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BHASHIKI ISSN: 2454-4388 (Print): Quarterly International Refereed Research Journal of Language, Applied Linguistics, Education, Media, Translation and Literary Analysis भाषा, अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान, शिक्षा, मीडिया तथा साहित्य-विश्लेषण की संदर्भ-रिसर्च तिमाही अंतर्राष्ट्रीय संवाहिका

Monday, 9 January 2017

भारत में शिक्षा और परीक्षा प्रणाली में व्यापक परिवर्तन की दरकार (Require Sweeping Changes in Education And Examination System In India) (التعليم وفحص النظام الذي يحتاج إلى جنكيز تجتاح الهند) प्रोफ़ेसर राम लखन मीना, राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय, अजमेर

भारत में शिक्षा और परीक्षा प्रणाली में व्यापक परिवर्तन की दरकार

(Require Sweeping Changes in Education And Examination System In India)
(التعليم وفحص النظام الذي يحتاج إلى جنكيز تجتاح الهند)

प्रोफ़ेसर राम लखन मीना, राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय, अजमेर 

परीक्षा के अंकों को लेकर पैदा होता मानसिक संकोच लगभगशख्सियतका हिस्सा बनता जाता है। आज की शिक्षा प्रणाली की क्या यह स्वाभाविक निष्पत्ति है कि मनुष्य का सारा व्यक्त्तिव सफलताओं और असफलताओं की तुलनात्मकता के नीचे दबा नजर आता है? ‘सत्यमेव जयतेके उद्धोष कोजीवन मंत्रस्वीकार करने वाला यह देश क्या लगातार कुशलतापूर्वक झूठ बोलने और उसे दंभपूर्वक जी लेने वाले पढ़े-लिखे लोगों की आबादी में तब्दील होता जा रहा है? इस सारी पढ़ाई-लिखाई की कवायद का पैमाना क्या है? तरह-तरह की परीक्षाएं। 
क्या ये सब परीक्षाएं हमें सच के साथ जीवन जीने का माद्दा देती हैं? या फिर येन केन प्रकारेण सफलता बटोर लेने के झूठ का प्रशिक्षण देती हैं? परीक्षाओं में अच्छे अंक नहीं ला पाने की निराशा और कुंठा में हर वर्ष होने वाली आत्महत्या की घटनाएं लगातार बढ़ ही रही हैं। परीक्षाओं के दिन विद्यार्थियों और अभिभावकों के लिए खासा तनाव पैदा करते हैं। जीवनचर्या पर मानोंआपातकाललागू हो जाता है। परीक्षाएं जैसे जिंदगी की सारी सहजता को लील लेती हैं। भय और लोभ के भंवर रह-रहकर उठते हैं। शिक्षा-प्रणाली में विद्यार्थी की प्रतिभा और क्षमता के मूल्यांकन के लिए आयोजित होने वाली परीक्षाएं जाने-अनजाने असहजता निर्मित करती हैं।
प्रतिस्पर्धा का अपना एक गणित है। सफलता और असफलता इसके आवश्यक पहलू होते हैं; अवसर और भाग्य उसके प्रमुख कारक। परिश्रम और प्रतिभा- प्रकटीकरण के लिए भी प्रतिस्पर्धा में निश्चित मानक होते हैं। इन मानकों के बाहर का परिणाम या प्रतिभा किसी भी स्पर्धा के लिए महत्वहीन होती है। परीक्षाएं भी प्रतिस्पर्धा के इन गुणों से लबरेज होती हैं। विश्वविद्यालयों की परीक्षाओं को लें तो वहां प्रश्नपत्रों के निर्माण से लेकर उत्तर-पुस्तिकाओं की जांच तक का काम एक ऐसी यांत्रिक प्रक्रिया में कसा-बंधा है कि जिसे ढर्रा कह देने का मन करता है। यह यांत्रिकता विद्यार्थी के उचित एवं न्यायपूर्ण मूल्यांकन अथवा प्रोत्साहन के प्रति कितनी सजग और संवेदनशील है
