौर पर मार्क्सवाद के असफल हो जाने के बाद गाँधी और गाँधीवादी चिन्तन की तरफ गम्भीरता से सोचने की जरूरत आ पड़ी है।13 वैसे भी, मार्क्सवाद पूंजीवाद का विकल्प न होकर उसका दोष सुधार अधिक है। समाजवादी व्यवस्थाओं ने भी उन्हीं चीजों को विकास की कसौटी माना जिन्हें पूंजीवाद मानता था। इस सोच के मूल में मार्क्स की वह धारणा काम कर रही थी कि तकनीक का विकास एक स्वायत्त प्रक्रिया है। लेकिन अब तक के तकनीकी विकास और उसके प्रभावों को देख कर यह बात साफ हो जाती है कि तकनीक के विकास की प्रक्रिया स्वायत्त नहीं है बल्कि वह समाज की या वर्ग विशेष की सुविधा से निर्धारित होती है। तकनीक का भी एक अपना वर्गचरित्र होता है।14 इसी कारण तकनीक के विकास को कसौटी मान कर चलने वाली समाजवादी व्यवस्थाएँ एक एक कर पूंजीवादी मूल्यों और व्यवस्था को कबूल करने लगीं। कुल मिला कर हुआ यह कि पूंजीवाद की जमीन पर ही समाजवाद की इमारत खड़ी करने की कोशिश हमेशा से होती रही और इस प्रयास में समाजवाद को हमेशा मुंह की खानी पड़ी। बीसवीं सदी इस बात की साक्षी रही है।
आज 21वीं सदी में वे सारे के सारे प्रश्न अधिक विकराल एवं भयावह रूप लेकर हमारे सामने उपस्थित हैं जिन्हें आज से सौ साल पहले गाँधी ने उठाया था। गाँधी ने उसी समय इन प्रश्नों के माकूल और मौलिक उत्तर भी दिये। लेकिन हमने अब तक उस पर समुचित ध्यान नहीं दिया। मानवता की भविष्य रक्षा के लिए गाँधी द्वारा सुझाये रास्ते सर्वाधिक उपयुक्त हैं। उन पर जितना जल्दी अमल हो सके उतना ही अच्छा होगा। आज गाँधी को लेकर ही नये प्रयोगों की जरूरत है। हिंद स्वराजइस दृष्टि से अनिवार्य संदर्भ हो सकता है। गाँधी को लगता है कि यही समय है अपने वारिस और भावी प्रधानमंत्री से नये भारत के प्रारूप की बात छेड़ने का। इसलिए खासतौर से कि उन दोनों के बीच में भविष्य के भारत को लेकर मतभेद होता नजर आ रहा था। सो 5 अक्टूबर 1945 को गाँधी ने एक लम्बा पत्र नेहरूजी को भेजा जो एक ओर हिंद स्वराजके प्रति उनकी प्रतिबद्धताओं को ही दर्शाता है, वहीं दूसरी ओर हिंद स्वराजकी प्रासंगिकता का सर्वोत्कृठ उदाहरण है।
चि. जवाहरलाल,
तुमको लिखने का तो कई दिनों से इरादा किया था, लेकिन आज ही उसका अमल कर सका हूँ। अंग्रेजी में लिखूं या हिन्दुस्तानी में यह भी मेरे सामने सवाल रहा था। आखिर में मैंने हिन्दुस्तानी में ही लिखने का पसंद किया। पहले बात तो हमारे बीच में जो बड़ा मतभेद हुआ है उसकी। अगर वह भेद सचमुच है तो लोगों को भी जानना चाहिए। क्योंकि उनको अंधेरे में रखने से हमारा स्वराज का काम रुकता है। मैंने कहा है कि हिंद स्वराजमें मैंने लिखा है उस राज्य पद्धति पर मैं बिल्कुल कायम हूँ। यह सिर्फ कहने की बात नहीं है, लेकिन जो चीज मैंने 1908 (यही) साल में लिखी है उसी चीज का सत्य मैंने अनुभव से आज तक पाया है। आखिर में मैं एक ही उसे मानने वाला रह जाऊं उसका मुझको जरा सा भी दुःख न होगा। क्योंकि मैं जैसे सत्य पाता हूँ उसका मैं साक्षी बन सकता हूँ। हिंद स्वराजमेरे सामने नहीं है। अच्छा है कि मैं उसी चित्र को आज अपनी भाषा में खैंचूं। पीछे यह चित्र 1908 जैसा ही है या नहीं उसकी मुझे दरकार न रहेगी, न तुम्हें रहनी चाहिए।
