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BHASHIKI ISSN: 2454-4388 (Print): Quarterly International Refereed Research Journal of Language, Applied Linguistics, Education, Media, Translation and Literary Analysis भाषा, अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान, शिक्षा, मीडिया तथा साहित्य-विश्लेषण की संदर्भ-रिसर्च तिमाही अंतर्राष्ट्रीय संवाहिका

Sunday 1 January 2017

भारतीय विदेश नीति में हिंदी भाषा का महत्व (Importance of Hindi in Indian Foreign Policy) (أهمية الهندية في السياسة الخارجية الهندية)

भारतीय विदेश नीति में हिंदी भाषा का महत्व
(Importance of Hindi in Indian Foreign Policy)
(أهمية الهندية في السياسة الخارجية الهندية)  
 प्रोफ़ेसर डॉ राम लखन मीना, राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय, अजमेर 

वैश्वीकरण और अंतरराष्ट्रीय गतिविधियों में बढ़ते गहन स्तर की वजह से यह बहुत महत्वपूर्ण विषय है कि भारत की विदेश नीति में देश के विवेकपूर्ण स्‍व-हित की रक्षा करने पर बल दिया जाता है। भाषाओं के मामले में भारतवर्ष विश्व के समृद्धतम देशों में से है। संविधान के अनुसार हिन्दी भारत की राजभाषा है, और अंग्रेजी को सहायक राजाभाषा का स्थान दिया गया है, व्यवहार में स्तिथि बिलकुल उलटी है। इसके वावजूद हिंदी देश की राष्ट्रभाषा भाषा एवं संपर्क भाषा है । हिन्दी और अंग्रेज़ी के अलावा संविधान की आठवीं अनुसूची में दर्ज 22 भाषाएँ हैं  जिन्हें भारत में आधिकारिक कामकाज में इस्तेमाल किया जा सकता है। वर्तमान समय में केंद्रीय सरकार में काम हिन्दी और अंग्रेज़ी भाषाओं में होता है और राज्यों में हिन्दी अथवा अपनी-अपनी क्षेत्रीय भाषाओं में । केन्द्र और राज्यों और अन्तरराज्यीय पत्र-व्यवहार के लिए, यदि कोई राज्य ऐसी मांग करे, तो हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं का होना आवश्यक है। संविधान के अनुसार सरकार इन भाषाओं के विकास के लिये प्रयास करेगी, और अधिकृत राजभाषा (हिन्दी) को और अधिक समृद्ध बनाने के लिए इन भाषाओं का उपयोग करेगी। 
प्रधानमंत्री या उनके प्रतिनिधियों द्वारा विभिन्न देशों के राष्ट्राध्यक्षों की वार्ता के लिये हिन्दी अनुवाद के लिये दुभाषिए की व्यवस्था होती है जो  सवा सुआ करोड़ भारतियों के लिए अपमानजनक और दुर्भाग्यपूर्ण है, इससे देश विदेश में रह रहे भारतियों में अच्छा संदेश भी नहीं जाता है । प्रश्न पैदा होता है कि जब सारी बातचीत अनुवादक के सहारे ही चलती है तो भारत का प्रधानमंत्री अपने देश की भाषा में बातचीत क्यों नहीं करता ? यह दृश्य देख कर कोफ़्त होती है । अपमान भी महसूस होता है । किसी देश की भाषा विदेश सम्बंधों में स्वाभिमान का प्रतीक भी होती है, वहां वह केवल संवाद का काम नहीं करती । विदेश सम्बंधों में इन प्रतीकों