खरे
तालाबों की पवित्रता और गाँधी-मार्ग के
प्रहरी : अनुपम मिश्र
संपादकीय : प्रोफेसर डॉ.राम लखन मीना, प्रधान संपादक, भाषिकी
गांधीवादी और मशहूर
पर्यावरणविद, सुप्रसिद्ध लेखक, मूर्धन्य
संपादक, छायाकार अनुपम मिश्र अब हमारे बीच नहीं रहे। 19 दिसंबर 2016 की सुबह पांच बजकर चालीस मिनट पर एम्स
अस्पताल में उन्होंने आखिरी सांस ली। वे 68 साल के थे। उनका
जन्म महाराष्ट्र के वर्धा में सन् 1948 में सरला और भवानी
प्रसाद मिश्र के घर में हुआ। दिल्ली विश्वविद्यालय से 1968
में संस्कृत पढ़ने के बाद गाँधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली,
के प्रकाशन विभाग में सामाजिक काम और पर्यावरण पर लिखना शुरू किया।
तब से आज तक वही काम, वहीं पर। गाँधी मार्ग पत्रिका का
संपादन किया। अनेक लेख, और कई महत्वपूर्ण किताबें लिखी। जल
संरक्षण पर लिखी गई उनकी किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’
काफी चर्चित हुई और देशी-विदेशी कई भाषाओं में उसका अनुवाद हुआ। ‘आज भी खरे हैं तालाब’ को खूब प्यार मिला जिसकी दो
लाख से भी अधिक प्रतियां बिकी। अनुपम मिश्र पिछले सालभर से कैंसर से पीड़ित थे।
मिश्र के परिवार में उनकी पत्नी, एक बेटा, बड़े भाई और दो बहनें हैं। उनको इंदिरा गांधी राष्ट्रीय पर्यावरण पुरस्कार,
जमना लाल बजाज पुरस्कार सहित कई पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है।
अपने पिता भवानी
प्रसाद मिश्र के पदचिह्नों पर चलने वाले अनुपम जी की रचनाओं में गाँधीवाद की स्वच्छता, पावनता और नैतिकता का प्रभाव तथा उसकी झलक उनकी कविताओं में साफ देखी जा
सकती है। उनका अपना कोई घर नहीं था। वह गांधी शांति फाउंडेशन के परिसर में ही रहते
थे। उनके पिता भवानी प्रसाद मिश्र प्रख्यात कवि थे। वे गांधी शांति प्रतिष्ठान के
ट्रस्टी एवं राष्ट्रीय गांधी स्मारक निधि के उपाध्यक्ष थे। वे प्रतिष्ठान की
पत्रिका गाँधी मार्ग के संस्थापक और संपादक रहे और अंतिम साँस तक छोड़ा नहीं। उनकी अन्य चर्चित किताबों में ‘राजस्थान की रजत बूंदें’ और ‘हमारा
पर्यावरण’ है। ‘हमारा पर्यावरण’
देश में पर्यावरण पर लिखी गई एकमात्र किताब है। अनुपम मिश्र चंबल
घाटी में साल 1972 में जयप्रकाश नारायण के साथ डकैतों के
खात्मे वाले आंदोलन में भी सक्रिय रहे। डाकुओं के आत्मसमर्पण पर प्रभाष जोशी,
श्रवण गर्ग और अनुपम मिश्र द्वारा लिखी किताब ‘चंबल की बंदूके गांधी के चरणों में काफी चर्चित रही। पिछले कई महीनों से
वे कैंसर से जूझ रहे थे, लेकिन मृत्यु की छाया में समानांतर
चल रहा उनका जीवन पानी और पर्यावरण के लिए समर्पित ही रहा। पर्यावरण-संरक्षण के
प्रति जनचेतना जगाने और सरकारों का ध्यानाकर्षित करने की दिशा में वे तब से काम कर
रहे थे, जब देश में पर्यावरण रक्षा का कोई विभाग नहीं खुला
था। आरम्भ में बिना सरकारी मदद के उन्होंने देश और दुनिया के पर्यावरण की जिस तल्लीनता
और बारीकी से खोज-खबर ली है, वह कई सरकारों, विभागों और परियोजनाओं के लिए भी संभवतः संभव नहीं हो पाया है। उनकी कोशिश
से सूखाग्रस्त अलवर में जल संरक्षण का काम शुरू हुआ जिसे दुनिया ने देखा और सराहा।
सूख चुकी अरवरी नदी के पुनर्जीवन में उनकी कोशिश काबिले तारीफ रही है। इसी तरह
उत्तराखण्ड और राजस्थान के लापोड़िया में परंपरागत जल स्रोतों के पुनर्जीवन की दिशा
में उन्होंने अहम काम किया। गांधी शांति प्रतिष्ठान दिल्ली में उन्होंने पर्यावरण
कक्ष की स्थापना की। उन्होंने बाढ़ के पानी के प्रबंधन और तालाबों द्वारा उसके संरक्षण
की युक्ति के विकास का महत्त्वपूर्ण काम किया। वे 2001 में
दिल्ली में स्थापित सेंटर फार एनवायरमेंट एंड फूड सिक्योरिटी के संस्थापक सदस्यों
में से एक थे। चंडी प्रसाद भट्ट के साथ काम करते हुए उन्होंने उत्तराखंड के चिपको
आंदोलन में जंगलों को बचाने के लिये सहयोग किया था। वह जल-संरक्षक राजेन्द्र सिंह
की संस्था तरुण भारत संघ के लंबे समय तक अध्यक्ष भी रहे। शिक्षा की सृजनात्मकता के
