अम्बेडकर और गाँधी की दृष्टि
में भारत में दलित प्रश्न और जाति-व्यवस्था
(Questions of Dalit and the caste system in India in the view of Ambedkar
and Gandhi )
(الأسئلة من داليت والنظام الطبقي في الهند في نظر أمبيدكار وغاندي)
प्रोफ़ेसर राम लखन मीना, राजस्थान केंद्रीय
विश्वविद्यालय, राष्ट्रीय राजमार्ग-8, अजमेर
डॉ. अम्बेडकर का मानना था कि "समूची दुनिया का
इतिहास वर्गीय समाजों का इतिहास है और भारत भी इसका अपवाद नहीं है।" महात्मा गांधी द्वारा हमारे स्वाधीनता आंदोलन के विचारों और
प्रयासों को सघन करने तक छिटपुट संघर्ष, विरोध, लडाईयाँ और हत्यायें होती रहीं । लोगों
के मन में ठोस ढांचे वाले स्वतंत्र राष्ट्र की कल्पना नहीं थी । महात्मा गांधी ने जीवन
के विभिन्न क्षेत्र के भारतीयों के स्वप्नों और महत्वाकांक्षाओं को दृढ़ करने वाले एक
ढ़ांचे की परिकल्पना दी । किसान, उद्योगपति, कलाकार, पत्रकार और आम नागरिक सभी ने यह
जाना कि उनका ईमानदारी और समर्पित होकर किया गया कार्य भी स्वतंत्रता संग्राम का भाग
था । अंततः 15 अगस्त, 1947 को हमें आजादी मिली । इस आनंद के साथ ही मोह भी भंग हुआ
। राष्ट्रपिता गांधीजी ने समृद्ध कृषि, पशु फार्म और हस्तशिल्प रामराज्य का स्वप्न
देखा था जिसमें ग्राम आत्मनिर्भर और स्वतंत्र हों,उन्होंने हमारे लोगों की अलग पहचान
का सपना देखा जिसमें बाहरी लोगों की नकल नहीं करनी थी । यद्यपि उनका चिंतन ठोस और यथार्थवादी
था, पर वह एक सपना मात्र रहा । गांधी और आंबेडकर दोनों वर्तमान भारत के राजनीतिक और सांस्कृतिक आंदोलनों के लिए प्रासंगिक
हैं। दोनों भारतीय इतिहास के बारे में सोचते हैं, जाति-प्रथा
से टकराते हैं, साम्राज्यवाद के प्रति अपना विशेष दृष्टिकोण अपनाते हैं और समाज को
बदलना चाहते हैं।
पूरे देश में जागरण का दौर चल रहा था, नवजागरण का दौर चल रहा था। महात्मा ज्योतिबा फुले जैसा कार्य कर रहे थे, वह स्वयं अंग्रेजों ने सराहनीय माना और अंग्रेज सरकार ने उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले के योगदान के लिए उनका सार्वजनिक रूप से अभिनंदन भी किया था। सावित्री बाई फुले को पुणे के ही ब्राह्मणों के संकुचित दृष्टिकोण का सामना करना पड़ा था जब वे लड़कियों के लिए आरंभ की गई पाठशाला में पढ़ाने के लिए जाती थीं। लोग रास्ते में गोबर, कीचड़, पत्थर आदि उन पर फेंकते थे। सावित्रीबाई एक साड़ी अपने थैले में लेकर चलती थीं और स्कूल पहुँच कर गंदी कर दी गई साड़ी बदल लेती थीं। अपने पथ पर चलते रहने की प्रेरणा बहुत अच्छे से देती हैं, सावित्रीबाई ने अपने जीवन को एक मिशन की तरह से जीया । दूसरी तरफ डॉ. आंबेडकर अपनी सामाजिक चिंतक की भूमिका किन मुद्दों को ध्यान में रखते हुए निर्वाह कर रहे थे? उनके लिए महत्त्वपूर्ण क्या था? वह किस दृष्टिकोण से समाज को देख रहे थे? चिंतन की दार्शनिक भूमिका तक चलकर वह क्यों आए थे? इन सारे प्रश्नों का एक ही उत्तर है ‘जाति के दंश’ से उपजी सामाजिक असमानता को निराधार करना। जाति भेद की जड़ें खोदना, जाति प्रथा की चूलें हिला देना। सामाजिक असमानता के जितने भी कारण उन्हें दिखाई दे रहे थे, उन्हें समूल नष्ट करने हेतु वह साक्ष्य जुटा रहे थे।
भारत में दलित शब्द और उसका चलन भारत में अंग्रेजी राज की स्थापना के बाद में हुआ। भारत से विदेशों में जाकर पढ़ने वाले नौजवानों की बौद्धिक प्रतिभा में स्वतन्त्रता, समता, बन्धुत्व और राष्ट्रवाद की संकल्पनायें आत्मसात् हो रही थीं। भारत आकर ये नौजवान अपने देश और समाज को अपनी संकल्पानाओं के अनुरूप आकार देना चाहते थे। उसी क्रम में महाराष्ट्र में महादेव गोविंद रानडे और ज्योतिबा फुले के जागरण और समाज सुधारों की दिशा में एक नया आयाम तब जुड़ा जब अमेरिका से पढ़-लिखकर डॉ. अम्बेडकर ने महाराष्ट्र की पेशवाई तौर-तरीकों और व्यवस्थाओं के विरुद्ध एक वैचारिक और व्यवस्थित संघर्ष की शुरुआत की। इस संघर्ष के क्रम में डॉ. अम्बेडकर ने ‘दलित“ शब्द का प्रयोग उन समूहों के लिए किया जो भारत की सामाजिक संरचना में अपने स्थान व निर्धारित भूमिकाओं के कारण बुद्धि-लब्धि, स्वतन्त्रता व समता के मूल्यों का उपयोग करने में असमर्थ थे। इसमें शूद्र वर्ण के अन्तर्गत आनेवाली जातियाँ, वर्ण व्यवस्था से बाहर की जातियाँ और स्त्रियाँ शामिल थीं। लेकिन यह शब्द रूढ़ हुआ उन जातियों पर जाकर जिनसे समाज में छुआछूत का व्यवहार होता था या जो अस्पृश्य मानी जाती थीं। महाराष्ट्र के महार और उत्तर भारत के चमार(चर्मकार) व भंगी(बाल्मीकि) इत्यादि जैसी जातियों के बारे में दलित शब्द का प्रयोग बढ़ा है।
डॉ. अम्बेडकर के व्यावहारिक संघर्षों में भी कुछ जातियाँ ही शामिल हो पायी थीं। यह शामिल जातियाँ ही अपने बारे में दलित शब्द का प्रयोग करने लगीं। इस प्रकार यह शब्द एक विशेष अर्थ का बोध कराता हुआ भाषाई चलन में शामिल हो गया। अम्बेडकर के प्रयासों के काल में राष्ट्रवाद की संकल्पना को आत्मसात कर भारतीय राष्ट्रवाद को जन्म देते हुए अपने प्रयासों में संलग्न महात्मा गांधी राष्ट्रीय क्षितिज पर नेतृत्व के रूप में प्रतिष्ठित हो रहे थे। उत्तर भारत में आर्य समाज के कार्यक्रमों में उन्हीं जातियों को जिन्हें अम्बेडकर का दलित शब्द अपने में शामिल करता था, उन्हें जनेऊ धारण कराकर, संस्कृत पढ़ाकर, यज्ञकर्ता बनाकर उनकी सामाजिक हैसियत को बदला जा रहा था। इसी उत्तर भारत में महात्मा गांधी ने जाति निर्धारण में जन्म प्रधान नहीं कर्म प्रधानता के सिद्धान्तों के विरूद्ध उक्त जातियों को हरिजन कहकर सम्बोधित किया। दूसरी तरफ उनके यहाँ जाकर रहना और अपने आश्रम में हर सवर्ण के कार्यों में भंगी के कार्यों को समाहित करना, यह था गांधी का रास्ता। किन्तु, बाबा साहेब अम्बेडकर और महात्मा गांधी दोनों को अपने आरंभिक जीवन में कठिनाइयों पूर्ण परिस्थितियों और बीते भेदभाव का सामना करना पड़ा, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है ।
अम्बेडकर रामजी मालोजी सकपाल और भीमाबाई की 14 वीं व अंतिम संतान थे, कठिन हालातों में केवल तीन बेटे, बलराम, आनंदराव और भीमराव और दो बेटियाँ मंजुला और तुलासा ही जीवित बच पाये। स्कूली पढ़ाई में सक्षम होने के बावजूद अम्बेडकर और अन्य अस्पृश्य बच्चों को विद्यालय मे अलग बिठाया जाता था और अध्यापकों द्वारा न तो ध्यान ही दिया जाता था, न ही कोई सहायता दी जाती थी। उनको कक्षा के अन्दर बैठने की अनुमति नहीं थी, साथ ही प्यास लगने पर कोई ऊँची जाति का व्यक्ति ऊँचाई से पानी उनके हाथों पर पानी डालता था, क्योंकि उनको न तो पानी, न ही पानी के पात्र को स्पर्श करने की अनुमति थी। लोगों के मुताबिक ऐसा करने से पात्र और पानी दोनों अपवित्र हो जाते थे। आमतौर पर यह काम स्कूल के चपरासी द्वारा किया जाता था जिसकी अनुपस्थिति में बालक अम्बेडकर को बिना पानी के ही रहना पड़ता था। पढा़ई में अपने उत्कृष्ट प्रदर्शन के बावजूद, अम्बेडकर लगातार अपने विरुद्ध हो रहे इस अलगाव और भेदभाव से व्यथित रहे। बाबा आम्बेडकर को उनके बचपन में दलित और अछूत समझे जाने वाले समाज में जन्म लेने के कारण कई घटनाएं कुरेदती रहती थी। स्कूल में पढ़ने में तेज होने के बावजूद भी सहपाठी उन्हें अछूत समझकर उनसे दूर रहते थे, उनका तिरस्कार करते थे, घृणा करते थे। बचपन में उन्हें अनेक कटु अनुभव हुए जिनके कारण उनके मन में उच्च समझे जाने सवर्णों के प्रति घृणा उत्पन्न हो गई। गंदे नालियों की सफाई करना, सिर पर मैला ढ़ोना तथा मरे जानवरों को फेंकना, उनकी चमड़ी निकालना जैसे कार्य अछूतों के अधिकार माने जाते थे। उन्हें जानवरों से भी हीन श्रेणी का दर्जा दिया जाता था। दलित जाति की यह दुर्गति देखकर ही वे दलितों के उधार के लिए दृढ़ संकल्पित हुए
बाबासाहेब से विशेष स्नेह रखने वाले ब्राह्मण शिक्षक महादेव अम्बेडकर की दूरदर्शिता एवं आग्रह पर अम्बेडकर ने अपने नाम से ‘अम्बावडेकर’ (अपने गाँव का नाम अम्बेडकर ने अपना उपनाम बनाया) हटाकर अम्बेडकर ( ब्राह्मण सूचक उपनाम) जोड़ लिया क्योंकि उनके समय में जिस विचारधारा ने भारत में ब्राह्मणों को सर्वश्रेष्ठ घोषित किया है, जिनके पास सत्ता को संचालित करने का अधिकार था और सबसे बड़ी बात जिनके पास अध्ययन-अध्यापन का अधिकार था, वे ही लेखन कार्य में भी लगे हुए थे और बड़ौदा के गायकवाड़ शासक केवल ब्राह्मणों को ही विदेशों में उच्च अध्ययन के लिये भेजते थे । परिणामस्वरूप 1908 में, उन्हें संयुक्त राज्य अमेरिका के एलिफिंस्टोन कॉलेज में उच्च अध्धयन के लिये प्रवेश मिला और उन्होनें पच्चीस रुपये प्रति माह का वजीफा़ प्राप्त किया। किन्तु, यह कतई सच नहीं है कि उच्च वर्ण में जन्मे सामंत ने शूद्र वर्ण में जन्म लेने वाले नवयुवक की शिक्षा लेने के लिए धन व्यय किया हो, उन्होंने ऐसा सिर्फ़ और सिर्फ़ इसलिये किया कि उन्होंने उस बालक को अम्बेडकर उपनाम की बजह से ब्राह्मण समझा ! इससे यह प्रमाणित होता है कि जाति-वर्ग और अमीर-गरीब इंसान का बनाया हुआ है, ईश्वर द्वारा नहीं। इस विषमता को संघर्ष और शिक्षा-अर्जन द्वारा बदला जा सकता है।
दूसरी तरफ़ दक्षिण अफ्रीका में गांधी को भारतीयों पर भेदभाव का सामना करना पड़ा। आरम्भ में उन्हें प्रथम श्रेणी कोच की वैध टिकट होने के बाद तीसरी श्रेणी के डिब्बे में जाने से इन्कार करने के लिए ट्रेन से बाहर फेंक दिया गया था। इतना ही नहीं पायदान पर शेष यात्रा करते हुए एक यूरोपियन यात्री के अन्दर आने पर चालक की मार भी झेलनी पड़ी। उन्होंने अपनी इस यात्रा में अन्य भी कई कठिनाइयों का सामना किया। अफ्रीका में कई होटलों को उनके लिए वर्जित कर दिया गया। इसी तरह ही बहुत सी घटनाओं में से एक यह भी थी जिसमें अदालत के न्यायाधीश ने उन्हें अपनी पगड़ी उतारने का आदेश दिया था जिसे उन्होंने नहीं माना। ये सारी घटनाएँ गांधी के जीवन में एक मोड़ बन गईं और विद्यमान सामाजिक अन्याय के प्रति जागरुकता का कारण बनीं तथा सामाजिक सक्रियता की व्याख्या करने में मददगार सिद्ध हुईं। दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों पर हो रहे अन्याय को देखते हुए गांधी ने अंग्रेजी साम्राज्य के अन्तर्गत अपने देशवासियों के सम्मान तथा देश में स्वयं अपनी स्थिति के लिए प्रश्न उठाये।