आखिर में तो मैंने पहले क्या कहा था उसे सिद्ध करना नहीं है, कि अगर हिन्दुस्तान को सच्ची आजादी पानी है और हिन्दुस्तान के मारफत दुनिया को भी तब आज नहीं तो कल देहातों में ही रहना होगा- झोपड़ियों में, महलों में नहीं। कई अबज आदमी शहरों में और महलों में सुख से और शांति से कभी रह नहीं सकते, न एक दूसरों का खून करके मायने हिंसा से, न झूठ से- यानी असत्य से। सिवाय इस जोड़ी के (यानी सत्य और अहिंसा) मनुष्य जाति का नाश ही है उसमें जरा सा भी शक नहीं है। उस सत्य और अहिंसा का दर्शन हम देहातों की सादगी में ही कर सकते हैं। यह सादगी चर्खा में और चर्खा में जो चीज भरी है उसी पर निर्भर है। मुझे कोई डर नहीं है कि दुनिया उल्टी ओर ही जा रही दिखती है। यों तो पतंगा जब अपने नाश की ओर जाता है तब सबसे ज्यादा चक्कर खाता है और चक्कर खाते खाते जल जाता है। हो सकता है कि हिन्दोस्तान इस पतंगे के चक्कर में से न बच सके।
मेरा फर्ज है कि आखिर दम तक उसमें से उसे और उसके मारफत जगत को बचाने की कोशिश करूं। मेरे कहने का निचोड़ यह है कि मनुष्य जीवन के लिए जितनी जरूरत की चीज है उस पर निजी काबू होना चाहिए- अगर न रहे तो व्यक्ति बच ही नहीं सकता है। आखर तो जगत व्यक्तियों का ही बना है। बिन्दु नहीं है तो समुद्र नहीं है। यह तो मैंने मोटी बात ही कही कोई नयी बात नहीं की। लेकिन हिंद स्वराजमें भी मैंने यह बात नहीं की है। आधुनिक शास्त्रा की कदर करते हुए पुरानी बात को मैं आधुनिक शास्त्र की निगाह से देखता हूँ तो पुरानी बात इस नये लेबाश में मुझे बहुत मीठी लगती है। अगर ऐसा समझोगे कि मैं आज की देहातों की बात करता हूँ तो मेरी बात नहीं समझोगे। मेरा देहात आज मेरी कल्पना में ही है। आखिर में तो हर एक मनुष्य अपनी कल्पना की दुनिया में ही रहता है। इस काल्पनिक देहात में देहाती जड़ नहीं होगा शुद्ध चैतन्य होगा। वह गंदगी में, अंधेरे कमरे में जानवर की जिन्दगी बसर नहीं करेगा, मर्द और औरत दोनों आजादी से रहेंगे और सारे जगत के साथ मुकाबला करने को तैयार रहेंगे।
यहाँ न हैजा होगा, न भरकी होगी न चेचक होंगे। कोई आलस में रह नहीं सकता है, न कोई ऐश आराम में रहेगा। सबको शारीरिक मेहनत करनी होगी। इतनी चीज होते हुए मैं ऐसी बहुत सी चीज का ख्याल कर सकता हूँ जो बड़े पैमाने पर बनेगी। शायद रेलवे भी होगी, डाकघर, तारघर भी होंगे। क्या होगा, क्या नहीं उसका मुझे पता नहीं। न मुझको उसकी फिकर है। असल बात को मैं कायम कर सकूं तो आने की और रहने की खूबी रहेगी। और असली बात को छोड़ दूं तो सब छोड़ देता हूँ। उस रोज जब हम आखिर में वर्किंग कमेटी में बैठे थे तो ऐसा कुछ फैसला हुआ था कि इसी चीज को साफ करने के लिए वर्किग कमेटी 2-3 दिन के लिए बैठेगी। बैठेगी तो मुझे अच्छा लगेगा, लेकिन न बैठे तब भी मैं चाहता हूँ कि हम दोनों एक दूसरे को अच्छी तरह समझ लें। उसके दो सबब हैं। हमारा सम्बंध सिर्फ राजकारण का ही नहीं है। वह सम्बंध टूट भी नहीं सकता। इसलिए मैं चाहूँगा कि हम एक दूसरे को राजकारण में भी भलीभांति समझें। दूसरा कारण यह है कि हम दोनों में से एक भी अपने को निकम्मा नहीं समझते हैं।
