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BHASHIKI ISSN: 2454-4388 (Print): Quarterly International Refereed Research Journal of Language, Applied Linguistics, Education, Media, Translation and Literary Analysis भाषा, अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान, शिक्षा, मीडिया तथा साहित्य-विश्लेषण की संदर्भ-रिसर्च तिमाही अंतर्राष्ट्रीय संवाहिका

Monday, 2 January 2017

राजस्थान के बोली-भूगोल का सर्वेक्षण की संप्राप्ति (Findings of a Survey of Dialect Geography of Rajasthan) (النتائج من مسح اللهجة الجغرافيا راجستان)

राजस्थान के बोली-भूगोल का सर्वेक्षण की संप्राप्ति 
(Findings of a Survey of Dialect Geography of Rajasthan)
(النتائج من مسح اللهجة الجغرافيا راجستان)
प्रोफ़ेसर राम लखन मीना, राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय, अजमेर

राजस्थानी संपूर्ण राजस्थान तथा वर्तमान मध्य-प्रदेश के अंतर्गत स्थित सांस्कृतिक इकाई मालवा की भाषा मानी जाती है। इसके बोलने वालों की संख्या लगभग ग्यारह करोड़ है। भाषाविदों ने राजस्थानी को हिंदी से पृथक भाषा स्वीकार किया है, किंतु इतिहासकारों एवं साहित्यकारों के मध्य वह हिंदी की ही एक उपभाषा मानी जाती है। राजस्थानी किसी एक स्थान-विशेष में बोली जाने वाली भाषा नहीं है, अपितु राजस्थान और मालवा में प्रचलित बोलियों (यथा- मारवाड़ी, ढूँढाड़ी, हाड़ोती, मेवाती, निमाड़ी, मालवी आदि) का सामूहिकता सूचक नाम है। उक्त बोलियों के सर्व-समावेशी (Over-all-form) के रूप में साहित्य में प्रतिष्ठित है जिसका विकास एक सुदीर्घ एवं सुस्पष्ट साहित्यिक परम्परा पर आधारित है। इस साहित्यिक स्वरूप में क्षेत्रीय विशेषताएँ भी अनायास ही समाहित हो गयी हैं। यह सर्व-समावेशी रूप समस्त राजस्थान और मालवा में पारस्परिक विचार-विनिमयता की दृष्टि से बोधगम्य है और इसीलिए आधुनिक साहित्य (साहित्यिक विधाओं एवं पत्र-पत्रिकाओं) में इसका व्यवहार होता है। राजस्थान में जितनी भी क्षेत्रीय बोलियाँ हैं, उनमें भाषातात्विक दृष्टि से इतना कम अंतर है कि किसी भी बोली-विशेष का वक्ता बिना किसी कठिनाई के राजस्थान में कहीं भी परस्पर विचार-विनिमय कर सकता है। जब कोई क्षेत्रीय प्रभाव साहित्यिक अभिव्यक्ति में उभर आता है तो वह राजस्थानी की अपनी विशेषता या पूँजी बन जाता है। कहने का अभिप्राय है कि राजस्थानी वह सरिता है जिसमें क्षेत्रीय बोलियाँ रूपी छोटे-छोटे नाले और जलधाराएँ समाविष्ट होकर उसके अभिन्न अंग बन गये हैं। अंत में, निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि सर्वसमावेशी अभिरचना (Over-all-pattern) की दृष्टि से राजस्थानी एक ऐसी सशक्त, समृद्ध तथा परस्पर बोधगम्य भाषा है जो क्षेत्रीय रूपांतरों को आत्मसात करते हुए राजस्थान और मालवा को एक सूत्र में सुगुंफि़त करने का कार्य करती है।
भारतीय भाषाओं में राजस्थानी भाषा और इसकी उपभाषाओं/बोलियों का एक विशिष्ट स्थान है। सर्वेक्षणपरक अध्ययन भाषा और बोलियों के अध्ययन की दृष्टि से महत्वपूर्ण कार्य कहा जा सकता है। चूँकि राजस्थानी भाषा हिंदी से प्राचीन भाषा है जिसका विकास शौरसेनी अपभ्रंश की शाखा गोजरी, गुर्जरी अपभ्रंश से माना जा सकता है। सर्वेक्षण प्रक्रिया के माध्यम से राजस्थानी में बोली जाने वाली उपभाषाओं / बोलियों का सर्वेक्षण भारत में भाषाभूगोल के क्षेत्र में एक अनूठा और मौलिक कार्य है जिसमें 11057 से अधिक घंटे रिकॉर्डिंग और प्रश्नावली आधारित सर्वेक्षण प्रक्रिया का सहारा लिया गया है। इस दौरान लगभग 123930 सूचकों से संपर्र्क करके सामग्री का संकलन किया गया है। जो अपने आप में एक विशिष्ट कार्यव्यापार है जिसके माध्यम से राजस्थान में बोली जाने वाली 33 बोलियों उपभाषाओं का वैज्ञानिक पद्धति के आधार पर शोधकार्य किया गया, इस कार्य में अभी ओर अधिक अध्ययन की व्यापक गुंजाइश है और संकलित सामग्री के अध्ययन विश्लेषण के उपरांत आगे के निष्कर्षों तक पहुँचा जा सकेगा, ऐसी पूर्ण आशा है। अभी यूजीसी की रिपोर्ट के मुताबिक ही सामग्री की विश्लेषण करके प्रस्तुत किया जा रहा है ।
मारवाड़ी राजपूताना के मारवाड़मालानी स्टेट में बोली जाती है। अपने थोडे़बहुत मिश्रित रूप में यह पड़ोस के अजमेरमेरवाड़ा, किशनगढ़ तथा मेवाड़ राज्यों में बोली जाती है। दक्षिण में सिरोही एवं पालणपुर में, पश्चिम में जैसलमेर राज्य एवं सिंध के थर एवं पारकर जिलों में; उत्तर में बीकानेर, जयपुर के शेखावाटी विभाग तथा पंजाब के दक्षिण में मारवाड़ी बोली जाती है। सारे प्रदेश में इसके बोलने वाली संख्या लगभग 60 लाख है। सीमाएँमारवाड़ी के पूर्व में राजस्थानी की पूर्वीय बोलियाँ हैं जिनमें जयपुरी को मैंने परिनिष्ठित माना है। दक्षिण में मालवी एवं कुछ भीली बोलियाँ हैं; दक्षिणपश्चिम में गुजराती का क्षेत्र है, पश्चिम में दक्षिण की ओर सिंध एवं खैरपुर में सिन्धी तथा उत्तर में बहावलपुर राज्य की लहंदा बोली जाती है। उत्तरपश्चिम में पंजाबी है। भटियाणी नाम की एक बोली से होते हुए, जिसका राजस्थानी से कोई संबंध नहीं है, यह लहंदापंजाबी में परिवर्तित हो जाती है। उत्तरपश्चिम में इसका पंजाबी तथा बागड़ी से होते हुए पश्चिमी हिंदी की बांगड़ू बोली में लोप हो जाता है। ठीक उत्तरपूर्व में उत्तर की ओर मेवाती बोली जाती है।
विश्व की प्रमुख भाषाओं की पुस्तक एथनॉलोग(Ethnologue) में वर्णित सूची में मारवाड़ी भाषा कोड1 (mar)के साथ 1991 की जनसंख्या के अनुसार इसके बोलने वालों की संख्या 900000 दर्शायी गयी है। वस्तुतः मारवाड़ी को संपूर्ण पश्चिमी राजस्थान को भाषा माना जाता है जिसके प्रभाव में वहाँ की अन्य बोलियों पर पड़ता है किंतु उनकी भाषागत विशिष्टताएँ मारवाड़ी से भिन्न है। मारवाड़ी व्यापक संदर्भों में उनका प्रतिनिधित्व तो कर सकती है किंतु उनका स्थान नहीं ले सकती। इसमें पश्चिमोत्तर में जैसलमेरी और थळी, उत्तर में बीकानेरी, उत्तरपूर्व में नागौरी, पूर्वोत्तर में अजमेरी, पूर्व में मेरवाड़ी, दक्षिणपूर्व में सिरोही तथा मेवाड़ी बोली जाती है। साथ ही दक्षिण एवं दक्षिणपश्चिम में गुजराती का भाषा भी क्षेत्र है। वस्तुतः यह जोधपुर, पाली तथा बाड़मेर एवं जालोर जिलों की बोली है। जालोर, जोधपुर, पाली में इसका मानक रूप दिखाई पड़ता है। यह जालौर जिले के सांचोर और रानी वाड़ा से लेकर जोधपुर के बाप और फलौदी तक तथा पाली जिले के साईधाम, रानी, धानाला के बीच के विशाल क्षेत्र में बोली जाती है। सीमावर्ती क्षेत्रों में मारवाड़ी अपनी समीपवर्ती बोलियों से संक्रमणक्षेत्रों का सृजन करती है। सर्वेक्षण में पाया गया कि इन संक्रमणक्षेत्रों में मारवाड़ी का वर्चस्व अधिक पाया जाता है किंतु बोलियों के क्षेत्रों में गहनता से परीक्षण करने पर भाषिक विभिन्नता अभिव्यक्त होती है।
मारवाड़ी राजस्थानी की प्रमुख उपभाषा/बोली है जो कि पश्चिमी राजस्थान के प्राचीन मारवाड़ प्रदेश में प्रमुखता से बोली जाती है। भाषातात्विक विशिष्टताओं से युक्त इस बोली में पर्याप्त मात्र में साहित्य रचना हो रही है। राजस्थान के बोलीभूगोल सर्वेक्षण में संकलित लिखित एवं मौखिक सामग्री में मारवाड़ी के नमूनों के आधार पर भी कहा जा सकता है कि उक्त बोली शैक्षणिक प्रचारप्रसार से संकुचित होती जा रही है। मौलिक संरचना में बदलाव अंकित किया गया है। भविष्य में होने वाले शोधकार्यों में इन अभिलक्षणों के और भी अधिक एवं सुस्पष्ट संकेत मिल सकते हैं और वर्तमान शोधनिष्कर्षों में यत्किंचित बदलाव संभव है।
मरु बोली पर कभी भी किसी ने न तो कोई सर्वेक्षण कार्य किया है और न ही कोई शोधकार्य सामने आया है। ग्रिर्यसन ने भी इसे भारत के भाषा सर्वेक्षण में राजस्थानी के अध्याय में मारवाड़ी के अंतर्गत ही रखा है, जो न तार्किक है और न ही भाषावैज्ञानिक दृष्टि से सही। सर्वेक्षण के दौरान संकलित सामग्री के अध्ययन और उसके भाषावैज्ञानिक विश्लेषण में पाया गया कि मरूबोली बीकानेरी बोली और पाकिस्तान के समीपवर्ती हिस्सों में स्वतंत्र रूप से बोली जाने वाली प्रमुख बोली है। मरुबोली बीकानेरी बोली और पाकिस्तान के समीप वर्ती दॉंतोर बनियावली, लूखान, थारुसर, सखी, अवारोजहरी, हिसामली, सेरपुरा, जगासर, रणजीतपुरा, चारणवाला, बल्लार, सॉंचू, खाजूवाला तहसील, कोलायत तहसील के इलाकों में बोली जाती है। इसके उत्तर में बागड़ी, पूर्व में बीकानेरी, पश्चिम में थळी और उत्तरपूर्व में पाकिस्तान के सीमावर्ती सिराय को बोली के बीच के भाषायीक्षेत्र में इसका प्रचारप्रसार है। मरु बोली बीकानेरी और सिरायकी के बीच की कड़ी है। यह वस्तुतः श्रीगंगानगर के पश्चिमोत्तर तथा बीकानेर के पूर्वोत्तर तथा सिरायकी के पश्चिम  दक्षिणोत्तर में बोली जाती है। मरू बोली का भाषिक अभिव्याप्ति क्षेत्र पहली बार राजस्थान के बोली भूगोल सर्वेक्षण के माध्यम से अंकित किया गया है जो कि इस सर्वेक्षण की प्रमुख उपलब्धि कही जा सकती है । सर्वेक्षण को आधार बनाकर भविष्य में अनेक मौलिक शोधकार्य हो सकते हैं।
