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BHASHIKI ISSN: 2454-4388 (Print): Quarterly International Refereed Research Journal of Language, Applied Linguistics, Education, Media, Translation and Literary Analysis भाषा, अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान, शिक्षा, मीडिया तथा साहित्य-विश्लेषण की संदर्भ-रिसर्च तिमाही अंतर्राष्ट्रीय संवाहिका

Saturday 19 January 2019

भ्रष्टाचार की गंगोत्री राजनीति से ही निकलती है.! : प्रोफ़ेसर राम लखन मीना

भ्रष्टाचार की गंगोत्री राजनीति से ही निकलती है.! 
 प्रोफ़ेसर राम लखन मीना
देश अधिकाँश आम लोग मान चुके हैं कि भारत में भ्रष्टाचार एक लाइलाज बीमारी है क्योंकि भ्रष्टाचार की गंगोत्री राजनीति से ही निकलती है। प्रधानमंत्री मोदी ने भी लोकसभा के आम चुनावों से पहले अपने भ्रष्टाचार विरोधी एजेण्डे के महत्वपूर्ण बिन्दुओं में राजनीतिक-चंदे के सवाल को सबसे ऊपर रखा था । उनका मानना था कि देश को काले धन के जंजाल से मुक्त करने के लिए राजनीतिक-चंदे को नियोजित और नियंत्रित करना जरूरी है। देश की जनता के लिए मृग-मरीचिका बने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के अच्छे दिनों की तरह उनका चुनाव-सुधार का वादा भी गफलतों में उलझता जा रहा है। मोदी सरकार ने उल्टा काम करके राजनीतिक फंडिंग को अत्यधिक गैर-पारदर्शी, गोपनीय और संदिग्ध बना दिया है। ऐसे प्रावधान किये गये हैं, जिससे राजनीतिक फंडिंग की पूरी व्यवस्था लोगों की नजरों से ओझल रहे।
जनता से पाई-पाई का हिसाब लेने और राजनीतिक दलों की कमाई पर पर्दा डालने की नीतियों का आगाज हो रहा है क्योंकि उनके चंदे में पारदर्शिता नहीं चलेगी, पारदर्शी चंदा मुसीबत का धंधा है । इलेक्टोरल-बॉण्ड के नाम पर चुनाव-सुधार के रंगमंच पर मोदी-सरकार के राजनीतिक-एकांकी का कमजोर कथानक बिखरने लगा है। कुल मिलाकर इन तमाम संशोधनों का असर यह होगा कि राजनीतिक दल अब चुनावी चंदे या आर्थिक योगदान के खुलासे के लिए बिल्कुल बाध्य नहीं होंगे, जब तक कि यह योगदान इलेक्ट्रॉनिक मोड या चेक से नहीं किया जाए और न ही दानदाता इस बात का खुलासा करेंगे की उन्होंने कौनसी-पार्टी को कितना दान दिया है ।
फिलहाल दलों को मिलने वाला चंदा आयकर अधिनियम 1961 की धारा 13(ए) के अंतर्गत आता है । औधोगिक घरानों के पक्ष में जाते फैसले और कानून की अवहेलना की घटनाएं जिस तरह से बढ़ रही हैं, उस तारतम्य में जरूरी हो जाता है कि राजनीति दल पारदर्शिता की खातिर आरटीआई के दायरे में आएं, जिससे संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों का आचरण मर्यादित रहे। ब्रिटेन में परिपाटी है कि संसद का नया कार्यकाल शुरू होने पर सरकार मंत्री और सांसदों की सम्पत्ति की जानकारी और उनके व्यावसायिक हितों को पूर्ण ईमानदारी से सार्वजानिक करती है। अमेरिका में तो राजनेता हरेक तरह के प्रलोभन से दूर रहें, इस दृष्टि से और मजबूत कानून है। वहां सीनेटर बनने के बाद व्यक्ति को अपना व्यावसायिक हित छोड़ना बाध्यकारी होता है। जबकि भारत में यह परिपाटी उलटबांसी के रूप में देखने में आती है। यहां सांसद और विधायक बनने के बाद उनके द्वारा दी गयी परिसंपत्तियों की जानकारी वास्तविकताओं से कोसों दूर होती है । उस पर कोई भी चेक एंड बैलेंस नहीं होता है । राजनीति धंधे में तब्दील होने लगती है।
चुनाव आयोग के मुताबिक हमारे देश में 6 राष्ट्रीय दल हैं और 46 मान्यता प्राप्त बड़े तथा 1112 मान्यता प्राप्त छोटे दल हैं। इन्हें 20 हजार रुपए तक का चंदा लेने पर हिसाब-किताब रखने के पचड़े में पडऩे की ज्यादा जरूरत नहीं होती और ये चाहें तो अपनी पूरी आमदनी इसी दायरे में दिखा सकते हैं। आरटीआई में मिली सूचना के अनुसार चुनाव आयोग में एक हजार से ज्यादा रजिस्टर्ड राजनीतिक दल इनकम टैक्स रिटर्न फाइल नहीं करते हैं । यही कारण है कि 2014-15 में बैंकों का एनपीए 5.43 फीसदी था, जो अब बढ़कर 9.92 फीसदी हो चुका है। हद तो तब हो गयी जब मोदी-सरकार ने शीर्ष 100 विलफुट डिफाल्टरों में से 60 से अधिक पर बकाया 7,016 करोड़ रुपए के लोन को डूबा हुआ मान लिया, जो राजनीति और कॉर्पोरेट्स के संदिग्ध रिश्तों की रहस्यमयी कहानियों की पराकाष्ठा के उद्धरण हैं ।
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) के कल आये ताजातरीन आंकड़े के अनुसार  राष्ट्रीय राजनीतिक दलों की अघोषित आय 2004-05 में 274.13 करोड़ थी, जो 2014-15 में 313 फीसदी बढ़कर 1130.92 करोड़ हो चुकी है । वहीं, क्षेत्रीय पार्टियों की कमाई की बात करें, तो इनकी भी कुल आय 652% बढ़ी है। 2014-16 में बीजेपी को सबसे ज्यादा 705 करोड़ रुपये दान मिला। कांग्रेस को 198 करोड़ का दान मिला। इन चार सालों में बीजेपी का कुल 92% और कांग्रेस 85% चंदा कॉर्पोरेट से मिला। आईपीएसओएस के सर्वे में सामने आ गया भारत के सामने सबसे बडा मुद्दा वित्तीय और राजनीतिक करप्शन है। सर्वे के मुताबिक 46 फ़ीसदी लोगों की राय है कि पॉलिटिकल करप्शन ना हो तो हर हालात ठीक हो सकते हैं।
अधिकाँश बोग़स राजनीतिक दल राजनीति की आड़ में अपने व्यक्तिगत स्वार्थ या बड़े दलों को पर्दे के पीछे छिपकर चंदा इक्कठा करने जैसे किन्हीं विशेष उद्देश्यों को लेकर बनाए जाते हैं। ये दल वे हैं जो कभी चुनाव नहीं लड़ते बल्कि चुनाव के समय ऐसी अदृश्य भूमिका निभाते हैं जिससे योग्य उम्मीदवार हारने की स्थिति में आ सकता है और समाज विरोधी काम करने वाले, अपराध जगत के सरगना तथा धनकुबेर राजनीति में वह मुकाम हासिल करने में कामयाब हो जाते हैं जो जीवन भर की सेवा, तपस्या, कर्मठता और राष्ट्रहित के बारे में सोचने  और काम करने के पश्चात ही हासिल हो सकता है।
हाल ही में संसद के मानसून सत्र में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने माना कि पिछले 70 साल के दौरान राजनीतिक तंत्र में आने वाले अदृश्य धन का पता लगाने में हम असफल रहे हैं। राजनीतिक दलों को चंदा देने की पूरी प्रक्रिया को साफ सुथरा बनाने के लिये बजट में घोषित 'चुनाव बांड' प्रणाली को लेकर सरकार पूरी सक्रियता के साथ काम कर रही है। पिछले 70 साल के दौरान भारत के लोकतंत्र में अदृश्य स्रोतों से धन आता रहा है तथा निर्वाचित प्रतिनिधि, सरकारें, राजनीतिक दल, संसद और यहां तक कि चुनाव आयोग भी इसका पता लगाने में पूरी तरह से असफल रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ चुनाव बांड प्रक्रिया को पेचीदा और अतार्किक बना दिया है के तहत ये बांड एक प्रकार के वचन पूरा करने वाले बांड होंगे। इन बांड में किसी तरह का ब्याज नहीं दिया है। 

