दलित-आदिवासी विरोधी, पीएम नरेन्द्र मोदी
प्रोफ़ेसर राम लखन मीना, डी. लिट् (मीडिया) पीएच-डी. (भाषाविज्ञान
भारत की जनगणना 1951 के अनुसार आदिवासियों की संख्या 1,91,11,498 थी जो 2001 की
जनगणना में 8,43,26,240 हो गई। यह
देश की जनसंख्या का 8.26 प्रतिशत है।
भारत में अनुसूचित जनजातियों से संबंधित कई प्रावधान हैं। मुख्यतः इन्हें दो
भागों में बांटा जा सकता है- सुरक्षा तथा विकास। अनुसूचित जनजातियों की सुरक्षा
संबंधी प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 15(4), 16(4), 19(5), 23, 29, 46,
164, 330, 332, 334, 335 व 338,
339(1), 371(क) (ख) व (ग), पांचवी सूची व छठी सूची में निहित हैं। अनुसूचित जनजातियों
के विकास से संबंधित प्रावधान मुख्य रूप से अनुच्छेद 275(1) प्रथम उपबंध तथा 339 (2) में निहित हैं। देश के तमाम आदिवासी संगठन खुद लंबे समय से
अलग धर्म कोड की मांग कर रहे हैं, जिससे आरएसएस
की रूह कांप रही है। उसे हिंदुओं की कम होती संख्या की चिंता सता रही है। 1991 की जनगणना में हिंदुओं की संख्या 84% थी, जो 2011 में घटकर 69% हो गई। 2001 से 2011 की जनगणना में आदिवासियों ने धर्म के कॉलम में हिंदू की
जगह अन्य लिखा था।
किसी भी ऐसे मानव समुदाय
को,
जिसमें आदिम लक्षण, विशिष्ट संस्कृति, भौगोलिक अलगाव, बड़े पैमाने पर समुदाय के साथ संपर्क में संकोच, पिछड़ापन जैसी विशेषताएं पाई जाती हैं, जनजाति कहा जाता है। जनजातियाँ में उनकी मूल प्रजाति (Race) के लक्षण अधिक स्पष्ट होते हैं अर्थात उनका प्रजातीय मिश्रण
अधिक नहीं हुआ होता है। सामान्यतः जनजातियाँ किसी भी क्षेत्र के मूलनिवासी समुदाय
होते हैं,
इसीलिए भारत जैसे देशों में इन्हें ‘आदिवासी’ भी कहा जाता
है। आरएसएस-बीजेपी की कार्ययोजना इनकी आदिवासियत को नष्ट करना है। इनकी सुरक्षा और
विकास के लिए बनाये गये संवैधानिक स्वरूपों का खात्मा करना है। आरएसएस-बीजेपी
संविधान के दुश्मन है। 2004 से 2013 के दरमियान सोनिया गाँधीजी की अध्यक्षता में संप्रग सरकार
ने दलित-आदिवासियों की व्यापक हितों की रक्षा में अनेक महत्वपूर्ण कानून बनाये थे।
मनमोहन सरकार द्वारा एससी-एसटी अत्याचार अधिनियम, उच्च शिक्षण संस्थानों में 200 पॉइंट्स रोस्टर, विश्वविद्यालय / कॉलेजों को इकाई मानकर आरक्षण का लाभ देने, प्रमोशन में आरक्षण जैसे कल्याणकारी व संवेदनशील मामलों को
मोदी सरकार ने आरएसएस के इशारे और बदनियत से पहले न्यायालयों में भिजवाया और फिर
भाजपा शासित राज्यों और केंद्रीय स्तर पर कमजोर पैरवी करवायी, झूठे तथ्य न्यायालयों में रखवाये और अब एक-एक कर ख़त्म करवा
रहे हैं।
इससे दलितों-आदिवासियों
और सवर्णों के बीच टकराव पैदा किया। ये घटनाएं दरअसल भाजपा नेतृत्व वाले राजग
गठबंधन के साढ़े छ: साल के शासन काल के दौरान दलितों के बढ़ते आंदोलन का ही हिस्सा
हैं। आरएसएस की राष्ट्र निर्माण की जो परियोजना है। उसके खिलाफ अब दलित-आदिवासी
वर्ग का गुस्सा साफ दिखाई दे रहा है क्योंकि यह राष्ट्र निर्माण परियोजना कभी
इतिहास के पुनर्लेखन में, कभी कुछ
ऐतिहासिक घटनाओं को अपने खास चश्मे से देखने में, कभी अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण में तो कभी गौ रक्षा, गौमांस पर प्रतिबंध और 'लव जेहाद' जैसे मुद्दों