भारत में दलित प्रश्न का अम्बेडकरीय प्रस्तुतिकरण स्वतन्त्रता, समता के सवाल से बढ़कर ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में उतरा और मनुस्मृति दहन के कार्यक्रमों के रूप में सामने आया, तब दलित का प्रश्न एक कौम का प्रश्न बनने लगा, जिसकी दिशा अन्ततः एक स्वतन्त्र राष्ट्र की माँग की ओर बढ़ती है। ब्रिटिश राज्य की कार्य योजना में मुसलमानों के बाद दलितों को इसी दिशा की ओर बढ़ाना शामिल था। इसलिए पृथक निर्वाचन देकर मुसलमानों को मुस्लिम लीग के प्रयास और फिर पृथक राष्ट्र की माँग की ओेर बढ़ाने की नीति अँग्रेज़ दलितों पर आजमाना चाहते थे। डॉ. अम्बेडकर अपने दलित समाज की मुक्ति की राहें खोजने में पृथक निर्वाचन को अपना सहायक मान बैठे थे लेकिन महात्मा गांधी एक राष्ट्रवादी चिन्तक के रूप में राष्ट्र विभाजन की इस अंग्रेजी चाल को समझ गये थे। इसीलिए आमरण अनशन पर बैठकर उन्होंने इस नये राष्ट्रीय विभाजन को रोकने का प्रयास किया। डॉ. अम्बेडकर ने जब गांधी से वार्तालाप किया तब वह भी इस बात को समझ गये और पूना पैक्ट के रूप में भारतीय समस्या का भारतीय समाधान निकाला गया यानि विधायिका में सुनिश्चित भागीदारी लेकिन निर्वाचक मण्डल पूरा समाज।
कालान्तर में आरक्षण की संकल्पना इसी आधार पर उपजी जो अम्बेडकर के साथ महात्मा गांधी को भी मान्य थी। इस प्रकार अम्बेडकर और महात्मा गांधी दोनों ‘भारत एक राष्ट्र“ के दृष्टिकोण से संयुक्त हुए। डॉ. अम्बेडकर और गांधी के विचारों का यह संगम अन्ततः भारत विभाजन की एक अन्य गलती को रोकने में कामयाब हुआ। गलती इसलिए क्योंकि इतिहास ने सिद्ध कर दिया कि धर्म के आधार पर भारत राष्ट्र का कृत्रिम विभाजन कर पाकिस्तान निर्माण एक गलती था। पूना पैक्ट के बाद गांधी और अम्बेडकर भारतीय राजनीति के एक विशेष आयाम (जातिगत शोषण की समाप्ति) में एक दूसरे के पूरक बन गये। महात्मा गांधी यह स्वीकारोक्ति भी करते हैं कि इस प्रश्न (दलित प्रश्न) को समझाने में अम्बेडकर उनके गुरु रहे, जबकि भारत एक राष्ट्र है, यह समझने में अम्बेडकर के गुरु जाने-अनजाने गांधी बन चुके थे। यही कारण है भारत में स्वतन्त्रता के उषा काल में अम्बेडकर ने मुस्लिम और ईसाई न बनकर बौद्ध धर्म स्वीकार किया। संविधान सभा की ड़्राफ्टिंग कमेटी का चेयरमैन बनना स्वीकार किया और आरक्षण के माध्यम से भारत राष्ट्र की एकता बने रहने का मार्ग प्रशस्त किया।
महात्मा गांधी ने स्वराज्य प्राप्ति के लिए जो अपने रचनात्मक कार्यक्रम प्रस्तुत किये उसमें इन्होंने कौमी एकता (हिन्दू-मुस्लिम एकता) के बाद दूसरा दर्जा अस्पृश्यता निवारण को दिया। इस सम्बन्ध में उनके आशय का सार उनके वक्तव्य के निम्न अंश से समझा जा सकता है -‘‘ऐसा कौन है जो आज इस बात से इनकार करेगा कि हमारे हरिजन भाई-बहनों को बाकी के हिन्दू अपने से दूर रखते हैं और इसकी वजह से हरिजनों को जिस भयावनी व राक्षसी अलहदगी का सामना करना पड़ता है उसकी मिसाल तो दुनिया में कहीं ढूँढ़े भी नहीं मिलेगी? यह काम कितना मुश्किल है, सो मैं अपने अनुभव से जानता हूँ, लेकिन स्वराज्य की इमारत को उठाने का जो काम हमने हाथ में लिया है उसी का यह एक हिस्सा है।“ महात्मा गांधी ने दलित प्रश्न को अपने स्वराज्य के संघर्ष का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा मानकर लगातार यह प्रयास किया कि कांग्रेस कार्यकर्ता इसे सियासी काम न मानकर हिन्दू- धर्म का अनिवार्य काम मान लें और हर हिन्दू के मन व संस्कार में यह कार्य समाहित कर दें, इस सम्बन्ध में वह लिखते हैं- ‘‘आज की इस घड़ी में हिन्दू धर्म से चिपटे हुए अस्पृश्यता रूपी शाप और कलंक को धो डालने की आवश्यकता के बारे में विस्तार से कुछ लिखने की जरूरत नहीं।
यह सच है कि इस दशा में कांग्रेस वालों ने बहुत कुछ किया है लेकिन मुझे अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि ज्यादातर कांग्रेसियों ने अस्पृश्यता निवारण को, जहाँ तक हिन्दुओं का सम्बन्ध है, खुद हिन्दू धर्म की हस्ती के लिये लाजिमी मानने के बदले उसे एक सियासी जरूरत की चीज माना है। अगर हिन्दू कांग्रेसी यह समझकर इस काम को उठा लें कि इसी में उनकी सार्थकता है तो सनातनी कहे जाने वाले उनके धर्म-बन्धुओं पर जितना असर आज तक हुआ है, उससे कई गुना ज्यादा असर डालकर वे उनका ह्रदय-परिवर्तन कर सकेंगे।“ यहाँ यह स्पष्ट है कि गांधी के दृष्टिकोण में दलित प्रश्न महज सियासी प्रश्न न होकर हिन्दू धर्म को मानने वालों में अत्याधिक परिवर्तन का प्रश्न था। इस प्रकार गांधी यहाँ भारत की संत परम्परा का बोध कराते हैं क्योंकि जाति-प्रथा पर प्रहार करते हुए संत कबीर लिखते हैं- ‘‘जात-प्रथा को माने न कोय,हरि को भजे सो हरि का होय।“
कबीर परम्परा के संत नरसिंह मेहता अपने भजनों में अछूतों के लिए ‘हरिजन“ शब्द का प्रयोग करते थे, जिसे अछूत भी अपने लिए सही शब्द मानते थे। इसीलिए गांधी दलितों के लिए हरिजन शब्द का प्रयोग करते हैं। यहाँ यह समझना आवश्यक है कि संत परम्परा अंग्रेजों के आने के पूर्व ही भारतीय समाज के सामन्ती अभिशाप जाति प्रथा के खिलाफ अपनी लड़ाई लड़कर जीत चुके थे। इसकी एक अनिवार्य अभिव्यक्ति के रूप में रैदास (चमार) की एक संत के रूप में स्थापना, क्षत्राणी मीरा द्वारा उन्हें अपना गुरू मानना, उनसे मिलने जाना और उनके चरणों में सर रखना, रैदास मन्दिरों की स्थापना होना इत्यादि के रूप में देखी जा सकती हैं। सिक्ख धर्म भी अपने आप में इसी प्रकार की एक अभिव्यक्ति है। महाराष्ट्र में गुरू रामदास के शिष्य शिवाजी ने सैनिक विद्रोह के द्वारा संतों के इस स्तर को राजनैतिक अभिव्यक्ति दे दी थी। लेकिन पेशवाओं द्वारा शिवाजी के रूप में उत्कर्ष प्राप्त कुनबियों को मराठा बनाकर उनका नेतृत्व छीन लिया और समाज के स्तर पर ब्राह्मणवाद की पुर्नस्थापना का प्रतिक्रियावादी प्रयास किया।
उसी के परिणाम स्वरूप उस धरती पर ज्योतिबा फुले और अम्बेडकर खड़े हुए और उनके विचारों में सवर्णों के प्रति एक आक्रोश की प्रतिध्वनि है। लेकिन महात्मा गांधी संतों की परम्परा का अनुसरण करते हुए दलित प्रश्न को हल करने के मार्ग पर चलते हैं। यह उनके प्रयासों का ही फल था कि महाराष्ट्र से होकर उत्तर भारत के सभी प्रदेशों में कांग्रेस ही दलितों की पार्टी बनकर उभरी और दलितों का जो विश्वास कांग्रेस पर बना, जिसकी राजनैतिक अभिव्यक्ति जगजीवन राम के रूप में थी, यह विश्वास आजादी के तीस साल बाद टूटना शुरू हुआ। इस टूटन का श्रेय कांशीराम की राजनैतिक निपुणता को दिया जा सकता है। लम्बे काल तक कांग्रेस को दलितों की पार्टी बने रहने का श्रेय एकमात्र महात्मा गांधी के विचार और उनके प्रयासों को दिया जाना कोई अतिश्योक्ति नहीं है।
गांधी-विचार को समझने के लिए यह आवश्यक है कि यह जाना जाये कि गांधी किन परिस्थितियों में दलित प्रश्न को हल करने की ओर मुड़े और कितनी दृढ़ता के साथ अपने विचारों का क्रियान्वयन करने का प्रयास उन्होंने किया। यह नमक आन्दोलन के उतार का वक्त था। गांधीजी को गोलमेज सम्मेलन के लिए इंग्लैण्ड बुलाया गया, वहाँ अल्पसंख्यांकों के प्रश्न पर बात करते हुए अंग्रेज मैकडोनाल्ड ने दलित जातियों को भी अल्पसंख्यक बताते हुए उनके लिए भी पृथक निर्वाचन की योजना प्रस्तुत की। गांधीजी मुसलमानों के सवाल पर पृथक निर्वाचन के परिणाम को देख चुके थे और एक राष्ट्रभक्त के नाते वह भारतीय समाज में अन्य दरारें डालना स्वीकार नहीं कर सकते थे, इसलिए इन्हने इसका विरोध किया। इस सम्बन्ध में लेखक हरिभाऊ उपाध्याय लिखते हैं -‘‘17 नवम्बर को मैकडोनाल्ड ने अल्पसंख्यकों के उपयुक्त निर्णय को विधिवत मंजूरी दे दी, इसमें दलित जातियों के लिए भी पृथक निर्वाचन की माँग थी। घास के अन्दर छिपे इस साँपको गांधीजी ने देखा और उसे तुरन्त अपने पैरों के नीचे दबाकर बोले- दलित जातियों के लिए पृथक निर्वाचन की माँग मेरे लिए सबसे अधिक निष्ठुर प्रहार है इसका अर्थ है सदा के लिए जुदाई..."
गांधीजी के उक्त कथन में भविष्य को समझने की दृष्टि छिपी है, उनके दृष्टिबोध की सत्यता साबित भी हुई। जब अंग्रेज जाते वक्त भारत का एक और विभाजन अछूतिस्तान के नाम पर करने की योजना प्रस्तुत करते हैं और अम्बेडकर इसका विरोध कर भारत का विभाजन रोक देते हैं। आगामी भविष्य में जब पाकिस्तान पुनर्विभजित हुआ तो यह भी साबित हो गया कि राष्ट्र धर्म और जाति के नाम पर न बनकर भौगोलिक सीमाओं के अन्तर्गत ही निर्मित होते हैं और यह भारत राष्ट्र की विशिष्टता है कि उसमें राज्य आकांक्षाओं का समाधान आरक्षण या राज्य में सुनिश्चित भागीदारी के सिद्धान्त से किया गया। गांधीजी दलितों के हालात के लिए अंग्रेजों को भी जिम्मेदार ठहराते हैं और स्वतन्त्रता के उपरान्त सरकार द्वारा उनके संरक्षण की दृष्टि भी रखते हैं इसलिए वह लिखते हैं-‘‘अंग्रेजों ने अपने वेज्ञानिक तरीकों से दलितों और पतितों को जिस भयंकर दलदल में गिरा रखा है, उसमें से उन्हें बाहर निकालने के लिए भारत को स्वतन्त्रता के बाद लगातार बरसों तक कानून बनाते रहना पड़ेगा। यदि उन्हें इस दलदल से बाहर निकालकर राष्ट्रीय सरकार अपने घर को व्यवस्थित करना चाहती है तो सबसे पहले उसे उन तमाम बोझों को उनके कन्धों पर से हटाना होगा जिनके नीचे आज भी वे पिसे जा रहे हैं।"
ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रेमजे मैकडोनल्ड जब दलितों के पृथक निर्वाचन के निश्चय से पीछे नही हटे तो भारत आकर गांधीजी ने 20 सितम्बर, 1932 से आमरण अनशन की घोषणा कर दी। इस घोषणा का प्रभाव यह पड़ा कि एक ओर दलित नेता श्री राजा गांधीजी के समर्थन में खड़े हो गये और दूसरी ओर देश भर में मन्दिरों के द्वार हरिजनों के लिए खोले जाने लगे और गांधीजी के अस्पृश्यता निवारण के काम को देश ने अपने हाथ में ले लिया। 20 सितम्बर,1932 को सारे देश में प्रार्थनाएँ की गयीं और उपवास के पाँचवे दिन पण्डित मदनमोहन मालवीय ने नेताओं की एक परिषद बुलायी, जिसमें सवर्ण नेताओं के साथ अम्बेडकर सहित सभी दलित नेताओं ने भाग लिया। इस सभा में सबने मिलकर एक योजना स्वीकार की, जिसके अनुसार दलित जातियों ने पृथक निर्वाचन का अधिकार त्याग दिया और आम हिन्दू निर्वाचनों से ही संतोष कर लिया। सवर्ण हिन्दुओं ने यह स्वीकार किया कि पृथक निर्वाचन से ब्रिटिश प्रधानमंत्री जितनी सीटें दलितों को देना चाहते थे उससे दुगनी सीटें दलितों को संयुक्त निर्वाचन में आरक्षित की जायेंगी। यह निर्णय ब्रिटिश मंत्रिमण्डल ने भी स्वीकार कर लिया। तब 26 सितम्बर, 1932 को शाम पाँच बजे श्री रवीन्द्र ठाकुर की उपस्थिति में धार्मिक भजन और प्रार्थना के बाद गांधी जी ने उपवास समाप्त किया।