शेखावाटी प्रदेश वीरभूमि राजस्थान के पूर्वउत्तरी भूभाग का नाम है। जयपुर राज्याधीन शेखावाटी एक प्रान्त रहा है। शेखावाटी प्रदेश की भौगोलिक स्थिति इस प्रकार है उत्तर में राजस्थान के चूरू जिले का भूभाग और हरियाणा क्षेत्र है, दक्षिण में जयपुर जिला और चूरू जिलों के कुछ भूभाग हैं। अर्थात् उत्तर में पिलानी, सूरतगढ़ से लेकर दक्षिण में उदयपुर तहसील और सीकर तक तथा पश्चिम में फतेहपुर से लेकर पूर्व में खेतड़ीसिंघाने तक बोली जाने वाली भाषा शेखावाटी है। इस बोली का संभवतः सर्वप्रथम उल्लेख रेवरेंड जी. मैकालिस्टर महोदय ने ‘शेखावाटीनाम से सन् 1899 में किया। दो जिलों झुँझनू एवं सीकर की भाषा ‘शेखावाटीस्वीकार की गयी है जिसके दक्षिण में तोरावटी पर ढुँढारी (जयपुरी) का पर्याप्त प्रभाव परिलक्षित होता है। इसका मुख्य कारण भी भौगालिक है क्योंकि दक्षिण में सिंघाने से साँभर तक फैले हुए अरावली पहाड़ का मुख्य सिलसिला शेखावटी प्रदेश को तोरावटी क्षेत्र से अलग करता है। सामाजिकसांस्कृतिक दृष्टि से इस प्रदेश का संबंध पश्चिमी राजस्थान अर्थात् बीकानेर से विशेषतः रहा है। डॉ. अग्रवाल ने शेखावाटी बोली के क्षेत्रीय रूपों का भी विवेचन प्रस्तुत किया है। इन क्षेत्रों को प्रस्तुत करने से पूर्व डॉ. अग्रवाल ने ध्वनि, शब्द व्याकरण संबंधी प्रवृत्तियों को आधार बनाकर समभाषांश रेखाएँ शेखावाटी के मानचित्र पर प्रस्तुत की हैं। इन विभाजक रेखाओं द्वारा विभक्त होकर जितने सुगठित क्षेत्र बने हैं, उतने ही क्षेत्रीय रूप स्वीकार किये गये हैं।
शेखावाटी प्रदेश वीरभूमि राजस्थान के पूर्वउत्तरी भूभाग का नाम है। उत्तर में राजस्थान के चुरू जिले का भूभाग और हरियाणा क्षेत्र है, दक्षिण में जयपुर जिला और चुरू जिलों का कुछ भाग है अर्थात उत्तर में पिलानी, सुरत गढ़, से लेकर दक्षिण में उदयपुर तहसील और सीकर तक तथा पश्चिम में फतेहपुर से लेकर पूर्व में खेतड़ी सिंघाने तक बोली जाने वाली भाषा शेखावाटी है। किंतु शेखावाटी का विधिक्त भाषा वैज्ञानिक अध्ययन डॉ के.सी. अग्रवाल ने 1964 में अपनी पी.एच.डी. उपाधि के शोधकार्य के रूप में लखनऊ विश्वविद्यालय द्वारा किया गया जिसमें उन्होंने झूँझूनू व सीकर की भाषा ‘शेखावाटीस्वीकार की। इसके पूर्व में तोरावाटी और उत्तर पूर्व में अहीरवाटी, उत्तरपश्चिम में बीकानेरी, पश्चिम में नागौरी, दक्षिण में अजमेरी और जयपुरी बोलियों भाषायी क्षेत्र है। भाषाभूगोल की दृष्टि से किया गया डॉ. अग्रवाल का अध्ययन प्रशंसनीय है। शेखावाटी बोली दो उपरूपों में विभाजित है जो सीकर और झुंझुनु जिलों तथा चुरू के कुछ हिस्सों तक इसका फैलाव है। शेखावाटी बोली पर जातिगत भाषिक अभिलक्षणों के भी संकेत सर्वेक्षण में मिले हैं । भविष्य में होने वाले शोधकार्यों में ये विशेषताएँ प्रमुखता से सामने आ सकती है।
मध्यपूर्वी राजस्थानी की चार बोलियाँ हैं। इन्हें मातृभाषा के रूप में बालने वाले बिल्कुल स्वतंत्र अलगअलग बोलियाँ मानते हैं। इनके नाम जयपुरी, अजमेरी, किशनगढ़ एवं हाड़ौती हैं। इनका आपस का भेद बहुत पुराने समय से सर्वमान्य गिना जाता रहा है, यहाँ तक कि 18वीं शती में सिरामपुर के पादरियों ने भी इसके के जयपुरी एवं हाड़ौती में दो अलगअलग अनुवाद किये थे। फिर भी इन चारों बोलियों में फर्क इतना कम है कि वास्तव में इन्हें पूर्वी राजस्थानी के नाम से ही उपभाषा मानना ही ठीक जँचता है। अपने विस्तार के सारे प्रदेश में (जो नक्शे में स्पष्टतया दिखाया गया है) एक जगह से दूसरी जगह जाने में बोलीभेद थोड़ाबहुत नजर अवश्य आता है; यह भेद भारत के मैदानी प्रदेश में सर्वत्र मिलता है, परंतु ये स्थानीय भेद इतने महत्त्वपूर्ण नहीं हैं कि वर्गीकरण में इन्हें अलग बोली माना जा सके। उपर्युक्त चारों बोलियों में जयपुरी सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है और वह इन सबकी प्रतिनिधि रूवरूप मानी जा सकती है।
पूर्वी राजस्थानी इन जगहों में बोली जाती हैंजयपुर स्टेट के मध्य एवं दक्षिण में, लावा ठकुराज में, जयपुर से लगे हुए टोंक रियासत के अधिकांश भाग में किशनगढ़ रियासत के अधिकांश भाग में, अजमेर जिले में, बूंदी एवं कोटा की हाड़ा रियासतों में (हाड़ोती) तथा उनसे लगे हुए ग्वालियार, टोंक (छाबड़ा परगना) एवं भीलवाड़ा के प्रदेशों में। पूर्वी राजस्थानी के उत्तरपूर्व में उसी की बोली मेवाती है। पूरब में उत्तर से दक्षिण आते अनुक्रम से पहले पूर्वी जयपुर में बोले जाते ब्रजभाषा के डाँग विभेद आते हैं; उनके बाद मध्य में बुन्देली एवं तत्पश्चात् दक्षिण में ग्वालियर राज्य की मालवी एवं मारवाड़ी का एक विभेद मेवाड़ी है। पश्चिम एवं पश्चिमोत्तर में राजस्थानी मिलती है। स्पष्ट है कि पूर्वी सीमा के थोड़े से भाग को छोड़कर, पूर्वी राजस्थानी चारों ओर से राजस्थानी की अन्य बोलियों से ही घिरी हुई हैं। जयपुरी को ढूँढाड़ी के नाम से भी जाना जाता है। यह जयपुर के आसपास के क्षेत्र की भाषा है। इसके पूर्व में मीना भाषा, दक्षिण में नागरचाळी, पश्चिम में अजमेरी, उत्तर में तोरावाटी, उत्तर पश्चिम में शेखावाटी बोली जाती है। जयपुरी जयपुर ग्रामीण में बोली जाने वाली प्रमुख बोली है । सर्वेक्षण में दस भाषिक क्षेत्रगत कई नयी जानकारियाँ मिली हैं। पूर्व धारणाओं पर आधारित इसके स्वरूप में व्यापक तब्दीली पायी गयी है।
हाड़ोतीकी भौगोलिक स्थिति इस प्रकार है उत्तर में अरावली पर्वत की  शृंखला से पृथक् ढूँढाड़ (धुंधुवाट) प्रदेश है। पूर्व में ग्वालियर के जंगल, दक्षिण में मालवा का प्रदेश, पश्चिम में मेवाड़ की वीरभूमि। पर्वतों और घने जंगलों से घिरी हुई ‘ हाड़ोती चंबल, कालीसिंध, पार्वती नदियों की भूमि है। इस बोली का केंद्र किशनगढ़ है। आज इस बोली के भूभाग में कोटा, बूँदी, चित्तौड़ का पूर्वी भाग आता है। यह बोली राजस्थान के 125 मील के क्षेत्र में फैली हुई है, इसकी लंबाई तथा चौड़ाई लगभग समान है। कोटाबूँदी की हाड़ोती ही टकसाली हैं पर इसके 11 अवांतर भेद भी किये गये हैं — 1.वनखंडी (शाहाबाद, किशनगंज तहसील), जिस पर ब्रज तथा बुँदेली का प्रभाव है। 2.मुसलमानी (छलड़ा, छीपाबड़ौद, साँगोद, माँगरोल, बाराँ) उर्दू मिश्रित। 3.प’नी (झालरापाटन) इस पर मालवी तथा समीपवर्ती बोली का प्रभाव है। इसी प्रकार अन्य बोलियाँ में ‘भीली’, ‘नागरचाली’, ‘शाहपुरी’, ‘किशनगढ़ी’, ‘कोटरियाती’, ‘राजवाटी’, ‘कोटवीतथा ‘बूँदवीहैं। ‘कोटवीरूप ही मानक रूप है। हाड़ोती बूँदी एवं कोटा राज्यों में बोली जाती है जो मुख्यतः हाड़ा राजपुतों के निवास स्थान हैं। पड़ोस के ग्वालियर, टोंक (छाबड़ा) तथा भीलवाड़ा राज्यों में भी हाड़ोती बोलने वाले हैं। बूँदी की आबादी 1891 ई. में 3,59,321 थी। इसमें से 3,30,000 हाड़ोती भाषी होने का अनुमान है। बाकी बचे हुओं में से 24000 खैराड़ी बोलते हैं जो खैराड़ या पहाड़ी प्रदेश में मीणा लोगों द्वारा व्यवहृत मेवाड़ी का एक रूप हैं बाकी के लोग भारत की अन्य भाषाएँ बोलने वाले हैं। मौजूदा झालावाड़ में हाड़ोती रियासत के उत्तरी भाग में स्थित पाटन परगने में बोली जाती है जो पूर्व, पश्चिम एवं उत्तर तीनों ओर हाड़ोती क्षेत्र से घिरा हुआ है।
हाड़ोती का भाषायी क्षेत्र एवं सर्वेक्षणपरियोजना की संप्राप्तिः यह राजस्थान में मध्य दक्षिणी क्षेत्र की भाषा है। इस पर व्यापक शोध कार्य हुये है किंतु ये सभी कार्य सर्वेक्षण परक न होकर साहित्य आधारित हो अधिक कहे जा सकते हैं। यह बूँदी के तीन चौथाई भाग तथा कोटा के अधिकांश भागों में बोली जाती है। साथ ही चित्तौड़गढ़ के पूर्वी भाग में भी इसका प्रचलन है। हाड़ौती क्षेत्र में प्रयुक्त भाषिक रूप हाड़ोती बोली के नाम से जाना जाता है। वस्तुतः हाड़ोती शब्द का प्रयोग एवं उसका महत्त्व राजनीतिक, ऐतिहासिक व सांस्कृतिक दृष्टि से अधिक है बोली की दृष्टि से कम। भाषायी क्षेत्र को दृष्टि से इसके चतुर्दिक उत्तर में नागरचाळी, पूर्व में मीना बोली, दक्षिण में मालवी और पश्चिम में मीना बोली के उपरूप बोले जाते हैं।
हाड़ोती बोली कोटा जिले के ग्रामीण अंचलों की बोली है । किंतु पूर्व की धारणा है कि यह सवाई माधोपुर, बूंदी, जिलों की बोली है, ऐसा कतई नहीं क्योंकि वहाँ इसका प्रभाव नहीं है। हाड़ोती झालावाड़ अंचल की बोली भी नहीं है वहाँ आदिवासी बहुल इलाकों में आदिवासियों की अपनी बोलियों के भाषिक अभिलक्षणों युक्त क्षेत्र अभिव्याप्त है जिनका विवरण संदर्भानुकूल अन्यत्र किया गया है। राजस्थान के बोली भूगोल सर्वेक्षण के आधार पर विषयानुरूप अनेक शोध कार्य प्रकाश में आयेंगे जिससे धुंधली तस्वीर और अधिक निकट होकर सामने आयेगी ।
जयपुरी की नागरचाळ बोली रियासत के दक्षिणी भाग के मध्य में तथा उसके पूर्व में लगे हुए टोंकअधिकृत प्रदेश में बोली जाती है। इसके बोलने वालों की अनुमति संख्या 70,000 है। जयपुरी और नागरचाळ में बहुत थोड़ा अंतर है। यह राजस्थान के मध्यपूर्वी भाग में बोली जाती है। टोंक जिले का अधिकांश भाग एवं अजमेर जिले के पूर्वी एक तिहाई भाग में बोली जाती है। इसके पूर्व में मीना बोली, उत्तर में जयपुरी, उत्तर पश्चिम में अजमेरी, दक्षिण में हाड़ौती और मीना बोली, दक्षिणपश्चिम में मेवाड़ी बोली जाती है। यह बोली टोंक जिले में मुख्य रुप से बोली जाती है। दक्षिण में किसनगढ़ की सीमा के आसपास, लावा की डकुरात में तथा टोंक जिले के उस भाग में जो जयपुर के आसपास के भीतर बोली जाती है। इसके उत्तर में जयपुरी, उत्तरपश्चिम में ढूँढ़ाड़ी, पश्चिम में अजमेरी, उत्तरदक्षिण में मेवाड़ी, दक्षिण में हाडोती तथा पूर्वी भाग में मीना बोली जाती है।