में प्रदर्शित होती रहती है। ये मुद्दे सांस्कृतिक विविधता को ध्वस्त कर हिंदू
बहुसंख्यकवाद को बढ़ावा देने वाले होते हैं। ऐसे में जातियों में जकड़े हिंदू समाज
की पुरानी बीमारियां सामने आ रही हैं। ये पुराने रोग अब फिर तेजी से उभर रहे हैं, खास कर जब देश की अर्थव्यवस्था भी धीमी हो रही है और रोजगार
के मौके सिमट रहे हैं। भारत के सभी राज्यों में अधिसूचित की गयी अनुसूचित
जनजातियों की कुल संख्या 705 है। भारत में
कोई भी आदिवासी जाति नहीं है बल्कि आदिम-समुदाय और काबिले हैं।
अब आदिवासी अपनी संस्कृति
के प्रति जागरुक बन रहे हैं और आदिवासियों का बड़ा तबका खुद को हिंदू नहीं मान रहे
हैं जो सो फीसदी सच भी है। ये हिंदुओं की संख्या कम हो जाने की एक वजह बन रहा है।
यह आदिवासियों खास तौर पर भील, गौंड, मुंडा, उरांव, संथाल, गरासिया, डामोर, सहरिया और
मीणाओं आदि के हिंदू की जगह अन्य धर्म लिखवाने के कारण हुआ। आरएसएस आदिवासियों का
धर्म हिंदू लिखवाने के लिए जो अभियान चला रहा है, वह गलत है। आदिवासी मूल रूप से प्रकृति पूजक होते हैं।
आरएसएस के लोग परोक्ष रूप से आदिवासी आरक्षण को समाप्त करने के लिए हिंदू लिखवाने
का षड्यंत्र कर रहे हैं। आरएसएस ने आदिवासियों के अस्तित्व को नकराते हुए नियोजित
रूप से अपने साहित्य में उन्हें 'वनवासी' संबोधित किया है। एनआरसी लागू कराने में नाकाम होते देख
आरएसएस इसे दूसरे रास्ते से लागू करने में जुट गया है, लेकिन आदिवासी पढ़-लिखकर समझदार हो गया और आरएसएस के अभियान
को कामयाब नहीं होने देगा। आदिवासी समाज अपनी अलग पहचान बनाएगा। गौरतलब है कि हाल
ही में बैतूल के कुछ आदिवासी संगठनों ने सीएए से विरोध में आवाज उठाई थी और कागज
नहीं दिखाने का ऐलान किया था।
दुर्भाग्य देखिए, आरएसएस को धर्म की चिंता तो सता रही है पर आरएसएस ने अपने
स्थापना वर्ष 1925 से आज तक आर्थिक तौर पर
आदिवासियों के उत्थान की बात कभी नहीं की। बल्कि, आदिवासियों को संविधान में प्रदत्त अधिकारों और
आरक्षण-व्यवस्था का खुलकर विरोध कर रहा है। आरएसएस के आठ पहर चौंसठ घड़ी चलने वाले
षड्यंत्रों ने आरक्षण जैसे अफर्मेटिव एक्शन को लगभग समाप्त कर दिया है। देश के
अधिकाँश आदिवासी माओवाद और आरएसएस दोनों तरफ से घिरे हुए हैं। आख़िरकार आदिवासी
जाएँ तो कहाँ जाएँ, एक तरफ कुआँ
है और दूसरी तरफ खाई। माओवादियों ने मासूम आदिवासियों के हाथ में हथियार थमा कर
उन्हें हिंसक बना दिया है, वहीं आरएसएस
ने उनकी आदि-संस्कृति छिनकर उन्हें पंगु-हिंदू बना दिया है। आरएसएस उनके मानसिक और
शारीरिक शोषण में अव्वल है जो आदिवासियों के लिए माओवादियों के थमाये हथियारों से
भी ज्यादा घातक हैं। हथियार तो एक ना एक दिन छुट जाएँगे पर आरएसएस के चंगुल से
भोले-भाले आदिवासी कैसे बाहर आएँगे? आदिवासी समाज का बंटवारा करने में कामयाब रहा है आरएसएस।
यहाँ यह याद दिलाना जरूरी है कि पूरे भारतीय समाज के लिए, खासकर वृहद गैर-आदिवासी समाज के लिए, आदिवासी दुनिया एक भिन्न दुनिया है। उस पर मुग्ध हुआ जा
सकता है,