गांधी जी यहाँ रुके नहीं, उन्होंने हरिजन पत्र का प्रकाशन शुरू किया और हरिजन आन्दोलन के निरन्तर आगे बढ़ने पर उन्होंने 8 मई, 1932 को पुनः आत्मशुद्धि के निमित्त 21 दिन का उपवास प्रारम्भ किया। इस सम्बन्ध में वह लिखते हैं - ‘‘यह उपवास अपनी और अपने साथियों की शुद्धि के लिए ह्रदय से की गयी प्रार्थना है, जिससे वे हरिजन-कार्य अधिक जागरुकता और सावधानी के साथ कर सकें। मैं अपने भारत के और संसार के अन्य मित्रों से अनुरोध करता हूँ कि वे मेरे साथ प्रार्थना करें कि मैं इस अग्नि-परीक्षा में सकुशल पार उतरूँ। मैं मरूँ या जीऊँ, जिस उद्देश्य से मैंने उपवास किया है वह पूरा हो। मैं अपने सनातनी भाइयों से अनुरोध करता हूँ कि वे प्रार्थना करे कि इस उपवास का परिणाम मेरे लिये जो कुछ भी हो, कम-से-कम वह सुनहला ढँकना हट जाये जिसने सत्य को ढँक रखा है।“ गांधीजी के इस उपवास का प्रभाव कांग्रेस कार्यकर्ताओं पर और देश दोनों पर पड़ा। घबराकर सरकार ने उनके हरिजन पत्र निकालने पर पाबन्दी लगा दी, जिसके लिए गांधीजी को पुनः अनशन करना पड़ा। जिसपर उनकी हालत खराब होने पर सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और 13 दिन बाद बिना शर्त छोड़ दिया। इसके बाद गांधीजी की प्रेरणा से मालवीयजी की अध्यक्षता में बम्बई में एक विशाल आमसभा हुई, जिसमें अस्पृश्यता को दूर करने के लिए एक अखिल भारतीय अस्पृश्यता विरोधी संगठन खड़ा किया गया। श्री घनश्याम दास बिड़ला उसके अध्यक्ष तथा श्री अमृतलाल ठक्कर मंत्री चुने गये। सही संगठन बाद में ‘हरिजन सेवक संघ“ के रूप में काम करने लगा।
अपने जीवन में अपने उद्देश्यों को चरितार्थ करने की गांधी शैली के अनुरूप गांधी ने एक ढेड (हरिजन) की लकड़ी गोद ले ली और एक ढेड परिवार को भी आश्रम में बसा लिया। साथ ही उन्होंने यह भी निश्चय किया कि समाज में जो भी सुविधायें हरिजनों के लिए नहीं है, उनका लाभ वे स्वयं भी नहीं लेंगे और जो उनके विचारों के अनुगामी लोग हैं- चाहे परिवार वाले हों या आश्रमवासी- वे भी नहीं लेंगे। उदाहरण के लिए जिन मंदिरों में हरिजनों के जाने का निषेध है, उनका उपयोग वे लोग नहीं करेंगे। 1933 में ही हरिजन-कार्य के लिए दस महीने देश के हर प्रान्त का दौरा किया। इस दौरे में इस कार्य हेतु आठ लाख रुपया एकत्र हुआ और एक बार 25 जून, 1935 को पूना में उनकी मोटर पर बम फेंका गया। गांधीजी बाल-बाल बचे। इस घटना में उनकी मृत्यु हो सकती थी।
इससे यह भी स्पष्ट होता है कि गांधीजी के हरिजनों हेतु किये गये कार्यों की प्रतिक्रिया किस स्तर पर थी, फिर भी गांधीजी अपने सम्पूर्ण जीवन में अपने विचार पर अडिग रहे। 1934 में कांग्रेस को छोड़ते वक्त भी उन्होंने अस्पृश्यता निवारण को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान दिया और हम जानते हैं कि अपने जीवन के अन्त तक गांधीजी अपने रचनात्मक कार्यों को अपने देनिक जीवन का अंग बनाये रहे। इसीलिए वह ज्यादातर हरिजनों के घर पर ही ठहरना पसन्द करते थे। इस प्रकार गांधीजी का जीवन उनके विचारों के क्रियान्वयन का जीवन रहा है। गांधी के हम कर्मपूर्ण जीवन के क्रम में उनके विचार भी समस्या की गहराईकी ओर बढ़ते रहें और वह अछूतों की मुक्ति की बात करने लगे। एक बार अहमदाबाद में दलित वर्ग सम्मेलन में वह बोले-‘‘मेरी दो बड़ी इच्छायें हैं, जिनके कारण मैं जीवित हूँ। पहली, अछूतों की मुक्ति और दूसरी गायों की रक्षा। जब मेरी यह दोनों इच्छायें पूरी हो जायेंगी, तभी स्वराज्य मिल जायेगा और उन्हीं की मुक्ति में मेरा मोक्ष भी निहित है।“
यहाँ अछूतों की मुक्ति का सवाल महज अस्पृश्यता निवारण नहीं है। यह देश में समानता स्थापित करने का एक सपना है। इसलिए एक बार इंग्लैण्ड में बोलते हुए उन्होंने कहा-‘‘अस्पृश्यों की हालत पर जरा गौर तो कीजिए कि आज वह कहाँ हैं। आज उनके पास जमीन नहीं है। वे उच्च वर्ग वालों की- और इसलिए मुझे कहने दीजिये- राज्य की दया पर जी रहे हैं। उन्हें एक जगह से हटाकर कहीं भी दूसरी जगह खदेड़ा जा सकता है। इसकी शिकायत किसी से वे नहीं कर सकते और न कानून ही उनकी कोई सहायता कर सकता है। इसलिए किसी भी प्रकार की समानता लाने के लिए सबसे पहला कदम यह होगा कि उन्हें कहीं-न-कहीं बिना मूल्य लिये जमीन देनी होगी। परन्तु जिनके पास अधिक जमीन है या दूसरे अधिक साधन हैं, उनसे लेकर देनी होगी। इनमें हिन्दुस्तानी भी होंगे, अंग्रेज भी। इसलिए आप हरगिज यह न समझें कि महज अंग्रेज होने के कारण आफ साथ कोई भेदभाव बरता जायेगा। यह नियम तो सभी पर लागू होगा, चाहे वह अंग्रेज हो, जापानी हो, भारतीय हो या और कोई हो।“
इस प्रकार हम यह स्पष्ट देख सकते हैं कि दलित प्रश्न पर महात्मा गांधी और डॉ. अम्बेडकर के सपनों में कोई अन्तर नहीं था, लेकिन सपने को यथार्थ में बदलने के मार्ग को लेकर भिन्नताएँ जरूर थीं जिनके आधार पर आज के दलित चिन्तक इन दोनों को एक दूसरे के विरोध में खड़ा करके देखते हैं। गांधी के ग्राम स्वराज्य पर प्रश्न उठाते हुए प्रायः दलित लेखक लिखते हैं कि गाँवों में दलितों को दबाकर रखा जाता है और यही गांधी का आदर्श है। यह एक मनगढ़न्त आरोप है क्योंकि गांधी अपने ‘ग्रामस्वराज्य“ को व्याख्यायित करते हुए लिखते हैं-‘‘जनता के स्वराज्य का अर्थ है- प्रत्येक व्यक्ति के स्वराज्य से उत्पन्न जनसत्तात्मक राज्य। ऐसा राज्य केवल प्रत्येक व्यक्ति के नागरिकता के नाते उसका जो धर्म है उसका पालन करने से ही उत्पन्न होता है।“ यहाँ प्रत्येक व्यक्ति में दलित भी शामिल हैं। इसलिए यह समझना चाहिए कि गांधी के स्वराज्य की कल्पना किसी भी सामाजिक शोषण के यथार्थ को बनाये रखने की कल्पना नहीं थी। यह कहा जा सकता है कि गांधी के विचार और व्यवहार को न समझ पाने के कारण ही दलित चिन्तक अनर्गल प्रश्नों को उठाते हैं जबकि डॉ.अम्बेडकर और तमाम आम दलित समाज गांधी को समझकर उनके साथ राष्ट्रीय आन्दोलन में खड़ा था।
अब तक डॉ अम्बेडकर आज तक की सबसे बडी़ अछूत राजनीतिक हस्ती बन चुके थे। उन्होंने मुख्यधारा के महत्वपूर्ण राजनीतिक दलों की जाति व्यवस्था के उन्मूलन के प्रति उनकी कथित उदासीनता की कटु आलोचना की। अम्बेडकर ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और उसके नेता मोहनदास गांधी(महात्मा गांधी) की आलोचना की, उन्होने उन पर अस्पृश्य समुदाय को एक करुणा की वस्तु के रूप मे प्रस्तुत करने का आरोप लगाया। अम्बेडकर ब्रिटिश शासन की विफलताओं से भी असंतुष्ट थे, उन्होने अस्पृश्य समुदाय के लिये एक ऐसी अलग राजनैतिक पहचान की वकालत की जिसमे कांग्रेस और ब्रिटिश दोनों का ही कोई दखल ना हो। 8 अगस्त, 1930 को एक शोषित वर्ग के सम्मेलन के दौरान अम्बेडकर ने अपनी राजनीतिक दृष्टि को दुनिया के सामने रखा, जिसके अनुसार शोषित वर्ग की सुरक्षा उसके सरकार और कांग्रेस दोनों से स्वतंत्र होने में है। “हमें अपना रास्ता स्वयँ बनाना होगा और स्वयँ ... राजनीतिक शक्ति शोषितो की समस्याओं का निवारण नहीं हो सकती, उनका उद्धार समाज में उनका उचित स्थान पाने में निहित है। उनको अपना रहने का बुरा तरीका बदलना होगा.... उनको शिक्षित होना चाहिए .... एक बड़ी आवश्यकता उनकी हीनता की भावना को झकझोरने, और उनके अंदर उस दैवीय असंतोष की स्थापना करने की है जो सभी उँचाइयों का स्रोत है।”
उन्होंने अस्पृश्य समुदाय के लोगों को गाँधी द्वारा रचित शब्द हरिजन पुकारने के कांग्रेस के फैसले की कडी़ निंदा की। यहाँ तक कि अपने अनुयायियों से भी हिंदू धर्म छोड़ कोई और धर्म अपनाने का आह्वान किया। 1941 और 1945 के बीच में उन्होंने बड़ी संख्या में अत्यधिक विवादास्पद पुस्तकें और पर्चे प्रकाशित किये जिनमे ‘थॉट्स ऑन पाकिस्तान’ भी शामिल है, जिसमें उन्होने मुस्लिम लीग की मुसलमानों के लिए एक अलग देश पाकिस्तान की मांग की आलोचना की। वॉट कॉंग्रेस एंड गांधी हैव डन टू द अनटचेबल्स (काँग्रेस और गान्धी ने अछूतों के लिये क्या किया) के साथ, अम्बेडकर ने गांधी और कांग्रेस दोनो पर अपने हमलों को तीखा कर दिया उन्होने उन पर ढोंग करने का आरोप लगाया। उन्होने अपनी पुस्तक ‘हू वर द शुद्राज़?’( शुद्र कौन थे?) के द्वारा हिंदू जाति व्यवस्था के पदानुक्रम में सबसे नीची जाति यानी शुद्रों के अस्तित्व मे आने की व्याख्या की. उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि किस तरह से अछूत, शुद्रों से अलग हैं। अम्बेडकर ने अपनी राजनीतिक पार्टी को अखिल भारतीय अनुसूचित जाति फेडरेशन मे बदलते देखा, हालांकि 1946 में आयोजित भारत के संविधान सभा के लिए हुये चुनाव में इसने खराब प्रदर्शन किया। 1948 में हू वर द शुद्राज़? की उत्तरकथा द अनटचेबलस: ए थीसिस ऑन द ओरिजन ऑफ अनटचेबिलिटी (अस्पृश्य: अस्पृश्यता के मूल पर एक शोध) मे अम्बेडकर ने हिंदू धर्म को लताड़ा। “हिंदू सभ्यता .... जो मानवता को दास बनाने और उसका दमन करने की एक क्रूर युक्ति है और इसका उचित नाम बदनामी होगा। एक सभ्यता के बारे मे और क्या कहा जा सकता है जिसने लोगों के एक बहुत बड़े वर्ग को विकसित किया जिसे... एक मानव से हीन समझा गया और जिसका स्पर्श मात्र प्रदूषण फैलाने का पर्याप्त कारण है ।”
महात्मा गांधी के विचार और प्रयास से भारत के दलित कांग्रेस से जुड़े रहे लेकिन महात्मा गांधी की मृत्यु के बाद कांग्रेस के नेताओं ने दलित प्रश्न को गांधी के दृष्टिबोध या संत परम्परा के क्रम में न समझकर महज सियासी प्रश्न बना दिया। वर्तमान में कोई भी सियासी राजनैतिक पार्टी दलितों और आदिवासियों के कल्याण के लिए कार्य नहीं कर रही हैं, बल्कि वे उनको अपनी सियासी सीढ़ियों के पायदान मानती हैं । क्या, किसी ने कभी सोचा है कि भारत की कोई भी सियासी पार्टी हो, उसका मुखिया या अध्यक्ष एक वर्ग विशेषकर (ब्राहमण ) क्यों है? क्या वर्ग-भेद के सिद्धान्तों को नकारने, उनके विरूद्ध सन्घर्ष करने का स्वांग भरने वाले वामपंथी दलों के सिरोमणि कामरेड आज तक अपने गलों से जनेऊ तक का त्याग कर पाये हैं ? यह भी संभव नहीं कि एक ही समय में आप राजा भी बनें और क्रांतिकारी भी। सचमुच यह एक फरेब के सिवा और कुछ भी नहीं। राष्ट्रीय पटल से महात्मा गांधी और डॉ. अम्बेडकर के हट जाने के बाद मात्र वोटों की सौदागरी में फँसे नेता बीस साल के आरक्षण के बाद सामाजिक समता की स्थापना के अम्बेडकर के स्वप्न को पूरा नहीं कर पाये। महात्मा गांधी के दृष्टिबोध से हिन्दू धर्म में सुधार का प्रयास तो दूर की बात थी।