नागरचाली स्वतंत्र भाषिक अभिलक्षणों से युक्त बोली है। राजस्थान के बोली भूगोल सर्वेक्षण की प्रमुख उपलब्धि है, सर्वेक्षण के आधार पर उक्त बोली के भाषिक क्षेत्रों का निर्धारण किया गया है। भविष्य में होने वाले शोधकार्यों द्वारा इसके अन्य भाषिक पक्षों को अध्ययनविश्लेषण हो सकेगा । अब तक यूरोपीय और भारतीय भाषविद् मोटे तौर पर हाड़ोती या जयपुरी समूह की बोलियों में ही समाहित करते आ रहे हैं जो कि तार्किक और भाषावैज्ञानिक दृष्टि से न तो तर्कसंगत है और न ही ऐतिहासिक।
मीना का शाब्दिक अर्थ है मीना या मत्स्य अर्थात् मीना समुदाय द्वारा बोली जाने वाली भाषा/बोली/ एक भाषा का नाम बोध कराने के लिए यह नाम इस दृष्टि से प्रकल्पित किया है, जिससे एक ओर हाड़ोती तथा दूसरी ओर जयपुरी और ढूँढ़ाड़ी से इसकी भिन्नता स्पष्ट जाहिर हो जाय। मीना * Mina Language : It is spoken in some part of Rajasthan and Madhya Pradesh राजस्थानी भाषा की एक प्रमुख उपभाषा (बोली) है जो कि मारवाड़ी के बाद राजस्थान में सर्वाधिक बोली जाती है। इसका भाषायी क्षेत्र पूर्वी राजस्थान के झालावाड़ जिले के खानपुर कस्बे से लेकर सुदूर उत्तरीपूर्वी राजस्थान के अलवरभरतपुर जिलों तक फैला हुआ है। चूंकि मीना आदिवासी राजस्थान की प्रमुख प्राचीन आदिवासियों में से एक हैं। अतः राजस्थान में बसने वाले आदिवासियों में मीना आदिवासी की जनसंख्या सर्वाधिक है। इस भाषा का प्रसार झालावाड़, कोटा, बारॉ जिले के कुछ भाग बूँदी, टोंक, सवाई माधोपुर, करौली, धौलपुर जिले का कुछ भाग, दौसा, अलवर, भरतपुर जिले का कुछ भाग तथा जयपुर जिलों में प्रमुख रूप से है।
  आलोच्य सर्वेक्षण के दौरान पाये गये भाषिक तत्वों के आधार पर पूर्वी राजस्थान सवाई माधोपुर करौली, भरतपुर के पश्चिमी भाग, टोंक के पूर्वी भाग, बूँदी, कोटा के एक तिहाई भाग, वारा के दो तिहाई भाग तथा झालावाड़ जिले इसके भाषायी क्षेत्र हैं। साथ ही, भीलगड़ा के जहाजपुर, कोहड़ी, मांडलगढ़, चित्तौड़गढ़ के मेनाल और बेगू में भी इसका एक अन्य रूप प्रचलन में हैं। इसके पूर्व में राजस्थानी ब्रज, उत्तर में मेवाती, उत्तर पश्चिम में तोरावाटी, पश्चिम में जयपुरी, दक्षिण पश्चिम में किशन गढ़ी और हाड़ोती दक्षिण में मालवी, दक्षिण पूर्व में बूँदेली और सहरी का भाषायी क्षेत्र है। विश्व की प्रमुख भाषाओं की पुस्तक एथनॉलोग(Ethnologue) में वर्णित सूची में मीना भाषा कोड1 (myi)के साथ 1971 की जनसंख्या के अनुसार इसके बोलने वालों की संख्या 900000, 1991 में 1900000 दर्शायी है और 2001 में 3800000 और 2011 में 5200000 मानी गयी है।  मीना भाषा प्राचीन काल से अपनी भाषिक विशिष्टताओं को धारण किये हुये हैं किंतु दुर्भाग्य से किसी भी भाषाविद या शोधार्थी ने इसकी विशिष्टताओं पर ध्यान नहीं दिया। कारण जो भी रहें हो, किंतु, विश्व की भाषाओं में मीना भाषा का नामोल्लेख भी मिलता है। मीना भाषा पर व्यापक शोधकार्य की जरूरत है जिससे इसके स्वरूप पर गहनता से प्रकाश डाला जा सके। सर्वे के दौरान क्षेत्रीय स्तर भेद भी परिलक्षित हुये है जिनमें झालावाड़ क्षेत्र की मीना बोली, सवाई माधोपुर क्षेत्र की मीना बोली, दौसा अलवर क्षेत्र की मीना बोली रूप प्रमुख रूप से मिलते हैं। इस आधार पर इसको दो भागों में बॉंटा जा सकता हैउत्तरी मीना बोली और दक्षिणी मीना बोली जिनमें वाचिक स्तर पर क्षेत्रीय भेद मिलते हैं ।
मीना बोली राजस्थान की प्रमुख आदिवासी मीना/मीणा समुदाय द्वारा बोली जाने वाली प्रमुख बोली है। मीणा समुदाय के अतिरिक्त अन्य समुदायों द्वारा भी इसे बोला जात है। मीना बोली के दो उपरूप मिलते हैं जिनमें उत्तरी मीना बोली और दक्षिणी मीना बोली प्रमुख है। मीना बोली को पूर्वधारणाओं के आधार पर हाड़ौती और ढूंढाड़ी बोलियों में शामिल किया गया था जो भाषातात्विक दृष्टिकोण से बिल्कुल गलत तथ्य है। तार्किक दृष्टि से भी यह तर्क संगत नहीं है कि राजस्थान के दक्षिणी छोर से लेकर उत्तरी छोर हजारों मील तक एक ही बोली का प्रभाव क्षेत्र हो । सर्वेक्षण में प्राप्त सामग्री के आधार पर किये गये भाषिक विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि मीना बोली स्वतंत्र भाषिक रूप धारण करने वाली बोली है। सर्वेक्षण की संप्राप्ति के आधार पर भविष्य में अनेक शोधकार्य प्रकाश में आ सकते हैं।
मेवाती स्वयं एक सीमास्थित उपभाषा है। वास्तव में वह हिंदी की उपभाषा ब्रज में अंतर्निहत होती हुई राजस्थानी का एक रूप है। भिन्नभिन्न अंचलों में इसके रूप में थोड़ाबहुत अंतर पाया जाता है। अलवर में इसके चार विभेद बतलाए जाते हैं, परिनिष्ठित मेवाती, राठी मेवाती, नहेड़ा मेवाती तथा कठेर मेवाती। कठेर मेवाती ही भरतपुर की मेवाती भी है। कठेर प्रदेश के अंतर्गत भरतपुर का पश्चिमोत्तर प्रदेश तथा उससे सटा अलवर के दक्षिणपूर्व का कुछ हिस्सा आ जाता है। कठेर मेवाती में ब्रजभाषा का मिश्रण है, यह अनुमान उसकी स्थिति से सहज ही लग सकता है। गुड़गाँव की मेवाती का भी वही स्वरूप है। नहेड़ा अलवर रियासत के दक्षिणपश्चिमी भाग में स्थित थानागाजी तहसील के पश्चिमी हिस्से का नाम है। राइ (बर्बर) प्रदेश चौहान राजपूतों का निवासस्थान है और पश्चिमोत्तर सीमा पर स्थित है। राठी मेवाती, जयपुर के कोटकासिम की एवं नाभा के बावल की मेवाती में अहीरवाटी का मिश्रण पाया जाता है। अलवर रियासत के बाकी के हिस्से में परिनिष्ठित (स्टैण्डर्ड) मेवाती बोली जाती है।
मेवाती प्राचीन मेवात प्रदेश की बोली है। मेवाती बोली का क्षेत्र केवल मेवात प्रदेश तक सीमित न होकर उसके आसपास के विभिन्न स्थानों तक फैला हुआ है। मेवाती में राजस्थान के उत्तरपूर्वी भूभाग तथा हरियाणा के पश्चिम भाग में प्रमुख रूप बोली जाती है। वर्तमान में राजस्थान के अलवर जिले की मालाखेड़ा, अलवर, तिजारा, किशनगढ़, लक्ष्मणगढ़ गोविंदगढ़ तहसीलों, भरतपुर जिले की नगर, डीग, कामा पहाड़ी तहसीलों की भाषा है। मेवाती राजस्थान के भाषिक परिवेश की दृष्टि से एक सीमांत बोली है जो मीना भाषा राजस्थानी ब्रज, तोरावाटी, शेखावाटी बोलियों से प्रभावित है। इसके दक्षिण में मीना भाषा/बोली, पूर्व में राजस्थानी ब्रज, पश्चिम में तोरावाटी आदि बोलियों का भाषिक क्षेत्र अगस्थित है। इस क्षेत्र का भाषा भौगोलिक अध्ययन महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि मेवाती समस्त मेवात की भाषा है जिससे तहसील गुड़गाँव का चौथाई भाग, तहसील रिवाड़ी का एक तिहाई भाग, तहसील बाबल का आधा भाग तहसील पटौदी का एक तिहाई भाग, तहसील नूह का दो तिहाई भाग, तहसील फिरोजपुर फिरका का संपूर्ण भाग, तथा जिला रोहतक की तहसील झज्जर का एक तिहाई भाग तथा उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले की कोसी और छाता तहसीलों तक फैला हुआ है। ये तथ्य व्यापक भाषायी सर्वे के माध्यम से ही प्रकाश में आ सकते हैं।
मेवाती राजस्थानी की एक प्रमुख बोली है जो प्राचीन मेवात प्रदेश की बोली है जिसमें प्रचुर मात्रा में साहित्य मिलता है। गुड़गाँव जिले के पश्चिम में नाभा रियासत का दक्षिणी भाग स्थित है। यहाँ भी अहीरवाटी बोली जाती है; केवल उसके उत्तर के प्रदेश में बाँगरू मिलती है। दक्षिणी नाभा के पश्चिम तथा दक्षिण में पश्चिमी अलवर से सटी हुई पटियाला का नारनौल निजामत है। नारनौल के उत्तर में जिन्द की दादरी निजामत तथा पश्चिम में जयपुर रियासत का शेखावाटी प्रदेश है। उसके दक्षिण में जयपुर का तोरावाटी प्रदेश स्थित है। जिन्दशासित प्रदेश दादरी में मुख्यता बागड़ी बोली जाती है। शेखावाटी में मारवाड़ी का एक रूप बोला जाता है; तोरावाटी में जयपुरी का एक रूप हैं; और अलवर में मेवाती और दक्षिणी नाभा में अहीरवाटी। पटियालाशासित नारनौल की भाषा भी अहीरवाटी है, स्वभावतः ही उसमें चारों ओर की बोलियों का काफी परिमाण में मिश्रण है। स्पष्ट है कि अहीरवाटी मेवाती एवं तीन अन्य बोलियोंबाँगरू, बागड़ी व शेखावाटी के बीच की संयोजनकड़ी है। फिर भी उसकी एक विशिष्टता खास दृष्टव्य है, जो जहाँ भी वह बोली जाती है, बराबर पाई जाती है; यह है उसकी मुख्य क्रिया का रूप। अन्य बातों में, प्रदेशानुसार, पड़ोस की बोलियों के प्रभाव से उसके कई भिन्नभिन्न स्थानीय रूप हुए मिलते हैं। फिर भी उसका हार्द सर्वत्र मेवाती ही है और उसे राजस्थानी की उपभाषा मेवाती का एक प्रकार मानना ही ठीक होगा।
अहीरवाटी को ‘हीरवाटीभी कहा जाता है। यह अहीर प्रदेश की भाषा है। भौगोलिक दृष्टि से इसका क्षेत्र हरियाणा के हिसार और झज्जर जिलों के पश्चिमोत्तर तथा राजस्थान में सिरसा से दक्षिण में नौहर, हिसार के पश्चिम में भादरा तथा नारनौल के उत्तरपूर्व में बागड़ी, पश्चिम में बीकानेरी, दक्षिणपश्चिम में शेखावाटी सुदूर दक्षिण में तोरावाटी और पूर्व मे बाँगरू भाषा। बोलियों का भाषायीक्षेत्र अभिव्याप्त है। अहीरवाटी बोली बाँगरू, बागड़ी और शेखावाटी बोलियों के बीच की महत्त्वपूर्ण कड़ी है। भाषा तात्विक दृष्टि से अहीरवाटी, अहीराणी के समभाषांश संबंध मिलते हैं। अहीरवाटी और मेवाती के व्याकरणों में नहींसा अन्तर है। अहीरवाटी, मेवाती तथा दिल्ली, रोहतक, पूर्व हिसार करनाल में बोली जाती पश्चिमी हिन्दी की बोली बाँगरू के बीच की कड़ी है। जैसा कि कहा जा चुका है, दक्षिण रोहतक एवं दिल्ली के डाबर प्रदेश की बोली वास्तविक अहीरवाटी है। अतएव कुछ अंशों में उसका बाँगरू से साम्य होना स्वाभाविक है। अहीरवाटी बोली स्वतंत्र भाषिक रूप धारण करने वाली बोली है जो इसके समीपवर्ती बोलियाँ के बीच भाषायी संक्रमण क्षेत्रों का निर्धारण भी करती है। इसकी अपनी भाषिक विशिष्टताएँ  हैं जिसमें साहित्य भी मिलता है।