चूँकि अब राजनीति भी सोने की खनक पर मुजरा करने के लिए मजबूर हो चली है। इस प्रक्रिया में बांड में उसके दानदाता का नाम नहीं होगा। बस फर्क केवल इतना होगा कि यह धन बैंकिंग तंत्र के जरिये राजनीतिक दलों को पहुंचेगा। जेटली के नए प्रस्तावों ने पारदर्शिता के इस सवाल को गोपनीयता की कैद में जकड़ दिया है। मोदी-सरकार यह व्यवस्था भी कर रही है कि राजनीतिक दल चुनाव आयोग को इलेक्टोरल-बॉण्ड की जानकारी देने के लिए बाध्य नहीं होंगे और राजनीतिक दल चंदा देने वाले कार्पोरेट-घराने का नाम बताने के लिए बाध्य नहीं होंगे। चुनावी बांडों को जरिये राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे के बारे में हर साल इनकम टैक्स डिपार्टमेंट को जानकारी देने की बाध्यता खत्म हो जाएगी और उन्हें इनकम टैक्स में मिलने वाली छूट जारी रहेगी। नोटबंदी के समय बताया गया था कि इससे देश के कोने-कोने से कालेधन को खोज लिया जाएगा। लेकिन इस देश में कुछ पते ऐसे हैं, जहां पर जाकर इन खोज वाली गाड़ियों में जबरदस्त ब्रेक लग जाता है। ये पते राजनीतिक दलों के दफ्तरों के पते हैं। राजनीतिक पार्टियां कहती हैं कि वह हर तरह की पारदर्शिता के पक्ष में हैं, लेकिन चुनावी चंदे के मुद्दे पर वो आनाकानी करती हैं।

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