उनके आनंदमय जीवन से रश्क किया जा सकता है, उनकी गरीबी और विपन्नता पर तरस भी खाया जा सकता है, लेकिन उस तरह जिया नहीं जा सकता, क्योंकि वह एकदम भिन्न समाज है।
आदिवासियों की जिंदगी का
अध्ययन करने वाले मूर्धन्य मानवशास्त्री वेरियर एल्विन 1951 में लिखित किताब ‘ए फिलोस्फी फॉर नेफा’ को आदिवासियों के
विकास का दर्शन कहा जा सकता है। एल्विन लिखते हैं कि हमें आदिवासियों के बारे में
आदिवासियों की सोच के मुताबिक सोचना होगा। आदिवासी लोग ‘नुमाइश की चीज’ या ‘नमूना’
नहीं हैं। वे सभी मूलभूत मामलों में ठीक हमारी ही तरह इंसान हैं। हम उनके हिस्सा
हैं और वे हमारी विरासत हैं। वे खास हालात में जीते हैं। उनका विकास कुछ खास तर्ज
पर हुआ है। उनकी अपनी जीवन दृष्टि है। काम करने का उनका अपना खास अंदाज है। लेकिन, बुनियादी इंसानी जरूरतें, ख्वाहिशें, मोहब्बत और
डर के भाव- उनके भी हमारे ही जैसे हैं। यानी जब हम आदिवासियों के बारे में सोचें, तो उन्हें अपने जैसा मान कर सोचें। मगर, अपने दिल पर हाथ रख कर क्या आज हम यह कह पाने की हालत में
हैं कि हम उन्हें अपना ही हिस्सा मान कर उनके बारे में सोचते रहे/ सोचते हैं? इस किताब की सबसे खास बात इसकी प्रस्तावना है, जिसे पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने लिखी है।
हालांकि,
गांधी या नेहरू का नाम सुनते ही कइयों की भृकुटियां चढ़
जाती हैं या वे नाक-भौं सिकोड़ने लगते हैं। मगर, क्या किया जाये, वे अपने विचारों के साथ ऐसे मंदबुद्धियों से टकराने आ ही
जाते हैं।
नेहरू आदिवासी इलाकों के
विकास को नकारते नहीं हैं, बल्कि वे
विकास को एक मानवीय रूप देने की बात करते हैं। नेहरू लिखते हैं कि आदिवासी इलाकों
में संचार, मेडिकल सुविधाओं, शिक्षा, बेहतर खेती
जैसे क्षेत्रों के विकास के बारे में काम किया जाना चाहिए। इसी सिलसिले में वे
कहते हैं कि इनके विकास का दायरा पहले पंचशील सिद्धांत के दायरे में ही होना
चाहिए। एक, लोगों को अपनी प्रतिभा और
खासियत के आधार पर विकास की राह पर आगे बढ़ना चाहिए। हमें उन पर कुछ भी थोपने से
बचना चाहिए। उनकी पारंपरिक कलाओं और संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए हर मुमकिन
कोशिश करनी चाहिए। दो, जमीन और
जंगलों पर आदिवासियों के हकों की इज्जत करनी चाहिए। तीन, प्रशासन और विकास का काम करने के लिए हमें उनके लोगों
(आदिवासियों) को ही ट्रेनिंग देने और उनकी एक टीम तैयार करने की कोशिश करनी चाहिए।
जाहिर है,
इस काम के लिए शुरुआत में बाहर के कुछ तकनीकी जानकारों की
जरूरत पड़ेगी। लेकिन, हमें आदिवासी
इलाकों में बहुत ज्यादा बाहरी लोगों को भेजने से बचना चाहिए। चार, हमें इन
इलाकों में बहुत ज्यादा शासन-प्रशासन करने से या उन पर ढेर सारी योजनाओं का बोझ
लादने से बचना चाहिए। हमें उनकी सामाजिक और सांस्कृतिक संस्थाओं से मुकाबला या
होड़ करके काम नहीं करना चाहिए। इसके बरअक्स उनके साथ तालमेल के साथ काम करना
चाहिए। पांच- आंकड़ों के जरिये या कितना पैसा खर्च हुआ है, हमें इस आधार पर विकास के नतीजे नहीं तय करने चाहिए। बल्कि
इंसान की खासियत का कितना विकास हुआ, नतीजे इससे तय होने चाहिए।
इसके अलावा आधुनिक उद्योग