इसलिए तीस साल बाद जब दलित बुद्धजीवियों ने कांग्रेस की धोखाधड़ी का पर्दाफाश किया तो दलितों में विक्षोभ की लहरें पुनः उठने लगीं। इन लहरों के आधार पर जब देश में बैठे विदेशी अपने हितों की रोटी सेकने लगे हैं तब यह आवश्यक है कि गांधी विचार के अनुयायी दलित प्रश्न पर गांधी विचार को सामने रखकर उनके बताये मार्ग पर चलें तथा देश और काल के अनुरूप दलित प्रश्न पर चिन्तन कर एक रास्ता निकालें, जिससे भारत राष्ट्र अपनी अक्षुण्णता कायम रख सके और उसमें रहने वाले सभी लोग सामाजिक समानता और स्वतन्त्रता का रसपान कर सकें। सामाजिक भेदभाव का कलंक धुल जाये और सम्पूर्ण समाज रोटी-बेटी के सम्बन्ध से जुड़ सके। गांधी के अनुयायी जयप्रकाश ने 1976 के सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन में ब्राह्मणवाद पर तीखा प्रहार करते हुए जहाँ जनेऊ तोड़ने का आह्वान किया था वहाँ जाति-सूचक चिह्नों का निषेध कर, सामाजिक समरसता कायम करने की कोशिश भी की थी। लेकिन एक बार फिर उनके द्वारा निर्मित अस्र निष्फल रहा और समाज परिवर्तन की भारतीय धारा सूख गयी। भारत का वर्तमान आज जब पुनः परिवर्तन की आहट सुन रहा है और उसमें दलित प्रश्न एक केन्द्रीय प्रश्न के रूप में खड़ा है तब भारतीय संत परम्परा और गांधी मार्ग पर आगे बढ़कर ही वह समाधान प्राप्त किये जा सकते हैं जो भारत राष्ट्र के हितार्थ हों और सामाजिक शोषण का अन्त करते हों।
गांधी और अम्बेडकर की साफ़ तौर पर अलग-अलग दिशा थी । दोनों महापुरुष उत्कट सृजनात्मक व्यग्रता के साथ भारतीय समाज- पटल पर उतरे थे । इतिहास की एक सम्मोहक खूबसूरती होती है कि खण्ड दृष्टि के हम इतने कायल हो जाते हैं कि उसे ही पूर्ण मानने लगते हैं । इन दोनों की उत्कट सामाजिक व्यग्रता के साथ भिडन्त भी हुई थी । यह गौरतलब है कि तीसरे दशक के प्रारम्भ में हुई इस भिडन्त के फलस्वरूप दोनों की अपनी-अपनी सोच और कार्यक्रमों पर बुनियादी असर पड़ा । इस प्रचन्ड मुठभेड़ के बाद दोनों बदले हुए थे । यह सही है कि अन्त तक एक दूसरे के लिए तीखे शब्दों का प्रयोग दोनों ने नही छोड़ा । एक दूसरे पर पडे प्रभाव की यहां सांकेतिक चर्चा की जा रही है । गांधी जी के लिए अस्पृश्यता चिन्ता के विषयों में प्रमुख थी । उनके पहले भी कई योगियों और सामाजिक आन्दोलनों की इस पर समझदारी थी लेकिन यह तथ्य है कि भारत की राजनीति में मुद्दे के तौर पर यह गांधी के कारण स्थापित हुआ । राष्ट्रीय – संघर्ष के बडे लक्ष्य के साथ अस्पृष्यता को धार्मिक और आध्यात्मिक तौर पर उन्होंने लिया । अम्बेड़कर ने बातचीत के शुरुआती दौर में ही गांधी को यह स्पष्ट कर दिया था दलित-वर्गों के आर्थिक – शैक्षणिक उत्थान को वे ज्यादा महत्वपूर्ण मानते हैं ।
अम्बेडकर से मुलाकात के पहले गांधी जाति – प्रथा के रोटी – बेटी के बन्धनों को ‘आध्यामिक प्रगति’ में बाधक नहीं मानते थे । अम्बेडकर से चले संवाद के बाद उन्होंने दलितों के शैक्षणिक – आर्थिक उत्थान के लिए उन्होंने ‘हरिजन सेवक संघ’ बनाया और जाति – प्रथा पर चोट करने के लिए यह निर्णय लिया कि वे सिर्फ़ सवर्ण – अवर्ण विवाहों में ही भाग लेंगे । सामाजिक प्रश्न के धार्मिक महत्व को नजर-अन्दाज करने वाले बाबा साहब ने गांधी से संवाद के दौर के बाद इसे अहमियत दी । जाति – प्रथा के नाश हेतु ‘धर्म-चिकित्सा’ और ‘धर्मान्तरण’ को भी जरूरी माना । भारतीय समाज में सवर्णों में ‘आत्म-शुद्धि’ तथा दलितों में ‘आत्म-सम्मान’-इन दोनों प्रयासों की आवश्यकता है तथा यह परस्पर पूरक हैं । गांधी के मॊडल से पनपे कांग्रेसी-हरिजन नेतृत्व में एक राष्ट्रवादी राजनैतिक अभिव्यक्ति और प्रयत्न था लेकिन सामाजिक – सांस्कृतिक प्रश्नों पर चुप्पी रहती थी । साठ और सत्तर के दशक में उभरे दलित नेतृत्व ने माना कि कांग्रेस का हरिजन नेतृत्व सामाजिक ढ़ाचे में अन्तर्निहित गैर-बराबरी को ढक-छुपा कर रखता है । इस सांस्कृतिक चुप्पी को नए दलित नेतृत्व ने कायरतापूर्ण और असमानता के वातावरण को अपना लेने वाला माना ।
दलित आन्दोलन की कमजोरियों को समझने के लिए 1944 में जस्टिस पार्टी की मद्रास में हार के बाद एक रात्रि भोज में दिए गए बाबासाहब के भाषण पर गौर करना काफी होगा । लम्बे समय तक सत्ता में रहने के बाद जस्टिस पार्टी बुरी तरह हारी थी । गैर-ब्राह्मणों में भी कईयों ने उसका साथ छोड़ दिया था । ‘मेरी दृष्टि में इस हार के लिए दो बातें मुख्यत: जिम्मेदार थीं । पहला, ब्राह्मणवादी तबकों से उनमें कौन से अन्तर हैं यह वे समझ नही पाये । हांलाकि ब्राह्मणों की विषाक्त आलोचना वे करते थे लेकिन उनमें से कोई क्या यह कह सकता है कि वे मतभेद सैद्धान्तिक थे ? उन्होंने खुद को दूसरे दर्जे का ब्राह्मण मान लिया था । ब्राह्मणवाद को त्यागने की बजाए उसकी आत्मा को आदर्श मान कर वे उससे लिपटे हुए थे । ब्राह्मणवाद के प्रति उनका गुस्सा सिर्फ़ इतना था कि वे ( ब्राह्मण) उन्हें दोयम दर्जा देते हैं । हार का दूसरा कारण पार्टी का संकीर्ण राजनैतिक कार्यक्रम था । अपने वर्ग के नौजवानों को कुछ नौकरियां दिलवा देना पार्टी का मुख्य मुद्दा बन गया था । मुद्दा पूरी तरह जायज है, परन्तु जिन नौजवानों को सरकारी नौकरियां दिलवाने के लिए पार्टी 20 वर्षों तक लगी रही क्या वे वेतन पाने के बाद पार्टी को याद रखते हैं ?इन बीस वर्षों में जब पार्टी सत्ता में रही, उसने गांवों में रहने वाले ,गरीबी और सूदखोरों के चंगुल में फंसे 90 फ़ीसदी गैर-ब्राह्मणों को भुला दिया ।’
डॉ.अम्बेडकर का स्पष्ट मानना था कि राजनैतिक स्वतंत्रता से पूर्व सामाजिक एवं आर्थिक समानता जरूरी है। महात्मा गाँधी और डॉ.अम्बेडकर दोनों ने ही जाति व्यवस्था की कुरीतियों को समाप्त करने की बात कही पर जहाँ डा अम्बेडकर का मानना था कि सम्पूर्ण जाति व्यवस्था को समाप्त करके ही बुराइयों को दूर किया जा सकता है वहीं महात्मा गाँधी के मत में शरीर में एक घाव मात्र हो जाने से पूरे शरीर को नष्ट कर देना उचित नहीं अर्थात पूरी जाति व्यवस्था को खत्म करने की बजाय उसकी बुराईयों मात्र को खत्म करना उचित होता। डॉ. अम्बेडकर के मत में मनुस्मृति से पूर्व भी जाति प्रथा थी। मनुस्मृति ने तो मात्र इसे संहिताबद्ध किया और दलितों पर राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक व धार्मिक दासता लाद दी। अम्बेडकर चातुर्वर्ण व्यवस्था को संकीर्ण सिद्धान्त मानते थे जो कि विकृत रूप में सतहबद्ध गैर-बराबरी का रूप है। उन्होंने शूद्रों को आर्यों का ही अंग मानते हुए प्रतिपादित किया कि इण्डो-आर्यन समाज में ब्राह्मणों ने दण्डात्मक विधान द्वारा कुछ लोगों को शूद्र घोषित कर दिया और उन्हें घृणित सामाजिक जीवन जीने के लिए मजबूर कर दिया। नतीजन, शूद्र चातुर्वर्ण की अन्तिम जाति न रहकर नीची जातियाँ घोषित हो गयी इसीलिए वे हिन्दू समाज के उत्थान हेतु दो तत्व आवश्यक मानते थे- प्रथम, समानता और द्वितीय, जातीयता का विनाश। इसी के अनुरूप उन्होंने प्रथम गोलमेज सम्मेलन में सुझाव दिया कि अछूतों को गैर जातीय हिन्दू अथवा प्रोटेस्टेण्ट हिन्दू के रूप में मान्यता दी जाय। उनका कहना था कि - ‘‘अछूत हिन्दुओं के तत्व नहीं हैं बल्कि भारत की राष्ट्रीय व्यवस्था में एक पृथक तत्व हैं जैसे मुसलमान।’’
गाँधी जी की दृष्टि में हिंदू-मुस्लिम, दलित-सवर्ण, छोटे-बड़े में कोई फ़र्क नहीं था । सभी मनुष्य उनकी दृष्टि में एक समान थे । गाँधी जी देश भर में भ्रमण कर चरखा संघ के लिए धन इकठ्ठा कर रहे थे। अपने दौरे के दौरान वे ओड़िसा में एक सभा को संबोधित करने पहुंचे । उनके भाषण के बाद एक बूढी गरीब महिला खड़ी हुई, उसके बाल सफ़ेद हो चुके थे, कपडे फटे हुए थे और वह कमर से झुक कर चल रही थी , किसी तरह वह भीड़ से होते हुए गाँधी जी के पास तक पँहुचीऔर कहने लगी कि “मुझे गाँधी जी को देखना है। ” उसने आग्रह किया और उन तक पँहुच कर उनके पैर छुए। फिर उसने अपने साड़ी के पल्लू में बंधा एक ताम्बे का सिक्का निकाला और गाँधी जी के चरणों में रख दिया। गाँधी जी ने सावधानी से सिक्का उठाया और अपने पास रख लिया। उस समय चरखा संघ का कोष जमनालाल बजाज संभाल रहे थे। उन्होंने गाँधी जी से वो सिक्का माँगा, लेकिन गाँधी जी ने उसे देने से माना कर दिया। “मैं चरखा संघ के लिए हज़ारो रूपये के चेक संभालता हूँ”, जमनालाल जी ने हँसते हुए कहा ‘फिर भी आप मुझपर इस सिक्के को लेके यकीन नहीं कर रहे हैं।’ ‘यह ताम्बे का सिक्का उन हज़ारों से कहीं कीमती है,’ गाँधी जी बोले कि “यदि किसी के पास लाखों हैं और वो हज़ार-दो हज़ार दे देता है तो उसे कोई फरक नहीं पड़ता। लेकिन ये सिक्का शायद उस औरत की कुल जमा-पूँजी थी। उसने अपना सारा धन दान दे दिया। कितनी उदारता दिखाई उसने…। कितना बड़ा बलिदान दिया उसने! इसीलिए इस ताम्बे के सिक्के का मूल्य मेरे लिए एक करोड़ से भी अधिक है।’
कलकत्ता में हिन्दू-मुस्लिम दंगे भड़के हुए थे। तमाम प्रयासों के बावजूद लोग शांत नहीं हो रहे थे। ऐसी स्थिति में गाँधी जी वहां पहुंचे और एक मुस्लिम मित्र के यहाँ ठहरे। उनके पहुचने से दंगा कुछ शांत हुआ लेकिन कुछ ही दोनों में फिर से आग भड़क उठी। तब गाँधी जी ने आमरण अनशन करने का निर्णय लिया और 31अगस्त 1947 को अनशन पर बैठ गए। इसी दौरान एक दिन एक अधेड़ उम्र का आदमी उनके पास पहुंचा और बोला , ‘ मैं तुम्हारी मृत्यु का पाप अपने सर पर नहीं लेना चाहता, लो रोटी खा लो ।’ और फिर अचानक ही वह रोने लगा और कहा की ‘मैं मरूँगा तो नर्क जाऊँगा’ गाँधी जी ने विनम्रता से पूछा। ‘क्यों ?’ क्योंकि मैंने एक आठ साल के मुस्लिम लड़के की जान ले ली। गाँधी जी ने पूछा कि तुमने उसे क्यों मारा ? क्योंकि उन्होंने मेरे मासूम बच्चे को जान से मार दिया । आदमी रोते हुए बोला। गाँधी जी ने कुछ देर सोचा और फिर बोले ‘मेरे पास एक उपाय है।’ आदमी आश्चर्य से उनकी तरफ देखने लगा । ‘उसी उम्र का एक लड़का खोजो जिसने दंगो में अपने मात-पिता खो दिए हों, और उसे अपने बच्चे की तरह पालो। लेकिन एक चीज सुनिश्चित कर लो की वह एक मुस्लिम होना चाहिए और उसी तरह बड़ा किया जाना चाहिए।’ गाँधी जी ने अपनी बात ख़तम की।
डॉ. अम्बेडकर गाँधी जी के ‘हरिजन’ शब्द से नफरत करते थे क्योंकि दलितों की स्थिति सुधारे बिना धर्म की चाशनी में उन्हें ईश्वर के बन्दे कहकर मूल समस्याओं की ओर से ध्यान मोड़ने का गाँधी जी का यह नापाक नुस्खा उन्हें कभी नहीं भाया। उन्होंने गाँधी जी के इस कदम पर सवाल भी उठाया कि- ‘‘सिर्फ अछूत या शूद्र या अवर्ण ही हरिजन हुए, अन्य वर्णों के लोग हरिजन क्यों नहीं हुए? क्या अछूत हरिजन घोषित करने से अछूत नहीं रहेगा ? क्या मैला नहीं उठायेगा ? क्या झाडू़ नहीं लगाएगा ? क्या अन्य वर्ण वाले उसे गले लगा लेंगे ? क्या हिन्दू समाज उसे सवर्ण मान लेगा ? क्या उसे सामाजिक समता का अधिकार मिल जायेगा ? हरिजन तो सभी हैं, लेकिन गाँधी ने हरिजन को भी भंगी बना डाला। क्या किसी सवर्ण ने अछूतों को हरिजन माना ? सभी ने भंगी, मेहतर माना। जिस प्रकार कोई राष्ट्र अपनी स्वाधीनता खोकर धन्यवाद नहीं दे सकता, कोई नारी अपना शील भंग होने पर धन्यवाद नहीं देती, फिर अछूत कैसे केवल नाम के लिए हरिजन कहलाने पर गाँधी को धन्यवाद कर सकता है! यह सोचना फरेब है कि ओस की बूंदों से किसी की प्यास बुझ सकती है ?’’