यह प्रश्न विविध स्तरों पर व्यवस्था की पोल खोलता है। और उत्तर की खोज नये प्रश्न उत्पन्न करती है। वर्ष में 365 दिन होते हैं, विश्वविद्यालयों में 180 दिन पढ़ाई की मांग आये दिन होती है। पढ़ाई के दिन सैकड़े के आंकड़े को मुश्किल से छू पाते हैं। मगर ये पढ़ाई के दिन भी महत्वपूर्ण नहीं बन पाते हैं। छात्र कक्षाओं में नहीं जाते हैं और शिक्षक कक्षाओं में नहीं आते हैं- जैसी शिकायतें अब सामान्य  होती जा रही हैं। इसलिए, महत्वपूर्ण हो जाते हैं वे चार या पांच सप्ताह जिनमें परीक्षाओं की तिथियां होती हैं और धीरे-धीरे वे पांच या सात दिन महत्वपूर्ण हो जाते हैं जिनमें परीक्षाएं होती हैं। फिर महत्वपूर्ण हो जाते हैं सिर्फ वे पांच प्रश्न जिनके हल करने से अधिकतम अंक मिल जाते हैं। इन प्रश्नों को हल करने के सारे रास्ते बाजार ने आसान कर दिए हैं- चैम्पियन, गाइड, गेस पेपर्स, सिलेक्टिव क्वेश्चन्स इत्यादि। और अंतत: ये सभी चक्र महत्वहीन हो जाते हैं और महत्वपूर्ण हो जाते हैं वे पांच या सात मिनट जिसमें परीक्षक अपने मूड, मन और कार्याधिक्य आदि का दबाव, प्रभाव लेकर मूल्यांकन करता है। निश्चित ही इस मूल्यांकन प्रक्रिया की वैज्ञानिकता संदेह के घेरे में है।
सच यह है कि विद्यार्थी परीक्षार्थी बनता जा रहा है। कहते हैं शिक्षा व्यक्ति को व्यक्ति नहीं रहने देती है, उसे टाइप बना देती है। इस बात को सही मानते हुए यदि कारण खोजे जायें तो स्पष्ट होता है कि शिक्षा में परीक्षा एक महत्वपूर्ण कारक है जिसका उद्देश्य प्रतिभा-प्रोत्साहन और गुणावलोकन है, किन्तु व्यवहारत: यह विद्यार्थी के वैशिष्टय को नकार कर उसे टाइप मान लेने का खुल्लमखुल्ला उदाहरण है। एक ही परीक्षा हाल में एक ही समय में, एक ही प्रकार के एक ही प्रश्न-पत्र हल करते हुए छात्रों का समूह वैशिष्टय और वैविध्य की शोक सभा जैसा प्रतीत होता है। कोई व्यंग्यकार इसेबाड़ाबंदीकहे तो आश्चर्य नहीं होगा। 
स्थिति यह है कि कक्षा 10 की पहली बोर्ड परीक्षा में 15-16 साल के करोड़ों बच्चे असफल घोषित किये जाते हैं (बोर्ड की परीक्षा के परिणाम सारे देश में लगभग 50 प्रतिशत ही होते हैं) और वे जीवन भर इस अपमानजनक स्थिति का बोझ ढोते रहते हैं। यही स्थिति तृतीय श्रेणी या उससे भी कम अंक पाने वाले बच्चों की होती है। बड़े-बड़े शहरों में तो 80-90 प्रतिशत अंक लाने वाले बच्चे भी अपमानित होते हैं, क्योंकि अच्छे स्कूलों में दाखिला मिलने के लिए इतने अंक भी पर्याप्त नहीं ठहरते हैं। नव-जीवन के साथ यह व्यवहार अमानवीय और अन्यायपूर्ण है।
हमारे देश में जनसंख्या बड़ी है। और परीक्षाओं में अच्छे अंक लाने वालों को सम्मान से देखने का सामाजिक माहौल भी है। लोकतंत्र होने के कारण एकाएक किसी भी सुधार का प्रयास विवादों को जन्म देता है इसलिए परीक्षाओं को एकदम समाप्त कर देने का सुझाव अति-साहसिकता होगी। आवश्यकता इस बात की है कि शिक्षा और परीक्षा की पूरकता को नये सिरे से, नये विकल्पों एवं आयामों के परिप्रेक्ष्य में सोचने-समझने के प्रयास तेज किये जाएं। वास्तव में पूरी शिक्षा-प्रणाली परीक्षा-केन्द्रित हो गई है और परीक्षावमन क्रियाजैसी रटने पर आधारित परिपाटी बनती जा रही है। ऐसे में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय और इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय में इस प्रणाली से कुछ भिन्न और उदार, शायद थोड़े व्यावहारिक प्रयोग भी मौजूद हैं, जो सुधार का आह्वान करते हैं। 