का प्रयोग कैसे करना है, यह भी विदेश नीति के संचालकों की सफलता का एक बड़ा कारक माना जाता है । लेकिन दुर्भाग्य से भारत में अभी तक विदेश मंत्रालय में ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार क्लब का आधिपत्य रहा है । इस क्लब की चमड़ी मोटी है । इसलिये जब दूसरे देशों के प्रधानमंत्री या राष्ट्राध्यक्ष भारत में आकर अपने देश की भाषा बोलते हैं तो हमारे प्रतिनिधि गुलामियत की भाषा में जुगाली करते हैं । लेकिन देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विदेश नीति के इस लज्जास्पद अध्याय को समाप्त करने का निर्णय ले लिया लगता है । भाषायी दृ निष्ठा की यह प्रक्रिया जारी रखनी होगी क्योंकि अब दुनिया से भारत अपनी भाषा में बातचीत करेगा । भारत किसी भी देश से आँख से आँख मिला कर बात करेगा। आँख से आँख अपनी भाषा में ही मिलाई जा सकती है । जो देश ताक़तवर होते हैं वे विदेश नीति के लिये उधार के प्रतीकों का इस्तेमाल नहीं करते। अपने देश की भाषा, अपने देश के मुहावरों का प्रयोग करते हैं । विदेशी राज्यों की दासता में लगभग हज़ार साल तक रहने के कारण हमारे लोगों की मानसिक स्थिति भी दासता की हो गयी  है । 
यक्ष प्रश्न है वे विदेशी भाषा की दासता के भाव से कैसे मुक्त हों । हुक्मरान अपनी शक्ति और उर्जा देश के सामान्य जन से ग्रहण करते हैं अत उन्हें स्वयं विदेशी भाषा कृत्रिम रुप के अहम से महिमामंडित होने की जरूरत नहीं होनी चाहिए । किंतु, अब तक विदेशी भाषा का जाल फेंक कर देश के लिये नीति निर्धारण का काम नौकरशाही ने राजनैतिक नेतृत्व से छीन रखा था । प्रधानमंत्री ने विदेश नीति के क्षेत्र में लगता है सबसे पहले भाषायी ग़ुलामी से मुक्त होने की पहल की है। वे देश में मन की बातहिंदी में कर रहे हैं, विदेशों में हिंदी का गौरव बढ़ा रहे हैं, मानो हिंदी को नयी उर्जा मिल गयी हो । भाषायी-निष्ठा की यह पहल ऊपर से देखने में मामूली लग सकती है किंतु, इसके संकेत गहरे हैं, शीर्ष वार्ताओं में राष्ट्रभाषा के प्रयोग से राष्ट्रीय अस्मिता और संप्रभुता प्रदर्शित होती है। कम-से-कम हिंदी के प्रति भाषायी-निष्ठा की दृष्टि से भारत का सौभाग्य है कि उसे मोदी जैसा प्रधानमंत्री मिल गया है यों तो अटलजी ने विदेश मंत्री के तौर पर संयुक्तराष्ट्र में अपना भाषण हिंदी में दिया था, लेकिन वह मूल अंग्रेजी का हिंदी अनुवाद था। चंद्रशेखर ने प्रधानमंत्री के रूप मे मालदीव में आयोजित दक्षेस-सम्मेलन में हिंदी में बोले । उनका वह आशु हिंदी भाषण विलक्षण और मौलिक था उसे करोड़ों लोगों ने सुना और समझा । इन सब ने वैश्विक स्तर पर संविधान का मान बढ़ाया, भारत का मान बढ़ाया और हिंदी का मान बढ़ाया है। 