अम्बेडकर का मानना था कि वर्ण व्यवस्था का सीधा दुष्प्रभाव भले ही दलितों व पिछड़ों मात्र पर दिखता है पर जब इसी सामाजिक विघटन के कारण देश गुलाम हुआ तो सवर्ण भी बिना प्रभावित हुए नहीं रह सके। स्वतंत्रता के इतने सालों बाद भी क्या जाति के कारण उत्पन्न नफरत के भाव को हम पूरी तरह से विगलित कर पाए हैं? क्या घोड़ी पर आसीन दलित वर आज भी सवर्णों की बंदूक का शिकार नहीं हो जाता है ? क्या आज भी मिर्चीपुर, गोहाना, खैरलांजी जैसे कांड नहीं होते ? क्या जाति की प्रताडऩा के स्वरूप बदल नहीं गए है ? समाज जैसा है उसे वैसा ही ट्रीटमेंट देने की आवश्यकता होती है। हमें थोड़ा-थोड़ा ‘स्पेस देने की आदत डालनी ही चाहिए ताकि स्वस्थ समाज के निर्माण की दिशा में सहयोगी कदम बढ़ा सकें। क्या कोई सांसद कभी हिम्मत जुटा पायेगा कि वह भारतीय संसद (पार्लियामेंट) में प्रस्ताव लाये कि देश का कोई भी नागरिक अपने नाम के साथ जाति सूचक उपनाम का इस्तेमाल नहीं करेगा ? इस तरह के युग परिवर्तनकारी कदमों के माध्यम से अब आलोचना के औजार भी बदलने होंगे या फ़िर आखिर कब तक विषमताओं और विसंगतियों के बीच ही भारत को आगे बढ़ाना है…
संदर्भ ग्रंथ :
पूरे देश में जागरण का दौर चल रहा था, नवजागरण का दौर चल रहा था। महात्मा ज्योतिबा फुले जैसा कार्य कर रहे थे, वह स्वयं अंग्रेजों ने सराहनीय माना और अंग्रेज सरकार ने उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले के योगदान के लिए उनका सार्वजनिक रूप से अभिनंदन भी किया था। सावित्री बाई फुले को पुणे के ही ब्राह्मणों के संकुचित दृष्टिकोण का सामना करना पड़ा था जब वे लड़कियों के लिए आरंभ की गई पाठशाला में पढ़ाने के लिए जाती थीं। लोग रास्ते में गोबर, कीचड़, पत्थर आदि उन पर फेंकते थे। सावित्रीबाई एक साड़ी अपने थैले में लेकर चलती थीं और स्कूल पहुँच कर गंदी कर दी गई साड़ी बदल लेती थीं। अपने पथ पर चलते रहने की प्रेरणा बहुत अच्छे से देती हैं, सावित्रीबाई ने अपने जीवन को एक मिशन की तरह से जीया । दूसरी तरफ डॉ. आंबेडकर अपनी सामाजिक चिंतक की भूमिका किन मुद्दों को ध्यान में रखते हुए निर्वाह कर रहे थे? उनके लिए महत्त्वपूर्ण क्या था? वह किस दृष्टिकोण से समाज को देख रहे थे? चिंतन की दार्शनिक भूमिका तक चलकर वह क्यों आए थे? इन सारे प्रश्नों का एक ही उत्तर है ‘जाति के दंश’ से उपजी सामाजिक असमानता को निराधार करना। जाति भेद की जड़ें खोदना, जाति प्रथा की चूलें हिला देना। सामाजिक असमानता के जितने भी कारण उन्हें दिखाई दे रहे थे, उन्हें समूल नष्ट करने हेतु वह साक्ष्य जुटा रहे थे।
भारत में दलित शब्द और उसका चलन भारत में अंग्रेजी राज की स्थापना के बाद में हुआ। भारत से विदेशों में जाकर पढ़ने वाले नौजवानों की बौद्धिक प्रतिभा में स्वतन्त्रता, समता, बन्धुत्व और राष्ट्रवाद की संकल्पनायें आत्मसात् हो रही थीं। भारत आकर ये नौजवान अपने देश और समाज को अपनी संकल्पानाओं के अनुरूप आकार देना चाहते थे। उसी क्रम में महाराष्ट्र में महादेव गोविंद रानडे और ज्योतिबा फुले के जागरण और समाज सुधारों की दिशा में एक नया आयाम तब जुड़ा जब अमेरिका से पढ़-लिखकर डॉ. अम्बेडकर ने महाराष्ट्र की पेशवाई तौर-तरीकों और व्यवस्थाओं के विरुद्ध एक वैचारिक और व्यवस्थित संघर्ष की शुरुआत की। इस संघर्ष के क्रम में डॉ. अम्बेडकर ने ‘दलित“ शब्द का प्रयोग उन समूहों के लिए किया जो भारत की सामाजिक संरचना में अपने स्थान व निर्धारित भूमिकाओं के कारण बुद्धि-लब्धि, स्वतन्त्रता व समता के मूल्यों का उपयोग करने में असमर्थ थे। इसमें शूद्र वर्ण के अन्तर्गत आनेवाली जातियाँ, वर्ण व्यवस्था से बाहर की जातियाँ और स्त्रियाँ शामिल थीं। लेकिन यह शब्द रूढ़ हुआ उन जातियों पर जाकर जिनसे समाज में छुआछूत का व्यवहार होता था या जो अस्पृश्य मानी जाती थीं। महाराष्ट्र के महार और उत्तर भारत के चमार(चर्मकार) व भंगी(बाल्मीकि) इत्यादि जैसी जातियों के बारे में दलित शब्द का प्रयोग बढ़ा है।
डॉ. अम्बेडकर के व्यावहारिक संघर्षों में भी कुछ जातियाँ ही शामिल हो पायी थीं। यह शामिल जातियाँ ही अपने बारे में दलित शब्द का प्रयोग करने लगीं। इस प्रकार यह शब्द एक विशेष अर्थ का बोध कराता हुआ भाषाई चलन में शामिल हो गया। अम्बेडकर के प्रयासों के काल में राष्ट्रवाद की संकल्पना को आत्मसात कर भारतीय राष्ट्रवाद को जन्म देते हुए अपने प्रयासों में संलग्न महात्मा गांधी राष्ट्रीय क्षितिज पर नेतृत्व के रूप में प्रतिष्ठित हो रहे थे। उत्तर भारत में आर्य समाज के कार्यक्रमों में उन्हीं जातियों को जिन्हें अम्बेडकर का दलित शब्द अपने में शामिल करता था, उन्हें जनेऊ धारण कराकर, संस्कृत पढ़ाकर, यज्ञकर्ता बनाकर उनकी सामाजिक हैसियत को बदला जा रहा था। इसी उत्तर भारत में महात्मा गांधी ने जाति निर्धारण में जन्म प्रधान नहीं कर्म प्रधानता के सिद्धान्तों के विरूद्ध उक्त जातियों को हरिजन कहकर सम्बोधित किया। दूसरी तरफ उनके यहाँ जाकर रहना और अपने आश्रम में हर सवर्ण के कार्यों में भंगी के कार्यों को समाहित करना, यह था गांधी का रास्ता। किन्तु, बाबा साहेब अम्बेडकर और महात्मा गांधी दोनों को अपने आरंभिक जीवन में कठिनाइयों पूर्ण परिस्थितियों और बीते भेदभाव का सामना करना पड़ा, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है ।
अम्बेडकर रामजी मालोजी सकपाल और भीमाबाई की 14 वीं व अंतिम संतान थे, कठिन हालातों में केवल तीन बेटे, बलराम, आनंदराव और भीमराव और दो बेटियाँ मंजुला और तुलासा ही जीवित बच पाये। स्कूली पढ़ाई में सक्षम होने के बावजूद अम्बेडकर और अन्य अस्पृश्य बच्चों को विद्यालय मे अलग बिठाया जाता था और अध्यापकों द्वारा न तो ध्यान ही दिया जाता था, न ही कोई सहायता दी जाती थी। उनको कक्षा के अन्दर बैठने की अनुमति नहीं थी, साथ ही प्यास लगने पर कोई ऊँची जाति का व्यक्ति ऊँचाई से पानी उनके हाथों पर पानी डालता था, क्योंकि उनको न तो पानी, न ही पानी के पात्र को स्पर्श करने की अनुमति थी। लोगों के मुताबिक ऐसा करने से पात्र और पानी दोनों अपवित्र हो जाते थे। आमतौर पर यह काम स्कूल के चपरासी द्वारा किया जाता था जिसकी अनुपस्थिति में बालक अम्बेडकर को बिना पानी के ही रहना पड़ता था। पढा़ई में अपने उत्कृष्ट प्रदर्शन के बावजूद, अम्बेडकर लगातार अपने विरुद्ध हो रहे इस अलगाव और भेदभाव से व्यथित रहे। बाबा आम्बेडकर को उनके बचपन में दलित और अछूत समझे जाने वाले समाज में जन्म लेने के कारण कई घटनाएं कुरेदती रहती थी। स्कूल में पढ़ने में तेज होने के बावजूद भी सहपाठी उन्हें अछूत समझकर उनसे दूर रहते थे, उनका तिरस्कार करते थे, घृणा करते थे। बचपन में उन्हें अनेक कटु अनुभव हुए जिनके कारण उनके मन में उच्च समझे जाने सवर्णों के प्रति घृणा उत्पन्न हो गई। गंदे नालियों की सफाई करना, सिर पर मैला ढ़ोना तथा मरे जानवरों को फेंकना, उनकी चमड़ी निकालना जैसे कार्य अछूतों के अधिकार माने जाते थे। उन्हें जानवरों से भी हीन श्रेणी का दर्जा दिया जाता था। दलित जाति की यह दुर्गति देखकर ही वे दलितों के उधार के लिए दृढ़ संकल्पित हुए
बाबासाहेब से विशेष स्नेह रखने वाले ब्राह्मण शिक्षक महादेव अम्बेडकर की दूरदर्शिता एवं आग्रह पर अम्बेडकर ने अपने नाम से ‘अम्बावडेकर’ (अपने गाँव का नाम अम्बेडकर ने अपना उपनाम बनाया) हटाकर अम्बेडकर ( ब्राह्मण सूचक उपनाम) जोड़ लिया क्योंकि उनके समय में जिस विचारधारा ने भारत में ब्राह्मणों को सर्वश्रेष्ठ घोषित किया है, जिनके पास सत्ता को संचालित करने का अधिकार था और सबसे बड़ी बात जिनके पास अध्ययन-अध्यापन का अधिकार था, वे ही लेखन कार्य में भी लगे हुए थे और बड़ौदा के गायकवाड़ शासक केवल ब्राह्मणों को ही विदेशों में उच्च अध्ययन के लिये भेजते थे । परिणामस्वरूप 1908 में, उन्हें संयुक्त राज्य अमेरिका के एलिफिंस्टोन कॉलेज में उच्च अध्धयन के लिये प्रवेश मिला और उन्होनें पच्चीस रुपये प्रति माह का वजीफा़ प्राप्त किया। किन्तु, यह कतई सच नहीं है कि उच्च वर्ण में जन्मे सामंत ने शूद्र वर्ण में जन्म लेने वाले नवयुवक की शिक्षा लेने के लिए धन व्यय किया हो, उन्होंने ऐसा सिर्फ़ और सिर्फ़ इसलिये किया कि उन्होंने उस बालक को अम्बेडकर उपनाम की बजह से ब्राह्मण समझा ! इससे यह प्रमाणित होता है कि जाति-वर्ग और अमीर-गरीब इंसान का बनाया हुआ है, ईश्वर द्वारा नहीं। इस विषमता को संघर्ष और शिक्षा-अर्जन द्वारा बदला जा सकता है।
दूसरी तरफ़ दक्षिण अफ्रीका में गांधी को भारतीयों पर भेदभाव का सामना करना पड़ा। आरम्भ में उन्हें प्रथम श्रेणी कोच की वैध टिकट होने के बाद तीसरी श्रेणी के डिब्बे में जाने से इन्कार करने के लिए ट्रेन से बाहर फेंक दिया गया था। इतना ही नहीं पायदान पर शेष यात्रा करते हुए एक यूरोपियन यात्री के अन्दर आने पर चालक की मार भी झेलनी पड़ी। उन्होंने अपनी इस यात्रा में अन्य भी कई कठिनाइयों का सामना किया। अफ्रीका में कई होटलों को उनके लिए वर्जित कर दिया गया। इसी तरह ही बहुत सी घटनाओं में से एक यह भी थी जिसमें अदालत के न्यायाधीश ने उन्हें अपनी पगड़ी उतारने का आदेश दिया था जिसे उन्होंने नहीं माना। ये सारी घटनाएँ गांधी के जीवन में एक मोड़ बन गईं और विद्यमान सामाजिक अन्याय के प्रति जागरुकता का कारण बनीं तथा सामाजिक सक्रियता की व्याख्या करने में मददगार सिद्ध हुईं। दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों पर हो रहे अन्याय को देखते हुए गांधी ने अंग्रेजी साम्राज्य के अन्तर्गत अपने देशवासियों के सम्मान तथा देश में स्वयं अपनी स्थिति के लिए प्रश्न उठाये।
भारत में दलित प्रश्न का अम्बेडकरीय प्रस्तुतिकरण स्वतन्त्रता, समता के सवाल से बढ़कर ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में उतरा और मनुस्मृति दहन के कार्यक्रमों के रूप में सामने आया, तब दलित का प्रश्न एक कौम का प्रश्न बनने लगा, जिसकी दिशा अन्ततः एक स्वतन्त्र राष्ट्र की माँग की ओर बढ़ती है। ब्रिटिश राज्य की कार्य योजना में मुसलमानों के बाद दलितों को इसी दिशा की ओर बढ़ाना शामिल था। इसलिए पृथक निर्वाचन देकर मुसलमानों को मुस्लिम लीग के प्रयास और फिर पृथक राष्ट्र की माँग की ओेर बढ़ाने की नीति अँग्रेज़ दलितों पर आजमाना चाहते थे। डॉ. अम्बेडकर अपने दलित समाज की मुक्ति की राहें खोजने में पृथक निर्वाचन को अपना सहायक मान बैठे थे लेकिन महात्मा गांधी एक राष्ट्रवादी चिन्तक के रूप में राष्ट्र विभाजन की इस अंग्रेजी चाल को समझ गये थे। इसीलिए आमरण अनशन पर बैठकर उन्होंने इस नये राष्ट्रीय विभाजन को रोकने का प्रयास किया। डॉ. अम्बेडकर ने जब गांधी से वार्तालाप किया तब वह भी इस बात को समझ गये और पूना पैक्ट के रूप में भारतीय समस्या का भारतीय समाधान निकाला गया यानि विधायिका में सुनिश्चित भागीदारी लेकिन निर्वाचक मण्डल पूरा समाज।