जगत के लिए आदिवासी बहुल इलाको की खनिज संपदा महत्व रखती है। यहाँ के जल, जंगल, जमीन पर
काबिज होने के लिए वे बेकरार हैं। आदिवासियों से लड़ कर इसे हासिल नहीं किया जा
सकता। अंग्रेज यह कोशिश कर हार चुके थे। बाद में उन्होंने मध्यम मार्ग अपनाया।
विलकिंसन रूल, विशेष भूमि कानून, रिजर्व फारेस्ट के भीतर भी उनके लिए गुंजाइश। अंग्रेजों
द्वारा बनाये गये उन कानूनों को आजाद भारत के संविधान में भी न सिर्फ शामिल किया
गया,
बल्कि पेसा कानून बना कर ग्रामसभाओं को और मजबूत किया गया।
लेकिन मोदी सरकार को अब ये बंदिशें नागवार गुजर रही हैं। पर्यावरण संबंधी कानूनों
को कमजोर किया गया। भूमि अधिग्रहण कानून में तब्दिली लाई गयी। विकास का सब्जबाग
दिखाया गया। बावजूद इसके उन्हें हर जगह भारी प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा है।
गोड्डा,
खूंटी, ईचा, नेतरहाट, मंडल बांध, कलिंगनगर, पोस्को, नियमगिरि, यानी हर जगह
आदिवासी समाज उनके दमन का सामना करते हुए उनके मुकाबले खड़ा है और उंके स्वाभाविक
राजनितिक सांझेदार काँग्रेस की तरफ झाँक रहा है क्योंकि कांग्रेस की नीतियों ने
अन्य राजनितिक दलों के बनिस्पत अपेक्षाकृत आदिवासियों को कम नुकसान पहुँचाया है।
पर आरएसएस उनसे लड़ने के
बजाय उन्हें बरगलाना ज्यादा आसान मान चुका है। ‘सरना-सनातन एक है का नारा देकर’, उपभोक्तावाद की घुट्टी पिला कर और आदिवासी दलालों को सत्ता
में थोड़ी सी हिस्सेदारी देकर। और यही भाजपा सरकार कर रही है। और इस काम में परोक्ष
रूप से आरएसएस इसमे कामयाब हो रहा है, जो आदिवासियों में हीनता की नये किस्म की ग्रंथि पैदा कर
रही हैं। यह कहके कि तुम्हारा धर्म दोयम दर्जे का। तुम्हारा रहन-सहन हीन। तुम
हड़िया पी कर टुन्न रहने वाले। तुम अपना जीवन सुधारना ही नहीं चाहते। तुम निकम्मे
और निठल्ले हो। आदिवासियत अच्छी, लेकिन
आदिवासी जीवन शैली खराब। आश्चर्य नहीं कि आदिवासी समाज में हिंदूकरण की प्रक्रिया
उन इलाकों में ज्यादा सफल रही हैं, जहां ईसाई मिशनरियां प्रभावी हैं। यह आरएसएस की साजिश तो है
ही,
ईसाई मिशनरियों के खिलाफ एक प्रतिक्रिया भी है। कितने नंगे
रूप में यह भेदभाव दृष्टिगत होता है। शिक्षा केंद्रों में गैर ईसाई आदिवासी
छात्रों से भेदभाव किया जाता है।
यह एक तथ्य है कि रिजर्व
सीटों से भी बड़ी संख्या में भाजपा के भगवा रंग में रंगे आदिवासी विधायक बने हुए
हैं और वे बीजेपी की कार्पोरेट परस्त नीतियों के समर्थक हैं। कांग्रेस और आदिवासी
समाज का प्रबुद्ध तबका; जल, जंगल, जमीन को
बचाने के संघर्ष के साथ आदिवासी समाज को सांस्कृतिक रूप से खोखला बनाने वाले इस
संकट के खिलाफ पूरी संवेदनशीलता के साथ खड़ा नहीं होगा तो यह प्रक्रिया और तेज
होगी। मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री कमलनाथ के आदिवासियों के साथ खड़े होने से उन्हें
संबल मिला है क्योंकि आदिवासी हिंदू नहीं हैं, वह लोग प्राकृतिक पूजा करते हैं। इसे लेकर संघ और कांग्रेस
में टकराव चरम पर है और यदि कांग्रेस इस मुद्दे पर आदिवासियों के साथ खड़ी रही तो
देश भर में आदिवासी खुलकर कॉग्रेस के साथ होंगे और आरएसएस-बीजेपी हाथ मलते रह
जाएँगे क्योंकि आदिवासी कांग्रेस का विशुद्ध वोट-बैंक है।