हम हिन्दुस्तान की आजादी के लिए ही जिन्दा रहते हैं और उसी आजादी के लिए हमको मरना भी अच्छा लगेगा। हमें किसी की तारीफ की दरकार नहीं है। तारीफ हो या गालियाँ- एक ही चीज है। खिदमत में उसे कोई जगा ही नहीं है। गांधीजी कहते हैं, मैं 125 वर्ष तक सेवा करते करते जिन्दा रहने की इच्छा करता हूँ तब भी मैं आखिर में बूढा हूँ और मैं क्या हूँ वह भी वारिस समझ ले तो अच्छा ही है, और मुझे चैन रहेगा। और पत्र इस तरह समाप्त होता हैः इस सबके बारे में अगर हमें मिलना ही चाहिए तो हमारे मिलने का वक्त निकालना चाहिए। तुम बहुत काम कर रहे हो। स्वास्थ्य अच्छा रहता होगा। इंदु ठीक होगी। बापू के आशीर्वाद।”
कम लोग महात्मा गाँधी के उस कथन के बारे में जानते होंगे जिसमें वह कहते हैं कि गरीबों के लिए तो ईश्वर रोटी और मक्खन के रूप में ही प्रकट हो सकता है।उनका तो यहाँ तक कहना है कि गरीबों के लिए आर्थिक ही आध्यात्मिक है। इसलिए महात्मा गाँधी भी उत्पादन बढाने पर तो जोर देते हैं, लेकिन कृत्रिम मांगों के बजाय बुनियादी जरूरतों के लिए। इस उत्पादन वृद्धि की प्रक्रिया या प्रौद्योगिकी भी वही वरेण्य हो सकती है जो रोजगार के पर्याप्त अवसर जुटा सके। हमारे आधुनिक अर्थशास्त्रियों का मानना है कि आधुनिक प्रौद्योगिकी को अपनाये बिना उत्पादन वृद्धि नहीं हो सकती। लेकिन, जैसाकि हम देख चुके हैं, यह प्रौद्योगिकी (जॉबलेस ग्रोथ) रोजगारविहीन विकास की ओर ले जाने वाली है, जो आर्थिक दृष्टि से हानिकारक है। गाँधी जी, इसके बरक्स, जब स्वदेशी प्रौद्योगिकी का प्रस्ताव करते हैं तो वह उत्पादन वृद्धि के साथ साथ रोजगार को बढाने वाला प्रस्ताव भी हो जाता है। आधुनिक प्रौद्योगिकी के आधार पर होने वाले उत्पादन में, शुमाकर के निष्कर्ष के अनुसार, हमारे सामाजिक समय का केवल साढे तीन प्रतिशत हिस्सा ही वास्तविक उत्पादन में लगता है।
गाँधी हिंद स्वराजलिखते समय अच्छी तरह समझ रहे थे कि जिस विकल्प की वह बात कर रहे हैं वह उस संवेदना से नितांत भिन्न है जो, आधुनिक युग में पश्चिम से निकल कर पूरे विश्व में छा गयी है। इसीलिए उन्होंने हिंद स्वराजमें ही कह दिया था कि उन्हें कतई कोई खुशफहमी नहीं थी कि लोग उनके विचार जल्दी मान लेंगे। पर उन्हें यकीन था कि धीरे धीरे, उनके तरीकों और विचारों को व्यावहारिक जीवन में कामयाब होते देख, ‘हिंद स्वराजकी विश्वसनीयता बढेगी। उनको उम्मीद इसलिए भी बंधती थी कि वह मानते थे कि न केवल भारत बल्कि पूरे पूरब में लोग पश्चिमी सभ्यता का फल पाने को लालायित तो हो सकते हैं पर बिना अपराधबोध के नहीं। हिंद स्वराज के आखिर में स्वराज को परिभाषित करते हुए गाँधी जी तीन मुख्य बातें कहते हैं- 1. अपने मन का राज्य स्वराज्य है। 2. उसकी कुंजी सत्याग्रह, आत्मबल या करुणा बल है। 3. उस बल को आजमाने के लिए स्वदेशी को पूरी तरह अपनाने की जरूरत है।