शिक्षा के बारे में संजीदगी से सोचने वाला कोई भी व्यक्ति इस परीक्षा-प्रणाली को विद्यार्थी के समग्र विकास के लिए उपयोगी नहीं मान सकता है। शिक्षा के बारे में गठित सर्वपल्ली राधाकृष्णन आयोग का एक ऐतिहासिक वाक्य है, ”यदि हमें भारतीय शिक्षा में सुधार का एक सुझाव देना हो तो वह परीक्षा का ही होगा।कोठारी आयोग (1964-66) और माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952-92) में कहा गया था कि मूल्यांकन संस्थागत होना चाहिए तथा उन्हीं के द्वारा होना चाहिए जो शिक्षक पढ़ा रहे हैं। इसमें परीक्षाओं पर निर्भरता कम करने की बात भी कही गयी थी। अंको की जगह ग्रेडिंग प्रणाली लाने के सुझाव भी समय-समय पर आये हैं। जानकारों का कहना है कि ग्रेडिंग प्रणाली से टयूशन जैसी व्यवस्था कमजोर पड़ेगी और परीक्षा में सफलता की गारण्टी का धन्धा करने वाले बाजार की विकृत भूमिका भी समाप्त होगी। ऐसा कहा जाता है कि 33 प्रतिशत की अंक प्रणाली हमारे देश में विदेशी शासकों द्वारा लाई गई थी और उन्होने अपनी व्यवस्था में से इसे वर्षों पूर्व निकाल दिया।
शिक्षक-मूल्यांकन का सवाल भी इन दिनों बड़ी शिद्दत से उभरा है। शिक्षा को सीखने पर आधारित बनाने और सिखाने पर जोर कम करने की बात भी एक आशापूर्ण आलोक है। प्रख्यात चिंतक एवं साहित्यकार रोमां रोला ने कहा था किसत्य उनके लिए है, जिनमें उसे सह लेने की शक्ति है।शिक्षा-जगत को इस शक्ति का सृजन करना होगा तथा शिक्षा और परीक्षा के संदर्भ से शुरू कर शिक्षा के व्यापक परिवर्तन के लिए तैयार होना होगा। परीक्षा-प्रणाली में बदलाव या उसके विकल्प तलाशने के मुद्दे का समाज-शास्त्रीय पहलू भी है। किसी भी समाज में किसी भी वर्ग के लिए असहजता आरोपित करने वाले आयोजन उसे दुर्बल एवं असमर्थ बनाते हैं।
स्वत: ही इस प्रकार के आरोपण झेलने वाला समाज या उसका विशेष-वर्ग जाने-अनजाने कुंठा या कमजोरी का शिकार हो जाता है। उसका सर्वांगीण नैसर्गिक विकास बाधित होता है। परीक्षाओं काआपातकालसामाजिक रूप से हमारे आत्मविश्वास, आत्मबल को आशंकाग्रस्त एवं भययुक्त वातावरण की ओर ले जाता है। छात्र और अभिभावक दोनों इस यंत्रणा को झेलते हुए शारीरिक और मानसिक अस्वस्थता का  अनुभव करते हैं। किसी भी सभ्य समाज के लिए अस्वस्थता का वार्षिक आयोजन कोई अच्छा लक्षण नहीं है। परीक्षाओं में नकल माफियाओं के हाईटेक तरीके से नकल कराकर फर्जी अभ्यर्थियों को रोकने के लिए इस तकनीक का इस्तेमाल किया जाएगा। डीएसएसएसबी राज्य सरकार में नौकरियों के लिए आयोजित होने वाली परीक्षाओं में मोबाइल, ब्लू टूथ और अन्य इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस के जरिए होने वाली नकल को रोकने के लिए निजी एजेंसियों का सहारा लेगा। 
पिछले कई परीक्षाओं में हाईटेक तरीके जिसमें ब्लूटूथ और इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस के जरिए नकल करने के कई मामले सामने आए हैं। ऐसे में बोर्ड भविष्य में होने वाली परीक्षाओं में होने वाले फर्जीवाड़े पर लगाम लगाने के लिए निजी एंजेसियों का सहारा ले रहा है। आधिकारिक सूत्रों के मुताबिक, ब्लूटूथ, मोबाइल और अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के उपयोग पर पूरी तरह से परीक्षाओं में पाबंदी होती है। इसके बावजूद लोग नकल कर रहे हैं। ऐसी डिवाइस पर परीक्षा हालों में पूरी तरह से रोक लगे और नकल माफियाओं पर नकेल कसी जा सके इसलिए निजी कंपनियों का सहारा लिया जा रहा है। अभी कई निजी एजेंसियों ने इस तरह के उपकरणों पर रोक लगाने के लिए अपना प्रजेंटेशन बोर्ड को दिया है।