राजस्थान में प्राचीन धौलपुर राज्य के हिस्सों को ब्रजभाषा का ही भाषिक क्षेत्र माना गया है, किंतु ब्रज और राजस्थान में बोली जाने वाली ब्रज में भाषातात्विक दृष्टि से वैशिष्ट्य विघमान है ।  राजस्थानी ब्रज बोली ब्रज भाषा का उपरूप है। पूर्वी राजस्थान के भरतपुर, धौलपुर और करौली जिले के कुछ भाग इसके भाषायी क्षेत्र हैं। इसके पूर्वी भाग में आगरामथुरा जिलों की समृद्ध ब्रज भाषा एवं बूंदेली का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। वही उत्तर में मेवाती और पश्चिमी मीना भाषा का वर्चस्व है। वस्तुतः राजस्थानी ब्रज बोली पर औपचारिणक दृष्टि से ब्रज भाषा का प्रभाव दिखायी पड़ता है किंतु व्याकरणिक संरचना की दृष्टि से यह राजस्थानी के भाषारूपों के अधिक निकट है। सर्वेक्षण के दौरान इसके कई क्षेत्रीय रूप भी सामने आये हैं जिन शोधकार्यों की महमी आवश्यकता है। राजस्थानी ब्रज बोली स्वतंत्र भाषिक रूप धारण करने वाली बोली है जो इसके समीपवर्ती बोलियाँ के बीच भाषायी संक्रमण क्षेत्रों का निर्धारण भी करती है। इसकी अपनी भाषिक विशिष्टताएँ हैं।
मेवाड़ी बोली स्वतंत्रता से पूर्व की मेवाड़ रियासत और आज के उदयपुर संभाग की (दक्षिणी जिलों को छोड़कर) बोली है, जिसका नामकरण प्रान्तीय आधार पर अन्य प्रान्तीय बोलियों से विभेद करने के लिए किया गया है। डॉ. नरेन्द्र व्यास के अनुसार यही बोली उदयपुर की मानक बोली के रूप में ग्रहण कर ली गयी है। भौगोलिक सीमा प्रदर्शित करने वाले मानचित्र को भी आगे दिया जा रहा है। ग्रियर्सन के अनुसार मेवाड़ी बोलने वालों की संख्या 1684864 थी और सन् 1961 की जनगणना के अनुसार यही संख्या 1964811 है। डॉ. व्यास ने अपने अध्ययन में मुख्यतः मेवाड़ी बोली का वर्णनात्मक विश्लेषण ही प्रस्तुत किया है। साथ ही बोलीभूगोल की दृष्टि से भी इस शोध में मानचित्र प्रस्तुत किये गये हैं। प्रबंध की योजना यघपि मेंवाड़ी बोली के पूर्ण और व्यवस्थित भाषाशास्त्रीय वर्णनात्मक विश्लेषण के लिए है, फिर भी इसमें वर्गीय वाक्स्वभागत भेदों का भी विवेचन प्रस्तुत किया गया है। नाभिक के रूप में केवल व्यक्तिबोली का ही समस्त व्यक्तिबोलियों के सर्वाच्छदी प्रतिमान के संदर्भ में विस्तृत अध्ययन किया गया है। विस्तृत अध्ययन इस अर्थ में है कि मेवाड़ी की संरचनात्मक व्यवस्था (रूप तथा वाक्य) दोनों सम्मिलित हैं। उपांतीय रूप में अनन्वित और वाग्धारा दोनों रूपों में उच्चरित ध्वनियों का ध्वानिकी के अनुसार भी वर्णन किया गया है।
मेवाड़ी स्वतंत्रता से पूर्व मेवाड़ी रियासत और आज के उदय पुर संभाग की (दक्षिणी जिलों को छोड़कर) बोली जाती है। इसके पूर्व में मीनाभाषा, उत्तर पूर्व में नागर चाळी, उत्तर में अजमेरी, मध्य उत्तर पश्चिम में मेरवाड़ी और मारवाड़ी, पश्चिम में सिरोही, दक्षिणपूर्व में गरासी और दक्षिण में भीली जाती है। उदयपुर की मेवाड़ी में पूर्वी मारवाड़ी की सभी बोलियों के खासखास लक्षण विघमान हैं। वास्तव में वह मारवाड़ी एवं जयुपरी का मिश्रण है। मेवाड़ी बोली स्वतंत्र भाषिक रूप धारण करने वाली बोली है जो इसके समीपवर्ती बोलियाँ के बीच भाषायी संक्रमण क्षेत्रों का निर्धारण भी करती है। इसकी अपनी भाषिक विशिष्टताएँ हैं।
नीमावाड़ प्रदेश में जो राजस्थानी की उपभाषा बोली जाती है, उसे नीमाड़ी कहते है। नीमावाड़ प्रदेश में (बुरहानपुर तहसील जो कि नर्बदा की घाटी में नहीं, ताप्ती की घाटी में स्थित है एवं भौगोलिक दृष्टि से खानदेश के मैदान का भाग है) मध्यप्रान्त का नीमाड़ जिला एवं उसके पड़ोस की मध्यभारत की भोपावाड़ रियासत का भाग शामिल है। नीमावाड़ में केवल नीमाड़ीभाषियों के चारों और भीली बोलने वाले इस प्रकार बसे हुए हैं कि वे नीमाड़ जिले के नीमाड़ीभाषियों से बिल्कुल पृथक् हो गये हैं। इस प्रकार नीमाड़ी बोलने वाले दो बिल्कुल अलगअलग हल्के बन गये हैं, पर दोनों जगह भाषा लगभग एक ही सी है। नीमाड़ी वास्तव में राजस्थानी की उपभाषा मालवी की एक बोली ही है; पर उसकी कुछ विशेषताएँ इतनी भिन्न हैं कि उसका अलग विवेचन करना ही युक्तिसंगत जँचता है। नीमाड़ी पर पड़ोस की गुजराती व भीली बोलियों के साथसाथ उसके दक्षिणस्थित खानदेशी का भी प्रभाव पड़ा है। गुजराज के निकटतर होने से भोपावाड़ की बोली पर नीमाड़ की बोली की अपेक्षा गुजरात का प्रभाव अधिक लक्षित होता है।
यह चित्तौड़गढ़ जिले के मसरागढ़, कुआ खेड़ा, झालावाड़ के रामगंज मंडी, पंच पहाड़, पगरिया, पिड़ावा, गंगाधार क्षेत्रों की बोली है। वस्तुतः यह राणा प्रताप सागर और गाँधी सागर के समीप वर्ती भागों की बोली है। मूलतः यह मालवी की उपबोली है जो प्राचीन मालवा रियासत को राजस्थान की अन्य रियासतों को जोड़ती थी। इसके उत्तरपूर्व में हाड़ौती तथा दक्षिण में मालवीबोली जाती है। यह राजस्थानी की सीमांत वर्ती बोली है।
‘भीलीभारत की एक प्रमुख आदिम जाति भीलों की भाषा है। भारत में ‘गौंड और संथालआदिम जातियों के बाद इसका स्थान है। भीलों की सघन आबादी मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान में है। भीली मूलतः औष्ट्रिकी भीली थी पर आज तो औष्ट्रिकीद्राविड़ीआर्याई भीली है। खानदेश, राजस्थान और मध्यप्रदेश की पर्वतश्रेणियों तथा गुजरात में सतपुड़ा से पश्चिम में समुद्र तक फैले भूखंड को ही भील देश माना जाता है। ग्रियर्सन के अनुसार ‘भीली बोलियोंके क्षेत्र को एक ऐसा असम त्रिभूज कहा जा सकता है जिसका शीर्ष अरावलीपर्वत श्रेणियों में तथा आधार खानदेश जिलों की दक्षिणपूर्वी सीमा में स्थित है। ‘भीलीको भाषाभूगोल की दृष्टि से दो भागों में विभाजित किया जा सकता है भीलदेशीय वे बोलियाँ जिनका प्रचलन भीलदेश की सीमाओं में होता है। भीलदेशेतरवे भीली बोलियाँ जो भीलदेश के बाहर के क्षेत्रों में बोली जाती हैं। भीली का संबंध एक ओर राजस्थानी से है तो दूसरी ओर गुजराती से, यही कारण है कि कुछ लोग इसको गुजराती की उपभाषा स्वीकार करते हैं तो अन्य राजस्थानी की, वस्तुतः यह दोनों के प्राचीन रूप से संबद्ध है।
अरावली पर्वतमाला जहाँ मारवाड़सिरोही को मेरवाड़ामेवाड़ से अलग करती है, वहाँ न्यार की बोली नामक एक भील बोली प्रचलित है। यह कुछ दूर तक सिरोही राज्य में कुछ दूर तक मेवाड़ राज्य में भी बोली जाती है। मारवाड़ राज्य में न्यार की बोली के पश्चिम वाले प्रदेश में सोजत, बाली एवं बेसूरी परगनों का पूर्वी हिस्सा आता है। इस अंचल को गोडवाड़ कहते हैं, तदनुसार यहाँ की बोली गोड़वाड़ी कहलाती है। यह एक ऐसी मिश्रित बोली है, जिसमें गुजरातीभीलीके बहुत से एवं मालवी के कुछ रूप मिलते हैं।
यह भील आदीवासी समुदाय की बोली है जो डूँगरपुर और बाँसवाड़ा जिलों में बोली जाती है। इसे बागड़ी भी कहा जाता है। किंतु आदीवासी भील समुदाय द्वारा प्रयुक्त किये जाने के आधार पर इसका नाम करण भीली ही उपयुक्त है, बागड़ी का नामकरण ग्रियर्सन ने वस्तुतः बागड़ क्षेत्र के आधार पर किया था जो कि तार्किक प्रतीत नहीं होता। ‘भीली में भाषाभूगोल की दृष्टि से अध्ययन की व्यापक गुंजाइश है। भीली बोली स्वतंत्र भाषिक रूप धारण करने वाली प्रमुख आदिवासी बोली है इसके पूर्व में गरासी और मालवी, उत्तर और उत्तरपश्चिम में मेवाडी इत्यादि बोलियाँ के बीच भाषायी संक्रमण क्षेत्रों का निर्धारण भी करती है। इसकी अपनी भाषिक विशिष्टताएँ हैं।
 हालांकि अब तक अधिकांश भाषाविदों ने अपने अध्ययन कार्यों से उपेक्षित ही रखा है । नागोरी को राजस्थानी की प्रमुख बोलियों में स्वतंत्र रुप से शामिल नहीं किया है। हालांकि अब तक अधिकांश भाषाविदों ने अपने अध्ययन कार्यों से उपेक्षित ही रखा है । नागोरी को राजस्थानी की प्रमुख बोलियों में स्वतंत्र रुप से शामिल नहीं किया है। नागोरी राजस्थानी की प्रमुख बोली है जो कि शेखावाटी ओर मारवाड़ी बोलियों को आपस में जोड़कर एक कड़ी का काम करती है। वस्तुतः नागोरी भाषा तात्विक दृष्टि से शंखावाटी और मारवाड़ी बोलियों से सर्वथा अलग है। उसकी विशिष्ट भाषिक विशेषताएँ विद्यमान हैं, हालांकि अब तक अधिकांश भाषाविदों ने अपने अध्ययन कार्यों से उपेक्षित ही रखा है। यह वर्तमान नागोर जिले और उसके आसपास बोली जाती है। इसका केंद्र डीडवाना के इर्दगिर्द का क्षेत्र है। यह प्रमुख रूप से मुस्लिम लुहार और राजपूतों की एक शाखा नागौरी राजपूतों की प्रमुख बोली है। साथ ही, माहेश्वरी लोग भी नागोरी भाषी हैं। यह मध्य राजस्थान को बोली है। इसके उत्तर में बीकानेरी, पूर्व मे अजमेरी, पूर्वोत्तर में शेखावाटी, तथा पश्चिम में मारवाड़ी बोली जाती है। यह मारवाड़ी के नजदीक है किंतु कई भाषागत विशेषताओं के कारण इसे अलग नाम देना ही उचित है। नागोरी बोली स्वतंत्र भाषिक रूप धारण करने वाली बोली है पूर्व में शेखावाटी और तोरावाटी, उत्तरपश्चिम में अजमेरी जयपुरी और मीना, उत्तर में शेखावाटी और तोरावाटी, उत्तरपश्चिम में अजमेरी इत्यादि बोलियाँ के बीच भाषायी संक्रमण क्षेत्रों का निर्धारण भी करती है। इसकी अपनी भाषिक विशिष्टताएँ हैं।