इन तीनों सूत्रों में महात्मा गाँधी एडम स्मिथ और मार्क्स के बरक्स एक अहिंसक समाज के विकल्प का प्रस्ताव करते हैं। जिसकी व्याख्या हिंद स्वराज है। अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में उत्पादन वृद्धि अपने आप में गाँधी जी के लिए कोई लक्ष्य नहीं है वह एक अर्थशास्त्री  के रूप में हमारा ध्यान इस बात की ओर आकर्षित करते हैं कि उत्पादन का लक्ष्य हमारी बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति करना है, न कि उपभोग की कृत्रिम मांगों के जाल में फंसना। केवल भौतिकवादी दृष्टि अर्थात् अर्थव्यवस्था और शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से भी महात्मा गाँधी के प्रस्ताव की प्रासंगिकता से इनकार नहीं किया जा सकता। यह भी स्मरणीय है कि अपरिग्रह या त्यागपूर्वक भोग इस संदर्भ में केवल नैतिक, आध्यात्मिक उपदेश नहीं, बल्कि आर्थिक आवश्यकता बन जाते हैं क्योंकि परिग्रह या कृत्रिम उपभोग की लालसा ही मांगों को अनियंत्रित करती है। उसमें बुनियादी जरूरतों का तिरस्कार नहीं है क्योंकि गाँधी मानसिक स्वास्थ्य के साथ शारीरिक स्वास्थ्य पर भी पूरा जोर देते हैं।15
कालान्तर में आरक्षण की संकल्पना इसी आधार पर उपजी जो अम्बेडकर के साथ महात्मा गाँधी को भी मान्य थी। इस प्रकार अम्बेडकर और महात्मा गाँधी दोनों भारत एक राष्ट्रके दृष्टिकोण से संयुक्त हुए। डॉ. अम्बेडकर और गाँधी के विचारों का यह संगम अन्ततः भारत विभाजन की एक अन्य गलती को रोकने में कामयाब हुआ। गलती इसलिए क्योंकि इतिहास ने सिद्ध कर दिया कि धर्म के आधार पर भारत राष्ट्र का कृत्रिम विभाजन कर पाकिस्तान निर्माण एक गलती था। पूना पैक्ट के बाद गाँधी और अम्बेडकर भारतीय राजनीति के एक विशेष आयाम (जातिगत शोषण की समाप्ति) में एक दूसरे के पूरक बन गये। महात्मा गाँधी यह स्वीकारोक्ति भी करते हैं कि इस दलित प्रश्न को समझाने में अम्बेडकर उनके गुरु रहे, जबकि भारत एक राष्ट्र है, यह समझने में अम्बेडकर के गुरु जाने-अनजाने गाँधी बन चुके थे। यही कारण है भारत में स्वतन्त्रता के उषा काल में अम्बेडकर ने मुस्लिम और ईसाई न बनकर बौद्ध धर्म स्वीकार किया। संविधान सभा की ड़्राफ्टिंग कमेटी का चेयरमैन बनना स्वीकार किया और आरक्षण के माध्यम से भारत राष्ट्र की एकता बने रहने का मार्ग प्रशस्त किया।16
मेरा मत है कि हमें एक बीच का मार्ग अपनाना चाहिए जिसके लिए जरूरी है कि भारत की जमीनी राजनीति से उपजे विचारों और व्यवहारों का क्रमबद्ध अध्ययन हो। यही सम्भव तरीका है हिंद स्वराज जैसी कृतियों के संदर्भयुक्त पुनर्पाठ की प्रासंगिकताओं पर व्यापक रिसर्च हो। अस्तु हिंद स्वराजभारत में आधुनिकता को ज्यादा संवेदनशील, कम नकलची और ज्यादा आत्मविश्वासी बनाने का सार्थक प्रयास था, जिसकी प्रासंगिकता वर्तमान में भी है और भविष्य में भी बदस्तूर रहेगा।
टिप्पणियाँ एवं संदर्भ
1)     गाँधी, एम. के. (2009): हिंद स्वराज, सर्वसेवा संघ प्रकाशन, वाराणसी
2)     गुप्ता,दीपांकर (2009): गाँधी बिफोर हैबरमास, इकनॉमिक एँड पॉलिटिकल वीकली, मार्च 7.