कालान्तर में आरक्षण की संकल्पना इसी आधार पर उपजी जो अम्बेडकर के साथ महात्मा गांधी को भी मान्य थी। इस प्रकार अम्बेडकर और महात्मा गांधी दोनों ‘भारत एक राष्ट्र“ के दृष्टिकोण से संयुक्त हुए। डॉ. अम्बेडकर और गांधी के विचारों का यह संगम अन्ततः भारत विभाजन की एक अन्य गलती को रोकने में कामयाब हुआ। गलती इसलिए क्योंकि इतिहास ने सिद्ध कर दिया कि धर्म के आधार पर भारत राष्ट्र का कृत्रिम विभाजन कर पाकिस्तान निर्माण एक गलती था। पूना पैक्ट के बाद गांधी और अम्बेडकर भारतीय राजनीति के एक विशेष आयाम (जातिगत शोषण की समाप्ति) में एक दूसरे के पूरक बन गये। महात्मा गांधी यह स्वीकारोक्ति भी करते हैं कि इस प्रश्न (दलित प्रश्न) को समझाने में अम्बेडकर उनके गुरु रहे, जबकि भारत एक राष्ट्र है, यह समझने में अम्बेडकर के गुरु जाने-अनजाने गांधी बन चुके थे। यही कारण है भारत में स्वतन्त्रता के उषा काल में अम्बेडकर ने मुस्लिम और ईसाई न बनकर बौद्ध धर्म स्वीकार किया। संविधान सभा की ड़्राफ्टिंग कमेटी का चेयरमैन बनना स्वीकार किया और आरक्षण के माध्यम से भारत राष्ट्र की एकता बने रहने का मार्ग प्रशस्त किया।
महात्मा गांधी ने स्वराज्य प्राप्ति के लिए जो अपने रचनात्मक कार्यक्रम प्रस्तुत किये उसमें इन्होंने कौमी एकता (हिन्दू-मुस्लिम एकता) के बाद दूसरा दर्जा अस्पृश्यता निवारण को दिया। इस सम्बन्ध में उनके आशय का सार उनके वक्तव्य के निम्न अंश से समझा जा सकता है -‘‘ऐसा कौन है जो आज इस बात से इनकार करेगा कि हमारे हरिजन भाई-बहनों को बाकी के हिन्दू अपने से दूर रखते हैं और इसकी वजह से हरिजनों को जिस भयावनी व राक्षसी अलहदगी का सामना करना पड़ता है उसकी मिसाल तो दुनिया में कहीं ढूँढ़े भी नहीं मिलेगी? यह काम कितना मुश्किल है, सो मैं अपने अनुभव से जानता हूँ, लेकिन स्वराज्य की इमारत को उठाने का जो काम हमने हाथ में लिया है उसी का यह एक हिस्सा है।“ महात्मा गांधी ने दलित प्रश्न को अपने स्वराज्य के संघर्ष का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा मानकर लगातार यह प्रयास किया कि कांग्रेस कार्यकर्ता इसे सियासी काम न मानकर हिन्दू- धर्म का अनिवार्य काम मान लें और हर हिन्दू के मन व संस्कार में यह कार्य समाहित कर दें, इस सम्बन्ध में वह लिखते हैं- ‘‘आज की इस घड़ी में हिन्दू धर्म से चिपटे हुए अस्पृश्यता रूपी शाप और कलंक को धो डालने की आवश्यकता के बारे में विस्तार से कुछ लिखने की जरूरत नहीं।
यह सच है कि इस दशा में कांग्रेस वालों ने बहुत कुछ किया है लेकिन मुझे अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि ज्यादातर कांग्रेसियों ने अस्पृश्यता निवारण को, जहाँ तक हिन्दुओं का सम्बन्ध है, खुद हिन्दू धर्म की हस्ती के लिये लाजिमी मानने के बदले उसे एक सियासी जरूरत की चीज माना है। अगर हिन्दू कांग्रेसी यह समझकर इस काम को उठा लें कि इसी में उनकी सार्थकता है तो सनातनी कहे जाने वाले उनके धर्म-बन्धुओं पर जितना असर आज तक हुआ है, उससे कई गुना ज्यादा असर डालकर वे उनका ह्रदय-परिवर्तन कर सकेंगे।“ यहाँ यह स्पष्ट है कि गांधी के दृष्टिकोण में दलित प्रश्न महज सियासी प्रश्न न होकर हिन्दू धर्म को मानने वालों में अत्याधिक परिवर्तन का प्रश्न था। इस प्रकार गांधी यहाँ भारत की संत परम्परा का बोध कराते हैं क्योंकि जाति-प्रथा पर प्रहार करते हुए संत कबीर लिखते हैं- ‘‘जात-प्रथा को माने न कोय,हरि को भजे सो हरि का होय।“
कबीर परम्परा के संत नरसिंह मेहता अपने भजनों में अछूतों के लिए ‘हरिजन“ शब्द का प्रयोग करते थे, जिसे अछूत भी अपने लिए सही शब्द मानते थे। इसीलिए गांधी दलितों के लिए हरिजन शब्द का प्रयोग करते हैं। यहाँ यह समझना आवश्यक है कि संत परम्परा अंग्रेजों के आने के पूर्व ही भारतीय समाज के सामन्ती अभिशाप जाति प्रथा के खिलाफ अपनी लड़ाई लड़कर जीत चुके थे। इसकी एक अनिवार्य अभिव्यक्ति के रूप में रैदास (चमार) की एक संत के रूप में स्थापना, क्षत्राणी मीरा द्वारा उन्हें अपना गुरू मानना, उनसे मिलने जाना और उनके चरणों में सर रखना, रैदास मन्दिरों की स्थापना होना इत्यादि के रूप में देखी जा सकती हैं। सिक्ख धर्म भी अपने आप में इसी प्रकार की एक अभिव्यक्ति है। महाराष्ट्र में गुरू रामदास के शिष्य शिवाजी ने सैनिक विद्रोह के द्वारा संतों के इस स्तर को राजनैतिक अभिव्यक्ति दे दी थी। लेकिन पेशवाओं द्वारा शिवाजी के रूप में उत्कर्ष प्राप्त कुनबियों को मराठा बनाकर उनका नेतृत्व छीन लिया और समाज के स्तर पर ब्राह्मणवाद की पुर्नस्थापना का प्रतिक्रियावादी प्रयास किया।
उसी के परिणाम स्वरूप उस धरती पर ज्योतिबा फुले और अम्बेडकर खड़े हुए और उनके विचारों में सवर्णों के प्रति एक आक्रोश की प्रतिध्वनि है। लेकिन महात्मा गांधी संतों की परम्परा का अनुसरण करते हुए दलित प्रश्न को हल करने के मार्ग पर चलते हैं। यह उनके प्रयासों का ही फल था कि महाराष्ट्र से होकर उत्तर भारत के सभी प्रदेशों में कांग्रेस ही दलितों की पार्टी बनकर उभरी और दलितों का जो विश्वास कांग्रेस पर बना, जिसकी राजनैतिक अभिव्यक्ति जगजीवन राम के रूप में थी, यह विश्वास आजादी के तीस साल बाद टूटना शुरू हुआ। इस टूटन का श्रेय कांशीराम की राजनैतिक निपुणता को दिया जा सकता है। लम्बे काल तक कांग्रेस को दलितों की पार्टी बने रहने का श्रेय एकमात्र महात्मा गांधी के विचार और उनके प्रयासों को दिया जाना कोई अतिश्योक्ति नहीं है।
गांधी-विचार को समझने के लिए यह आवश्यक है कि यह जाना जाये कि गांधी किन परिस्थितियों में दलित प्रश्न को हल करने की ओर मुड़े और कितनी दृढ़ता के साथ अपने विचारों का क्रियान्वयन करने का प्रयास उन्होंने किया। यह नमक आन्दोलन के उतार का वक्त था। गांधीजी को गोलमेज सम्मेलन के लिए इंग्लैण्ड बुलाया गया, वहाँ अल्पसंख्यांकों के प्रश्न पर बात करते हुए अंग्रेज मैकडोनाल्ड ने दलित जातियों को भी अल्पसंख्यक बताते हुए उनके लिए भी पृथक निर्वाचन की योजना प्रस्तुत की। गांधीजी मुसलमानों के सवाल पर पृथक निर्वाचन के परिणाम को देख चुके थे और एक राष्ट्रभक्त के नाते वह भारतीय समाज में अन्य दरारें डालना स्वीकार नहीं कर सकते थे, इसलिए इन्हने इसका विरोध किया। इस सम्बन्ध में लेखक हरिभाऊ उपाध्याय लिखते हैं -‘‘17 नवम्बर को मैकडोनाल्ड ने अल्पसंख्यकों के उपयुक्त निर्णय को विधिवत मंजूरी दे दी, इसमें दलित जातियों के लिए भी पृथक निर्वाचन की माँग थी। घास के अन्दर छिपे इस साँपको गांधीजी ने देखा और उसे तुरन्त अपने पैरों के नीचे दबाकर बोले- दलित जातियों के लिए पृथक निर्वाचन की माँग मेरे लिए सबसे अधिक निष्ठुर प्रहार है इसका अर्थ है सदा के लिए जुदाई..."
गांधीजी के उक्त कथन में भविष्य को समझने की दृष्टि छिपी है, उनके दृष्टिबोध की सत्यता साबित भी हुई। जब अंग्रेज जाते वक्त भारत का एक और विभाजन अछूतिस्तान के नाम पर करने की योजना प्रस्तुत करते हैं और अम्बेडकर इसका विरोध कर भारत का विभाजन रोक देते हैं। आगामी भविष्य में जब पाकिस्तान पुनर्विभजित हुआ तो यह भी साबित हो गया कि राष्ट्र धर्म और जाति के नाम पर न बनकर भौगोलिक सीमाओं के अन्तर्गत ही निर्मित होते हैं और यह भारत राष्ट्र की विशिष्टता है कि उसमें राज्य आकांक्षाओं का समाधान आरक्षण या राज्य में सुनिश्चित भागीदारी के सिद्धान्त से किया गया। गांधीजी दलितों के हालात के लिए अंग्रेजों को भी जिम्मेदार ठहराते हैं और स्वतन्त्रता के उपरान्त सरकार द्वारा उनके संरक्षण की दृष्टि भी रखते हैं इसलिए वह लिखते हैं-‘‘अंग्रेजों ने अपने वेज्ञानिक तरीकों से दलितों और पतितों को जिस भयंकर दलदल में गिरा रखा है, उसमें से उन्हें बाहर निकालने के लिए भारत को स्वतन्त्रता के बाद लगातार बरसों तक कानून बनाते रहना पड़ेगा। यदि उन्हें इस दलदल से बाहर निकालकर राष्ट्रीय सरकार अपने घर को व्यवस्थित करना चाहती है तो सबसे पहले उसे उन तमाम बोझों को उनके कन्धों पर से हटाना होगा जिनके नीचे आज भी वे पिसे जा रहे हैं।"
ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रेमजे मैकडोनल्ड जब दलितों के पृथक निर्वाचन के निश्चय से पीछे नही हटे तो भारत आकर गांधीजी ने 20 सितम्बर, 1932 से आमरण अनशन की घोषणा कर दी। इस घोषणा का प्रभाव यह पड़ा कि एक ओर दलित नेता श्री राजा गांधीजी के समर्थन में खड़े हो गये और दूसरी ओर देश भर में मन्दिरों के द्वार हरिजनों के लिए खोले जाने लगे और गांधीजी के अस्पृश्यता निवारण के काम को देश ने अपने हाथ में ले लिया। 20 सितम्बर,1932 को सारे देश में प्रार्थनाएँ की गयीं और उपवास के पाँचवे दिन पण्डित मदनमोहन मालवीय ने नेताओं की एक परिषद बुलायी, जिसमें सवर्ण नेताओं के साथ अम्बेडकर सहित सभी दलित नेताओं ने भाग लिया। इस सभा में सबने मिलकर एक योजना स्वीकार की, जिसके अनुसार दलित जातियों ने पृथक निर्वाचन का अधिकार त्याग दिया और आम हिन्दू निर्वाचनों से ही संतोष कर लिया। सवर्ण हिन्दुओं ने यह स्वीकार किया कि पृथक निर्वाचन से ब्रिटिश प्रधानमंत्री जितनी सीटें दलितों को देना चाहते थे उससे दुगनी सीटें दलितों को संयुक्त निर्वाचन में आरक्षित की जायेंगी। यह निर्णय ब्रिटिश मंत्रिमण्डल ने भी स्वीकार कर लिया। तब 26 सितम्बर, 1932 को शाम पाँच बजे श्री रवीन्द्र ठाकुर की उपस्थिति में धार्मिक भजन और प्रार्थना के बाद गांधी जी ने उपवास समाप्त किया।
गांधी जी यहाँ रुके नहीं, उन्होंने हरिजन पत्र का प्रकाशन शुरू किया और हरिजन आन्दोलन के निरन्तर आगे बढ़ने पर उन्होंने 8 मई, 1932 को पुनः आत्मशुद्धि के निमित्त 21 दिन का उपवास प्रारम्भ किया। इस सम्बन्ध में वह लिखते हैं - ‘‘यह उपवास अपनी और अपने साथियों की शुद्धि के लिए ह्रदय से की गयी प्रार्थना है, जिससे वे हरिजन-कार्य अधिक जागरुकता और सावधानी के साथ कर सकें। मैं अपने भारत के और संसार के अन्य मित्रों से अनुरोध करता हूँ कि वे मेरे साथ प्रार्थना करें कि मैं इस अग्नि-परीक्षा में सकुशल पार उतरूँ। मैं मरूँ या जीऊँ, जिस उद्देश्य से मैंने उपवास किया है वह पूरा हो। मैं अपने सनातनी भाइयों से अनुरोध करता हूँ कि वे प्रार्थना करे कि इस उपवास का परिणाम मेरे लिये जो कुछ भी हो, कम-से-कम वह सुनहला ढँकना हट जाये जिसने सत्य को ढँक रखा है।“ गांधीजी के इस उपवास का प्रभाव कांग्रेस कार्यकर्ताओं पर और देश दोनों पर पड़ा। घबराकर सरकार ने उनके हरिजन पत्र निकालने पर पाबन्दी लगा दी, जिसके लिए गांधीजी को पुनः अनशन करना पड़ा। जिसपर उनकी हालत खराब होने पर सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और 13 दिन बाद बिना शर्त छोड़ दिया। इसके बाद गांधीजी की प्रेरणा से मालवीयजी की अध्यक्षता में बम्बई में एक विशाल आमसभा हुई, जिसमें अस्पृश्यता को दूर करने के लिए एक अखिल भारतीय अस्पृश्यता विरोधी संगठन खड़ा किया गया। श्री घनश्याम दास बिड़ला उसके अध्यक्ष तथा श्री अमृतलाल ठक्कर मंत्री चुने गये। सही संगठन बाद में ‘हरिजन सेवक संघ“ के रूप में काम करने लगा।