ढूँढाड़ी को ढूँढवाली, झॉड़साही ओर कॉईकूँई की बोली के वैकल्पिक नामों से भी जाना जाता है। यूरोपियन भाषाविद् मेकलिस्टर और अब्राहम ग्रिर्यसन ने जयपुर के आसपास की भाषा का वैज्ञानिक अध्ययन प्रस्तुत करने का प्रयास किया और समस्त क्षेत्र में बोली जानेवाली बोलियों को सम्मिलित करते हुये इनका सामूहिक नाम ‘जयपुरीरख दिया। किंतु राजस्थान के बोली भूगोल सर्वेक्षण के दौरान उपलब्ध सर्वेक्षित सामग्री के विश्लेषणों के उपरांत पाया कि ढूँढाडी और जयपुरी की भाषा विषयक विशिष्टताएँ अलगअलग हैं। अतः निर्णय लिया गया कि दोनों का गहन सर्वेक्षण किया जाये और इसी आधार पर दोनों के पृथकपृथक भाषायी क्षेत्र निर्धारित करके उनको विभिन्न भाषा मानचित्रों में अंकित किया, साथ ही उनकी भाषिक विशिष्टताओं के आधार पर प्रतिदर्श मानचित्रों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया। ‘विश्व की भाषाएँएचनॉलॉग ने भी इन दोनों को पृथकपृथक श्रेणियों में रखा है। पुस्तक में प्रकाशित मानचित्रों को परिशिष्ट में दर्शाया गया है।
ढूँढाडी के उत्तर में तोरावाटी, पूर्व में मीना, दक्षिण में जयपुरी, तथा उत्तरपश्चिम में शेखावाटी बोली जाती है। यह वस्तुतः ढूँढाड़ी का प्राचीन वैराठ नगर में बोली जाती है। जो महाभारत के समय मत्स्य प्रदेशके एक भाग की राजधानी थी, अब एक छोटा कस्बा है। यहाँ सम्राट अशोक के समय का एक शिलालेख भी अवस्थित है। ई.सन् 634 में यहाँ चीनी यात्री ह्वैनत्सांग आया था क्योंकि उस समय यहाँ बौद्धों के 8 प्राचीन मठ थे, जिन्हें बाद में महमूद गजनवी ने काफी नष्ट किया। उस दौरान मत्स्य प्रदेश के आदिवासी शासक ‘सुदाससे युद्ध किया था। मनु ने भी इस प्राचीन स्थल को ब्रह्माऋषि देश के अन्तर्गत माना था।
प्राचीन इतिहास और संस्कृति के केंद्र होने के कारण ढूँढाड़ी पर संस्कृत, पंजाबी, शेखावाटी, उर्दूफारसी का प्रभाव दिखायी पड़ता है। यही कारण है कि ढूँढाडी और जयपुरी में पर्याप्त भेद देखने को मिलते हैं। मैकलिस्टर ने राजस्थानी का जो अध्ययन किया उसमें ढूँढ़डी की सामग्री उन्हें उपलब्ध करवाने में ‘कर्नल टॉडके सहयोगियों में से विशेषरूप से ‘शेख अब्दुल बरकतऔर ‘मदारीलालका विशेष सहयोग रहा था। ढूँढ़ाड़ी चाकसू, हिंगोनिया, रूपारी, सांभरिया, तूँगा, पाटन, सिरोली, वस्सी के पूर्वीउत्तरी भाग, बैनाड़ा, धूला, आमेर के पूर्वी भाग, जमवारामगढ़, भानपुरा, धबी, ताला, रूंडाल, नायन के पूर्वी भाग, अमलोदा, शाहपुरा, भामरू, बैराठ, बैनाड़ा, आमेर के पूर्वी भाग, नायला, कुरुस, चौमू के पूर्वी भाग, आँधी, सैंथल, चंदगाजी, मनोहरपुरा, प्रागपुरा, पावटा, गोपालपुरा, तोडामीना, अचरोल, अमरसर, राडावास, नवलपुरा, अंतोला, बैराड, लम्मीरपुर, झीरी, थाना गाजी के पश्चिम इत्यादि भागों में बोली जाती है। ढूँढाड़ी बोली स्वतंत्र भाषिक रूप धारण करने वाली बोली है पूर्व में जयपुरी और मीना, उत्तर में शेखावाटी और तोरावाटी, उत्तरपश्चिम में अजमेरी इत्यादि बोलियाँ के बीच भाषायी संक्रमण क्षेत्रों का निर्धारण भी करती है। इसकी अपनी भाषिक विशिष्टताएँ हैं।
ग्रियर्सन द्वारा आबू क्षेत्र के आदिवासियों की समृद्ध भाषा / बोलियों की घालमेल करके यादृच्छिक रूप से मारवाड़ी और मेवाड़ी में समाहित मान लिया, यह भी कतई तार्किक नहीं है। यह गरासिया आदीवासी (जनजातीय) की बोली है जो कि राजस्थान के वर्तमान प्रतापगढ़ जिले में बोली जाती है। इसके उत्तर में मेवाड़ी, दक्षिणपश्चिम में भीली और पूर्व में मालवी बोली जाती है। गरासी बोली स्वतंत्र भाषिक रूप धारण करने वाली आदिवासी बोली है पूर्व में मालवी, उत्तर में मेरवाडी, दक्षिणपश्चिम में भीली इत्यादि बोलियाँ के बीच भाषायी संक्रमण क्षेत्रों का निर्धारण भी करती है। इसकी अपनी भाषिक विशिष्टताएँ हैं।
ढाट का शाब्दिक अर्थ रेगिस्तान होता है। विशेषकर नामकरण का प्रयोग सिन्ध के थरपारकर जिलों तथा उनसे सटे हुए जैसलमेर के भाग में फैले हुए रेगिस्तानी हिस्से के लिए होता है। स्थानीय अधिकृत सूत्रों के अनुसार इसमें नीचे लिखे शहर आ जाते हैं। थरपारकर में ; उमरकोट, छोड़, गढड़ा, मिट्टी, रगदार, चाचड़ा, जैसिंहदार, चेलार, पारणो, नौरसर, गुंदडा। जैसलमेर में ; मायाजलार, सखभा परगनास्थित खूड़ी। थरपारकर जिला तीन हिस्सों में विभाजित होता है ; 1— जिले के उत्तर पश्चिम एवं मध्यपश्चिम में स्थित पूर्वी नारा का मैदान जिसे पाट कहते हैं, 2— दक्षिणपूर्व में स्थित पारकर, 3—थार या रेगिस्तान जिसे ढाट भी कहते हैं। पाट की भाषा सिन्धी है। पारकर प्रदेश की भाषा भी सिंधी है; केवल उसके सुदूर दक्षिण में गुजराती बोली जाती है। थरपारकर के पूर्व में मारवाड़ राज्य का मल्लाणी प्रदेश स्थित है। यहाँ की मुख्य भाषा तो मारवाड़ी ही हैं, पर सिन्ध से मिली हुई सीमा के थोड़े से प्रदेश में बोली जाती भाषा को ‘सिंधीबताया जाता है। इसके कोई नमूने नहीं मिले, परन्तु हम इसे मारवाड़ीसिन्धी का एक ऐसा मिश्रण मान लें, जिसमें सिंधी का परिमाण अधिक है, तो कोई आपत्ति न होगी। इस प्रदेश के उत्तरपूर्व की बोली तो दोनों बोलियों का मिश्रण मानी गई हैं। मल्लाणी के उत्तर जैसलमेर की सीमा तक की बोली को मारवाड़ राज्य के अधिकारी थळीसिंधी का मिश्रण बताते हैं। वास्तव में यह प्रदेश ढाट का ही थोड़ा आगे का प्रसार माना जा सकता है और यहाँ की बोली और ढाटकी में कोई अंतर दृष्टिगोचर नहीं होता।  
ढाट की बोली ढाटकीथळी का एक ऐसा प्रकार मात्र है जिसमें सिन्धी का मिश्रण अपेक्षाकृत कुछ अधिक है। मिश्रित बोली होने के कारण इसका स्वरूप विभिन्न अंचलों में थोड़ाथोड़ा परिवर्तित मिलता है, जो स्वाभाविक अधिक दृष्टिगोचर होता है। संक्षेप में, दक्षिणपश्चिमी मारवाड़मल्लाणी में तथा जैसलमेर के ढाट क्षेत्र में स्टैण्डर्ड मारवाड़ी एवं थळी के साथ सिन्धी का न्यूनाधिक परिमाण में मिश्रण होने से अनेक मिश्रित बोलियाँ पाई जाती हैं। इनका अलगअलग विवेचन करना आवश्यक होगा। ढ़ाटकी, ढ़ाट का शाब्दिक अर्थ रेगिस्तान होता है। इसे डटकी के नाम से अभिहित किया जाता है। यह जैसलमेर जिले के पूर्वोत्तर भाग में किशनगढ़, रनाऊ, तनोट, लोंगवाला, घोटारू, कोटवाला, जानियाँ, शाहगढ़, बाबूंवाली, बिलोई, बिछिया, खारा, तथा भोण क्षेत्रों में बोली जाती है। इसके पूर्व में थळी, दक्षिण में जैसलमेरी, दक्षिण पूर्व में गुजराती बोली जाती है। चूँकि यह सीमांत बोली है जोकि राजस्थान और पाकिस्तान के हिस्सों में बोली जाती है। इस पर सिंधी का प्रभाव भी व्यापक रूप से माना जा सकता है। ढाटकी बोली स्वतंत्र भाषिक रूप धारण करने वाली बोली है जो भारत और पाकिस्तान के बीच भाषायी संक्रमण क्षेत्रों का निर्धारण भी करती है। इसकी अपनी भाषिक विशिष्टताएँ हैं।
बागड़ी बोली भीली एवं गुजराती के मध्य सेतु रूप में है। भीली के साथ सम्बन्ध रखती हुई भी एक स्वतंत्र बोली है। जिस प्रदेश में यह बोली बोली जाती है उस प्रदेश में पालों में पलवाड़ीभीली बोली जाती है और पालेतर विभागों में बागड़ी व्याप्त है। पूर्व सीमावर्ती ‘कटारानामक प्रान्तविभाग में तो स्पष्ट रूप से ‘कटारी भीलीजाती है। कुछ मिश्रित बोलियाँ भी बन गयी हैं, जैसे सीमावर्ती छप्पन की बोली पर मेवाड़ी, मालवी तथा गुजराती का प्रभाव है। फिर भी डूँगरपुर और बाँसवाड़ा के समस्त जिलों तथा मेवाड़ के खड़ग और नीचली भोभट तथा चूँडा के कुछ भाग कल्याणपुरा आदि के निवासी बागड़ी ही बोलते हैं। मेवाड़ के दक्षिण भाग के निवासी बागड़ी के मिश्रण से मेवाड़ी, प्रतापगढ़, सैलाना और रतलाम के पश्चिमी भागों तथा झाबुआ के उत्तरी भाग के निवासी बागड़ी के मिश्रण से मालवी तथा झालोद, कडाणा और लूनावाड़ा के उत्तरी भागों तथा मोडासा, ईडर के पूर्व भागों तथा घोड़ादार के निवासी बागड़ी के मिश्रण से गुजराती भाषा बोलते हैं।
बागड़ी बोली का क्षेत्र गंगानगर और हनुमान गढ़ जिलों में फैला हुआ है जो गंगा नगर जिले के अनूपगढ़विजय नगर से आरंभ होकर हिमालय की तलहटी हिंदूमल कोट तक इसका प्रभाव व्याप्त है। इसके दक्षिणपश्चिम में मरूबोली, दक्षिण में बीकानेरी, पूर्व में  तोरावटी और उत्तरपूर्व में मेवाती का व्यापक प्रभाव है। सिरसा, टी.वी. उगरिया में मेवाती और बागड़ी का संक्रमणक्षेत्र आपस में सुगुंफित है जिसकों अलगाना काफी कठिन काम है। किंतु, भाषा तात्विक दृष्टि से दोनों के बीच अंतर मिलता है। बागड़ी बोली स्वतंत्र भाषिक रूप धारण करने वाली बोली है जो भारत और पाकिस्तान के बीच भाषायी संक्रमण क्षेत्रों का निर्धारण भी करती है। इसकी अपनी भाषिक विशिष्टताएँ हैं।
तोरावाटी राज्य के उत्तर का पर्वतीय प्रदेश दिल्ली के तोमर या तुअर राजपुतों का प्राचीन निवासस्थान होने के कारण तोरावाटी कहलाता है। इसके पूर्व में अलवर है जहाँ की मुख्य भाषा मेवाती है। उत्तर में पटियाला स्टेट का एक भाग है जहाँ की भाषा शेखावाटी है। तोरावाटी के भाषियों की संख्या 3,42,554 के लगभग अनुमान की जाती है। स्वभावतः तोरावाटी का जयपुरी से भिन्न होना उसके शेखावाटी एवं मेवाती के साथ मिश्रण पर निर्भर है। वास्तव में यह जयपुरी का वह रूप है जो धीरेधीरे शेखावाटी और मेवाती में अंतर्भुत्त हो जाता है। यह विशिष्टता बहुत पुराने काल से कम से कम 12वीं शती लगभग से, भाषा में चली आती है। तोरावाटी 12वीं सदी से तंवरावटी और तोरावटी क्षेत्र की भाषा/बोली है। एक अनुमान के अनुसार 380 गाँवों में बोली जाने वाली तोरावाटी बोली 3000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैली हुयी है। प्राचीन विराटनगर आधुनिक बैराइ क्षेत्र के पश्चिम में नीम का थाना और पूर्व में कोटपूतली के बीच का भाग इसका केंद्रीय बिंदू माना जा सकता है। इसके पूर्व में मेवाती दक्षिण पूर्व में मीना बोली, दक्षिण में जयपुरी पश्चिम में शेखावाटी, उत्तर में अहीरवाटी का भाषायी क्षेत्र अवस्थित है। वर्तमान शाहपुरी के उत्तर से लेकर नारनौल दक्षिण में तथा बानसूर के पश्चिम और उदयपुर वाली के पूर्व के बीच इसका भाषिक क्षेत्र अभिव्याप्त है। जयपुर राज्य के उत्तर का पर्वतीय प्रदेश दिल्ली के तोमर या तुअर राजपूतों का प्राचीन निवास स्थान होने के कारण तोरावाटी कहलाता है। इसके पूर्व में अलवर है जहाँ की मुख्य भाषा मेवाती है। उत्तर की भाषा शेखावाटी है। स्वभावतः तोरावाटी का जयपुरी से भिन्न होना उसके शेखावाटी एवं मेवाती के साथ मिश्रण पर निर्भर है। वास्तव में यह जयुपरी का वह रूप है जो धीरेधीरे शेखावाटी और मेवाती में समावेशित हो जाता है। तोरावाटी के भाषियों की संख्या 8,00,000 है।