हिंदी की दशा और दिशा सुधारने में विदेश मंत्री का महत्वपूर्ण योगदान है क्योंकि वे ही सर्वाधिक विदेशी राष्ट्राध्यक्षों राजनयिकों के साथ संगत करते हैं।  यदि हमारे राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और विदेशमंत्री विदेशी अतिथियों के साथ हिंदी में बात करें तो वे अपने साथ अंग्रेजी का अनुवादक क्यों लाएंगे? छोटे-से देश नेपाल और अफगानिस्तान का भाषायी आचरण स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्रों के जैसा है, हमें उनसे सीखने की जरूरत है । हमें  विदेश मंत्रालय से अंग्रेजी के विदेशी प्रभाव को घटाना होगा और राज-काज में स्वभाषाएं लानी होंगी। कूटनीति के क्षेत्र में स्वभाषा के प्रयोग की उपयोगिता स्वयंसिद्ध है। सभी महाशक्तियां अंतरराष्ट्रीय संधियां और अपने कानूनी दस्तावेज अपनी भाषा में तैयार करने पर जोर देती हैं। दैनिक सरकारी काम-काज वे यथासंभव हिंदी में ही करें। महत्वपूर्ण देशों के साथ यदि हम उनकी भाषाओं में व्यवहार करेंगे तो हमारी कूटनीति में चार चांद लग जाएंगे। हमारी पकड़ उन देशों की आम जनता तक हो जाएगी। हमारा अंतरराष्ट्रीय व्यापार चार गुना हो जाएगा। भारत को महाशक्ति बनाने का रास्ता आसान हो जाएगा।  
हिंदी प्रेमियों के लिए गर्व का समय है कि विदेश मंत्रालय में वर्तमान में जितना हिंदी का प्रचलन हो रहा है, शायद आज तक कभी नहीं हुआ। हमारे प्रधानमंत्री हिंदी बोलते हैं, विदेश मंत्री हिंदी बोलती हैं। जहाँ तक भाषा नीति का संबंध है, सभी अधिकारियों को कह देना चाहिए कि जब भी कोई द्विपक्षीय वार्ता के लिए कोई विदेशी अतिथि आएगा, अगर वो अंग्रेज़ी जानता है तो भी हम अंग्रेज़ी में बात नहीं करेंगे । भारत की भाषा हिंदी है, अंग्रेज़ी नहीं है और हिंदी के भाषांतरकार तैयार करने कि महती जरूरत है । अगर नहीं उपलब्ध हैं तो तैयार करो और हमारे शैक्षणिक संस्थानों में जो लैंग्वेजेस डिपार्टमेंट है, उन्हें हिंदी के शोध-कार्यों में अद्यतनीकृत विषयों को अपनाना होगा। देश के सभी केंद्रीय शिक्षण संस्थानों में शैक्षणिक कार्यक्रम इस ढंग से तैयार हो कि हिंदी को सर्वाधिक लाभ मिले। रोजगार सृजन की दृष्टि से भी हिंदी को वरीयताएँ देना महत्वपूर्ण है । आज वैश्विक स्तर पर किसी एक भाषा का सर्वाधिक भाषायी अधिगम हो रहा तो वह हिंदी है जिसकी सबसे बड़ी वजह है भारत का बाजार और उसकी प्राचीन संस्कृति को जानने की ललक ।
हिंदी सात समंदर पार की यात्रा करके भारत लौट आयी है और विश्व हिंदी सम्मेलन भी भारत में ही होने वाला है। यह सम्मेलन अपने आप में अनूठा होगा और होना भी चाहिए क्योंकि भारतियों को विदेशों से आयातित चीजों से अजीब-सा  प्रेम एवं लगाव हो जाता है । गाँधी जी को भी हमने तभी अपनाया जब वे विदेश से भारत लौटे, अब बारी हिंदी की है । घटना और साम्य एक जैसा है , जोहान्सबर्ग से गाँधी जी भी आये थे और वहीँ से हिंदी भी आ रही है । यही कारणहै कि पिछली बार जोहानेसबर्ग में जब ये सम्मेलन हुआ था तो यह तय कर लिया गया था कि अगला सम्मेलन भारत में हो रहा है । अंतर्राष्ट्रीय भूमि का अंतिम लक्ष्य हिन्दी के विश्वव्यापी राजनीतिक और कूटनीतिक व्यवहार और राष्ट्र की वास्तविक मान्य भाषा के रूप में विदेशों द्वारा उसे स्वीकार किया जाना है। राष्ट्रसंघ की अंग्रेज़ी, रूसी, फ़्रेंच, स्पेनिश, चीनी और अरबी भाषाओं के साथ उसे सातवीं भाषा के रूप में मान्यता मिलना, उसी व्यवहार का तर्क सम्मत प्रतिफल हो सकता है। 