महत्त्व को प्रतिपादित करने वाला ‘शिक्षा कितना सर्जन,
कितना विसर्जन’ आलेख अमित छाप छोड़ता
रहेगा वहीं ‘पुरखों
से संवाद’ जो कल तक हमारे बीच थे, वे
आज नहीं हैं, की यादें तरोताजा करेगा। बरसों से काल के ये
रूप पीढियों के मन में बसे- रचे हैं और रहेंगे। कल, आज और कल
दृ ये तीन छोटेदृछोटे शब्द कुछ लाख बरस का, लाख नहीं तो कुछ
हजार बरसों का इतिहास, वर्तमान और भविष्य अपने में बड़ी सरलता
एवं तरलता से समेटे हैं।
साहित्य अकादमी में
नेमिचंद स्मृति व्याख्यान पर दिया ‘दुनिया
का खेला’ भाषण अनुपम मिश्र के मिलन-संकोच और अपरिचय की दीवार को नयी ऊंचाईयों पर सदैव
रखेगा। ‘साध्य, साधन और साधना’ अगर साध्य ऊंचा हो और उसके पीछे साधना हो, तो सब
साधन जुट सकते हैं। ‘रावण सुनाए रामायण’ में अभिव्यक्त काव्ययुक्ति सनातन धर्म से भी पुराना एक और धर्म है,
वह है नदी धर्म गंगा को बचाने की कोशिश में लगे लोगों के लिए मिल का
पत्थर साबित होगा और पहले उन्हेंइस धर्म को मानना पड़ेगा। क्या हमारा धर्म नदी के
धर्म को फिर से समझ सकता है? ‘प्रलय का शिलालेख’ नदियों के तांडव को सदैव प्रस्थापित करता रहेगा। सन् 1977 में अनुपम मिश्र का लिखा एक यात्रा वृतांत, ‘जड़ें’
जड़ता की आधुनिकता को जड़ों की तरफ मुड़ने से पहले हमें अपनी जड़ता की
तरफ भी देखना होगा, झांकना होगा, झांकी
इतनी मोहक है कि इसका वजन ढोना भी हमें सरल लगने लगता है। बजाय इसे उतार फेंकने के,
हम इसे और ज्यादा लाद लेते हैं अपने ऊपर। ‘भाषा
और पर्यावरण’ में हमारी भाषिक नीरसता को अभिव्यक्त किया है
क्योंकि हमारा दिलो-दिमाग बदल रहा है।
राजस्थानी संस्कृति
से उनका विशेष लगाव रहा “ल्हास खेलने” का
भावार्थ स्वेच्छा से उत्सवपूर्वक सामूहिक श्रमदान करने की स्मृतियों को सदैव जीवंत
रखेगा। ‘आग लगने पर कुआं खोदना’ के
माध्यम से अकाल अकेले नहीं आता की संवेदनशीलता को कुशल चितेरे के रूप में उकेरा और
कहा कि अकाल से पहले अच्छे विचारोंय अच्छी योजनाएं, अच्छे
काम का अकाल पड़ने लगता है। अनुपम जी के बिना अब हमें बदलते मौसम की रवानी से कौन
सतर्क करेगा कि मौसम बदलता था तो हमारे दादा दादी हमको कहते थे मौसम बदल रहा है
थोड़ी सावधानी रखो, लेकिन आज जब धरती का मौसम बदल रहा है तो
ऐसे दादा दादी बचे नहीं जो हमें बता सके कि मौसम बदल रहा है, इसके लिए थोड़ी सावधानी रखो। उल्टे दुनिया के दादा लोग ही मौसम में हो रहे
इस बदलाव के लिए कारण हैं। ‘वे धरती के बुखार को लेकर हमेशा चिंतित रहे कि धरती का बुखार न बढ़े इसके
लिए तैयार रहने की जरूरत है। लेकिन जिस तरह की तैयारी दादा देश कर रहे हैं वह
पर्यावरण को होनेवाली क्षति को कम नहीं करेगा बल्कि उनको उपभोग का एक नया मौका
प्रदान कर देगा।’
इतना ही नहीं वे
मन्ना, यानी की भवाई भाई (भवानी प्रसाद मिश्र) के
मूल्यों की परछाई ही थे। भवानीप्रसाद की काव्यपंक्तियाँ ‘जिस
तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख, और इसके बाद भी हम से बड़ा
तू दिख।’ उनके लिए सदैव आधार वाक्य रही वे जैसा जीते थे,
वैसा ही लिखते थे और दूसरों को भी वही सीख देते थे। पिता का मन उनके
जीवन में उतर गया था। उनका पूरा जीवन जैसा
था, वैसा का वैसा उनके लिखे हुए में दिखता था। उन्होंने जीवन
भर अपने बाल अपने हाथ से काटे। पिता मन्ना ने ही बाल काटना सिखाया था। जीवन को कम
आवश्यकताओं के बीच परिभाषित करने वाले अनुपम जी ने कम के बीच ही जीवन को सदा
भरा-पूरा रखा। उनका जीवन कम के बीच अपार की कहानी था। उनमें अद्भुत साहस था,
ऐसा साहस केवल रेगिस्तानी इलाकों में रहने वाले और थके हुए जिंदगी
भर पानी की खोज में जुटे रहने वाले यात्रियों में ही ढूंढा जा सकता है।
समाजवादियों के साथ वे जुड़े थे पर सत्ता के समाजवाद को अपनी निष्कपट ईमानदारी के
नजदीक फटकने तक नहीं दिया। अनुपम जी का यूं चले जाना एक बहुत बड़ी क्षति इसलिए है
कि जिस गांधी मार्ग पर वे अपने स्नेहियों और शुभचिंतकों की जमात को साथ लेकर चल
रहे थे वह अब सूना हो जाएगा।
No comments:
Post a Comment