अजमेर जिले की पूर्वी एवं उत्तरी सीमाओं पर किशनगढ़ रियासत हैं। यहाँ की भाषा किशनगढ़ी है जो जयपुरी का एक प्रकार है। इसका विवेचन किया जा चुका है। पश्चिमी सीमा पर मारवाड़ है जहाँ की भाषा मारवाड़ी है; दक्षिण में मेवाड़ है जहाँ मेवाड़ी प्रचलित है। अजमेर में यह तीनों बोलियाँ मिलती हैं। सुदूर उत्तरपूर्व में जहाँ अजमेर का इलाका किशनगढ़ के भीतर तक चला जाता है, किशनगढ़ी बोली जाती है जिसे स्थानीय लोग ढूँढाड़ी कहते हैं। यह जयपुरी का एक नाम है। जिले के पश्चिमी हिस्से की भाषा के मारवाड़ी का एक रूप है और दक्षिण में मेवाड़ी का एक प्रकार। पूर्वी भाग के मध्य में एक मिश्रित बोली मिलती है जो साधारण जयपुरी से बहुत थोड़ी सी भिन्न है। इसे अजमेरी कहते हैं। अजमेर शहर में मुसलमान साधारण हिन्दुस्तानी बोलते हैं। अजमेर जिले की पूर्वी एवं उत्तरी सीमाओं पर किशनगढ़ रियासत है। यहाँ की भाषा किशनगढ़ी है जो जयपुरी का एक प्रकार है। इसका विवेचन किया जा चुका है। पश्चिमी सीमा पर मारवाड़ है जहाँ की भाषा मारवाड़ी है; दक्षिण में मेवाड़ है जहाँ मेवाड़ी प्रचलित है। अजमेर में यह तीनों बोलियाँ मिलती हैं। सुदूर उत्तरपूर्व में जहाँ अजमेर का इलाका किशनगढ़ के भीतर तक चला जाता है, किशनगढ़ी बोली जाती है जिसे स्थानीय लोग ढूँढाड़ा कहते हैं। यह जयपुरी का एक नाम है। जिले के पश्चिमी हिस्से की भाषा के मारवाड़ी का एक रूप है और दक्षिण में मेवाड़ी का एक प्रकार। पूर्वी भाग के मध्य में एक मिश्रित बोली मिलती है जो साधारण जयपुरी से बहुत थोड़ी सी भिन्न है। इसे अजमेरी कहते हैं। अजमेर शहर में मुसलमान साधारण हिन्दुस्तानी बोलते हैं।
अजमेरी का केंद्रीय बिंदु किसनगढ़ है। इसके ठीक पूर्व में जयपुरी की काठैड़ा और चौरासी बोलियों वाला प्रदेश है। किशनगढ़ में तथा अजमेर के उत्तरपूर्वी उस भाग में जो किशनगढ़ के भीतर तक चला गया है, उनसे बहुत कुछ मिलताजुलता जयपुरी का एक रूप बोला जाता है। किशनगढ़ में इसे किशनगढ़ी कहते हैं। उत्तर में जहाँ किानगढ़ की सीमा मारवाड़ से मिलती है वहाँ मारवाड़ी, और दक्षिण में जहाँ सीमा मेवाड़ से मिलती है वहाँ मेवाड़ी के रूपमें बोले जाते हैं। सांभर झील के दक्षिण किशनगढ़ रियासत के उत्तरपूर्व में स्थित जयपुर के प्रदेश की बोली काठेड़ा कहलाती है। इसके भाषियों की संख्या अन्दाजन 1,27,957 गिनी जाती है। अजमेरी दरअसल में स्टैंडर्ड जयपुरी का ही बहुत थोड़ेहेरफेर वाला एक रूप है। अजमेरी का भाषायीक्षेत्र जिला अजमेर नागौरजिले के पूर्वी भाग का दो तिहाई और पाली और जोधपुर के कुछ भाग में बोली जाती है।  इसके पूर्व में जयपुरी, उत्तर में शेखावाटी, उत्तरपश्चिम में नागौरी, दक्षिणपश्चिम में मारवाड़ी दक्षिण में मारवाड़ी, दक्षिणपूर्व में नागर चाळी और दक्षिण में मेवाड़ी बोली जाती है। अजमेरी वस्तुतः जयपुरी मेवाड़ी और मारवाड़ी का मिलनबिंदु से विकसित बोली कही जा सकती है। किशनगढ़ी अजमेरी की ही एक शैली या क्षेत्रीय रूप है। अजमेरी बोली स्वतंत्र भाषिक रूप धारण करने वाली बोली है पूर्व में जयपुरी, उत्तर में शेखावाटी, उत्तरपश्चिम में नागौरी, दक्षिणपश्चिम में मारवाड़ी दक्षिण में मारवाड़ी, दक्षिणपूर्व में नागर चाळी और दक्षिण में मेवाड़ी इत्यादि बोलियाँ के बीच भाषायी संक्रमण क्षेत्रों का निर्धारण भी करती है। इसकी अपनी भाषिक विशिष्टताएँ हैं।
बीकानेरी एवं शेखावाटी दोनों एक ही भाषा हैं। वास्तव में वे मारवाड़ी का ही ऐसा रूप हैं, जिसमें ज्योंज्यों पूर्व की ओर बढ़ते जाते हैं त्योंत्यों जयपुरी का मिश्रण बढ़ता चला जाता है। बीकानेरीशेखावाटी समूह के साथ बागड़ी को ओर चली गई हैं। इस  शृंखला के पूर्व का प्रदेश ढूंढाड़ एवं पश्चिम की ओर का प्रदेश बागड़ कहलाता है। वैसे तो किसी समय में ढूंढाड़ नाम राजस्थान के एक बहुत बड़े प्रदेश का घोतक था। बागड़ साधारणतया उस रेतीले क्षेत्र को कहा जाता है, जहाँ पानी बहुत गहराई के नीचे मिलता हो। इस बागड़ में शेखावाटी का तो पूरा प्रदेश आ ही जाता है, उसके अतिरित्त पश्चिमोत्तर की ओर बहुत दूर तक बागड़ का फैलाव है। शेखावाटी के बाहरवाला यह बागड़ का हिस्सा ही बागड़ी बोली का वास्तविक घर है। शेखावाटी व निकटस्थ अन्य भाग की भाषा बागड़ी की बहुत नजदीक की सम्बन्धिनी होने पर भी बागड़ी के अंतर्गत नहीं आ सकती। अतएव शेखावाटी का विवेचन पृथक् से हम कर ही चुके हैं। बागड़ नाम किंचित् परिवर्तित रूप में बांगर भी मिलता है। पश्चिमी हिन्दी की बोली बांगरू का नामकरण इसी पर आश्रित है। बांगरू मुख्यतया पूर्वी हिसार, दिल्ली एवं करनाल जिलों में बोली जाती है। इस बोली का स्वरूप बागड़ी से बिल्कुल भिन्न है। बागड़ी राजस्थानी बोली है। अन्य बोलियों के साथ सीमास्थित बागड़ी के उत्तर में पंजाबी, पूर्व में बांगरू, दक्षिणपूर्व में अहीरवाटी उपसमूह का क्षेत्र है। यह मारवाड़ी का पंजाबी में मारवाड़ी के बीकानेरीशेखावाटी उपसमूह का क्षेत्र है। यह मारवाड़ी का पंजाबी में अन्तर्भुत्त होता हुआ रूप है। अतएव इसमें इन दोनों भाषाओं का प्रभाव दृष्टिगोचर होना स्वाभाविक है, पर इसकी रीढ़ और ढाँचा मारवाड़ी का ही है। बीकानेरी को मारवाड़ी से भिन्न बोलीरूप में स्वतंत्र अस्तित्व सर्वप्रथम पाश्चातय विद्वान केरी मार्शयेन एवं वार्ड ने स्वीकारा। इन्होंने सन् 1816 में भारतीय आर्य भाषाओं से संबंधी एक रिपोटे में 33 भाषाओं की छः बोलियों के नमूने दिये जिनमें बीकानेरी भी शामिल की गयी। इन्हीं विद्वानों ने 19वीं सदी के प्रथम चरण में बाइबिल के दूसरे खंड ‘न्यू टेस्टामेंटका बीकानेरी में अनुवाद किया।
बीकानेरी बोली से अभिप्राय प्राचीन बीकानेर राज्य में बोली जाने वाली भाषा या बोली लिया जाता है।  वस्तुतः बीकानेरी महाभारत कालीन ‘जांगलनामक्षेत्र की भाषा है जो जोधपुर के उत्तरी भाग अवस्थित था। वर्तमान ‘बीकानेरी बोलीके उत्तरी भाग में बागड़ी, उत्तरपूर्व में मेवाती, पूर्व में शेखावाटी, दक्षिण मे नागोरी, पश्चिम में मारवाड़ी, उत्तरपश्चिम में थळी और मरूबोली इत्यादि बोली जाती है। बीकानेरी का मारवाड़ी से भिन्न बोलीरूप में स्वतंत्र अस्तित्व है। बीकानेरी बोली स्वतंत्र भाषिक रूप धारण करने वाली बोली है ‘बीकानेरी बोलीके उत्तरी भाग में बागड़ी, उत्तरपूर्व में मेवाती, पूर्व में शेखावाटी, दक्षिण मे नागोरी, पश्चिम में मारवाड़ी, उत्तरपश्चिम में थळी और मरूबोली इत्यादि बोलियाँ के बीच भाषायी संक्रमण क्षेत्रों का निर्धारण भी करती है। इसकी अपनी भाषिक विशिष्टताएँ हैं। बीकानेरी का मारवाड़ी से भिन्न बोलीरूप में स्वतंत्र अस्तित्व है। इसमें शोध की व्यापक संभावनाएं है, आशा है भविष्य में इसको आधार बनाकर महत्वपूर्ण शोधकार्य होंगे।
सिरायकी हिंदू और मुस्लिम दोनों भाषायी समुदायों की भाषा है, किंतु, हिंदू सिरायकी को देवनागरी लिपि में लिखते हैं जबकि मुस्लिम परसियन लिपि में। भाषाविज्ञानियों ने सिरायकी के लिए लँहदा और मुल्तानी दो भेद किये हैं। राजस्थान में बोली जाने वाली सिरायकी लँहदा का ही प्रतिरूप है। लँहदा का शाब्दिक अर्थ होता है ‘उतरता हुआअर्थात् पश्चिम; जहाँ सूरज डूबता है। भौगोलिक क्षेत्र की दृष्टि से सिंध नदी के दोनों ओर के जिलों की भाषा सिरायकी है। भाषा तात्विक दृष्टि से भाषा वैज्ञानिकों के जिलों की भाषा सिरायकी है। भाषा तात्विक दृष्टि से भाषावैज्ञानिकों ने सिरायकी को आर्य भाषाओं के अंतर्गत स्थान दिया है। मुलतान की मिट्टी की खुशबू तथा लोक जीवन की खनक अपने पूरे यौवन के साथ इस साहित्य में मचलतीइठलाती है। जरूरत है गंभीर शोधकार्यों की ताकि अनुसंधान की कसौटी पर सिरायकी भाषा और साहित्य अपने पूरे दमखम के साथ अन्य भारतीय भाषाओं और बोलियों के साहित्य के समक्ष और भी अधिक मजबूती के साथ ताल ठोकेगा इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। इसके लिए प्रयत्न होने चाहिए अन्यथा सिरायकी भाषा और उसका लोक साहित्य काल के गर्भ में समा जाएगा। संदेश वाहक एवं पृथ्वीराज रासो में ढेरों शब्द सिरायकी के हैं जिनका वही अर्थ है जो सिरायकी में प्रयोग किया जाता है। सिंधुघाटी सभ्यता और मोहन जोदड़ोहड़प्पा संस्कृति की महक भी इसमें परिव्याप्त है।
सिरायकी वस्तुतः पाकिस्तान की प्रमुख बोलियों में शुमार है।  सिरायकी के दो भेद हैं पूर्वी सिरायकी और पश्चिमोत्तर सिरायकी। पूर्वी सिरायकी का भाषायी क्षेत्र भारत में पड़ता है तो इसका दूसरा रूप पाकिस्तान में। भारत में सिरायकी का प्रसार गुलाम अली वाला,बेरियावाला के उत्तरपश्चिम में बहुत कम क्षेत्र में हैं किंतु इसकी उपस्थिति से इनकार नहीं किया जा सकता है। इसके पूर्व में मरूवोली का प्रसार हैं वही दक्षिणपश्चिम मे लंहदा और पाकिस्तान की सिरायकी में पंजाबी का प्रभाव है। सिरायकी में वैसे तो राजस्थान की अन्य बोलियों उपभाषाओं के समान ही ध्वनिव्यवस्था है, किंतु, सर्वेक्षण में पाया कि इसमें सामान्य बोलचाल में ‘हका लोप हो जाता है तथा ‘दका उच्चारण ‘डके रूप में किया जाता है; यथा‘दादा > डाडव (Grandfather), दाल > डाल (Grain) साथ ही ‘रको ‘उउच्चारित किया जाता है, यथा, छप्पर >  छप्पड।