परिवर्तन प्रकृति का नियम है, द्वितीय विश्वयुद्ध के पहले दुनिया के भाषा मानचित्र पर रूसी का महत्त्व नहीं था, पर द्वितीय युद्ध के विजेताओं में अमरीका के साथ रूस का बराबरी का स्थान हो गया और रूसी भाषा भी दुनिया की दो महान भाषाओं में गिनी जाने लगी। फ़्रेंच भाषा की महत्ता बनाए रखने के अनेक कारण हैं। फ़्रेंच की अपनी भाषिक, विशेषताएँ विशेष रूप से उसकी अर्थभ्रम से रहित अपेक्षाकृत सुनिश्चित अभिव्यक्ति क्षमता उसकी अंतर्राष्ट्रीय उपयोगिता को कायम रखने का बहुत बड़ा कारण है। साथ ही राजनीतिक दृष्टि से यूरोप में फ़्रांस का महत्त्व अद्वितीय रहा है। आधुनिक काल में उसका गौरवपूर्ण इतिहास जर्मनी की विश्वविजय का महत्त्वकांक्षा की पूर्ति में उसके द्वारा उपस्थित की गई बाधाएँ और अदम्य साहस के साथ जर्मनी का मुकाबला करते रहने की उसकी संकल्प शक्ति आदि अनेक कारणों से फ़्रांस की राजनीतिक प्रतिष्ठा स्थिर बनी रही। उसकी भाषा की प्रतिष्ठा के पीछे इन राजनीतिक घटकों का बहुत बड़ा हाथ है। स्पेनिश भाषा की मान्यता के पीछे जो ऐतिहासिक कारण हैं, उनमें दक्षिण अमरीका के अनेक देशों में उसके एकाकी प्रभुत्व का सबसे अधिक महत्त्व है।  
द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान के विरुद्ध चीन के अमरीका-रूस के मित्र पक्ष में रहकर विजयी होने से चीन का राजनीतिक महत्त्व बढ़ने के साथ चीनी भाषा को भी महत्त्व मिला। आज़ादी के बाद उसकी राजनीतिक सुस्थिरता, वैज्ञानिक और औद्योगिक प्रगति विश्व की परस्पर संघर्षशील शक्तियों के राजनीतिक, सामरिक प्रभावों से मुक्त उसकी स्वतंत्र विदेश नीति और एशिया और हिन्दी महासागर के देशों में उसकी भौगोलिक स्थिति आदि अनेक कारण हैं, जिनसे अंतर्राष्ट्रीय जगत में भारत का सम्मान ऊँचा हुआ। विदेश नीति और कूटनीति संबंधी सभी कार्य अंग्रेज़ी में होते हैं। भारतीय दूतावासों में अंग्रेज़ी ही चलती है। हिन्दी का प्रयोग केवल औपचारिक प्रतीक रूप में होता है। परन्तु यह आशा निराधार नहीं है कि हिन्दी अंग्रेज़ी के द्वारा अपहृत अपना पद अवश्य प्राप्त कर लेगी। जब कभी ऐसा हो सकेगा, हिन्दी विश्व भाषाओं के मंच पर ऊँचा स्थान पाएगी और तब वह दिन दूर न रहेगा, जब राष्ट्रसंघ में उसका वही स्थान होगा, जो अंग्रेज़ी, रूस और फ़्रेंच को प्राप्त है। चीनी और अरबों की तुलना में एशिया के देशों में उसका प्रसार और सम्मान अधिक होगा। इसका संकेत उसके सरल हिन्दी-उर्दू