अपने जीवन में अपने उद्देश्यों को चरितार्थ करने की गांधी शैली के अनुरूप गांधी ने एक ढेड (हरिजन) की लकड़ी गोद ले ली और एक ढेड परिवार को भी आश्रम में बसा लिया। साथ ही उन्होंने यह भी निश्चय किया कि समाज में जो भी सुविधायें हरिजनों के लिए नहीं है, उनका लाभ वे स्वयं भी नहीं लेंगे और जो उनके विचारों के अनुगामी लोग हैं- चाहे परिवार वाले हों या आश्रमवासी- वे भी नहीं लेंगे। उदाहरण के लिए जिन मंदिरों में हरिजनों के जाने का निषेध है, उनका उपयोग वे लोग नहीं करेंगे। 1933 में ही हरिजन-कार्य के लिए दस महीने देश के हर प्रान्त का दौरा किया। इस दौरे में इस कार्य हेतु आठ लाख रुपया एकत्र हुआ और एक बार 25 जून, 1935 को पूना में उनकी मोटर पर बम फेंका गया। गांधीजी बाल-बाल बचे। इस घटना में उनकी मृत्यु हो सकती थी।
इससे यह भी स्पष्ट होता है कि गांधीजी के हरिजनों हेतु किये गये कार्यों की प्रतिक्रिया किस स्तर पर थी, फिर भी गांधीजी अपने सम्पूर्ण जीवन में अपने विचार पर अडिग रहे। 1934 में कांग्रेस को छोड़ते वक्त भी उन्होंने अस्पृश्यता निवारण को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान दिया और हम जानते हैं कि अपने जीवन के अन्त तक गांधीजी अपने रचनात्मक कार्यों को अपने देनिक जीवन का अंग बनाये रहे। इसीलिए वह ज्यादातर हरिजनों के घर पर ही ठहरना पसन्द करते थे। इस प्रकार गांधीजी का जीवन उनके विचारों के क्रियान्वयन का जीवन रहा है। गांधी के हम कर्मपूर्ण जीवन के क्रम में उनके विचार भी समस्या की गहराईकी ओर बढ़ते रहें और वह अछूतों की मुक्ति की बात करने लगे। एक बार अहमदाबाद में दलित वर्ग सम्मेलन में वह बोले-‘‘मेरी दो बड़ी इच्छायें हैं, जिनके कारण मैं जीवित हूँ। पहली, अछूतों की मुक्ति और दूसरी गायों की रक्षा। जब मेरी यह दोनों इच्छायें पूरी हो जायेंगी, तभी स्वराज्य मिल जायेगा और उन्हीं की मुक्ति में मेरा मोक्ष भी निहित है।“
यहाँ अछूतों की मुक्ति का सवाल महज अस्पृश्यता निवारण नहीं है। यह देश में समानता स्थापित करने का एक सपना है। इसलिए एक बार इंग्लैण्ड में बोलते हुए उन्होंने कहा-‘‘अस्पृश्यों की हालत पर जरा गौर तो कीजिए कि आज वह कहाँ हैं। आज उनके पास जमीन नहीं है। वे उच्च वर्ग वालों की- और इसलिए मुझे कहने दीजिये- राज्य की दया पर जी रहे हैं। उन्हें एक जगह से हटाकर कहीं भी दूसरी जगह खदेड़ा जा सकता है। इसकी शिकायत किसी से वे नहीं कर सकते और न कानून ही उनकी कोई सहायता कर सकता है। इसलिए किसी भी प्रकार की समानता लाने के लिए सबसे पहला कदम यह होगा कि उन्हें कहीं-न-कहीं बिना मूल्य लिये जमीन देनी होगी। परन्तु जिनके पास अधिक जमीन है या दूसरे अधिक साधन हैं, उनसे लेकर देनी होगी। इनमें हिन्दुस्तानी भी होंगे, अंग्रेज भी। इसलिए आप हरगिज यह न समझें कि महज अंग्रेज होने के कारण आफ साथ कोई भेदभाव बरता जायेगा। यह नियम तो सभी पर लागू होगा, चाहे वह अंग्रेज हो, जापानी हो, भारतीय हो या और कोई हो।“
इस प्रकार हम यह स्पष्ट देख सकते हैं कि दलित प्रश्न पर महात्मा गांधी और डॉ. अम्बेडकर के सपनों में कोई अन्तर नहीं था, लेकिन सपने को यथार्थ में बदलने के मार्ग को लेकर भिन्नताएँ जरूर थीं जिनके आधार पर आज के दलित चिन्तक इन दोनों को एक दूसरे के विरोध में खड़ा करके देखते हैं। गांधी के ग्राम स्वराज्य पर प्रश्न उठाते हुए प्रायः दलित लेखक लिखते हैं कि गाँवों में दलितों को दबाकर रखा जाता है और यही गांधी का आदर्श है। यह एक मनगढ़न्त आरोप है क्योंकि गांधी अपने ‘ग्रामस्वराज्य“ को व्याख्यायित करते हुए लिखते हैं-‘‘जनता के स्वराज्य का अर्थ है- प्रत्येक व्यक्ति के स्वराज्य से उत्पन्न जनसत्तात्मक राज्य। ऐसा राज्य केवल प्रत्येक व्यक्ति के नागरिकता के नाते उसका जो धर्म है उसका पालन करने से ही उत्पन्न होता है।“ यहाँ प्रत्येक व्यक्ति में दलित भी शामिल हैं। इसलिए यह समझना चाहिए कि गांधी के स्वराज्य की कल्पना किसी भी सामाजिक शोषण के यथार्थ को बनाये रखने की कल्पना नहीं थी। यह कहा जा सकता है कि गांधी के विचार और व्यवहार को न समझ पाने के कारण ही दलित चिन्तक अनर्गल प्रश्नों को उठाते हैं जबकि डॉ.अम्बेडकर और तमाम आम दलित समाज गांधी को समझकर उनके साथ राष्ट्रीय आन्दोलन में खड़ा था।
अब तक डॉ अम्बेडकर आज तक की सबसे बडी़ अछूत राजनीतिक हस्ती बन चुके थे। उन्होंने मुख्यधारा के महत्वपूर्ण राजनीतिक दलों की जाति व्यवस्था के उन्मूलन के प्रति उनकी कथित उदासीनता की कटु आलोचना की। अम्बेडकर ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और उसके नेता मोहनदास गांधी(महात्मा गांधी) की आलोचना की, उन्होने उन पर अस्पृश्य समुदाय को एक करुणा की वस्तु के रूप मे प्रस्तुत करने का आरोप लगाया। अम्बेडकर ब्रिटिश शासन की विफलताओं से भी असंतुष्ट थे, उन्होने अस्पृश्य समुदाय के लिये एक ऐसी अलग राजनैतिक पहचान की वकालत की जिसमे कांग्रेस और ब्रिटिश दोनों का ही कोई दखल ना हो। 8 अगस्त, 1930 को एक शोषित वर्ग के सम्मेलन के दौरान अम्बेडकर ने अपनी राजनीतिक दृष्टि को दुनिया के सामने रखा, जिसके अनुसार शोषित वर्ग की सुरक्षा उसके सरकार और कांग्रेस दोनों से स्वतंत्र होने में है। “हमें अपना रास्ता स्वयँ बनाना होगा और स्वयँ ... राजनीतिक शक्ति शोषितो की समस्याओं का निवारण नहीं हो सकती, उनका उद्धार समाज में उनका उचित स्थान पाने में निहित है। उनको अपना रहने का बुरा तरीका बदलना होगा.... उनको शिक्षित होना चाहिए .... एक बड़ी आवश्यकता उनकी हीनता की भावना को झकझोरने, और उनके अंदर उस दैवीय असंतोष की स्थापना करने की है जो सभी उँचाइयों का स्रोत है।”
उन्होंने अस्पृश्य समुदाय के लोगों को गाँधी द्वारा रचित शब्द हरिजन पुकारने के कांग्रेस के फैसले की कडी़ निंदा की। यहाँ तक कि अपने अनुयायियों से भी हिंदू धर्म छोड़ कोई और धर्म अपनाने का आह्वान किया। 1941 और 1945 के बीच में उन्होंने बड़ी संख्या में अत्यधिक विवादास्पद पुस्तकें और पर्चे प्रकाशित किये जिनमे ‘थॉट्स ऑन पाकिस्तान’ भी शामिल है, जिसमें उन्होने मुस्लिम लीग की मुसलमानों के लिए एक अलग देश पाकिस्तान की मांग की आलोचना की। वॉट कॉंग्रेस एंड गांधी हैव डन टू द अनटचेबल्स (काँग्रेस और गान्धी ने अछूतों के लिये क्या किया) के साथ, अम्बेडकर ने गांधी और कांग्रेस दोनो पर अपने हमलों को तीखा कर दिया उन्होने उन पर ढोंग करने का आरोप लगाया। उन्होने अपनी पुस्तक ‘हू वर द शुद्राज़?’( शुद्र कौन थे?) के द्वारा हिंदू जाति व्यवस्था के पदानुक्रम में सबसे नीची जाति यानी शुद्रों के अस्तित्व मे आने की व्याख्या की. उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि किस तरह से अछूत, शुद्रों से अलग हैं। अम्बेडकर ने अपनी राजनीतिक पार्टी को अखिल भारतीय अनुसूचित जाति फेडरेशन मे बदलते देखा, हालांकि 1946 में आयोजित भारत के संविधान सभा के लिए हुये चुनाव में इसने खराब प्रदर्शन किया। 1948 में हू वर द शुद्राज़? की उत्तरकथा द अनटचेबलस: ए थीसिस ऑन द ओरिजन ऑफ अनटचेबिलिटी (अस्पृश्य: अस्पृश्यता के मूल पर एक शोध) मे अम्बेडकर ने हिंदू धर्म को लताड़ा। “हिंदू सभ्यता .... जो मानवता को दास बनाने और उसका दमन करने की एक क्रूर युक्ति है और इसका उचित नाम बदनामी होगा। एक सभ्यता के बारे मे और क्या कहा जा सकता है जिसने लोगों के एक बहुत बड़े वर्ग को विकसित किया जिसे... एक मानव से हीन समझा गया और जिसका स्पर्श मात्र प्रदूषण फैलाने का पर्याप्त कारण है ।”
महात्मा गांधी के विचार और प्रयास से भारत के दलित कांग्रेस से जुड़े रहे लेकिन महात्मा गांधी की मृत्यु के बाद कांग्रेस के नेताओं ने दलित प्रश्न को गांधी के दृष्टिबोध या संत परम्परा के क्रम में न समझकर महज सियासी प्रश्न बना दिया। वर्तमान में कोई भी सियासी राजनैतिक पार्टी दलितों और आदिवासियों के कल्याण के लिए कार्य नहीं कर रही हैं, बल्कि वे उनको अपनी सियासी सीढ़ियों के पायदान मानती हैं । क्या, किसी ने कभी सोचा है कि भारत की कोई भी सियासी पार्टी हो, उसका मुखिया या अध्यक्ष एक वर्ग विशेषकर (ब्राहमण ) क्यों है? क्या वर्ग-भेद के सिद्धान्तों को नकारने, उनके विरूद्ध सन्घर्ष करने का स्वांग भरने वाले वामपंथी दलों के सिरोमणि कामरेड आज तक अपने गलों से जनेऊ तक का त्याग कर पाये हैं ? यह भी संभव नहीं कि एक ही समय में आप राजा भी बनें और क्रांतिकारी भी। सचमुच यह एक फरेब के सिवा और कुछ भी नहीं। राष्ट्रीय पटल से महात्मा गांधी और डॉ. अम्बेडकर के हट जाने के बाद मात्र वोटों की सौदागरी में फँसे नेता बीस साल के आरक्षण के बाद सामाजिक समता की स्थापना के अम्बेडकर के स्वप्न को पूरा नहीं कर पाये। महात्मा गांधी के दृष्टिबोध से हिन्दू धर्म में सुधार का प्रयास तो दूर की बात थी।
इसलिए तीस साल बाद जब दलित बुद्धजीवियों ने कांग्रेस की धोखाधड़ी का पर्दाफाश किया तो दलितों में विक्षोभ की लहरें पुनः उठने लगीं। इन लहरों के आधार पर जब देश में बैठे विदेशी अपने हितों की रोटी सेकने लगे हैं तब यह आवश्यक है कि गांधी विचार के अनुयायी दलित प्रश्न पर गांधी विचार को सामने रखकर उनके बताये मार्ग पर चलें तथा देश और काल के अनुरूप दलित प्रश्न पर चिन्तन कर एक रास्ता निकालें, जिससे भारत राष्ट्र अपनी अक्षुण्णता कायम रख सके और उसमें रहने वाले सभी लोग सामाजिक समानता और स्वतन्त्रता का रसपान कर सकें। सामाजिक भेदभाव का कलंक धुल जाये और सम्पूर्ण समाज रोटी-बेटी के सम्बन्ध से जुड़ सके। गांधी के अनुयायी जयप्रकाश ने 1976 के सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन में ब्राह्मणवाद पर तीखा प्रहार करते हुए जहाँ जनेऊ तोड़ने का आह्वान किया था वहाँ जाति-सूचक चिह्नों का निषेध कर, सामाजिक समरसता कायम करने की कोशिश भी की थी। लेकिन एक बार फिर उनके द्वारा निर्मित अस्र निष्फल रहा और समाज परिवर्तन की भारतीय धारा सूख गयी। भारत का वर्तमान आज जब पुनः परिवर्तन की आहट सुन रहा है और उसमें दलित प्रश्न एक केन्द्रीय प्रश्न के रूप में खड़ा है तब भारतीय संत परम्परा और गांधी मार्ग पर आगे बढ़कर ही वह समाधान प्राप्त किये जा सकते हैं जो भारत राष्ट्र के हितार्थ हों और सामाजिक शोषण का अन्त करते हों।
गांधी और अम्बेडकर की साफ़ तौर पर अलग-अलग दिशा थी । दोनों महापुरुष उत्कट सृजनात्मक व्यग्रता के साथ भारतीय समाज- पटल पर उतरे थे । इतिहास की एक सम्मोहक खूबसूरती होती है कि खण्ड दृष्टि के हम इतने कायल हो जाते हैं कि उसे ही पूर्ण मानने लगते हैं । इन दोनों की उत्कट सामाजिक व्यग्रता के साथ भिडन्त भी हुई थी । यह गौरतलब है कि तीसरे दशक के प्रारम्भ में हुई इस भिडन्त के फलस्वरूप दोनों की अपनी-अपनी सोच और कार्यक्रमों पर बुनियादी असर पड़ा । इस प्रचन्ड मुठभेड़ के बाद दोनों बदले हुए थे । यह सही है कि अन्त तक एक दूसरे के लिए तीखे शब्दों का प्रयोग दोनों ने नही छोड़ा । एक दूसरे पर पडे प्रभाव की यहां सांकेतिक चर्चा की जा रही है । गांधी जी के लिए अस्पृश्यता चिन्ता के विषयों में प्रमुख थी । उनके पहले भी कई योगियों और सामाजिक आन्दोलनों की इस पर समझदारी थी लेकिन यह तथ्य है कि भारत की राजनीति में मुद्दे के तौर पर यह गांधी के कारण स्थापित हुआ । राष्ट्रीय – संघर्ष के बडे लक्ष्य के साथ अस्पृष्यता को धार्मिक और आध्यात्मिक तौर पर उन्होंने लिया । अम्बेड़कर ने बातचीत के शुरुआती दौर में ही गांधी को यह स्पष्ट कर दिया था दलित-वर्गों के आर्थिक – शैक्षणिक उत्थान को वे ज्यादा महत्वपूर्ण मानते हैं ।