सुस्पष्ट
तथ्य है कि आदिवासी मूर्तिपूजक नहीं हैं, उन्हें अपनी अलग पहचान चाहिए, इसलिए जनगणना प्रपत्र में आदिवासी कॉलम को जोड़ा जाए। वर्ष 1951 तक यह कॉलम था, लेकिन बाद में हटा दिया गया। आदिवासी इसके लिए अदालत में भी
लड़ाई रहे हैं। क्योंकि आदिवासी अस्मिता की धुरी है स्व-संस्कृति प्रेम, आत्मनिर्णय और आत्म-सम्मान में विश्वास। आदिवासी-चार
अक्षरों का एक छोटा सा नाम, लेकिन
सामाजिक व्यवहार के रूप में अनेक समुदाय, जातियां और किस्मों में बंटा संसार और इस संसार की अपनी
समस्याएं,
अपना राजवेश, अपने रीति-रिवाज। सामान्यतः शांत और सरल, लेकिन विद्रोह का नगाड़ा बजते ही पूरा समूह सम्पूर्ण
प्रगतिशील शहरियों के लिए एक ऐसी चुनौती, जिसे सह पाना लगभग असंभव। एक चिंगारी जो कभी भी आग बनकर
सबको लपेटने की क्षमता रखती है। आदिवासियों के उपयुक्त संबंधों, रंगबिरंगी पोशाकों, संगीत, नृत्य और
संस्कृति के बारे में हमारी अपनी कल्पनाएं हैं। हम उन्हें पिछड़ा, असभ्य, गंदा, गैर-आधुनिक और न जाने क्या-क्या कहते हैं।
अंग्रेजी राज
ने भारतीय आदिवासियों को दूसरे दर्जें का नागरिक समझा, पर आरएसएस तो अंग्रेजों से भी बहुत आगे निकल गया मानो वह तो
आदिवासियों के मुँह से निवाला भी छीन लेना चाहता है। किंतु, आरएसएस की इन करतूतों ने उनके जीवन, संस्कृति और सामाजिक संसार को बाकी दुनिया से अलग-थलग रख कर
उसे अध्ययन और कौतूहल का विषय बना दिया हैं। लेकिन भारतीय समाज में अंग्रेजों को
पहली चुनौती सन् 1824-30 भीलों
ने दी और बाद में 1846-46 में
संथालों ने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए। आजादी के 72 साल बाद भी भारत के आदिवासी उपेक्षित, शोषित और पीड़ित नजर आते हैं। आदिवासियों की सामाजिक स्थिति
इतनी बदतर है कि आदिवासी अपने घरों में छोटी-मोटी मनाना चाहे तो शिवराजसिंह की
पुलिस सरेआम उन्हें ना केवल पीटती है बल्कि उनकी बहन-बेटियों को अनाधिकृत रूप से
थानों में लेजाकर उनके साथ बलात्कार तक करती है, वे बेचारे लोकतंत्र की दुनिया में छुट-मुट खुशी भी नहीं मना
सकते।
बीजेपी जैसी
राजनीतिक पार्टियाँ और आरएसएस के तंगदिल संघी आदिवासियों के उत्थान की बात तो करते
हैं,
लेकिन उस पर अमल नहीं करते। यह 2014 के आम चुनाव में साफ दिख रहा है। किसी भी राजनीतिक दल ने न
तो अपने घोषणा-पत्र में आदिवासियों से जुड़े मुद्दे उठाए और न ही चुनाव अभियान में
उनके हित की बात उठा रहे हैं। आदिवासी किसी राज्य या क्षेत्र विशेष में नहीं हैं, बल्कि पूरे देश में फैले हैं। ये कहीं नक्सलवाद से जूझ रहे
हैं तो कहीं अलगाववाद की आग में जल रहे हैं। जल, जंगल और जमीन को लेकर इनका शोषण निरंतर चला आ रहा है। ऐसे
में राष्ट्रीय मुद्दे- अच्छे दिन, आतंकवाद, स्विस बैंक से काला धन वापस लाने, महँगाई, स्थिर और
मजबूत सरकार के नाम पर जनता से वोट बटोरने तथा सबके खातों में 15 करोड़ जमा होने जी जुमलों की नीति को महज राजनीतिक स्टंट ही
कहा जाएगा। देश के लगभग 18 करोड़ से
अधिक आदिवासियों की अनदेखी कर तात्कालिक राजनीतिक लाभ देने वाली बातों को हवा देना
एक परंपरा बन गई है। यह तो नींव के बिना महल बनाने वाली बात हो गई।