सरकार चोरी छिपे नकल करने वाले छात्रों को खुलेआम ऩकल करने की अनुमति देने जा रही है लेकिन उन्हें ऩकल के लिए अकल की जरुरत ज्यादा पड़ेगी। बताया जाता है कि मानव संसाधन विकास मंत्री ने बताया कि सीबीएसई छात्रों को परीक्षा हॉल में किताब देखकर परीक्षा देने की अनुमति के बारे में सोच रही है। सीबीएसई का मार्च 2014 में कक्षा नौंवीं और दसवीं के योगात्मक मूल्यांकन 2 में परीक्षा की ओपन बुक प्रणाली शुरू करने का प्रस्ताव है। थरूर ने लोकसभा में राकेश सिंह के सवाल के लिखित जवाब में बताया कि योगात्मक मूल्यांकन 2 का एक घटक छात्रों को पहले से दी गयी पाठ्य सामग्री पर आधारित होगा। 
परीक्षा की ओपन बुक प्रणाली कक्षा 11वीं और 12वीं में ओपन केस स्टडी आधारित पहल के रूप में क्रियान्वित की जाएगी। प्रश्नपत्र में केस स्टडी अनुभाग के नाम से अलग अनुभाग होगा जिसमें विषय से संबंधित केस स्टडीज पर आधारित प्रश्नों का सेट होगा। थरूर ने बताया कि केस स्टडीज की सामग्री के विषय में स्कूलों को पहले ही सूचित कर दिया जाएगा। शिक्षकों को भी बहुपद्धतियों का उपयोग करने के लिए प्रशिक्षित किया जाएगा। उन्होंने बताया कि छात्रों पर दबाव ब़ढाने की बजाय, एक ऐसी परीक्षा जिसमें रट कर याद करने की जरूरत नहीं है, वह उन पर मौजूदा दबाव के स्तर को कम कर सकती है।
मार्च के महीने को नकल का महीना कहा जाए तो कोई बुराई नहीं होगी, असल में मार्च महीने की शुरुआत देशभर में बोर्ड परीक्षाओं से होती है। दसवीं और बारहवीं की बोर्ड परीक्षाओं के दौरान देश के लगभग सभी राज्यों में नकल माफिया पूरी तरह एक्टिव मोड में जाते हैं। वो अलग बात है कि हिन्दी पट्टी की राज्यों बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश में नकल की खबरें अधिक प्रकाश में आती हैं। बिहार और उत्तर प्रदेश के नकल माफिया तो देशभर में कुख्यात हैं। मार्च के पहले हफ्ते में शुरू हुई दसवीं बारहवीं की बोर्ड परीक्षाओं में अब तक हजारों छात्र अनफेयर मीन्स केस (यूएमसीमें बुक हो चुके हैं बावजूद इसके नकलबाजों और नकल माफियाओं के हौसले पस्त होने की हद दर्जे तक बढ़े हुए हैं। 
यूपी, बिहार में तो नकल माफिया छात्रों को परीक्षा पास कराने के लिए लाखों का ठेका लेते हैं और मार्च के महीने में प्रदेश में नकल की मंडी सज जाती है। सरकार नकल माफियाओं पर नकेल कसने के लाख दावे और प्रपंच करती है और परीक्षा शुरू होते ही व्यवस्था थोथी, खुली नकल की पोथी की पुरानी स्क्रिप्ट दोहराई जाती है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या सरकारी स्कूलों में छात्रों को पूरी पढ़ाई नहीं कराई जाती है कि वो अपने बलबूते परीक्षा दे पायें। क्या पाठयक्रम छात्रों के मानसिक स्तर से ऊपर है। क्या स्कूलों में योग्य शिक्षकों की कमी है। क्या छात्र नकल के बिना परीक्षा पास होने के काबिल नहीं है। नकल छात्रों की मजबूरी है या फिर वो खुद इस कृत्य में शामिल हैं। क्या वर्तमान शिक्षा का ढांचा और प्रणाली छात्रों को नकल के लिए प्रेरित करती है। क्या नकल अधिक अंक पाने का शार्ट कट है। क्या व्यवस्थागत दोष नकल माफियाओं को आक्सीजन प्रदान करती है। क्या शिक्षा माफिया, सफेदपोश नेता और सरकारी मशीनरी की तिगड़ी मोटी कमाई के चक्कर में व्यवस्था को पंगु बनाये हैं। ये वो तमाम सवाल हैं जिन पर व्यापक विमर्श की आवश्यकता है।

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