3)     प्रभु, आर.के. (1961): सम्पादक, डेमोक्रेसी रियल एँड डिसेप्टिव, नवजीवन पब्लीकेशन, अहमदाबाद
4)     पारेख, भिक्खु (1995): गाँधीज पॉलिटिकल फिलासफी, अजंता, दिल्ली
5)     पारेल, एँथॉनी (2007): हिंद स्वराज एँड अदर राइटिग्ंस, कैंब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस, नयी दिल्ली
6)     नंदी, आशीष (1986): ‘फ्राम आउट साइड द एम्पोरिएम’, कंटेम्पररी क्राइसिस एँड गाँधी पुस्तक में संकलित लेख, सम्पादक रामाश्रय राय, डिस्कवरी पब्लिशिंग हाऊस, दिल्ली
7)     निगम, आदित्य (2009): ‘गाँधी-द एँजेल ऑफ हिस्ट्रीइकॅनामिक एँड पोलिटिकल वीकली, मार्च 14.
8)     प्रभात खबर (दीपावली विशेषांक 2008), सम्पादक: हरिवंश और रविभूषण, रांची (झारखंड)।
9)     दीपंकर गुप्ता, ‘गाँधी बिफोर हेबरमास: दि डेमोक्रेटिक कांसिक्वेंसिज ऑव अहिंसा’, ईपीडब्लयू, अंक 10, 7 मार्च, 2009, पृष्ठ 27-33
10)थामस पेन्थम, ‘थिन्किंग विद महात्मा गाँधी: बियोंड महात्मा गाँधी’, पॉलिटिकल थियरी, मार्च, 1985, पृष्ठ 165-188
11)आदित्य निगम, ‘गाँधी दि एँजिल ऑव हिस्ट्री’: रीडिंग हिंद स्वराज टुडे’, ईपीडब्ल्यू, अंक 11, 14 मार्च, 2009, पृष्ठ 41-47
12)शम्भू प्रसाद, ‘टुवर्ड्स एन अंडरस्टैण्डिंग ऑव गाँधी जी व्यूज ऑन साइंस’, ईपीडब्ल्यू, अंक 39, 29 सितम्बर 2001, पृष्ठ 3721-3732
13)डेनिस डाल्टन, गाँधी: आइडियॉलॉजी एँड एथॉरिटी’, माडर्न एशियन स्टडीज, अंक 4, 1969, पृष्ठ 377-393
14)दीपंकर गुप्ता, ‘गाँधी बिफोर हेबरमास: दि डेमोक्रेटिक कांसिक्वेंसिज ऑव अहिंसा’, ईपीडब्ल्यू, अंक 10, 7 मार्च, 2009, पृष्ठ 27-33 8. भीखू पारेख, कोलोनियलिज्म, ट्रेडिशन एँड रिफॉर्म: एन एनालैसिस ऑव गाँधीज पॉलिटिकल डिस्कोर्स, सेज, नयी दिल्ली, 1989
15)रजनी कोठारी, भारत में राजनीति: कल और आज, वाणी, नयी दिल्ली 2005 10. शिव विश्वनाथन, ‘आज अगर गाँधी होते!’, समय चेतना, दिल्ली, अंक 5, अक्टूबर 1995, पृष्ठ 66-80
16)भारत में दलित प्रश्न और जाति-व्यवस्था (अम्बेडकर और गाँधी जी की दृष्टि में), भाषिकी, संपा. प्रोफेसर राम लखन मीना, राजस्थान केंद्रीय  विश्वविद्यालय, राष्ट्रीय राजमार्ग-8, बांदर सिंदरी, अजमेर (राजस्थान)।