मुखौटों और
कथनी-करनी में फर्क रखने वाली राजनीतिक पार्टियाँ अगर सचमुच में देश का विकास
चाहती हैं और 'आखिरी व्यक्ति' तक लाभ पहुँचाने की मंशा रखती हैं तो आदिवासी हित और उनकी
समस्याओं को हल करने की बात पहले करना होगी। भारत में मिजोरम, नगालैंड व मेघालय जैसे छोटे राज्यों में 80 से 93 प्रतिशत तक
आबादी आदिवासियों की है। बड़े राज्यों में मध्यप्रदेश, उड़ीसा, महाराष्ट्र, बिहार, गुजरात, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में 8 से 23 प्रतिशत तक
आबादी आदिवासियों की है। केन्द्रीय बजट के विशलेषण के आधार पर कहा जा सकता है कि 2014-2019
मोदी सरकार की कालावधि के दौरान आदिवासियों और दलितों के
विकास में खर्च की जानेवाली राशि में कटौती की गयी है। 2014-15 में एससी-एसटी के हितों पर पहला कुठाराघात तब हुआ जब
आरएसएस-बीजेपी ने षड्यंत्र रचते हुए 13 केंद्रीय विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की नियुक्तियों को
एमएचआरडी द्वारा संयुक्त विज्ञापन को विश्वविद्यालय स्तर पर जारी करवाकर ताकि
एससी-एससी के लोगों को आरक्षण ना देना पड़े जबकि 2009 में मनमोहन सरकार ने इन्हीं पदों को आरक्षण के प्रावधानों
से भरा था और एससी-एसटी के लोगों को कुलपतियों में नियुक्ति दी थी।
साथ ही, 2014 में से ही यूजीसी और इग्नू में एससी और एसटी समुदाय के
छात्रों के लिए हायर एजुकेशन फंड्स में क्रमश: 23 प्रतिशत और 50 प्रतिशत की कमी की गयी है। एससी स्टूडेंट्स को मैट्रिक के
बाद मिलनेवाली छात्रवृत्ति के लिए इस साल बजट में 2926 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है, जबकि उससे पिछले साल में यह रकम 3 हजार करोड़ रुपये थी। एसटी स्टूडेंट्स के लिए मैट्रिक के
बाद मिलनेवाली छात्रवृति के मद में 2018-19 में 1,643 करोड़
रुपये के फंड का प्रावधान था, जो इस साल
मात्र 1,613
करोड़ रुपये है। पीएच-डी और इसके बाद के कोर्सेज के लिए
फेलोशिप और स्कॉलरशिप में 2014-15 से
लगातार गिरावट आयी है। इसके मुताबिक, एससी के लिए यह रकम 602 करोड़ रुपये से घट कर 283 करोड़ रुपये हो गयी, जबकि एसटी स्टूडेंट्स के लिए यह 439 करोड़ रुपये से कम होकर 135 करोड़ रुपये हो गयी। एससी-एसटी विकास में इस्तेमाल होनेवाले
फंड्स में गिरावट का ट्रेंड
ग्रामीण विकास और एमएसएमई मंत्रालय के अधीन एससी / एसटी के लिए 13 योजनाएँ जिनमें 2017-18 में कुल 543 करोड़
का व्यय किया गया था, उन्हें
मनमाने ढंग से बंद कर दिया गया है और इनका आवंटन शून्य हो गया है।। ध्यातव्य रहे
कि मोदी सरकार ने 2014 के बजट से ही
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के लिए पढ़ाई-लिखाई के मामले में समानता लाने
वाली अन्य स्कीमों की भी उपेक्षा की गयी है। जबकि पूर्ववर्ती मनमोहन सरकार द्वारा
इन वर्गों को 11000 करोड़ रूपए की अतिरिक्त
धनराशि जो मैट्रिक बाद दी जाने वाली छात्रवृति राशि बकाया थी, को मोदी सरकार ने 2014 में सत्तासीन होते ही ख़त्म कर दिया था।
इतना ही नहीं, 2018
-19 के कुल बजटीय व्यय में से केन्द्रीय
क्षेत्र के स्कीमों और केंद्र द्वारा प्रायोजित स्कीमों के व्यय लिए 1014450.79