के मूल रूप हिन्दुस्तानी के संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप और उसके पास-पड़ोस के देशों में व्यापक प्रचलन में मिलता है। इसकी अपरिचित संभावनाओं का उल्लेख पीछे किया गया है। परंतु भारत को अपनी भाषा नीति के निर्धारण, नियोजन और राजकीय हिन्दी के स्वरूप पर व्यावहारिक और प्रगतिशील दृष्टिकोण से सतत विचार और पुनर्विचार करते रहना ज़रूरी है। 
विकासशील देशों को गुटनिरपेक्ष विदेश नीति के आधार पर संगठित करने और उनके साथ मिलकर सामूहिक रूप में विश्वशांति, समता, बंधुत्व मानवता और आर्थिक न्याय का प्रबल आंदोलन चलाने में उसकी शानदार भूमिका रही है। विश्व की राजनीति में उसकी बात का वजन है। ऐसे महान देश की भाषा आदर होना अवश्यंभावी है। इस प्रतिष्ठा के कारण स्वतंत्र भारत की संविधान स्वीकृत राजभाषा हिन्दी का सम्मान भी अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में बढ़ा है। यह सम्मान कहीं अधिक बढ़ गया होता, अगर हिन्दी को पूरे तौर पर राजभाषा का दायित्व निभाने का अवसर मिल जाता। राजकीय कार्यों में अंग्रेज़ी का साम्राज्य अब भी कायम है। लिपि अवश्य उसकी देवनागरी नहीं थी और उसका नाम दकनी या दक्खिनी हिन्दी था। परंतु उसी भाषा का उत्तर भारतीय आधुनिक रूप सामान्य संपर्क भाषा की तरह कमोबेश देश भर में प्रचलित रहा। इसी ऐतिहासिक अनिवार्यता के कारण उसे राजा राम मोहन राय, स्वामी दयानंद सरस्वती, केशवचंद्र सेन, महात्मा गांधी और अनेक गैर हिन्दी क्षेत्र के सामाजिक नेताओं ने अखिल भारतीय भाषा के रूप में पहचाना। आगे चलकर वह स्वाधीनता संग्राम की मुख्य माध्यम भाषा बनी और अंत में स्वतंत्र भारत की राजभाषा चुनी गई। 
वैज्ञानिक लिपि देवनागरी के विश्व-लिपि बनाने की संभावनाएँ व्यापक है । देवनागरी लिपि, हिंदी की ही लिपि नहीं बल्कि संस्कृत, मराठी, हिंदी, पालि, मागधी, अर्धमागधी, नेपाली- इन सभी भाषाओं की लिपि देवनागरी है। जब हिंदी और संस्कृत विश्व-भाषा बनने की योग्यता रखती है, तो उसकी लिपि देवनागरी को विश्व-नागरीके रूप में फैलाने में किसी बाधा का भय क्यों होना चाहिए? विश्व की तमाम भाषाएं यदि देवनागरी अथवा विश्व-नागरी लिपि में भी लिखी जाने लगें, तो वसुधैव कुटुम्बकम्का स्वप्न शीघ्र साकार होगा।  दुनिया की लगभग सभी भाषाओँ में संस्कृत के मूल शब्दों की विद्यमानता है, कम्पूटर की दृष्टि से भी संस्कृत सर्वाधिक उपयुक्त है । संस्कृत भाषा के लगभग 3000 शब्द इंग्लिश में कुछ बदले हुए रूप में विद्यमान हैं। अंग्रेजी के अनेक शब्द धातु संस्कृत से बने हैं। जर्मन, फ्रेंच, रसियन एवं जापानी आदि भाषाओं में भी लगभग सैंकड़ों-हजारों  संस्कृत शब्द मुझे मिले हैं। अन्य कई भाषाओं में भी संस्कृत शब्दों की कमी नहीं है। इसलिए जब हम हिंदी को विश्व हिंदीबनाने की कल्पना करते हैं, तब देवनागरी लिपि को भी विश्व नागरीबनाने की बात सोचना उचित ही माना जाएगा।  