अम्बेडकर से मुलाकात के पहले गांधी जाति – प्रथा के रोटी – बेटी के बन्धनों को ‘आध्यामिक प्रगति’ में बाधक नहीं मानते थे । अम्बेडकर से चले संवाद के बाद उन्होंने दलितों के शैक्षणिक – आर्थिक उत्थान के लिए उन्होंने ‘हरिजन सेवक संघ’ बनाया और जाति – प्रथा पर चोट करने के लिए यह निर्णय लिया कि वे सिर्फ़ सवर्ण – अवर्ण विवाहों में ही भाग लेंगे । सामाजिक प्रश्न के धार्मिक महत्व को नजर-अन्दाज करने वाले बाबा साहब ने गांधी से संवाद के दौर के बाद इसे अहमियत दी । जाति – प्रथा के नाश हेतु ‘धर्म-चिकित्सा’ और ‘धर्मान्तरण’ को भी जरूरी माना । भारतीय समाज में सवर्णों में ‘आत्म-शुद्धि’ तथा दलितों में ‘आत्म-सम्मान’-इन दोनों प्रयासों की आवश्यकता है तथा यह परस्पर पूरक हैं । गांधी के मॊडल से पनपे कांग्रेसी-हरिजन नेतृत्व में एक राष्ट्रवादी राजनैतिक अभिव्यक्ति और प्रयत्न था लेकिन सामाजिक – सांस्कृतिक प्रश्नों पर चुप्पी रहती थी । साठ और सत्तर के दशक में उभरे दलित नेतृत्व ने माना कि कांग्रेस का हरिजन नेतृत्व सामाजिक ढ़ाचे में अन्तर्निहित गैर-बराबरी को ढक-छुपा कर रखता है । इस सांस्कृतिक चुप्पी को नए दलित नेतृत्व ने कायरतापूर्ण और असमानता के वातावरण को अपना लेने वाला माना ।
दलित आन्दोलन की कमजोरियों को समझने के लिए 1944 में जस्टिस पार्टी की मद्रास में हार के बाद एक रात्रि भोज में दिए गए बाबासाहब के भाषण पर गौर करना काफी होगा । लम्बे समय तक सत्ता में रहने के बाद जस्टिस पार्टी बुरी तरह हारी थी । गैर-ब्राह्मणों में भी कईयों ने उसका साथ छोड़ दिया था । ‘मेरी दृष्टि में इस हार के लिए दो बातें मुख्यत: जिम्मेदार थीं । पहला, ब्राह्मणवादी तबकों से उनमें कौन से अन्तर हैं यह वे समझ नही पाये । हांलाकि ब्राह्मणों की विषाक्त आलोचना वे करते थे लेकिन उनमें से कोई क्या यह कह सकता है कि वे मतभेद सैद्धान्तिक थे ? उन्होंने खुद को दूसरे दर्जे का ब्राह्मण मान लिया था । ब्राह्मणवाद को त्यागने की बजाए उसकी आत्मा को आदर्श मान कर वे उससे लिपटे हुए थे । ब्राह्मणवाद के प्रति उनका गुस्सा सिर्फ़ इतना था कि वे ( ब्राह्मण) उन्हें दोयम दर्जा देते हैं । हार का दूसरा कारण पार्टी का संकीर्ण राजनैतिक कार्यक्रम था । अपने वर्ग के नौजवानों को कुछ नौकरियां दिलवा देना पार्टी का मुख्य मुद्दा बन गया था । मुद्दा पूरी तरह जायज है, परन्तु जिन नौजवानों को सरकारी नौकरियां दिलवाने के लिए पार्टी 20 वर्षों तक लगी रही क्या वे वेतन पाने के बाद पार्टी को याद रखते हैं ?इन बीस वर्षों में जब पार्टी सत्ता में रही, उसने गांवों में रहने वाले ,गरीबी और सूदखोरों के चंगुल में फंसे 90 फ़ीसदी गैर-ब्राह्मणों को भुला दिया ।’
डॉ.अम्बेडकर का स्पष्ट मानना था कि राजनैतिक स्वतंत्रता से पूर्व सामाजिक एवं आर्थिक समानता जरूरी है। महात्मा गाँधी और डॉ.अम्बेडकर दोनों ने ही जाति व्यवस्था की कुरीतियों को समाप्त करने की बात कही पर जहाँ डा अम्बेडकर का मानना था कि सम्पूर्ण जाति व्यवस्था को समाप्त करके ही बुराइयों को दूर किया जा सकता है वहीं महात्मा गाँधी के मत में शरीर में एक घाव मात्र हो जाने से पूरे शरीर को नष्ट कर देना उचित नहीं अर्थात पूरी जाति व्यवस्था को खत्म करने की बजाय उसकी बुराईयों मात्र को खत्म करना उचित होता। डॉ. अम्बेडकर के मत में मनुस्मृति से पूर्व भी जाति प्रथा थी। मनुस्मृति ने तो मात्र इसे संहिताबद्ध किया और दलितों पर राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक व धार्मिक दासता लाद दी। अम्बेडकर चातुर्वर्ण व्यवस्था को संकीर्ण सिद्धान्त मानते थे जो कि विकृत रूप में सतहबद्ध गैर-बराबरी का रूप है। उन्होंने शूद्रों को आर्यों का ही अंग मानते हुए प्रतिपादित किया कि इण्डो-आर्यन समाज में ब्राह्मणों ने दण्डात्मक विधान द्वारा कुछ लोगों को शूद्र घोषित कर दिया और उन्हें घृणित सामाजिक जीवन जीने के लिए मजबूर कर दिया। नतीजन, शूद्र चातुर्वर्ण की अन्तिम जाति न रहकर नीची जातियाँ घोषित हो गयी इसीलिए वे हिन्दू समाज के उत्थान हेतु दो तत्व आवश्यक मानते थे- प्रथम, समानता और द्वितीय, जातीयता का विनाश। इसी के अनुरूप उन्होंने प्रथम गोलमेज सम्मेलन में सुझाव दिया कि अछूतों को गैर जातीय हिन्दू अथवा प्रोटेस्टेण्ट हिन्दू के रूप में मान्यता दी जाय। उनका कहना था कि - ‘‘अछूत हिन्दुओं के तत्व नहीं हैं बल्कि भारत की राष्ट्रीय व्यवस्था में एक पृथक तत्व हैं जैसे मुसलमान।’’
गाँधी जी की दृष्टि में हिंदू-मुस्लिम, दलित-सवर्ण, छोटे-बड़े में कोई फ़र्क नहीं था । सभी मनुष्य उनकी दृष्टि में एक समान थे । गाँधी जी देश भर में भ्रमण कर चरखा संघ के लिए धन इकठ्ठा कर रहे थे। अपने दौरे के दौरान वे ओड़िसा में एक सभा को संबोधित करने पहुंचे । उनके भाषण के बाद एक बूढी गरीब महिला खड़ी हुई, उसके बाल सफ़ेद हो चुके थे, कपडे फटे हुए थे और वह कमर से झुक कर चल रही थी , किसी तरह वह भीड़ से होते हुए गाँधी जी के पास तक पँहुचीऔर कहने लगी कि “मुझे गाँधी जी को देखना है। ” उसने आग्रह किया और उन तक पँहुच कर उनके पैर छुए। फिर उसने अपने साड़ी के पल्लू में बंधा एक ताम्बे का सिक्का निकाला और गाँधी जी के चरणों में रख दिया। गाँधी जी ने सावधानी से सिक्का उठाया और अपने पास रख लिया। उस समय चरखा संघ का कोष जमनालाल बजाज संभाल रहे थे। उन्होंने गाँधी जी से वो सिक्का माँगा, लेकिन गाँधी जी ने उसे देने से माना कर दिया। “मैं चरखा संघ के लिए हज़ारो रूपये के चेक संभालता हूँ”, जमनालाल जी ने हँसते हुए कहा ‘फिर भी आप मुझपर इस सिक्के को लेके यकीन नहीं कर रहे हैं।’ ‘यह ताम्बे का सिक्का उन हज़ारों से कहीं कीमती है,’ गाँधी जी बोले कि “यदि किसी के पास लाखों हैं और वो हज़ार-दो हज़ार दे देता है तो उसे कोई फरक नहीं पड़ता। लेकिन ये सिक्का शायद उस औरत की कुल जमा-पूँजी थी। उसने अपना सारा धन दान दे दिया। कितनी उदारता दिखाई उसने…। कितना बड़ा बलिदान दिया उसने! इसीलिए इस ताम्बे के सिक्के का मूल्य मेरे लिए एक करोड़ से भी अधिक है।’
कलकत्ता में हिन्दू-मुस्लिम दंगे भड़के हुए थे। तमाम प्रयासों के बावजूद लोग शांत नहीं हो रहे थे। ऐसी स्थिति में गाँधी जी वहां पहुंचे और एक मुस्लिम मित्र के यहाँ ठहरे। उनके पहुचने से दंगा कुछ शांत हुआ लेकिन कुछ ही दोनों में फिर से आग भड़क उठी। तब गाँधी जी ने आमरण अनशन करने का निर्णय लिया और 31अगस्त 1947 को अनशन पर बैठ गए। इसी दौरान एक दिन एक अधेड़ उम्र का आदमी उनके पास पहुंचा और बोला , ‘ मैं तुम्हारी मृत्यु का पाप अपने सर पर नहीं लेना चाहता, लो रोटी खा लो ।’ और फिर अचानक ही वह रोने लगा और कहा की ‘मैं मरूँगा तो नर्क जाऊँगा’ गाँधी जी ने विनम्रता से पूछा। ‘क्यों ?’ क्योंकि मैंने एक आठ साल के मुस्लिम लड़के की जान ले ली। गाँधी जी ने पूछा कि तुमने उसे क्यों मारा ? क्योंकि उन्होंने मेरे मासूम बच्चे को जान से मार दिया । आदमी रोते हुए बोला। गाँधी जी ने कुछ देर सोचा और फिर बोले ‘मेरे पास एक उपाय है।’ आदमी आश्चर्य से उनकी तरफ देखने लगा । ‘उसी उम्र का एक लड़का खोजो जिसने दंगो में अपने मात-पिता खो दिए हों, और उसे अपने बच्चे की तरह पालो। लेकिन एक चीज सुनिश्चित कर लो की वह एक मुस्लिम होना चाहिए और उसी तरह बड़ा किया जाना चाहिए।’ गाँधी जी ने अपनी बात ख़तम की।
डॉ. अम्बेडकर गाँधी जी के ‘हरिजन’ शब्द से नफरत करते थे क्योंकि दलितों की स्थिति सुधारे बिना धर्म की चाशनी में उन्हें ईश्वर के बन्दे कहकर मूल समस्याओं की ओर से ध्यान मोड़ने का गाँधी जी का यह नापाक नुस्खा उन्हें कभी नहीं भाया। उन्होंने गाँधी जी के इस कदम पर सवाल भी उठाया कि- ‘‘सिर्फ अछूत या शूद्र या अवर्ण ही हरिजन हुए, अन्य वर्णों के लोग हरिजन क्यों नहीं हुए? क्या अछूत हरिजन घोषित करने से अछूत नहीं रहेगा ? क्या मैला नहीं उठायेगा ? क्या झाडू़ नहीं लगाएगा ? क्या अन्य वर्ण वाले उसे गले लगा लेंगे ? क्या हिन्दू समाज उसे सवर्ण मान लेगा ? क्या उसे सामाजिक समता का अधिकार मिल जायेगा ? हरिजन तो सभी हैं, लेकिन गाँधी ने हरिजन को भी भंगी बना डाला। क्या किसी सवर्ण ने अछूतों को हरिजन माना ? सभी ने भंगी, मेहतर माना। जिस प्रकार कोई राष्ट्र अपनी स्वाधीनता खोकर धन्यवाद नहीं दे सकता, कोई नारी अपना शील भंग होने पर धन्यवाद नहीं देती, फिर अछूत कैसे केवल नाम के लिए हरिजन कहलाने पर गाँधी को धन्यवाद कर सकता है! यह सोचना फरेब है कि ओस की बूंदों से किसी की प्यास बुझ सकती है ?’’
अम्बेडकर का मानना था कि वर्ण व्यवस्था का सीधा दुष्प्रभाव भले ही दलितों व पिछड़ों मात्र पर दिखता है पर जब इसी सामाजिक विघटन के कारण देश गुलाम हुआ तो सवर्ण भी बिना प्रभावित हुए नहीं रह सके। स्वतंत्रता के इतने सालों बाद भी क्या जाति के कारण उत्पन्न नफरत के भाव को हम पूरी तरह से विगलित कर पाए हैं? क्या घोड़ी पर आसीन दलित वर आज भी सवर्णों की बंदूक का शिकार नहीं हो जाता है ? क्या आज भी मिर्चीपुर, गोहाना, खैरलांजी जैसे कांड नहीं होते ? क्या जाति की प्रताडऩा के स्वरूप बदल नहीं गए है ? समाज जैसा है उसे वैसा ही ट्रीटमेंट देने की आवश्यकता होती है। हमें थोड़ा-थोड़ा ‘स्पेस देने की आदत डालनी ही चाहिए ताकि स्वस्थ समाज के निर्माण की दिशा में सहयोगी कदम बढ़ा सकें। क्या कोई सांसद कभी हिम्मत जुटा पायेगा कि वह भारतीय संसद (पार्लियामेंट) में प्रस्ताव लाये कि देश का कोई भी नागरिक अपने नाम के साथ जाति सूचक उपनाम का इस्तेमाल नहीं करेगा ? इस तरह के युग परिवर्तनकारी कदमों के माध्यम से अब आलोचना के औजार भी बदलने होंगे या फ़िर आखिर कब तक विषमताओं और विसंगतियों के बीच ही भारत को आगे बढ़ाना है…
संदर्भ ग्रंथ :
1)
‘थॉट्स ऑन पाकिस्तान’: डॉ. भीमराव अम्बेडकर
2)
वॉट कॉंग्रेस एंड गांधी हैव
डन टू द अनटचेबल्स: डॉ. भीमराव अम्बेडकर
3)
‘हू वर द शुद्राज़’: डॉ. भीमराव अम्बेडकर
4) द अनटचेबलस: ए थीसिस ऑन द ओरिजन ऑफ अनटचेबिलिटी : डॉ. भीमराव अम्बेडकर
5)
डॉ. बाबा साहब आम्बेडकर राइटिंग्स एंड स्पीचेज; खण्ड-2
6)
डॉ. बाबा साहब आम्बेडकर राइटिंग्स एंड स्पीचेज; खण्ड-7
7)
डॉ. बाबा साहब आम्बेडकर राइटिंग्स एंड स्पीचेज; खण्ड-6
8)
डॉ. बाबा साहब आम्बेडकर राइटिंग्स एंड स्पीचेज; खण्ड-2
11)
हिन्द स्वराज - महात्मा गांधी
12)
गाँधी कथा- महादेव भाई
देसाई
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