रूपमिक दृष्टि से सिरायकी अत्यंत समृद्ध है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता है कि इसकी एक प्रक्रिया में थोड़ा सा बदलाव करने से दूसरी क्रिया बन जाती है, यथामारण =मारना, से मरीजण = मारा जाना, लिखण से लिखीजण यह एक नियम है। इतना ही नहींसिरायकी में जाने के लिए एक क्रिया वज या व्रज है जो संस्कृत में ‘वज्रगतोजाने के अर्थ में प्रयोग होती है। इसी प्रकार ‘धिनका अर्थ है ‘लैलेना, संस्कृत में ‘गृहाणइसी अर्थ में प्रयोग होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि अंग्रेजी 'Gain' शब्द की व्युत्पत्ति के साथ गहरा नाता है। सिरायकी बोली स्वतंत्र भाषिक रूप धारण करने वाली बोली है जो भारत और पाकिस्तान के बीच भाषायी संक्रमण क्षेत्रों का निर्धारण भी करती है। इसकी अपनी भाषिक विशिष्टताएँ हैं।
जैन श्रुति  की विक्रम सवंत 1500 खतर गच्छा चार्य जिन भद्रसूरि के निर्देशानुसार व जैसलमेर के महारावल चाचग देव के समय गुजरात स्थित पारण से जैन ग्रंथों का बहुत बड़ा भंडार जैसलमेर दुर्ग में स्थानान्तरित किया गया था। एक अन्य जन श्रुति के अनुसार यह संग्रह चंद्रावलि नामक नगर पर मुस्लिम आक्रमण में पुर्णतः ध्वस्त होने पर सुरक्षित स्थान की तलाश में यहाँ लाया गया था। इस विशाल संग्रह की अनेक जैन मुनि, धर्मों चार्यों, श्रावकों एवं विदुषी साध्वियों खारा समयसमय पर अपनी उत्कृष्ट रचनाओं द्वारा समृद्ध किया गया। यहाँ रचित अधिकांश ग्रंथों पर तत्कालीन शासकों के नाम, वंश, समय आदि का वर्णन किया गया है। यहाँ रखे हुये कुल ग्रंथों की संख्या 2683 है, जिसमें 426 ताम्रपत्र लिखे गये हैं। यहाँ उपलब्ध प्राचीनतम ताम्रपत्र ग्रंथ विक्रम सवंत 1117 का है तथा हस्तनिर्मित कागज पर हस्तलिखित ग्रंथ विक्रम सवंत 1270 का है। इन ग्रंथों की भाषा प्राकृत, मागध, संस्कृत, अपभ्रंश तथा ब्रज है। यहाँ पर जैनग्रंथों के अलावा कुछ जैननर साहित्य की भी रचनाएँ उपलब्ध हैं, जिनमें काव्य, व्याकरण, नाटक, श्रंगार, सांख्य, मीमांशा, न्याय, विषशास्त्र, आयुर्वेद तथा योग इत्यादि कई विषयों पर उत्कृष्ट रचनाओं का प्रमुख स्थान है।
जैसलमेरी का भाषायीक्षेत्र जिला जैसलमेर व उसके कुछ समीपवर्ती भाग है।  इसके उत्तर पश्चिम में थळी और डाट को दक्षिण एवं उत्तरपूर्व में मारवाड़ी तथा पश्चिम में गुजराती की बोलियाँ बोली जाती हैं। जैसलमेरी का केंद्रीय बिंदु देवी कोट और चॉदण के बीच माना जा सकता है। जैसलमेरी को मारवा क्षेत्र की बोली के नाम से भी जाना जाता है। वस्तुतः जैसलमेर क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा थळी या थार के रेगिस्तान की भाषा है। इसका भाषायी स्वरूप अपने ही भाषायीक्षेत्र में विभिन्न स्थलों पर भिन्नभिन्न मिलता है। जैसेस्वरूपलखा, महाजलार के क्षेत्रों में मालानी घाट व अन्य बोलीरूपों का मिश्रण बोला जाता है। परगना, सम, सहागढ़ व घोटाख के दक्षिणपश्चिम में डाट की, मा व सिंधी बोलियों का मिश्रण बोलचाल की भाषा बोली हैं। नाचपा छायन, टाडणा आदि क्षेत्रों में सिंधी बोली के मिश्रण का प्राचुर्य हैं, वही लाडी, पोकरण तथा जोधपुर जिले के फलौदी के पश्चिम में घाट और या बोली का बाहुल्य है। जैसलमेरी बोली राजस्थानी की एकमात्र बोली है जिसमें आंशिक हावभाव (NON VERBAL BEHAVIOUR) की प्रचुरता मिलती हैं। मरु संस्कृति का प्रतीक जैसलमेर कला और साहित्य का केंद्र प्राचीनकाल से रहा है जिसने हमारी प्राचीन सांस्कृतिक धरोहर को सुरक्षित रखने में एक प्रहरी का कार्य किया है। जैसलमेरी बोली स्वतंत्र भाषिक रूप धारण करने वाली बोली है जो उत्तर पश्चिम में थळी और डाट को दक्षिण एवं उत्तरपूर्व में मारवाड़ी तथा पश्चिम में गुजराती की बोलियाँ के बीच भाषायी संक्रमण क्षेत्रों का निर्धारण भी करती है। इसकी अपनी भाषिक विशिष्टताएँ हैं।
मारवाड़ प्रदेश के पूर्वी हिस्से की भाषा स्टैण्डर्ड मारवाड़ी से थोड़ी भिन्न है। मारवाड़ के पूर्व में अनुक्रम से उत्तर से दक्षिण की ओर जयपुर, किशनगढ़, एवं अजमेरमेरवाड़ा स्थित हैं। अजमेरमेरवाड़ा के लगभग मध्य में उत्तर से दक्षिण की ओर फैली हुई अड़ावली पर्वतमाला को अजमेर में मारवाड़ी और जयपुरी, जिससे अजमेरी भी शामिल हैकी विभाजन रेखा मान सकते हैं। मेरवाड़ा जिले का दक्षिणी भाग अधिकांशतः पर्वतीय प्रदेश है। इसमें रहने वाले बहुसंख्यक भीली की भाषा को प्रादेशिक लोग ‘मगरा की बोलीकहते हैं। भील भाषा में मगरों पर्वत को कहते हैं। मेरवाडा़ के उत्तर में पर्वतमाला दो भागों में बंट जाती है और ब्यावर का परगना उनके बीच में आ जाता है। मेरवाड़ा के इस उत्तरी हिस्से में दो बोलियाँ प्रचलित हैं। पूर्व की ओर मेरवाड़ी जो निकटस्थ मेवाड़ की मेवाड़ीसी ही है, और पश्चिम की ओर मारवाड़ी। इन दोनों में नहीं कासा अन्तर है। जैसा कि आगे के विवेचन से स्पष्टतर हो जाएगा, मेवाड़ीजिससे मेरवाड़ी शामिल हैजयपुरी से किंचित् प्रभावित मारवाड़ी का ही एक पूर्वी रूप है। उसी प्रकार ब्यावर के पश्चिम की बोली पड़ोस की भील बोलियों की शब्दावली से कहींकहीं प्रभावित पूर्वी मारवाड़ी ही है। मारवाड़ एवं मेरवाड़ा के बीच की सीमा प्रदेशस्थित पहाड़ियों में भील लोगों की आबादी है। इनकी बोली को मारवाड़ में ‘गिरासियों की बोलीया ‘न्यार की बोलीकहा जाता है। मेरवाड़ा मारवाड़ एवं मेवाड़ के बीच का प्रदेश है।
राजस्थानी की यह मेर आदीवासी (जनजातीय) की बोली अजमेर (मेरवाड़ा) की व्याबर तहसील के दोतिहाई और पाली जिले की खारची, सोजत एवं रायपुर तहसील के एक तिहाई भाग तथा भीलगड़ा के उत्तरीपश्चिमी हिस्से देवगढ़ और भीम की भाषा है।  मुख्य रूप से भीम तहसील इसका केंद्रीय स्थल माना जा सकता है। लगभग 700 वर्गमील में फैली हुई यह बोली अरावली श्रैणी तथा पूर्वीपश्चिमी तलहटी तक जाती है। पुरानी व्याबर घाटी के चारों तरफ से अरावली की छोटी पहाड़ियों से घिरा हुआ मसूदा घाटा, शिवपुरा घाटा, भीम घाटा, डाटगढ़ घाटा, सेंदरा घाटा, चाँत्र घाटा आदि इसके भाषायीक्षेत्र है। इन दुर्गम घाटियों तथ समीपवर्ती पहाड़ियों पर ‘मेरजाति का निवास है। इस क्षेत्र की बोली पर व्यापक शोध कार्यों की महत्ती आवश्यकता है। थोड़ीथोड़ी दुर पर बोली के बदलते रूपों के कारणों का पता लगाया जा सके। इसके उत्तर में अजमेरी, पूर्व में मेवाड़ी, दक्षिण पश्चिम में मारवाड़ी बोलियों के भाषायी क्षेत्र है। ‘मेरवाड़ीबोली स्वतंत्र भाषिक रूप धारण करने वाली बोली है जो मेर आदिवासी द्वारा बोला जाता है और अपनी निकटवर्ती बोलियों के बीच भाषायी संक्रमण क्षेत्रों का निर्धारण भी करती है। इसकी अपनी भाषिक विशिष्टताएँ हैं।
सिरोही बोली सिरोही राज्य में एवं उससे लगे हुए मारवाड़ के जालोर परगने के कुछ भाग में बोली जाती है। आबू पर्वत सिरोही राज्य में ही है। इस पर रहने वाले जन आबू लोक कहलाते हैं। ये सिरोही का ही एक रूप बोलते हैं जिसे मैदान के राजपूत राठी कहते हैं। यह साधारण सिरोही से बहुत भिन्न नहीं है। फिर भी सिरोही की उपबोलियों का विवरण समाप्त करने के बाद हम इसका भी अलग संक्षिप्त विवेचन करेंगे। सिरोही राज्य के दक्षिणपश्चिम में सिरोही की एक और बोली मिलती है, जिसे साएठ की बोली कहते हैं। इसका भी विवेचन अलग से किया जायगा। राठी एवं साएठा की बोली समेत सिरोही बोली में गुजराती का प्रभाव बहुत अधिक है। नामरूप साधारणतया मारवाड़ी के अनुसार चलते हैं एवं सहायक क्रिया भी अशंतः मारवाड़ी की ही मिलती है। परन्तु मुख्य क्रिया के रूप विशुद्ध गुजराती के ही हैं। यह संपूर्ण सिरोही जिले एवं उदयपुर जिले के रणकपुर, बाली, फालना, साण्डेराव, देसूरी, परसराम और महादेव क्षेत्रें की बोली है। साथ ही जालौर जिले के जसवंतपुर, जावाल, आहोर क्षेत्रों में भी बोली जाती है। इसके पश्चिमोत्तर में मारवाड़ी, पूर्व में मेवाड़ी तथा दक्षिण में गुजराती व खानदेशी बोली जाती है। यह आबू पर्वत के इर्दगिर्द बोली जाने वाली आदिवासी बोली है जो कि ‘गारोआदिवासियों द्वारा बोली जाती है। यह मुख्यतः सिरोही और जालोर जिलों की बोली है। सिरोही बोली सिरोही राज्य में एवं उससे लगे हुए मारवाड़ के जालोर परगने के कुछ भाग में बोली जाती है। सिरोही बोली स्वतंत्र भाषिक रूप धारण करने वाली बोली है जो राजस्थान और गुजरात के बीच भाषायी संक्रमण क्षेत्रों का निर्धारण भी करती है।
इसकी अपनी भाषिक विशिष्टताएँ हैं। सिरोही राजस्थानी और गुजराती दोनों भाषाओं की विशेषताएँ धारण किये हुए है; यथानाम रूप साधारणतया मारवाड़ी के अनुरूप चलते हैं एवं सहायक क्रिया भी अंशतः मारवाड़ी की ही मिलती है किंतु मुख्य क्रिया के रूप में गुजराती से प्रभावित है। सिरोही ध्वनियों ब, ग का व्यवहार; मारवाड़ी का ळ जो सिन्धी में नहीं है, यहाँ नहीं मिलता। शरमु, विचारु इत्यादि के अन्त का उ भी विशेष द्रष्टव्य है। नाहर शब्द, छन्दानुसार नार का अर्थ राजस्थानी के अनुरूप सिंह न होकर, सिन्धी प्रयोगानुसार भेड़िया होता है। भील बोलियों, पश्चिमोत्तर प्रदेश की पिशाच बोलियों एवं सिन्धी समूह कसी बोलियों की तरह यहाँ भी भी दन्त्य ध्वनियों की जगह मूर्द्धन्यों का सा उच्चारण कई जगह पाया जाता है। यथादीजे की जगह डीजे, खेत की जगह खेट इत्यादि।