 इंटरनेट पर भारतीय भाषाओं के कंटेंट को बढ़ावा देने के लिए गूगल ने भारतीय भाषा इंटरनेट गठबंधन’ (आईएलआईए) बनाने की घोषणा की है। आज वेबदुनिया हिन्दी समेत तमिल, तेलुगू, कन्नड़, मलयालम, मराठी और गुजराती में भी उपलब्ध है। गूगल का यह गठबंधन भारतीय भाषाओं के प्रकाशकों का समूह है। गूगल की इस पहल को इंटरनेट पर भारतीय भाषाओं को बढ़ावा देने की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम माना जा रहा है। गूगल का 2017 तक भारत के 30 करोड़ नए लोगों को इंटरनेट से जोड़ने का लक्ष्य है और आज की यह पहल उसी दिशा में उठाया गया एक अहम कदम है।  आईएलआईए में गूगल के अलावा वेबदुनिया, एबीपी न्यूज, अमर उजाला पब्लिकेशंस, सी डैक,  डीबी डिजिटल, हिनखोज, जागरण, लिंग्वा नेक्स्ट, एनडीटीवी, नेटवर्क 18, टाइम्स इंटरनेट आदि शामिल हैं। भारत में अभी करीब 20 करोड लोग इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं और भारतीय भाषाओं में इंटरनेट की उपलब्धता से इस आंकड़े के 2017 तक 50 करोड़ पहुंचने की संभावना है।  सर्च इंजन गूगल के मुताबिक इस पहल के जरिए उसका लक्ष्य 2017 तक 30 करोड़ भारतीय भाषाभाषियों को इंटरनेट से जोड़ने का है। गूगल के मुताबिक अभी भारत में 20 करोड़ इंटरनेट यूजर है जो कि इसकी 1.2 अरब आबादी का सिर्फ 16 फीसदी हैं।
एथेनॉलॉगः विश्व भाषाओं की एटलस के 2013 के भाषायी आंकडों के अनुसार हिंदी, मंदारिन और अंग्रेजी जानने वाले क्रमशः 1028, 1023 और 841 मिलियन है जिनमें (भा1+भा2) के वक्ता शामिल हैं। अतः हिंदी जानने वाले विश्व में सर्वाधिक हैं। विश्व के अनेकानेक देशों के 245 उच्च शिक्षण संस्थानों में हिंदी-शिक्षण, उसके अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्थाएँ औए सुविधाएँ स्वतंत्र रूप से उपलब्ध हैं एवं उनके अप्रवासियों/ अनिवासियों की रहने वाली विपुल आबादी सम्पर्क भाषा के रूप में हिंदी / हिन्दी-उर्दूका प्रयेग करती है, इनकी फ़िल्में देखती है, गाने सुनती है, टेलीविज़न के कार्यक्रम देखती है।  प्रयास करने होंगे कि हिन्दी भाषा आज के युग की भाषा बने, विज्ञान और नई तकनीक की भाषा बने, यह आज के युग की माँग है और हमें चाहिए कि हम इस ओर कुछ ठोस कदम उठाएं। भारत वैदिक काल से ही साहित्यिक, सांस्कॄतिक और वैज्ञानिक दॄष्टि से अति समृद्ध रहा है, लेकिन उसके इस समृद्ध-कोश को विदेशियों द्वारा कभी चुराया गया तो कभी नष्ट किया गया है। 