करोड़ रूपए निर्धारित है। इसमें से अनुसूचित जाति के विशेष
घटक योजना (स्पेशल कॉम्पोनेन्ट प्लान) के लिए खर्च / कल्याण के लिए आवंटन 16.6 % से कम नहीं होने के हिसाब से किसी हालात में 168398.83
करोड़ रूपए से कम नहीं होना चाहिए। लेकिन सिर्फ 56618.50 करोड़ रूपए (16.6 % के बजाय 5.58 %) ही दिए गए हैं। अनुसूचित जनजाति के जनजातीय उप – योजना
(ट्राइबल सब – प्लान) के लिए खर्च / कल्याण के लिए आवंटन 8.6 % से कम नहीं होने के हिसाब से किसी हालात में 87247.77 करोड़ रूपए से कम नहीं होना चाहिए। लेकिन सिर्फ 39134.73 करोड़ रूपए (8.6 % के बजाय 3.86 %) ही दिए गए हैं। क्रमशः 16.6% और 8.6% की आवश्यकता
के बरक्स अनुसूचित जाति के विशेष घटक योजना (स्पेशल कॉम्पोनेन्ट प्लान) के लिए
खर्च / कल्याण के लिए आवंटन में 111780.33 करोड़ रूपए की कमी और अनुसूचित जनजाति के जनजातीय उप – योजना
(ट्राइबल सब – प्लान) के लिए खर्च / कल्याण के लिए आवंटन में 48108.04 करोड़ रूपए की कमी की गयी है। यहाँ तक कि विशेष घटक योजना
(स्पेशल कॉम्पोनेन्ट प्लान) / जनजातीय उप – योजना (ट्राइबल सब – प्लान) से संबद्ध
ये प्रावधान इन योजनाओं में उन स्कीमों / कार्यक्रमों के खर्चों को शामिल करने की
सही प्रक्रिया का पालन नहीं करते जो अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के
व्यक्तियों, परिवारों, घरों, बसावटों और
संस्थानों आदि को विशेष रूप से लाभान्वित करते हैं और उन्हें समानता के स्तर को
हासिल करने और बुनियादी दुर्दशा से निकालने में मददगार होते हैं।
इसके उलट, ये बरबस अतीत में किये गए अंकगणितीय – सांख्यकीय ( आंकड़ों
) उलटफेर के नतीजे भर हैं। मोदी सरकार की दलित-आदिवासी विरोधी-नीतियों की वजह से
बड़ी तादाद में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के छात्रों को फीस जमा न करा पाने
पर शिक्षा संस्थानों से बाहर होने को मजबूर होना पड़ रहा है। ऊपर जिन मकसदों के
बारे में बातें की गई है और स्कीमों को सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक विशेष घटक
योजना (स्पेशल कॉम्पोनेन्ट प्लान) और जनजातीय उप – योजना (ट्राइबल सब – प्लान) में
पर्याप्त आवंटन के प्रावधानों, जोकि
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की आबादी – अनुपात से कम नहीं होना चाहिए, में सकल घाटा जारी है। जनजातीय लोगो की जमीन को खोने से
बचाने और पहले से खोयी हुई जमीन को वापस लाने के उपाय इस बजट में भी नदारद हैं।
केंद्रीय बजट 2019-20 में फिर से
मोदी सरकार ने प्रमुख कल्याणकारी योजनाओं को नज़रअंदाज़ किया है। बजट के आंकड़ों
के विश्लेषण से पता चलता है कि सरकार मनरेगा, आईसीडीएस, मिड-डे-मील, राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम और अनुसूचित जाति तथा
अनुसूचित जनजाति के लिए ऐसी कल्याणकारी योजनाओं के प्रति उदासीन बनी हुई है। यही
स्थिति पिछली मोदी सरकार में भी थी। इस तरह की योजनाओं की क्षमता बढ़ाने की भारी
मांग के बावजूद सरकार की ऐसी उदासीनता से ग़रीब वर्गों की उम्मीदों को झटका लगा
है।
वस्तुत:
नरेन्द्र मोदी के 2014 में सत्ता पर
काबिज होने साथ ही एससी-एसटी के बुरे दिनों की शुरुआत हो चुकी थी। पिछले कुछ