ग्रियर्सन द्वारा आदिवासियों की समृद्ध बोली सहरी को घालमेल करके याख्रच्छिक रूप से हाडोत़ी में समाहित मान लिया जो न तार्किक है और न ही न्यायप्रिय। सहरी राजस्थान को सहरिया आदीवासी (जनजाति) को अपनी भाषा है, जोंकि बारा जिले को रामगढ़ किशनगंज, शाहबाद तहसीलों में बोली जाती है। वस्तुतः पार्वती नदी के आसपास का क्षेत्र इसका केंद्र बिंदु माना जा सकता है। अब तक हुये शोध कार्यों में हाड़ोती को ही इस क्षेत्र को भाषा माना जाता था जो कि न तो ताकि व है और न ही भाषातात्विक दृष्टि से वैज्ञानिक। इसके तीन ओर ‘मीना भाषाबोली जाती है और एक तरफ बूँदेली बोली जाती है।
राजस्थान में ‘बाराजिले की चार तहसीलों; किशनगंज, शहबाद, अटरू, मांगरोल में सहरिया आदिवासी के लोग सघन रूप से निवास करते हैं। इस आदिम जाति को जंगलों में निवास करने के कारण सहरिया कहते हैं। ‘सहराफारसी में जगल को कहते हैं और सहरा (जंगल) पर निर्भर करने वाले लोगों को सहरिया कहा जाने लगा। विगत में इस पर अभी तक कोई भी शोधकार्य नहीं हुआ है, इसी सर्वेक्षण में पहली बार इसकी भाषिक विशेषताओं का अंकन किया गया है साथ ही सहरिया जन जाति की भाषा होने के कारण इसे ‘सहरीनाम दिया जा सकता है। अतः उनके द्वारा बोली जाने वाली भाषा को ‘सहरीकहते हैं। यहाँ यह उल्लेख करना अधिक समीचीन है कि ‘सहरीभाषा को ग्रिर्यसन जैसे सुविख्यात भाषाविद् ने भी उपेक्षित कर दिया और उन्होंने इनकी समृद्धशाली परम्पराओं और गौरवशाली संस्कृति को हाड़ोती भाषा का ही अंग मान लिया। राजस्थान के बोलीभूगोल सर्वेक्षण के समय मेरे निर्देशन में एक टीम ने उन क्षेत्रों के सर्वेक्षण के दौरान पाया कि ‘सहरीभाषा हड़ोती में किसी भी दृष्टि से शामिल नहीं की जा सकती है।
गहनता से सर्वेक्षण कार्य करने के उपरांत पाया कि सहरिया आदिवासी भारत की प्राचीनतम आदिवासियों में से एक महत्त्वपूर्ण आदिवासी समुदाय है। सहरिया आदिवासी भारत में राष्ट्रीय स्तरपर चर्चा में तब आयी जब 1977 के आसपास राजस्थान में विधान सभा में प्रतिपक्ष द्वारा सरकार पर आरोप लगाया कि सहरिया आदिवासी के लोग भूख से मर रहे हैं। तात्कालिक सरकार ने संवेदनशीलता का परिचय देते हुए स्वयं मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के नेतृत्व में एक कार्यदल सहरिया आदिवासी के लोगों के बीच गया और उच्चस्तरीय जाँच के दौरान पाया कि भूख से किसी की मौत नहीं हुई है, किंतु इस समुदाय के लोगों की आर्थिक स्थिति अत्यधिक कमजोर है। अशोक गहलोत ने मानवीय संवेदना का परिचय देते हुए निर्णय लिया कि वे तब तक यहाँ से प्रस्थान नहीं करेंगे जब तक की इनके पुनरुत्थान के लिए सार्थक और सटीक कार्ययोजना तैयार नहीं कर लेते और उन्होंने उनके बीच ही रहकर दीपावली जैसा धार्मिक त्यौहार मनाया। साथ ही, यह घटना अशोक गहलोत के लिए वाटरलू और सम्राट अशोक के कलिंगा युद्ध जैसी परिवर्तनकारी सिद्ध हुयी, उन्होंने अपनी सरकार द्वारा कई  नियमों में छूट देकर नरेगा अब मनरेगा योजना द्वारा संपूर्ण राजस्थान में गरीबों, पिछड़ों और असहाय बेरोजगारों कामगारों के लिए खाघान्न के भंडारों के द्वार खोल दिये।
सर्वेक्षण के दौरान पाया गया कि इसके भी कई क्षेत्रीय रूपांतर/ उपबोलियाँ हैं। सहरी की अपनी अनेक विशिष्टताएँ हैं जो अन्य बोलियों से व्यतिरेक (भेदक) होने के कारण उसे अपनी क्षेत्रीय सत्ता प्रदान करती हैं। इनमें से कुछ को मानचित्र में सामूहिकतासूचक चिह्नों द्वारा प्रदर्शित किया गया है। सहरी बोली स्वतंत्र भाषिक रूप धारण करने वाली बोली है जो राजस्थान और मध्यप्रदेश के बीच भाषायी संक्रमण क्षेत्रों का निर्धारण भी करती है। इसकी अपनी भाषिक विशिष्टताएँ हैं।
मारवाड़ राज्य में जो जोधपुर के उत्तर एवं पश्चिम की ओर एक बहुत बड़ा रेतीला मैदान है, इसे थल कहते हैं, थळ का अर्थ होता है रेतीलल मरुभूमि। इसका प्रसार उत्तर में बीकानेर, दक्षिण में मालाणी तथा पश्चिम में जैसलमेर एवं सिन्ध की सीमाओं के अन्दर तक चला गया है। बीकानेर के थळ की बोली का विवेचन आगे किया जायगा। उसे छोड़ बाकी के थळ की बोली को पश्चिमी मारवाड़ी का नाम दे सकते हैं। मारवाड़ी पश्चिमी सीमा से ही सिन्धी का प्रदेश शुरू हो जाता है, अतएव पश्चिमी मारवाड़ी में जहाँतहाँ सिंधी का न्यूनाधिाक परिमाण में मिश्रण पाया जाता है। उपादानों की दृष्टि से सर्वत्र भाषा में मारवाड़ी की ही प्रधानता पाई जाती है। जहाँ सिन्धी उपादान अधिकतम परिमाण में मिलते हैं, वहाँ भी उनका स्थान प्रधान न होकर गौण ही बना रहता है। पश्चिमी मारवाड़ी के दो विभाग हो सकते हैं ; खास थळी, एवं अन्य मिश्रित बोलियाँ। खास थळी उत्तरपश्चिमी मारवाड़ तथा पूर्वी जैसलमेर में बोली जाती है। पश्चिमी जैसलमेर में सिन्धी की एक बोली बोली जाती है, एवं उसके दक्षिणी हिस्से के मध्य भाग में एक मिश्रित बोली ढाटकी के बोलने वाले कुछ लोग पाये जाते हैं। थरेली सिन्धी एवं थळी के बीच की विभाजनरेखा जैसलमेर शहर से दस मील पश्चिम की ओर मानी जा सकती है। जैसलमेर के उत्तर में बहावलपुर रियासत है जहाँ की मुख्य भाषा लहँदा मानी जाती है।
थळी बोली को पश्चिमी मारवाड़ी नाम से भी जाना जाता है। बीकानेरी की दक्षिणपश्चिम सीमा पर बोली जाती है, जो कि एक प्रकार से बीकानेरी के दक्षिणपश्चिमी सीमा पर उसके भाषिक सीमानिर्धारण का कार्य करती है। इसके उत्तरपश्चिम में लहंदा बोली जाती है जो पाकिस्तान और भारत की सीमावर्ती इलाकों में बोली जाती है। एक तरीके से यह भारत और पाकिस्तान के बीच भाषायी संक्रमण क्षेत्रों का निर्धारण भी करती है। क्रम के बिलकुल पश्चिम में डट की बोली जाती है जिसका अधिकांश भाग पाकिस्तान और गुजरात में बोली जाती है। थळी बोली स्वतंत्र भाषिक रूप धारण करने वाली बोली है जो भारत और पाकिस्तान के बीच भाषायी संक्रमण क्षेत्रों का निर्धारण भी करती है। इसकी अपनी भाषिक विशिष्टताएँ हैं। ‘सके स्थान पर ‘हकी सामान्य उच्चारण प्रवृत्ति मिलती है; यथाहाढू = साढू, हाळी = साळी, हाळो = साळो आदि। साथ ही महाप्राण व्यंजन स्वरमध्यस्थिति में प्रायः अल्पप्रण हो जाते हैं; यथाभूको = भूखा, साती = साथी। ‘गा, गे, गीसंबंधकारक विभक्ति मिलती हैं; यथादो दन गी जिन्दगानी = दो दिन की जिंदगी। ‘गडाविभक्ति से भविष्यकालिक निश्चयार्थ रूप बनते हैं, ये लिंगवचन के अनुसार परिवर्तनशील हैं; यथाकरूँगा = करंगडा, चढाऊंगा = चढाइगंडा, जाऊॅंगी = ज्यावगंडी आदि।  थळी में सहायक क्रिया रूप ‘हैके स्थान पर ‘अेमिलते हैं, यथामोहन रसगुल्ला लाया है = मोहनिया रसगुल्ला ल्यायो अे ।  ‘कका तिर्यक बहुवचन रूप और परसर्ग ‘क्रँमिलते हैं। व्यक्तिवाचक सार्वनामिक परप्रत्यय ‘इयासामान्यत अपनी विशिष्टताओं के साथ प्रयुक्त होता हैसोहनिया = सोहन, लखनिया = लखन, स्यामिया = श्याम आदि।
राजस्थान का बोली-भूगोलविषय नितांत ही नवीन है। अभी तक ऐसे गूढ़ विषयों का अध्ययन भारतवर्ष में आरंभ नहीं हुआ है। रूपरेखा जिस ढंग से तैयार की गयी है वह एक अनूठा एवं मौलिक कार्य है जिसमें राजस्थान के बोली-भूगोल में उपलब्ध विशिष्ट अभिलक्षणों पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है। चूँकि बोली-भूगोल का शिक्षण की दृष्टि से भी व्यापक महत्त्व है। अतः अध्ययन में कई उद्देश्य भी समाहित हैं। पहल उद्देश्य तो यही है कि अध्ययन के आधार पर भाषा-शिक्षक, अनुवादक, कोशकार, वैयाकरण स्वयं अपने-अपने काम की सामग्री तैयार करने में सक्षम होंगे। दूसरा, अध्ययन के आधार पर प्रतिपादित सिद्धांतों के दवारा भाषा-शिक्षण सामग्री का निर्माण कर उसकी प्रविधि में सुधार लाना संभव हो सकेगा। तीसरा, भाषाशिक्षण में होने वाली कठिनाइयों के कारणों का सही-सही आंकलन किया जा सकेगा। चौथा, द्वितीय भाषा शिक्षण में आधार भाषा, लक्ष्य भाषा के सीखने में पैदा होने वाले व्याघातों के समुच्चय, तैयार करने में मदद मिलेगी। पांचवॉं, संपूर्ण देश के वैज्ञानिक भाषा सर्वेक्षण का द्वार खुलेगा इत्यादि।
यहाँ यह स्पष्ट करना अधिक समीचीन होगा कि भारत की पराधीनता के समय जार्ज ग्रिर्यसन ने भारत का भाषा सर्वेक्षणकरवाया था किंतु उसको वैज्ञानिक इसलिए नहीं कहा जा सकता कि ग्रिर्यसन महोदय ने सारा-का-सारा सर्वे तात्कालिक पटवारियों द्वारा तैयार रिपोर्ट के आधार पर करवाया था। इस वैज्ञानिक युग में पटवारियों की रिपोर्टों के आधार प किये गये भाषा सर्वेक्षण को उचित मानना ठीक नहीं होगा। इस सर्वे की कलाई उसी समय तब खुल चुकी थी,जब एल-पी- तेसीटरी ने राजस्थानी भाषा और व्याकरण नामक लेख में जो तथ्य प्रस्तुत किये वो चौंकाने वाले थे। स्वयं तेस्सीटरी ने सर्वे को लापरवाही एवं जल्दबाजी में तैयार किये दस्तावेज मात्र की संज्ञा दी थी। ऐसी स्थिति में तार्किकता की कसौटी में कसे सिद्धांतों के आधार पर राजस्थान का बोली-भूगोलज्ञान और अध्ययन के नये द्वार खोलेगा इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। राजस्थान की बोलियों के सर्वेक्षण के इस कार्य से अज्ञात पड़ी अनेकानेक बोलियाँ प्रकाश में लायी गयी हैं। इससे एक तरफ राजस्थानी भाषा अधिक समृद्ध होगी और राजस्थानी की समृद्धता से हिंदी और अधिक संपन्न होगी, यह सर्वेक्षणात्मक अध्ययन का सात्विक उद्देश्य है।

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