भाषा के मौखिक और लिखित दो मुख्य स्वरूप हैं । हिन्दी भाषा का मौखिक स्वरूप तो बहु-लोकप्रिय है और हो रहा है। आँकड़े बता रहे हैं कि आज हिन्दी विश्व में सबसे अधिक बोली और समझी जानेवाली भाषा है, परंतु इसका दूसरा पहलू जो लेखन और लिपि से सम्बन्धित है, उसमें सरलता और सहजता की अत्यन्त आवश्यकता है, जिससे लिखने में  भी इसका प्रयोग अधिकाधिक हो सके। इसके लिए यद्यपि काफ़ी कार्य हुआ है, मानक रूप भी तैयार हुआ है तथापि अभी तक भी वह इतना सरल नहीं हुआ है कि लोग इसे आसानी से अपना सकें। जन-सामान्य में अभी भी काफ़ी भ्रांतियाँ हैं, मुख्यतः अनुस्वार और चन्द्रबिन्दु को लेकर, साथ ही नुक्तेका प्रयोग भी उन्हें भटकाता है, कहाँ लगाए, कहाँ न लगाएं की स्थति तो पैदा करता ही है, लिखने में अथवा टाइप करने में भी व्यवधान उत्पन्न करता है। अतः साहित्य को छोड़ कर इनके प्रयोग में उदारता बरती जाए और सरलीकरण की ओर कदम बढ़ाएं जाएं,तो लोग रोमन-लिपि का सहारा लेना छोड़ सकते हैं।
शब्दकोश को वर्णमाला क्रम के अनुसार मानक और सहज बनाया जाय तो यह एक वरदान हो जाएगा। उदाहरणार्थ- वर्तमान में हिन्दी-शब्दकोश देखना सीखना होता है, पहले उसकी बारीकियों से छात्रों को अवगत करवाना पड़ता है और अभ्यास करवाना होता है कि कौन-सा वर्ण शब्दकोश में कहाँ आएगा? यदि वर्णमाला में स्वरों का क्रम देखें तो हम पाएंगे कि जो अं का  क्रम वर्णमाला में अंत में आता है, बारह्खड़ी भी इसी क्रम से सिखाई जाती है, परन्तु शब्दकोश में वही पहले आता है, जैसे- अनुस्वार/अनुनासिक वाले शब्द(अंक आदि)। फ़िर शब्दकोश में इस प्रकार का क्रम उलझन पैदा करता है। व्यंजन को बिना स्वर के अर्द्धाक्षर माना गया है, कहने का तात्पर्य यह है कि यदि यह व्यंजन का  मूल रूप है, तो शब्दकोश में पहले अर्द्धाक्षर वाले शब्द आने चाहिए, जैसेकृक्या.क्यारी आदि। इसीप्रकार संयुक्त-व्यंजन जिनका अब स्वतंत्र रूप बन गया है ( क्ष,त्र,ज्ञ,श्र,)  और जिन्हें वर्णमाला क्रम के अंत में दर्शाया जाता है, उन्हें शब्दकोश में भी बाद में ही लिया जाय तो सुविधा होगी। यह ठीक है कि इस प्रकार की परंपरा संस्कृत-काल से चली आ रही है और इसके कई शास्त्रीय कारण भी हो सकते हैं, पर मैं यहाँ एक हिन्दीतर प्रदेश के छात्र के दृष्टिकोण से बात कर रही हूँ जो सम्पर्क-भाषा के रूप में भाषा सीखना चाहता है।
संयुक्त राष्ट्र में हिन्दी को लाने का यह अनुकूल समय है। भारत सरकार को केवल डेढ़ करोड़ डॉलर प्रतिवर्ष खर्च करने होंगे, संयुक्त राष्ट्र के आधे से अधिक सदस्यों की सहमति लेनी होगी और उसकी कामकाज नियमावली की धारा-51 संशोधन करवाकर हिंदी का नाम जुड़वाना होगा। इस मुद्दे पर देश के प्रायः सभी राजनीतिक दल भी सहमत हैं। कौन भारतीय है, जो अपने राष्ट्र की भाषा को विश्व-मंच पर दमकते हुए देखना नहीं चाहेगा। जिन भारतीयों को अपने प्रांतों में हिंदी के बढ़ते हुए वर्चस्व पर कुछ आपत्ति है, वे भी संयुक्त राष्ट्र में  हिन्दी लाने का विरोध नहीं करेंगे, क्योंकि वे जानते हैं कि विश्व मंच पर 22 भाषाएँ भारत का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकतीं। अगर हमने संयुक्त राष्ट्र में पहले हिंदी बिठा दी, तो हमें सुरक्षा परिषद में बैठना अधिक आसान हो जाएगा।  