वर्षों में एससी-एसटी की जीवन-रेखा बनी ग्रामीण क्षेत्रों के लिए महात्मा गांधी
ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम, मनरेगा 2005 के अनुसार मनरेगा के तहत काम की मांग बढ़ी है। उदाहरण के लिए आधिकारिक
आंकड़ों के अनुसार 2018-19 के
दौरान ग्रामीण भारत के लगभग 9.11 करोड़
लोगों ने मनरेगा के तहत काम के लिए आवेदन किया था, जिनमें एससी-एसटी प्रमुख रूप से शामिल है, जिसमें सरकार लगभग 7.77 करोड़ के लिए अस्थायी काम दे सकी जिसका मतलब है कि लगभग 1.34 करोड़ (यानी 15%) लोगों को इस योजना के तहत रोज़गार नहीं मिल सका। इन सबके
बावजूद योजना को लागू करने वाले अधिकारियों
का तर्क है कि वे फ़ंड की कमी के कारण मांग को पूरा नहीं कर सके। और फिर भी वर्तमान
बजट यह नहीं दर्शाता है कि सरकार ने इस पर कोई ध्यान दिया है, जो मोदी-सरकार की एससी-एसटी के प्रति उदासीनता की पराकाष्ठा
है। सबसे बड़ी चिंता की बात ये है कि मनरेगा के लिए 2018-19 (संशोधित अनुमान) के दौरान 61,084 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे जबकि 2019-20 (बजट अनुमान) में यह राशि कम होकर 60,000 करोड़ रुपये हो गई है। कुल सरकारी ख़र्च में हिस्सेदारी के रूप में मनरेगा में
आवंटन 2014-15
में 1.98% से
बढ़कर 2016-17
में 2.44% हो
गया था लेकिन 2018-19 में कम हो कर
2.49%हो गया।
चौंकाने वाली बात यह है कि इस वित्त वर्ष यानी 2018-19 में घटकर 2.15% रह गया है। ऐसे ही, अन्य योजनाओं जैसे एकीकृत बाल विकास योजना (आसीडीएस), मिड-डे-मील, राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम और अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजातियों के लिए कल्याणकारी योजनाओं के प्रति सरकार की उदासीनता को भी दर्शाता है। अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि वर्ष 2001 में शुरू की गई मिड-डे-मील योजना का उद्देश्य देश भर के सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के लिए पौष्टिक भोजन प्रदान करना है। लेकिन मोदी सरकार में इस योजना प्राथमिकता नहीं मिली है। कुल ख़र्च में एमडीएम की हिस्सेदारी वित्त वर्ष 2014-15 में 0.63% से घटकर वित्त वर्ष 2019-20 में 0.39% (आवंटित 11,000 करोड़ रुपये) हो गई है। दूसरी तरफ़ करोड़ों वंचित बच्चे कोई लाभ नहीं उठा सके। एससी, एसटी और अन्य सामाजिक समूहों के लिए प्रमुख योजनाएं और राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम(एनएसएपी) के तहत पेंशन के लिए मनरेगा जैसी प्रमुख योजना में घटाया गया आवंटन चिंता की बात है। इन वर्गों के लोगों के प्रति सरकार की लापरवाही अभी भी बरक़रार है। ऐसे में इनकी स्थिति और भी बदतर हो सकती है। अनुसूचित जनजाति के विकास के लिए इस प्रमुख कार्यक्रम में शिक्षा छात्रवृत्ति, विशेष रूप से कमज़ोर आदिवासी समूहों के विकास, वनबंधु कल्याण योजना,आदिवासी अनुसंधान संस्थानों को सहायता, आदिवासी उप-योजनाओं के लिए विशेष केंद्रीय सहायता और संविधान के अनुच्छेद 275(1) के तहत अनुदान शामिल है। कुल व्यय के मुक़ाबले इस श्रेणी का हिस्सा मोदी सरकार में 0.23% से 0.25% के बीच ही रहा है।