सबसे पहला कारण तो यह है कि हिंदी को मान्यता देकर संयुक्त राष्ट्र अपनी ही मान्यता का विस्तार करेगा । 62 साल से विजेता और विजित के खाँचे में फँसी हुई संयुक्त राष्ट्र की छवि का परिष्कार होगा। दूसरा, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र दुनिया के दूसरे के सबसे बड़े लोकतंत्र, दुनिया के दूसरे सबसे बड़े देश और  दुनिया के चौथे सबसे मलादार देश की भाषा को मान्यता देकर संयुक्त राष्ट्र अपना गौरव खुद बढ़एगा। तीसरा, हिंदी को मान्यता देने का अर्थ है-तीसरी दुनिया और गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों को सम्मान देना। भारत इन राष्ट्रों का नेतृत्व करता रहा है। चौथा, हिंदी विश्व की  सबसे अधिक समझी और बोली जाने वाली भाषा है। 
पाँचवाँ, हिंदी जितने राष्ट्रों की बहुसंख्यक जनता द्वारा बोली-समझी जाती है, संयुक्त राष्ट्र की पहली चार भाषाएँ नहीं बोली-समझी जाती हैं। छठा, यदि हिंदी संयुक्त राष्ट्र में प्रतिष्ठित होगी तो दुनिया की अन्य सैंकड़ों भाषाओं के लिए शब्दों का नया ख़जाना खुल पड़ेगा। हिंदी संस्कृत की अत्यंत समृद्धशाली परंपरा से विकसित हुई है। संस्कृत की एक-एक धातु से कई-कई हजार शब्द बनते हैं। एशिययाई और अफ्रीकी ही नहीं, यूरोपीय और अमेरिकी भाषाओं में भी आजकल शब्दों का टोटा पड़ा रहता है, अन्तरराष्ट्रीय विज्ञान और व्यापार के कारण रोज नए शब्दों की जरूरत बड़ती है। इस कमी को हिंदी पूरा करेगी। सातवाँ, सर्वाधिक वैज्ञानिक लिपि से युक्त हिंदी के संयुक्त राष्ट्र में पहुंचते ही दुनिया की दर्जनों भाषाओं को लिबास मिलेगा। वे निवर्सन हैं। उनकी अपनी कोई लिपि नहीं है। तुर्की, इंडोनेशियाई, मंगोल, उज्बेक, स्वाहिली, गोरानी आदि भाषाएँ विदेशी लिपियों में लिखी जाती हैं। उनकी मजबूरी है। हिंदी इस मजबूरी को विश्व-स्तर पर दूर करेगी। वह रोमन, रूसी और चित्र-लिपियों का शानदार विकल्प बनेगी। उसकी लिपि सरल और वैज्ञानिक है। जो बोलो, सो लिखो और जो लिखो, सो बोलो। संयुक्त राष्ट्र में बैठी हिंदी विश्व के भाषाई मानचित्र को बदल देगी।
यदि हिंदी संयुक्त राष्ट्र में दनदनाने लगी, तो उसके भारत में भी ठोस परिणाम सामने आएँगे। पहला, भारतीय नौकरशाही-नेताशाही को मानसिक गुलामी से मुक्ति मिलेगी। भारत के राजकाज में हिंदी को उचित स्थान मिलेगा। दूसरा, भारतीय भाषाओं की जन्मजात एकता में वृद्धि होगी। तीसरा, ‘दक्षेसराष्ट्रों में जनता से जनता का जुड़ाव बढ़ेगा। तीसरा, वैश्वीकरण की  प्रक्रिया में अँग्रेज़ी का सशक्त विकल्प तैयार होगा। चौथा, स्वभाषाओं के ज़रिए होने वाले शिक्षण, प्रशिक्षण और अनुसंधान की गति तीव्र होगी। उसके कारण भारत दिन-दूनी रात चौगुनीउन्नति करेगा। सचमुच वह विश्व-शक्ति और विश्व-गुरू बनेगा इसमें तनिक भी संदेह नहीं होना चाहिए । 

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